अथ पृथिवी सूक्तम् स्तोत्रम्
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अग्निर्भूम्यामोषधीष्वग्निमापो बिभ्रत्यग्निरश्मसु ।
अग्निरन्तः पुरुषेषु गोष्वश्वेष्वग्नयः ।।१९।।
(भूमि और ओषधियों में अग्नि प्रच्छन्न है, जल में अग्नि प्रच्छन्न है, अश्म अर्थात् पत्थरों में भी। पुरुष के भीतर जठराग्नि और प्राणाग्नि आदि की तरह, इसी तरह से अग्नि गौओं तथा अश्वों में भी विद्यमान है।)
अग्निर्दिव आ तपत्यग्नेर्देवस्योर्व१ अन्तरिक्षम् ।
अग्निं मर्तास इन्धते हव्यवाहं घृतप्रियम्।।२०।।
(दिव्यलोक, स्थूल आकाश में अग्निदेव सूर्य की तरह तपते हैं, अन्तरिक्ष में, देवलोक में द्युति और विद्युत् की तरह, इन्धन के रूप में यज्ञ की आहुतियों में दिए जानेवाले हव्य की तरह, और हव्य को देवताओं को प्रिय, उन तक ले जानेवाले घृत के रूप में भी अग्नि ही विद्यमान होते हैं।)
अग्निवासाः पृथिव्य सितज्ञूस्त्विषीमन्तं संशितं मा कृणोतु।।२१।।
(असित अर्थात् कज्जल में विद्यमान अग्नि हमें अन्धकार से मुक्त कर प्रकाश के तेज से युक्त करें।)
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