स्तोत्रपाठ
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इस स्तोत्र का देवता पृथ्वी, ऋषि अथर्वा है।
निष्ठा और भावना के अनुरूप पृथ्वी का, जो कि समस्त जीवन का अधिष्ठान है, ध्यान करने के पश्चात् इस स्तोत्र का पाठ करें :
सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति ।
सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्न्युरुं लोकं पृथिवी नः कृणोतु ।।१।।
(सत्य, बृहत् / महान ब्रह्म, ऋत्, उग्र / कठिन तप, दीक्षा, और यज्ञ ही संपूर्ण पृथ्वी का आश्रय हैं। वह विष्णुपत्नी पृथिवी, जो समस्त भूत, भावी का आधार है, हमारे लिए जीवन हो।)
असंबाधं मध्यतो मानवानां
यस्या उद्वहतः प्रवतः समं बहु।
नाना वीर्या ओषधीर्या बिभर्ति
पृथिवी नः प्रथतां राध्यतां नः।। २।।
(उपरोक्त सत्यलोक, ब्रह्मलोक, महत् लोक, तपोलोक, जनलोक के आधार पृथिवी के मध्य जो मनुष्य की संतति, मनुष्य हैं, उन सब का निरंतर, सतत, अबाध रूप से पालन-पोषण पृथिवी पर उत्पन्न अनेक वीर्यवान ओषधियों तथा वनस्पतियों द्वारा पृथिवी करती रहती है। वह हमारी आराध्य पृथिवी सदैव हमारे लिए पूज्य और सम्मानित रहे।)
टिप्पणी :
पृथिवी पञ्च महाभूतों में प्रथम है। यही वह भू तत्व है जिससे भौतिक जगत का उद्भव होता है। गायत्री मन्त्र में क्रमशः भू, भुवः तथा स्व व्याहृतियों के प्रयोग से यही स्पष्ट है कि यह भू तत्व यद्यपि पदार्थ का सर्वाधिक जड प्रकार है, और इस प्रकार भौतिक वैज्ञानिकों के द्वारा परिभाषित क्वान्टम के सन्निकट है, फिर भी चैतन्यस्वरूप परमात्मा से अभिन्न है। इसीलिए पृथिवी को देवता कहा जाता है।
उपरोक्त दोनों मंत्रों से सिद्ध होता है कि चैतन्य / चेतना तत्व ही अस्तित्व मात्र का उपादान और निमित्त कारण भी है और इसी आधार पर आधुनिकतम वैज्ञानिकों के इस प्रश्न का भी समाधान किया जा सकता है कि क्या क्वान्टम सिद्धान्त की सहायता से चेतना / चैतन्य (consciousness / Consciousness) क्या है, इसकी कोई समुचित और संतोषजनक विवेचना की जा सकती है।
यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो
यस्यामन्नं कृष्टयः संबभूवुः।
यस्यामिदं जिन्वति प्राणदेजत्,
सा नो भूमिः पूर्वपेये दधातु ।।३।।
(जिसमें समुद्र तथा सिन्धु जैसी बड़ी जलराशि से परिपूर्ण बहुत सी नदियाँ विद्यमान हैं, जिसके जल से कृषक अनेक अन्न आदि उत्पन्न करते हैं, और जिस जल तथा अन्न के सेवन से वह हमारे जीवन में प्राणों का संचार करती है, वह पृथिवी हमें सदैव यह प्रथमपेय-रूपी जल, अर्थात् जीवन देकर पुष्ट करे।)
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