अथ पृथिवी सूक्तम् स्तोत्रम्
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यामश्विनावमिमातां विष्णुर्यस्यां विचक्रमे। इन्द्रो यां चक्र आत्मनेऽनमित्रां शचीपतिः। सा नो भूमिर्विसृजतां माता पुत्राय मे पयः।।१०।।
(जिस भूमि का मापन दोनों अश्वविनीकुमारों (equinox) के द्वारा किया गया, विष्णु ने भिन्न भिन्न काल में अवतार ग्रहण कर जिस धरा पर अनेक पराक्रम किए । लोक-कल्याण हेतु इन्द्र ने जिस भूमि से जगत के शत्रुओं का नाश किया । वह भूमि माता अपने द्वारा उत्पन्न किए जानेवाले अन्न और रस से भरे विविध द्रव्यों के अमृततुल्य दुग्ध से हमारा पोषण करे।)
गिरयस्ते पर्वता हिमवन्तोऽरण्यं ते पृथिवि स्योनमस्तु। बभ्रुं कृष्णां रोहिणीं विश्वरूपां ध्रुवां भूमिं पृथिवीमिन्द्रगुप्ताम् । अजीतोऽहतो अक्षतोऽध्यष्ठां पृथिवीमहम्।।११।।
(तुम्हारे हिमाच्छादित पर्वत और समृद्ध वनस्पतियाँ, हे पृथिवि! हमारे लिए सुखदायी हों। बभ्रुकौशेयवर्णा -लाल, भूरे आदि वर्णों से युक्त, अपने मार्ग पर सतत आरोहण करती रहनेवाली, अनेक और विभिन्न तरंगों से आप्लावित विश्वरूपा, ध्रुवा (दो ध्रुवों से युक्त) भूमि को, जिसकी रक्षा इन्द्र के द्वारा की जाती है। पृथिवी की मैं, अजित, अहत, -स्तुति करता हूँ।)
यत् ते मध्यं पृथिवि यच्च नभ्यं यास्त ऊर्जस्तन्वः संबभूवुः। तासु नो धेह्यभि नः पवस्व माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः। पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु।।१२।।
(हे पृथिवि! जो तुम्हारा मध्य और जो नाभि भाग है, वह हमारे लिए सतत ऊर्जस्वी होता है, हो। उनसे तुम हमारा पोषण करती रहो, उनसे हमें पावन करती रहो, हे धरती माता तुम माता हो और मैं अर्थात् हम सभी तुम्हारे पुत्र हैं। पर्जन्य हमारे पिता हैं वे नित्य हमारे लिए वर्षा द्वारा हमारा परिपालन किया करें।)
पर्जन्य :
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ।।१४।।
(गीता अध्याय ३)
पृ - पूर्यते, जन् - जनयति :
पर्जन्य :
जो जीवन को जन्म और पूर्णता देता है।
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