'यज्' और 'यज्ञ', 'युज्' और 'योग' : शङ्कर और शक्र (इन्द्र)
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शमन-धर्म के शान्ति-पाठ में कहा गया है कि 'शं'अर्थात् 'श' वर्णात्मक देवता हमारा मित्र है। वही 'श'/ 'शं' हमारे लिए वरुण, अर्यमा, इन्द्र और बृहस्पति है। वही विष्णु तथा उरुक्रम है।
श वर्ण के व्यापक स्वरूप का परिचय इस मन्त्र से स्पष्ट है।
देवता के रूप में इस वर्णाक्षर 'श' की अभिव्यक्ति सिद्धान्त तथा कार्य इन दो प्रकारों से होती है।
सिद्धान्ततः 'श' शिव अर्थात् सत्तामात्र है जो मूलतः अविकारी है किन्तु प्रकृति के सन्दर्भ में सतोगुण की तरह कार्य करता है। इसलिए शिव शान्ति-स्वरूप है।
कार्य की दृष्टि से यही सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण से युक्त होकर सृष्टि, पुष्टि और संहार के कार्य को संपन्न करता है तो इसे क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र के नाम से जाना जाता है।
'यज्' धातु और 'युज्' धातु का कार्य वैसे तो एक ही है, किन्तु 'फल' भिन्न भिन्न रूपों में प्राप्त होता है।
शिव को शङ्कर नाम इसलिए दिया जाता है कि वे तीनों गुणों को संतुलित कर शान्ति स्थापित करते हैं।
इन्द्र को शक्र नाम इसलिए दिया जाता है क्योंकि वे शत-यज्ञों का अनुष्ठान कर चुके होते हैं।
इस प्रकार ये वैदिक देवता संसार / विश्व के सृष्टि और शासन के संचालन को सुनिश्चित करते हैं।
इन्द्र को शकर इसलिए भी कहा जाता है कि वह वरुण, मरुत और मित्र की सहायता से वर्षा का दान करता है। सोम की सहायता से पृथ्वी को शस्य-श्यामला बनाता है। इन्द्र इस प्रकार देवताओं का शासक होने से सभी देवता विश्व में शान्ति और सुख-समृद्धि बढ़ाने का कार्य करते हैं।
इस प्रकार का दान भी यज्ञ का ही प्रकार है। दानयज्ञ ही सभी यज्ञों का मूल है।
दान तथा यज्ञ दोनों के लिए अंग्रेज़ी भाषा में sacrifice शब्द का प्रयोग किया जाता है जो यही दर्शाता है कि इस कार्य को 'शक्रीकृत' किया गया। जिसका अर्थ है इन्द्र के लिए और इन्द्र के द्वारा किया गया।
इसी प्रकार का एक अंग्रेज़ी शब्द है sacrilege जो sacrifice के विपरीत अर्थ का द्योतक है।
जो इन्द्र को 'लगता' अर्थात् बाधक है। संस्कृत में 'लग्' धातु से ही हिन्दी में 'लगना' क्रियापद वैसे ही आया है, जैसे संस्कृत में 'ला' धातु से 'लाना' आया है। विस्तार से मेरे पोस्ट 'ला आदाने' को देख सकते हैं।
इसी प्रकार 'leg', 'league', 'legal', 'legion', 'religion', 'legitimate' 'ligature' आदि शब्द 'लग्' के 'विकार' / विविध रूप हैं।
[यहाँ 'विकार' का प्रयोग 'विशिष्ट' के अर्थ में किया जा रहा है, न की 'बिगाड़' या विकृति के अर्थ में ]
गीता के चौथे अध्याय में यज्ञ के विविध प्रकारों का वर्णन किया गया है तथा अन्त में सारतत्व के रूप में यह भी वर्णन है :
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे।।32
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संस्कृत में 'उर्वर' शब्द जिस धातु से बना है उसका प्रयोग वर्धन करने, बढ़ाने के अर्थ में होता है।
[ प्रसंगवश; - इस 'उरूरीय' से ज़रूरी का सादृश्य है ]
'शं' इसीलिए विष्णु / 'उरुक्रम' हैं क्योंकि वे सृष्टि का सतत परिपालन (उरूरीकुरुते) करते हैं।
'शं' इसीलिए रुद्र हैं क्योंकि वे इस क्रम को अवरुद्ध करते हैं अर्थात् सृष्टि का संहार / संहरण करते हैं जो विनाश नहीं, सृष्टि को उसकी पूर्वस्थिति तक ले जाने का कार्य है।
यज्य और युज्य , तथा यज्ञ और योग इस प्रकार दान के ही प्रकार हैं।
यही शमन धर्म का मूल है।
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शमन-धर्म के शान्ति-पाठ में कहा गया है कि 'शं'अर्थात् 'श' वर्णात्मक देवता हमारा मित्र है। वही 'श'/ 'शं' हमारे लिए वरुण, अर्यमा, इन्द्र और बृहस्पति है। वही विष्णु तथा उरुक्रम है।
श वर्ण के व्यापक स्वरूप का परिचय इस मन्त्र से स्पष्ट है।
देवता के रूप में इस वर्णाक्षर 'श' की अभिव्यक्ति सिद्धान्त तथा कार्य इन दो प्रकारों से होती है।
सिद्धान्ततः 'श' शिव अर्थात् सत्तामात्र है जो मूलतः अविकारी है किन्तु प्रकृति के सन्दर्भ में सतोगुण की तरह कार्य करता है। इसलिए शिव शान्ति-स्वरूप है।
कार्य की दृष्टि से यही सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण से युक्त होकर सृष्टि, पुष्टि और संहार के कार्य को संपन्न करता है तो इसे क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र के नाम से जाना जाता है।
'यज्' धातु और 'युज्' धातु का कार्य वैसे तो एक ही है, किन्तु 'फल' भिन्न भिन्न रूपों में प्राप्त होता है।
शिव को शङ्कर नाम इसलिए दिया जाता है कि वे तीनों गुणों को संतुलित कर शान्ति स्थापित करते हैं।
इन्द्र को शक्र नाम इसलिए दिया जाता है क्योंकि वे शत-यज्ञों का अनुष्ठान कर चुके होते हैं।
इस प्रकार ये वैदिक देवता संसार / विश्व के सृष्टि और शासन के संचालन को सुनिश्चित करते हैं।
इन्द्र को शकर इसलिए भी कहा जाता है कि वह वरुण, मरुत और मित्र की सहायता से वर्षा का दान करता है। सोम की सहायता से पृथ्वी को शस्य-श्यामला बनाता है। इन्द्र इस प्रकार देवताओं का शासक होने से सभी देवता विश्व में शान्ति और सुख-समृद्धि बढ़ाने का कार्य करते हैं।
इस प्रकार का दान भी यज्ञ का ही प्रकार है। दानयज्ञ ही सभी यज्ञों का मूल है।
दान तथा यज्ञ दोनों के लिए अंग्रेज़ी भाषा में sacrifice शब्द का प्रयोग किया जाता है जो यही दर्शाता है कि इस कार्य को 'शक्रीकृत' किया गया। जिसका अर्थ है इन्द्र के लिए और इन्द्र के द्वारा किया गया।
इसी प्रकार का एक अंग्रेज़ी शब्द है sacrilege जो sacrifice के विपरीत अर्थ का द्योतक है।
जो इन्द्र को 'लगता' अर्थात् बाधक है। संस्कृत में 'लग्' धातु से ही हिन्दी में 'लगना' क्रियापद वैसे ही आया है, जैसे संस्कृत में 'ला' धातु से 'लाना' आया है। विस्तार से मेरे पोस्ट 'ला आदाने' को देख सकते हैं।
इसी प्रकार 'leg', 'league', 'legal', 'legion', 'religion', 'legitimate' 'ligature' आदि शब्द 'लग्' के 'विकार' / विविध रूप हैं।
[यहाँ 'विकार' का प्रयोग 'विशिष्ट' के अर्थ में किया जा रहा है, न की 'बिगाड़' या विकृति के अर्थ में ]
गीता के चौथे अध्याय में यज्ञ के विविध प्रकारों का वर्णन किया गया है तथा अन्त में सारतत्व के रूप में यह भी वर्णन है :
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे।।32
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संस्कृत में 'उर्वर' शब्द जिस धातु से बना है उसका प्रयोग वर्धन करने, बढ़ाने के अर्थ में होता है।
[ प्रसंगवश; - इस 'उरूरीय' से ज़रूरी का सादृश्य है ]
'शं' इसीलिए विष्णु / 'उरुक्रम' हैं क्योंकि वे सृष्टि का सतत परिपालन (उरूरीकुरुते) करते हैं।
'शं' इसीलिए रुद्र हैं क्योंकि वे इस क्रम को अवरुद्ध करते हैं अर्थात् सृष्टि का संहार / संहरण करते हैं जो विनाश नहीं, सृष्टि को उसकी पूर्वस्थिति तक ले जाने का कार्य है।
यज्य और युज्य , तथा यज्ञ और योग इस प्रकार दान के ही प्रकार हैं।
यही शमन धर्म का मूल है।
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