अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम्
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यच्छयानः पर्यावर्ते दक्षिणं सव्यमभि भूमे पार्श्वम् ।
उत्तानास्त्वा प्रतीचिं यत् पृष्टीभिरधिशेमहे ।
मा हिंसीस्तत्र नो भूमे सर्वस्य प्रतिशीवरि ।।३४।।
(हे भूमे! तुम्हारी गोद में सोए होने पर जब हम दाएँ अथवा बाएँ करवट लें, या पश्चिम की दिशा में पैर पसार कर अपनी पीठ के सहारे से लेटे हुए शयन करें, तो हे भूमे! तुम हमें क्षमा करते हुए, हम पर कभी हिंसा न करना !)
यत् ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु ।
मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पिपम् ।।३५।।
(निरंतर द्रुतगति से विचरण करते रहनेवाली पृथ्वी माते! जब हम बीज बोने के लिए, या पृथ्वी में विद्यमान किसी कन्द या खनिज औषधि आदि को प्राप्त करने जैसे किसी कार्य के लिए भूमि का खनन करें, तो हमारे द्वारा बोए गए वनस्पति, बीज आदि शीघ्र ही अंकुरित होकर वृद्धि को प्राप्त करें, हम तुम्हारे शरीर के हृदय आदि कोमल अंगों को, तुम्हारे मर्मस्थलों को चोट न पहुँचाएँ।)
ग्रीष्मस्ते भूमे वर्षाणि शरद्धेमन्तः शिशिरो वसन्तः ।
ऋतवस्ते विहिता हायनीरहोरात्रे पृथिवि नो दुहाताम् ।।३६।।
(हे भूमि माते! तुम पर आती जाती हुई वर्षा, ग्रीष्म, शरद, हेमन्त, शिशिर और वसन्त आदि सभी ऋतुएँ और दिन-रात, हमारे लिए सदैव सुखप्रद हुआ करें!)
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