Monday, 23 August 2021

छन्दांसि : पृथ्वी सूक्तम्

परिचय

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १५ का प्रारंभ इस श्लोक से होता है:

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ।।१।।

अव्यय (अविनाशी) कहे जानेवाले अस्तित्व रूपी इस अश्वत्थ वृक्ष का मूल तो उर्ध्व दिशा में अवस्थित सर्वोच्च परमात्मा-तत्व है, जबकि इसकी असंख्य शाखाएँ अधःस्तर पर नीचे की दिशा में अवस्थित समस्त लोक हैं। वेद के छन्द (मंत्र) ही इसके पत्र आदि हैं, और इसे जाननेवाले को ही वेदवित् कहा जाता है।

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वेद के किसी अंश का अर्थ और प्रयोजन होता है, क्योंकि वेद के मंत्र देवताओं के आवाहन तथा स्तुति के प्रयोजन को पूर्ण करते हैं, तथा वेद के मंत्र वर्णमय, प्राणमय तथा चेतना से युक्त होते हैं, इसलिए योग्य ब्राह्मण (जिसका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ हो) के  द्वारा उनका उच्चारण किए जाने पर तथा यज्ञ के माध्यम से इष्ट देवता के लिए प्रज्वलित अग्नि में इन मंत्रों के साथ विशिष्ट द्रव्यों आदि की आहुतियाँ देने पर उस देवता विशेष से संपर्क किया जा सकता है। 

सभी द्रव्य-यज्ञों का अनुष्ठान मुख्यतः तो जगत के कल्याण के उद्देश्य से ही संकल्पपूर्वक किया जाता है, किन्तु तपोयज्ञ और ज्ञान-यज्ञ आदि विभिन्न यज्ञों का अनुष्ठान मनुष्य अपनी भौतिक, लौकिक आदि कामनाओं की पूर्ति के उद्देश्य से भी किया करता  है। इस स्थिति में इन्हीं मंत्रों को किसी देवता-विशेष की स्तुति के लिए भी प्रयुक्त किया जा सकता है।

वेद के ऐसे किसी अंश को ही सूक्त (सु-उक्तम्) कहा जाता है। अतः किसी ऐसे सूक्त का, जिसने सर्वप्रथम इसका आविष्कार किया होता है, ऐसा कोई ऋषि होता है। 

चूँकि वेद, वेदमंत्रों, तथा ऋषि नित्य सत्यता हैं, अतः ऋषि कोई विशेष मनुष्य नहीं, बल्कि वह आधिदैविक चेतना है, जो किसी भी पात्र मनुष्य में उचित स्थान और समय होने पर अपने आप को अभिव्यक्त करती है।

जब ऐसे किसी सूक्त का पाठ कोई विधिपूर्वक करता है, तो उसी देवता को, जिसे द्रव्य-यज्ञ के द्वारा संतुष्ट किया जाता है, और जो मनुष्य के शरीर के समस्त अंगों आदि में भी अवस्थित होता है, अंगन्यास, हृदयादिन्यास आदि से अपने ही भीतर जानकर इस प्रकार से उससे संपर्क और निवेदन किया जा सकता है। 

वैदिक ज्ञान के अनुसार परमात्मा ही अनेक देवताओं के रूप में उन उपाधियों के माध्यम से जगत की सृष्टि, परिपालन, संचालन, तथा संहरण करता है। इस दृष्टि से भी जगत का कण कण उसी परमेश्वर की अभिव्यक्ति है। 

सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि भी इसी प्रकार से चेतना और प्राण से युक्त देवता हैं। पृथ्वी भी इसलिए देवता ही है और उसकी स्तुति करने के लिए ही पृथ्वी-सूक्त का पाठ किया जाता है। 

इस सूक्त के ऋषि अथर्वा हैं, विभिन्न मंत्रों के छन्द अनुष्टुप् आदि विभिन्न छन्द (मंत्र) हैं, और चूँकि पृथ्वी सभी की जन्मभूमि या मातृभूमि है इसलिए जिसकी भी इस प्रकार की निष्ठा है वह इस पाठ का अनुष्ठान कर सकता है।

इसी सूक्तम् का स्तोत्रपाठ करने पर भरद्वाज इसके ऋषि, दिक् अर्थात् दिशाएँ ही इसकी शक्ति (शक्तिः), तथा कालदेवता ही इसके कीलक (कीलकम्) होते हैं, जिसका उल्लेख आगे के पोस्ट में किया जाएगा। 

जहाँ निष्ठा और भावना होती है वहाँ पाठ में होनेवाली संभावित त्रुटियाँ अनायास ही दूर हो जाती हैं। क्योंकि मंत्रों की रचना वर्णों के समूह से बने शब्दों से होती है, और इस प्रकार तकनीकी दृष्टि से वे वैसे ही कूट-संकेत में लिखे गए सूत्र होते हैं जैसे कि किसी कंप्यूटर-भाषा में लिखा गया कोई प्रोग्राम होता है। 

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भूमि-सूक्तम्

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यह सूक्त अथर्ववेद संहिता के द्वादश काण्ड का प्रथम सूक्त है। 

किसी सूक्त का पाठ करने से पहले इसका प्रयोजन और फल जान लेने पर इसका वाँछित और उपयुक्त प्रभाव भी होता है। 

यह सूक्त के पाठ से पृथ्वी देवता को संबोधित किया जाता है। 

इसको सर्वप्रथम ऋषि अथर्वा ने उद्घाटित किया था। 

इसके भिन्न भिन्न मंत्रों में जिस छन्द का प्रयोग किया गया है, वह इस प्रकार है :

६३ : अनुष्टुप् 

६२ : पराविराट् त्रिष्टुप् 

६१ : पुरोबार्हता त्रिष्टुप् 

६० : मंत्र

५९ : मंत्र

५८ : पुरस्ताद् बृहती 

५७ : पुरोऽतिजागता जगती

५६ : मंत्र, अनुष्टुप् 

५५ : मंत्र,

५४ : मंत्र, अनुष्टुप्,

५३ : पुरोबार्हतानुष्टुप् 

५२ : पञ्चपदा अनुष्टुपब्गर्भा पराति जगती 

५१ : त्र्यवसाना षट्पदा अनुष्टुपब्गर्भा ककुम्मती शर्वरी 

५० : मंत्र, अनुष्टुप् 

४९ : शक्वरी

४८ : पुरोऽनुष्टुप् त्रिष्टुप्

४७ : षट्पदा उष्णिक् अनुष्टुपब्गर्भा पराति शक्वरी 

४६ : षट्पदा अनुष्टुपब्गर्भा पराशक्वरी

४५ : जगती 

४४ : जगती 

४३ : विराट् आस्तार् पंक्ति 

४२ : स्वराट् अनुष्टुप्

४१ : त्र्यवसाना षट्पदा ककुम्मती शक्वरी 

४० : अनुष्टुप् 

३९ : अनुष्टुप् 

३८ : त्र्यवसाना षट्पदा जगती 

३७ : त्र्यवसाना पञ्चपदा शक्वरी 

३६ : विपरीत पादलक्ष्मा पंक्ति

३५ : अनुष्टुप् 

३४ : त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भा अतिजगती 

३३ : त्र्यवसाना षट्पदा उष्णिक् अनुष्टुपब्गर्भा शक्वरी

३२ : पुरस्ताज्ज्योति त्रिष्टुप् 

३१ : मंत्र

३० : विराट् गायत्री 

२९ : मंत्र

२८ मंत्र

२७ : मंत्र, अनुष्टुप् 

२६ : मंत्र, अनुष्टुप्

२५ : मंत्र, अनुष्टुप्

२४ : पञ्चपदा अनुष्टुपब्गर्भा जगती

२३ : पञ्चपदा विराट् अतिजगती

२२ : त्र्यवसाना षट्पदा विराट् अतिजगती

२१ : एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप् 

२० : मंत्र

१९ : उरोबृहती

१८ : त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुप् अनुष्टुपब्गर्भा शक्वरी 

१७ : मंत्र

१६ : एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप् 

१५ : पञ्चपदा शक्वरी

१४ : महाबृहती

१३ : त्र्यवसाना पञ्चपदा शक्वरी

१२ : त्र्यवसाना पञ्चपदा शक्वरी

११ : त्र्यवसाना षट्पदा विराडष्टि  

१० : मंत्र

९ : परानुष्टुप् त्रिष्टुप् 

८ : त्र्यवसाना षट्पदा विराडष्टि 

७ : प्रस्तार पंक्ति 

६ : त्र्यवसाना षट्पदा जगती 

५ : त्र्यवसाना षट्पदा जगती 

४ : त्र्यवसाना षट्पदा जगती

३ : अनुष्टुप्

२ : अनुष्टुप् 

१ : अनुष्टुप्

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यह तो हुई  पृथ्वी-सूक्त की भूमिका और परिचय ।

पृथ्वी-सूक्त स्तोत्रम् अगले पोस्ट में।

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