Thursday, 9 September 2021

यस्ते सर्पो वृश्चिकस्तृष्टदंश्मा

अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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यस्ते सर्पो वृश्चिकस्तृष्टदंश्मा हेमन्तजब्धो भृमलो गुहाशये ।क्रिमिर्जिन्वत् पृथिवि यद्येजति प्रावृषिः तन्नः सर्पन्मोप सृपद् यच्छिवं तेन नो मृड ।।४६।।

(हे पृथ्वी! तुममें रहनेवाले, रेंगनेवाले, काटनेवाले, बिलों आदि में रहनेवाले जीव, वे घातक प्राणी, जैसे साँप, बिच्छू आदि, जिनके काटे जाने पर शरीर में क्लेशप्रद दाने उभर आते हैं, वहाँ अत्यंत दाह होने लगता है, और बहुत प्यास होने लगती है, जो वर्षा ऋतु में अपने बिलों आदि से बाहर निकल आते हैं और जो भूमि पर स्वच्छन्दता से विचरने लगते हैं, कभी हमें स्पर्श न करें। इनसे अन्य जीव, जिनसे हमें सुख होता है, हमारे समीप रहें।)

ये ते पन्थानो बहवो जनायना रथस्य वर्त्मानसश्च यातवे। 

यैः संचरन्त्युभये भद्रपापास्तं पन्थानं जयेमानमित्रमतस्करं यच्छिवं तेन नो मृड ।।४७।।

(तुम पर स्थित अनेक मार्ग, जिन पर अनेक रथ, वाहन, मनुष्य आदि आते और जाते हैं, जिन पर दूसरों पर उपकार करनेवाले सज्जन तथा स्वार्थवश दूसरों को हानि पहुँचाने वाले दुर्जन भी आते जाते हैं, उन मार्गों पर चोरों और दुष्ट शत्रुओं के भय से तुम  हमारी रक्षा करना।)

मल्वं बिभ्रती गुरुभृद् भद्रपापस्य निधनं तितिक्षुः। 

वराहेण पृथिवी संविदाना सूकराय वि जिहीते मृगाय।।४८।।

(गुरुत्व के आकर्षण की शक्ति से संपन्न, पुण्यात्माओं को और  पापात्माओं को भी सहन करनेवाली भूमि । हमें उत्तम, स्वच्छ  जल प्रदान करनेवाली, मेघों से और सूर्य की किरणों से निरंतर अपनी मलिनता को दूर कर, स्वच्छ होती हुई, सूर्य के चारों ओर परिभ्रमण करती हुई, हे भूमे!)

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