अथ पृथिवी सूक्तम् स्तोत्रम्
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यां रक्षन्त्यस्वप्ना विश्वदानीं देवा भूमिं पृथिवी मा प्रमादम्।
सा नो मधुप्रियं दुहामथो उक्षतु वर्चसा।।७।।
(जिस भूमि अर्थात् पृथिवी की रक्षा तंद्रा, आलस्य और निद्रा से रहित, प्रमादरहित होकर देवगण किया करते हैं, वह विश्वस्वरूपा माता भूमि हमें मधुर प्रिय श्रेष्ठ पदार्थ प्रदान करनेवाली हो।)
यार्णवेऽधि सलिलमग्र आसीद् यां मायाभिरन्वचरन् मनीषिणाः । यस्या हृदयं परमे व्योमन्त्सत्येनावृतममृतं पृथिव्याः । सा नो भूमिस्त्विषिं बलं राष्ट्रे दधातूत्तमे।।८।।
(जो भूमि प्रारंभ में जल से आवृत होकर समुद्र के भीतर गुप्त थी, और जिसका चिन्तन बुद्धिरूपी माया के बल पर मनीषी किया करते थे, जिस पृथिवी का परम हृदयाकाश को सत्य ने आवरित किया था । वह भूमि हमारी अभिलाषाओं को पूर्ण करते हुए राष्ट्र का उत्तम संवर्धन करे।)
यस्यामापः परिचराः समानीरहोरात्रे अप्रमादं क्षरन्ति।
सा नो भूमिर्भूरिधारा पयो दुहामथो उक्षतु वर्चसा।।९।।
(जिस भूमि पर परिव्राजक, ऋषि महर्षि, भू-देवता (विप्र) आदि अहर्निश, सतत विचरण करते हुए अपने तप के प्रभाव से उसे पुष्ट करते हैं, वह पृथिवी अपने अनेक उत्तमोत्तम उपहारों से हम पर वैसे ही अपना स्नेह उंडेलती रहे, जैसे दुधारू गौ अपने वत्स के लिए दुग्ध प्रदान किया करती है।)
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