अथ पृथिवी सूक्तम् स्तोत्रम्
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यस्याश्चतस्रः प्रदिशः पृथिव्या
यस्यामन्नं कृष्टयः संबभूवुः।
या बिभर्ति बहुधा प्राणदेजत्
सा नो भूमि गोष्वप्यन्ने दधातु।।४।।
(जिस भूमि / पृथिवी पर चारों दिशाओं व प्रति-दिशाओं में, कृषि का कार्य करनेवाले श्रमिकों और श्रमिकों ने अन्न उपजाया, और जिस भूमि से उपजे उस अन्न आदि को खाकर हम प्राणवान हुए, वह भूमि / पृथिवी हमें गौ आदि से, तथा उनके लिए भी उपयुक्त अन्न प्रदान कर समृद्ध करे।)
यस्यां पूर्वे पूर्वजना विचक्रिरे
यस्यां देवा असुरानभ्यवर्तयन् ।
गवामश्वानां वयसश्च विष्ठा
भगं वर्चः पृथिवी नो दधातु ।।५।।
(जिस भूमि पर पूर्वकाल में ऋषियों आदि ने धर्म का आचरण किया, जहाँ देवताओं ने अपने पराक्रम से अनुरोध का पराभव किया, वह पृथिवी हमारे गौओं, अश्वों, पशु-पक्षियों आदि का भी संरक्षण और संवर्धन करते हुए हमारे लिए श्रेयस्कर, सौभाग्य-दायिनी हो।)
विश्वम्भरा वसुधानी प्रतिष्ठा
हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी
वैश्वानरं बिभ्रती भूमिरग्नि-
मिन्द्रऋषभा द्रविणे नो दधातु।।६।।
(जो भूमि समस्त विश्व को समृद्धि से परिपूर्ण करती है, जहाँ वसुओं का वास और प्रतिष्ठा है, जिसके आँचल में स्वर्ण और रत्न आदि हैं, इस जगत को धन-संपदा से संपन्न करनेवाली, वैश्वानर अग्नि जैसी देदीप्यमान पृथिवी, इन्द्र की गौ, हमारे लिए द्रव्य और द्रविण (धन) की धात्री हो।)
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