मां तु वेद न कश्चन ।।
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यह काल्पनिक है या कि सत्य, मैं नहीं कह सकता, लेकिन जब मैं आँखें बन्द किए हुए कुर्सी पर बैठा हुआ था तब, जिसे ध्यान कह सकते हैं, वैसी किसी स्वप्न जैसी मनोदशा में यह मुझे प्राप्त हुआ था। और यह भी सच है कि तब मेरे मन में ध्यान करने का कोई संकल्प, प्रयास करने जैसा भी कुछ नहीं था।
मैं किसी अन्धकारपूर्ण सुरंग में ऊपर ही ऊपर उठता चला जा रहा था और जैसे जैसे आगे बढ़ रहा था, मुझे ऊपर से आ रहा प्रकाश और भी अधिक तीव्र अनुभव होता जा रहा था। जब मैं उस प्रकाश के स्रोत तक, या उसके समीप तक पहुँचा तो इतना ही जानता था, कि उस तेज को सह न पाने से मेरी आँखें अपने आप ही मुँदने लगी थीं। किन्तु चूँकि चाहते हुए भी मैं नीचे उतर कर लौट नहीं सकता था इसलिए आँखें बन्द किए हुए ही ऊपर उठता रहा। यद्यपि तब मुझे अपने शरीर का, और संसार का भी भान नहीं रहा किन्तु, -- जैसा कि संसार के, और अपने आप के भान के समय हर मनुष्य में होता ही है, अपने अस्तित्व पर कोई सन्देह भी नहीं था --अर्थात् यह अन्तःस्फूर्त निश्चय, कि "मैं हूँ", यह अन्तःस्फूर्त बोध, कि मेरा अस्तित्व है । क्योंकि तर्क की दृष्टि से भी यदि इस बोध पर सन्देह किया जाए तो भी ऐसे सन्देह करने वाले संशयकर्ता के अस्तित्व से इनकार करना असंभव है ही।
जब मैं ऊपर उठता रहा तो एक समय लगा कि अब मैं रुक गया हूँ। इससे पहले कि मेरे मन में कोई विचार आता, मुझे एक आवाज़ सुनाई दी :
"तुम बिलकुल सही जगह पर आ चुके हो। मैं तुम्हें दिखलाई नहीं दे सकता क्योंकि मैं दृश्य नहीं, दृष्टामात्र हूँ और समस्त दृश्यमात्र मेरा ही प्रकाश है। फिर भी तुम मुझे जान सकते हो। मुझे जानने के लिए तुम्हें पातञ्जल योग-सूत्र के समाधिपाद के सूत्र १९ को स्मरण करना होगा। इसका अर्थ तो तुम्हें पता ही है!
यह सूत्र मुझे तत्काल ही याद आ गया :
भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् ।।१९।।
किन्तु इसे साधनपाद के १६, १७, १८, १९ और २० वें सूत्र के सन्दर्भ में समझो । तुम्हें स्मरण होगा फिर भी मैं इनका उल्लेख कर देता हूँ :
हेयं दुःखमनागतम् ।।१६।।
दृष्टृदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः ।।१७।।
प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम् ।। ।।१८।।
विशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि ।।१९।।
दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः ।।२०।।
(यहाँ मुझे याद आया कि 'दृशि' का प्रयोग भ्वादिगणीय अनिट् धातु के अर्थ में है या 'दृङ्' धातु के अर्थ में संज्ञा की तरह दृक् के अर्थ में है।)
पुनः समाधिपाद के इन प्रारम्भिक १६ सूत्रों को स्मरण करो :
अथ योगानुशासनम् ।।१।।
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।।२।।
तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ।।३।।
वृत्तिसारूप्यमितरत्र ।।४।।
वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः ।। ५।।
प्रमाण-विपर्यय-विकल्प-निद्रा-स्मृतयः ।।६।।
प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ।।७।।
विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् ।।८।।
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ।।९।।
अभावप्रत्यालम्बनावृत्तिर्निद्रा ।।१०।।
इसे सुनते सुनते मैं (तन्द्रा से) निद्रा में प्रविष्ट हो गया, और चूँकि निद्रा, --जिसे कि वृत्ति ही कहा गया है, जो स्वयं ही आती और जाती है, इसलिए कुछ समय पश्चात् उसी स्थिति में डूबा रहा। किसी आहट से निद्रा भंग हुई किन्तु मैं उसी शान्त मनःस्थिति में कुर्सी पर बैठा रहा और उस अवस्था को स्मरण करने लगा कि क्या वह स्वप्न था या मेरे ही अन्तर्मन में घटित प्रसंगमात्र था! तभी पुनः मुझे वह आवाज सुनाई दी और शरीर तथा संसार का भान भी पुनः विलुप्त हो गया।
अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः ।।११।।
इस प्रकार उस आवाज से मेरा ध्यान इस अगले सूत्र पर आया।
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ।।१२।।
(अभ्यास और वैराग्य, क्रमशः उन दो प्रकार के साधकों के द्वारा प्रयुक्त किए जानेवाले साधन हैं, जिनकी स्वाभाविक क्रमशः कर्मयोग तथा साँख्यज्ञान के प्रति विशेष निष्ठा होती है। गीता के अध्याय ३ के निम्न श्लोक में इसका ही उल्लेख किया गया है। :
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।।३।।
'पुरा' अर्थात् इससे पहले कहे गए, गीता के अध्याय २ में, जहाँ साङ्ख्य के साधन का उल्लेख है। कहना अनुचित न होगा कि गीता की शिक्षा अध्याय २ में ही पूरी हो जाती है किन्तु कर्म के साधन का प्रयोग करनेवाले मुमुक्षुओं के लिए भगवान् श्रीकृष्ण ने अध्याय ३ से अध्याय १८ तक विस्तार से कर्मयोग के साधन को कहा है।)
तत्रस्थितौ यत्नोऽऽभ्यासः ।।१३।।
स तु दीर्घकाल-नैरन्तर्य-सत्कारासेवितो दृढभूमिः ।।१४।।
दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ।।१५।।
तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् ।।१६।।
सुनते सुनते विभोर हो गया था ।
पता नहीं कितने समय उस मुग्ध दशा में निमग्न रहा, क्योंकि वह दशा समय से रहित, काल-निरपेक्ष है। इसलिए समय की प्रतीति तक मिट गई थी। समय प्रतीति ही है और प्रतीति ही समय है। समय इस प्रकार वृत्ति है और चित्तवृत्ति के निरोध में समय का भी विलय हो जाता है।
याद आया शिव-अथर्वशीर्ष :
अक्षरात्संजायते कालो कालाद्व्यापकः उच्यते...
आज का विज्ञान आगम और प्रमाण के मध्य पेन्डुलम सा झूल रहा है!
फिर मैंने सुना :
"यही ज्ञान पूर्व में मैंने आदित्य को दिया था, और जिस प्रकार से महर्षि भगवान् व्यास ने इसे भगवान् श्रीगणेश से कहा था, और उन्होंने इसे जैसा लिपिबद्ध किया था, वैसे ही इस कलियुग में इस ज्ञान का उपदेश महर्षि जाबाल को प्रदान किया था ।
जाबाल-ऋषि (जिबरील / गैब्रिएल) के माध्यम से क्रमशः यह्वः (यहोवा) के मार्ग से यवनों (यहूदियों) को, कापालिकों और कठोलिकों को भी वही उपदेश दिया गया किन्तु कलि के प्रभाव से यह विकार को प्राप्त होकर अत्यन्त परिवर्तित रूप से आज के समय में व्यक्त हुआ है । इसलिए इस समय में धर्म की ग्लानि और अधर्म का उत्थान हो रहा है :
जन्मकर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।।९।।
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अध्याय ४
श्री भगवान् उवाच --
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।१।।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।२।।
स मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।३।।
अर्जुन उवाच --
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ।।४।।
श्री भगवान् उवाच --
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।।५।।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ।।६।।
(भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम्)
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।७।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।८।।
जन्मकर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।।९।।
अध्याय ७
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ।।१९।।
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता: ।
तं तं नियमास्थाय प्रकृत्याः नियताः स्वया ।।२०।।
(यह्व-धर्म, इल-धर्म, कापालिक और कठोलिक-धर्म)
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ।।२१।।
(faith and religions of faith)
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्या राधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हितान् ।।२२।।
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान्वदेयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ।।२३।।
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।।२४।।
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमाया समावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको ममाजमव्ययम् ।।२५
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ।।२६।।
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