उत्तररामायण
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एक समय भगवान् शिव माता पार्वती को नित्यप्रति की तरह गीता-रामायण सुना रहे थे।
काल से परे अवस्थित नित्य, शाश्वत, सनातन और चिरंतन उस शिवधाम कैलास में भगवान् शिव ने प्रारंभ में देवताओं, योगियों, भक्तों और मनुष्यों का संक्षिप्त वर्णन करते हुए दैवी व आसुरी संपदाओं का वर्णन किया और फिर मनुष्य के प्रारब्ध के विषय में कहते हुए कहने लगे :
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ।।१।।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दयाभूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दव ह्रीरचापलम् ।।२।।
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ।।३।।
दम्भो दर्पोऽतिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ।।४।।
भवानी!
तुम्हारी त्रिगुणात्मिका माया से अभिभूत काल और स्थान में मनुष्य इस प्रकार दैवी तथा आसुरी संपदाओं से युक्त होता है।
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मताः।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ।।५।।
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवी विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु ।।६।।
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ।।७।।
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ।।८।।
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः ।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिता ।।९।।
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विता ।
मोहाद्ग्रहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ।।१०।।
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिता।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ।।११।।
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् ।।१२।।
इदमद्य मया लब्धमिदं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ।।१३।।
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ।।१४।।
आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः।।१५।।
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः ।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ।।१६।।
आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः ।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ।।१७।।
अहङ्कारं बलं दर्पं काम-क्रोधं च संश्रिताः।
ममात्मपरदेहेषु प्रविद्वषन्तोऽभ्यसूयकाः ।।१८।।
तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ।।१९।।
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ।।२०।।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।।२१।।
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ।।२२।।
(उपरोक्त सभी संकेत / लक्षण, मनुष्य-जीवन के आज के काल में प्रत्यक्षतः दिखाई ही दे रहे हैं!)
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ।।२३।।
(इति श्री महाभारतेशतसाहस्र्यां संहितायां वैयासिक्यां भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्विद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसम्पद्विभागयोगोनाम षोडषोऽध्यायः)
उत्तररामायण
हे पार्वति! तू मेरी अत्यन्त प्रिय भक्ता है, अतः इस परम गुह्य रहस्य को सुन!
पुराकाल में भगवान् महर्षि वाल्मीकि ने जिस रामकथा को कहा उसमें राम ही मायामनुष्य है, यह तो तुम्हें विदित ही है।
जब राजा दशरथ ने भगवान् ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की आज्ञा से राम और लक्ष्मण को उनकी सेवा में सौंप दिया, तो विश्वामित्र उन्हें लेकर ताटका-वन में गए । ताटका-वन चिन्ता-रूपी राक्षसी का वैसा ही मोद-वन है जैसा कृष्ण का वृन्दावन, राम का पञ्चवटी, और इन्द्र का अलकापुरी स्थित नंदनवन!
ताटका वह राक्षसी है, जो समुद्र-तट पर कामरूपिणी की तरह रहती है। वही चिन्ता, आशा-अपेक्षा रूपी राक्षसी सुर, ऋषियों मुनियों और ज्ञानियों का भी भक्षण कर लेती है।
ताटका-वन में ताल-वृक्ष हैं। ताल अर्थात् ताडयति इति ताडं।
उस ताड़-वन में धैर्यशील मनुष्य प्रवेश न करे।
उसमें प्रवेश करने का अर्थ है, - उन अपरिमेय चिन्ताओं से ग्रस्त होते रहना, जो अंततः मनुष्य को विनाश की ओर ले जाती हैं।
शुभानने!
ऋषि विश्वामित्र प्राणिमात्र के अर्थात् सभी के मित्र हैं।
माया-मनुष्य भगवान् श्रीराम को ताटकावन और ताटका राक्षसी का परिचय देने, और उस राक्षसी का वध करने का निर्देश देने के बाद उन महर्षि ने कहा :
हे राम!
उस राक्षसी के तुम्हारे समक्ष आते ही बिना कोई सोच-विचार किए तुम उस पर बाण चलाकर उसका वध कर देना।"
महर्षि वाल्मीकि ने पहले ही कहा था राम अक्लिष्टकर्मा हैं। उनके सभी कार्य अनायास होते हैं।
इस प्रकार चिन्ता के आगमन से पूर्व जो आशा-अपेक्षाएँ मनुष्य में उठती हैं, राम के हृदय में उनका उदय भी नहीं होता।"
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