Sunday, 29 August 2021

यस्यां वेदिं

अथ पृथिवी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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यस्यां वेदिं परिगृह्णन्ति भूम्यां यस्यां यज्ञं तन्वते विश्वकर्माणः। यस्यां मीयन्ते स्वरवः पृथिव्यामूर्द्ध्वा शुक्रा आहुत्याः पुरस्तात्। सा नो भूमिर्वर्धयद् वर्धमाना।।१३।।

(जिस भूमि माता पर वेदियों की स्थापना कर उन वेदियों पर यज्ञों का विस्तारपूर्वक अनुष्ठान जगत् के महान कर्मठ पुरुषों द्वारा किया जाता है। और उन यज्ञों में तेजयुक्त आहुतियाँ देकर यज्ञों के प्रभाव को हर दिशा में, भूमि से बहुत ऊँचे आकाश तक फैलाया जाता है । वह निरंतर समृद्धिशाली भूमि हमारा संवर्धन  करे।)

यो नो द्वेषत् पृथिवि यः पृतन्याद् योऽभिदासान्मनसायो वधेन।  तं नो भूमे रन्धय पूर्वकृत्वरि ।।१४।।

(हे पृथिवि!  हमसे द्वेष करनेवाले जो हमारे शत्रु अपने सैन्य-बल का प्रयोग कर हमें पराजित करने, हमें दास बनाने और हमारा वध करने की चेष्टा करता हैं, हे भूमे! उन शत्रुओं का तुम समूल विनाश कर दो।)

त्वज्जातास्त्वयि चरन्ति मर्त्यास्त्वं बिभर्षि द्विपदस्त्वं चतुष्पदः।  तवेमे पृथिवी पञ्च मानवा येभ्यो ज्योतिरमृतं मर्त्येभ्य उद्यन्त्सूर्यो रश्मिभिरातनोति।।१५।।

(हे पृथिवि! तुमसे उत्पन्न होनेवाले द्विपद, जैसे मनुष्य और पक्षी, चतुष्पद, जैसे चौपाये पशु आदि मर्त्य प्राणी, तुम पर ही विचरण करते हुए पलते और बढ़ते हैं। इसी तुम्हारी भूमि पर पाँच प्रकार के श्रेष्ठ पुरुष, सूर्य से उसकी तेजस्वी राशियों के माध्यम से शक्ति प्राप्त कर उद्यमशील होकर पराक्रम करते हैं।)

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टिप्पणी : 

किसी का प्रश्न है कि कौन ये पाँच प्रकार के मनुष्य हैं, जो कि पृथ्वी पर उद्यमशील होते हुए पराक्रम करते हैं? 

इस बारे में यही कहा जा सकता है कि वेद और वेदवाणी नित्य और सनातन है, न कि संस्कृत या किसी अन्य मानवभाषा में कहा या लिखा हुआ कोई ग्रन्थ । किसी भी ऋषि को यह किसी समय अनायास तथा प्रत्यक्ष ही प्राप्त होता है, यह उस किसी ऋषि की रचना होता हो, ऐसा भी नहीं है । इसलिए मनुष्य की किसी भाषा में किया गया कोई भी अर्थ अधूरा और अपर्याप्त होता है। अतः इस विषय में सुनिश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है, कि ये पाँच प्रकार के मनुष्य कौन हैं जो कि सूर्य के प्रकाश से प्रेरित होकर उद्यम और पराक्रम करते हैं। 

एक तात्पर्य यह हो सकता है कि श्रमजीवी, बुद्धिजीवी, कवि या कलाकार, वीर और साहसी, तथा जिसे परमात्मा, आत्मा, सत्य का, या ईश्वर का दर्शन हुआ है, अर्थात् ऋषि, इनका ही उल्लेख  संभवतः यहाँ प्रासंगिक है।

उपनिषद् में कहा गया है :

सूर्यः आत्मा जगतस्थश्च..। 

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