अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम्
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उदीराणा उतासीनास्तिष्ठन्तः प्रक्रामन्तः ।
पद्भ्यां दक्षिणसव्याभ्यां मा व्यथिष्महि भूम्याम् ।।२८।।
(आवश्यकता और प्रेरणा के अनुसार भूमि पर इधर उधर भ्रमण करते हुए, बैठे हुए या खड़े हुए होने पर, और अपने पैरों से चलते हुए भी हमारे बाएँ और दाएँ दोनों ही पैर कभी कष्ट न अनुभव करें, और सुखपूर्वक अपना कार्य करते रहें।)
विमृग्वरीं पृथिवीमा वदामि क्षमा भूमिं ब्रह्मणा वावृधानाम्।
ऊर्जं पुष्टं बिभ्रतीमन्नभागं घृतं त्वाभि नि षीदेम भूमे ।।२९।।
(विशेष प्रकार से भ्रमणशील हे पृथिवि! हे ब्रह्म-प्रेरणा से ब्रह्म की ही तरह सतत वर्धमान! मैं तुमसे क्षमा याचना करता हूँ! हे भूमे! तुमसे प्राप्त हुए पुष्टिदायी तेजस्वी अन्न, घृत आदि हमें सदा ही प्राप्त हुआ करें!)
शुद्धा न आपस्तन्वे क्षरन्तु यो नः सेदुरप्रिये ।
तं नि दध्म । पवित्रेण पृथिवि मोत् पुनामि ।।३०।।
(हे भूमे! तुमसे निकलनेवाला, प्रवाहित होता हुआ शुद्ध स्वच्छ जल हमें पावन करे, और हमारे शरीर के स्नान करने से उतरा हुआ जल हमारे अनिष्ट की इच्छा करनेवालों का नाश करे।)
(सद् / सीद्, लिट्, अन्यपुरुष बहुवचन -- सेदुः,
अप्रिय, सप्तमी एकवचन -- अप्रिये)
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