Dharma धर्म and Veda वेद.
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संस्कृत 'धृञ्' - धारणे, अर्थात् धारण किए जाने से बना शब्द धर्म प्रकृति, स्वभाव, आत्मा, सत्य इत्यादि का द्योतक और वाचक भी है। कोई भी वस्तु या जीव, न तो धर्म को स्वरूपतः त्याग सकता है, न ही उसका धर्म उसे। इस अर्थ में वस्तु-स्वभाव ही धर्म है।
संस्कृत 'विद्' का प्रयोग क्रमशः :
1. 'विद्' - ज्ञाने -अर्थात् मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदि किसी माध्यम से, परोक्षतः indirectly जानने अथवा बिना किसी दूसरे माध्यम से अपरोक्षतः directly जानने के अर्थ में,
2. 'विद्' - सत्तायाम् - अर्थात् अस्तित्वमान होने के अर्थ में,
3. 'विद्' - विचारणे - अर्थात् स्मृति के माध्यम से चिंतन करने,
4. 'विद्' - चेतनाख्याननिवासेषु - अपने अस्तित्व के सहज एवं स्वाभाविक बोध तथा उसके उद्घोष / अभिव्यक्ति करने, तथा,
5. 'विदलृ' - लाभे - अर्थात् किसी वस्तु की प्राप्ति करने के अर्थ में किया जाता है।
वेद शब्द मुख्यतः किसी वस्तु का किसी प्रकार का ज्ञान होने, या जानने के अर्थ में प्रयुक्त होता है और इस ज्ञान को ही वेद कहा जाता है।
इसी विद् धातु के विभिन्न रूप भिन्न भिन्न भाषाओं में भिन्न भिन्न पाए जाते हैं। पहले तो इस पर ध्यान देना होगा, कि न तो किसी भाषा का उद्भव संस्कृत भाषा से हुआ है और न संस्कृत का ही उद्भव किसी भी दूसरी भाषा से । संस्कृत मूलतः वैज्ञानिक भाषा है जिसका पुनः पुनः आविष्कार किया जा सकता है और तब यह प्रतीत होने लगता है मानों संस्कृत कोई कृत्रिम या मनुष्य-निर्मित इंजीनियर्ड / man-made engineered language है। कोई भी भाषा कैसे अस्तित्व में आती है, यदि इसकी खोज की जाए तो स्पष्ट होगा कि किसी भी भाषा की संरचना जिन भी मूल नियमों से होती है, संस्कृत उन्हीं मूलभूत नियमों की खोज और आविष्कार मात्र है।
किन्तु यहाँ इस पर विचार किया जा रहा है कि किस प्रकार इस 'विद्' धातु से (इसके प्रयोग और अर्थ के तारतम्य में) विभिन्न भाषाओं के अनेक शब्दों का संबंध हो सकता है :
संक्षेप में : with, vade, wissen, wise, wed, wedding, Wednesday, faith, fidelity, confidence, confident, diffident, जैसे यूरोपीय भाषाओं के विभिन्न शब्द, तथा, हिन्दी, उर्दू, अरबी, फ़ारसी के 'फ़िदा', इन सभी शब्दों और उनके अर्थ के बीच एक सुनिश्चित तारतम्य pattern है ।
इस प्रकार 'धर्म' के दो रूपों पर ध्यान देने पर प्रतीत होता है कि धर्म भी मूलतः दो प्रकार का होता या हो सकता है।
पहला है :
ज्ञान के अर्थ में धर्म, जिसे न तो कोई त्याग सकता है, और न जो किसी को त्याग सकता है।
दूसरा है :
धारणा, मान्यता, विश्वास, मत, विचार, परंपरा इत्यादि के अर्थ में कोई धर्म, जिसे परिस्थितियों के कारण, चाहते या न चाहते हुए भी कोई त्यागने के लिए बाध्य हो सकता है।
इस प्रकार धर्म और विश्वास यद्यपि परस्पर समानार्थी प्रतीत होते हैं, किन्तु उनका एक ही तात्पर्य हो, यह आवश्यक नहीं है।
इस दृष्टि से यदि विज्ञान (Science), शब्द की व्युत्पत्ति की जाए तो 'वि' उपसर्ग सहित समस्त ज्ञान ही विज्ञान है।
अब यदि Science शब्द की व्युत्पत्ति की जाए, तो इसे संस्कृत भाषा की दो धातुओं, सं-उपसर्ग सहित 'शी' - शेते - सोने के अर्थ में, तथा 'संशय' की तरह, 'शंस्' - शंसयते / शङ्क्यते की तरह शंका या प्रशंसा करने के अर्थ में भी ग्रहण किया जा सकता है।
सबसे अधिक रोचक है इन धातुओं से बने अंग्रेजी भाषा के ये सारे शब्द :
Conscious, consciousness, conscience,
जिन्हें मन, बुद्धि, चेतना, ध्यान, जागरूकता, विवेक, जैसे अनेक शब्दों का समानार्थी समझा जाता है।
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