Sunday, 1 August 2021

ज्ञान का दंभ और...

दंभ का ज्ञान 

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इसी ब्लॉग में कभी,

"ज्ञान का भ्रम और भ्रम का ज्ञान"

शीर्षक से एक पोस्ट लिखा था। 

यह पोस्ट भी कुछ उसी शैली में लिखने का प्रयास किया है।

वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक और बुद्धिजीवी 'चेतना' शब्द से जिस भी वस्तु का अनुमान करते हैं, और उसके स्वरूप से अनभिज्ञ रहते हुए इतने अधिकारपूर्वक उस पर चिन्तन, चर्चा आदि करते हैं तो आश्चर्य होता है। 

पातञ्जल योग सूत्र के अनुसार 'प्रमाण' एक 'वृत्ति' ही है। ऐसी ही एक अन्य 'वृत्ति', 'अनुमान' भी है। यही नहीं, इसी 'प्रमाण' की श्रेणी में महर्षि पतञ्जलि ने 'आगम' को भी रखा है। क्या इसका तात्पर्य यह हुआ कि आगम अर्थात् आप्त-वाक्य भी किसी वृत्ति की ही तरह मन में बार बार उठता और लुप्त होता रह सकता है? शायद इसीलिए गीता (अध्याय २) में कहा गया है :

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।

निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।४५।। 

वैज्ञानिक उस ज्ञान को 'प्रमाण' कहते हैं, जो किसी (भौतिक) वस्तु या विषय का अन्तर्विरोधों से रहित ज्ञान है । जैसे ही ज्ञान के समस्त अन्तर्विरोधों को दूर कर दिया जाता है, उसे सर्वमान्य प्रमाण कहा जा सकता है। भौतिक वस्तुओं के संबंध में तो यह बिल्कुल स्वीकार्य है और इस पर संदेह नहीं किया जा सकता। किन्तु जिन मनोनिर्मित वस्तुओं के बारे में कोई 'प्रमाण' किसी एक या दूसरे पक्ष के समर्थन या विरोध में प्रस्तुत किया जाता है, उसकी सत्यता असंदिग्ध या सुनिश्चित नहीं कही जा सकती। इस भौतिक जगत के इन्द्रियग्राह्य सत्यों का वैज्ञानिक प्रमाण अवश्य प्रस्तुत किया जा सकता है, तथा अपने अनुभवों से इसकी पुष्टि या इसका खंडन भी सरलता से किया जा सकता है। इसे प्रत्यक्ष या 'आँखों देखे सत्य' की श्रेणी में भी रखा जा सकता है और ऐसे समस्त सत्य, वैचारिक धारणाओं की किसी  विसंगतिशून्य प्रणाली में सामञ्जस्यपूर्ण तरीके से इस प्रकार समायोजित भी किए जा सकते हैं, जो तर्कसम्मत भी हो। किन्तु यह सत्यता विचार-आधारित और विचार के ही अन्तर्गत उसकी परिसीमा तक सीमित होती है। भूल से इसे सार्वकालिक तथा सार्वत्रिक कहा जाता है तो वह 'काल तथा स्थान' भी विचार और अनुमान पर निर्भर होता है, इसलिए इस सत्यता की पूर्णता संदिग्ध ही है। 

तीसरा प्रमाण है किसी अन्य ऐसे मनुष्य का वचन जिसे हम विश्वसनीय तो मान सकते हैं किन्तु फिर भी उस वचन की सत्यता की परीक्षा हम अनुभव, प्रयोग व तर्क से इस प्रकार से कर सकते हैं कि उसमें प्रतीत हो रहे विरोधाभासों का निवारण हो जाए। आज की भाषा में इस मनुष्य को 'संवाददाता' भी कह सकते हैं, और यदि ऐसा मनुष्य पक्षपात से रहित होकर किसी घटना या स्थिति का वर्णन करता है तो उसे 'आप्त' कहा जा सकता है। 

शुद्ध घटनात्मक विवरण के रूप में यह जानकारी भी वैसे ही विश्वसनीय हो सकती है, जैसे कोई रेकॉर्ड किया हुआ वीडिओ आदि होता है।

किन्तु मनुष्य या अस्तित्व की आत्मा (Core-Reality) के बारे में किसी मनुष्य के द्वारा दिए गए वचनों की प्रामाणिकता हमारे लिए और हमारे सन्दर्भ में कितनी विश्वसनीय है, इसकी परीक्षा तो हमें स्वयं ही करना होगी।

इस प्रकार आगम अर्थात् शास्त्र की उत्पत्ति होती है, और जब शास्त्र के तात्पर्य की विवेचना सत्य के जिज्ञासु परस्पर चर्चा से मिलकर करते हुए उसके सत्य को ग्रहण करते हैं, तो इसे ही शास्त्रार्थ कहा जाता है जहाँ विभिन्न मतों का खंडन-मंडन करते हुए भी अंततः किसी निश्चय पर पहुँचा जा सकता है। इसलिए इसमें कुतर्क या पूर्वाग्रह तक के लिए स्थान नहीं हो सकता फिर दुराग्रह का तो प्रश्न ही कैसे हो सकता है?

किन्तु इस प्रकार का शास्त्रज्ञान भी अन्ततः यदि शाब्दिक ही होता है, और इस रूप में यदि उसकी सत्यता स्वयं अपने ही हृदय में न परखी गई हो, तो वह भी वृत्ति ही है।

ऐसा ही एक आप्त-वाक्य है:

"सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म।।"

[ज्ञान अर्थात् चेतना (consciousness), जो ध्यान अर्थात् अवधान (attention) है,  यही अनन्त सत्य और ब्रह्म नामक सत्ता भी है।]

जब किसी वस्तु को जाना जाता है, तो यह तो कोई चेतन तत्व ही होता है जो कि उसे 'जाननेवाला', उसका 'ज्ञाता' होता है । यह ज्ञान, यह ज्ञाता, और यह ज्ञात, तीनों ही अन्योन्याश्रित होने से चेतन उन सबसे नितान्त विलक्षण और अस्पर्शित होता है।  

चेतना मूलतः वैयक्तिक न होते हुए भी व्यक्ति और वैयक्तिक का भी अधिष्ठान है और अपनी इन सब अभिव्यक्तियों के माध्यम से संसार और व्यक्ति के उद्भव और लय का कारण भी है।

ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का यह विभाजन केवल औपचारिक है और बुद्धि / वृत्ति के सक्रिय होने पर ही व्यावहारिक प्रतीति हो जाता है। इसलिए पतञ्जलि सबसे पहले वृत्तिमात्र को निरुद्ध करने की आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं। 

बुद्धि का अर्थात् वृत्ति का कार्य ही वैचारिक ज्ञान है, और जब तक वृत्ति को निरुद्ध नहीं किया जाता, तब तक धारणा, ध्यान तथा समाधि का तात्पर्य स्पष्ट नहीं हो सकता।

विभूतिपाद में इसी को सूत्रों से कहा गया है :

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।।१।।

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।२।।

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।३।।

त्रयमेकत्र संयमः।।४।।

यहाँ समाधिपाद के सूत्र :

स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का।।४३।।

का सन्दर्भ प्रासंगिक है।

चूँकि (निद्रा और) स्मृति भी वृत्ति ही है, इसलिए वृत्तिनिरोध से उनका भी निरोध हो जाता है, यह तो स्पष्ट ही है।

'निर्वितर्का' शब्द से :

वितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात् सम्प्रज्ञातः।।१७।।

का संबंध है। और 'निर्वितर्का' उपरोक्त मनःस्थितियों के निषेध का द्योतक है।

जो चेतना जो बुद्धि से पूर्व ही अस्तित्वमान है, उसी चेतना में बुद्धि तथा अन्य उपरोक्त वृत्तियाँ उठती और लय होती रहती हैं,  जिनमें से एक है 'अस्मिता' ।

इसलिए चेतना ही समस्त विकासशील वृत्तियों का अविकारी आधार और अधिष्ठान है। यही वृत्तिमात्र का द्रष्टा है जिसका सहारा लेकर मनुष्य में अस्मिता का उन्मेष होता है जो ज्ञातृत्व, भोक्तृत्व, कर्तृत्व और स्वामित्व के रूपों में सतत परिवर्तित होते हुए स्वतंत्र प्रतीत होकर आभासी व्यक्तिसत्ता का रूप ले लेती है। समाधिपाद के प्रारंभिक सूत्र इसे ही इस प्रकार दर्शाते हैं:

अथ योगानुशासनम्।।१।।

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।२।।

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।३।।

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।४।।

जैसे किसी यंत्र में कोई खराबी आ जाने पर पहले उसे बन्द कर दिया जाता है, फिर उस खराबी को खोजकर दूर करते हुए यंत्र को सुधार दिया जाता है, वैसे ही 'योग' चित्तयंत्र के दोषों को दूर कर उसे इस योग्य सक्षम बना देता है कि मनुष्य चेतना अर्थात् आत्मा के सत्य का साक्षात्कार कर सके। 

वैज्ञानिक की बुद्धि भी वृत्ति ही और इसलिए वह अनुमान तथा प्रमाण की परिधि में ही देख पाती है, जहाँ ज्ञान में ज्ञाता, ज्ञात तथा ज्ञेय का आभासी और कृत्रिम विभाजन विद्यमान होता है। 

जब तक वैज्ञानिक इस आधार पर अनुसन्धान करता रहता है तब तक वह बुद्धि की सीमा में ही अवरुद्ध होता है। 

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