अथ पृथिवी सूक्तम् स्तोत्रम्
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ता नः प्रजाः सं दुह्रतां समग्रा वाचो मधु पृथिवि धेहि मह्यम् ।।१६।।
(ता - ताः, पिछले १५ के संदर्भ में है।
हे पृथिवि! तुम हमें वह वेदवाणी, मधु प्रदान करो जिसे वे सूर्य की रश्मियाँ हमारे लिए लेकर आती हैं!
यहाँ मधु का तात्पर्य है रस, जीवन का अमृत। मधु का संकेत उपनिषद् वर्णित मधु विद्या के सन्दर्भ में भी है। शिव-अथर्वशीर्ष के मंत्र ६ से भी इसका तात्पर्य अधिक स्पष्टता से समझा जा सकता है :
मूर्धानमस्य संसेव्याप्यथर्वा हृदयं च यत् ।
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उच्छ्वसिते तमो भवति तमस आपोऽप्स्वङ्गुल्या मथिते मथितं शिशिरे शिशिरं मथ्यमानं फेनं भवति फेनादण्डं भवत्यण्डाद् ब्रह्मा भवति ब्रह्मणो वायुः वायोरोङ्कार ॐकारात् सावित्री सावित्र्या गायत्री गायत्र्या लोका भवन्ति। अर्चयन्ति तप सत्यं मधु क्षरन्ति यद्ध्रुवम् ।।६।।)
विश्वस्वं मातरमोषधीनां ध्रुवां भूमिं पृथिवीं धर्मणा धृताम् । शिवां स्योनामनुचरेम विश्वा ।।१७।।
(ओषधी और धर्म को भी शिव-अथर्वशीर्ष के मंत्र ४ के परिप्रेक्ष्य में अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है :
योऽग्नौ रुद्रो योऽप्स्वन्तर्य ओषधीर्वीरुध आविवेश। यः इमा विश्वा भुवनानि चक्लृपे तस्मै रुद्राय नमोस्त्वग्नये ।
यहाँ अग्नि और सूर्य एक ही वह परमेश्वर है जिसे इस अथर्वशीर्ष में रुद्र कहा गया है।
यह पृथिवी, जिसमें -सूर्य की अग्नि से- समस्त औषधियाँ तथा अन्न, वनस्पतियाँ आदि उत्पन्न होते हैं, - प्रशस्त और सुस्थिर हो!
उस शिवा, शिवात्मिका पृथिवी पर, जिसने हमें धर्म से धारण किया है, हम समृद्धि सहित जीवन को सुखपूर्वक व्यतीत करें!
महत्सधस्थं महती बभूविथ महान् वेग एजथुर्वेपथुष्टे। महान्स्वेन्द्रो रक्षत्यप्रमादम्। सा नो भूमे प्र रोचय हिरण्यस्येव संदृशि मा नो द्विक्षत कदाचन ।।१८।।
जिस महीषी - विष्णुपत्नी महान पृथिवी ने समस्त लोकों को धारण किया है, जो सतत गतिशील और भ्रमणशील है, - एज् धातु गति के अर्थ में है -तदेजति तन्नेजति-ईशावास्योपनिषद्- वेपथुः कम्पन करने के अर्थ में है - गीता - वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ।
महान् इन्द्र जिसकी सदा रक्षा करता है।
हे भूमे! वह तुम, हमें वैसे ही संपन्न और प्रसन्न रखो, जैसे स्वर्ण रूपी धन की प्राप्ति से कोई होता है! हम कभी किसी से द्वेष न करें ।
तुलना करें : औपनिषदिक शान्तिपाठ
ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै। तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।
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