तत्सवितुः वरेण्यं ।।
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ऐतरेय अभी बालक ही था कि उसे यज्ञोपवीत दीक्षा प्रदान की गयी।
बाल्य-अवस्था में वैसे भी मनुष्य ब्रह्मचर्य में ही स्थित होता है।
ब्रह्मचर्य है छन्द और गायत्री भी छन्द ही है जिसका मन्त्र के रूप में प्रयोग किया जाता है।
इसीलिए इस छंद के अनेक रूप सूर्य-गायत्री, हनुमत्-गायत्री आदि में पाए जाते हैं।
जब उसे गायत्री-मन्त्र की प्राप्ति हुई तो उसे उसके जप-ध्यान से यह बोध हुआ कि छन्द (भावना) माध्यम होता है, मन्त्र प्रकार। इसलिए न तो छन्द का और न मन्त्र का अर्थ किया जाना अपेक्षित है। ऐसा करने से किसी की बौद्धिक रुचि जाग्रत हो सकती है, और उसके अपने परिणाम हैं।
बौद्धिकता बुद्धियों का समूह है जो मूलतः तो बोध से ही व्युत्पन्न होती है, और इसीलिए बोध के साथ भावना की संगति होने पर ही वह बुद्धि प्रेरित होती है जो मन्त्र की भावना का प्रत्युत्तर हो।
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शान्तिपाठ
ॐ वाङ्ग मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि।
वेदस्य मे आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीः।
अनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधाम्यृतं वदिष्यामि।
सत्यं वदिष्यामि।
तन्मामवतु।
तद्वक्तारमवतु।
अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ।।
ॐ शान्तिः! शान्तिः!! शान्तिः!!!
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प्रथम अध्याय :
प्रथम खण्ड
ॐ आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्।
नान्यत्किञ्चन मिषत्।
स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति।।१
--
एकमात्र आत्मा अर्थात् अहम्, जो इदम् अर्थात् दृश्य-समष्टि भी है, अग्रतः अस्तित्व में था।
अन्य कुछ भी नहीं था।
(न उसे अन्य किसी से प्रयोजन था।)
उन्मिष / निमिष इति मिषयोः रूपौ।
स / सः - ईक्षण करते हुए उसमें भावना हुई कि (मैं -अहम्) लोकों का सृजन करूँ।
स और तत् दोनों अन्य पुरुष एकवचन सर्वनाम हैं।
स पुंलिङ् है, तत् नपुंसकलिङ् है।
इसलिए स का अर्थ है अहम्, तत् का अर्थ है इदम्।
तत्सवितुः का अर्थ हुआ :
'तत्' तथा 'स' को जाननेवाले का।
वरेण्यं का अर्थ है ग्राह्य श्रेष्ठ तत्व।
--
ऐतरेय ने तत्सवितुः में वर्णित 'तत्' और 'स' का तात्पर्य
'अहम् ब्रह्मास्मि', 'तत्वमसि' महावाक्य, और गीता के श्लोक :
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।१७
(अध्याय २)
की तुलना से ग्रहण किया।
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ऐतरेय अभी बालक ही था कि उसे यज्ञोपवीत दीक्षा प्रदान की गयी।
बाल्य-अवस्था में वैसे भी मनुष्य ब्रह्मचर्य में ही स्थित होता है।
ब्रह्मचर्य है छन्द और गायत्री भी छन्द ही है जिसका मन्त्र के रूप में प्रयोग किया जाता है।
इसीलिए इस छंद के अनेक रूप सूर्य-गायत्री, हनुमत्-गायत्री आदि में पाए जाते हैं।
जब उसे गायत्री-मन्त्र की प्राप्ति हुई तो उसे उसके जप-ध्यान से यह बोध हुआ कि छन्द (भावना) माध्यम होता है, मन्त्र प्रकार। इसलिए न तो छन्द का और न मन्त्र का अर्थ किया जाना अपेक्षित है। ऐसा करने से किसी की बौद्धिक रुचि जाग्रत हो सकती है, और उसके अपने परिणाम हैं।
बौद्धिकता बुद्धियों का समूह है जो मूलतः तो बोध से ही व्युत्पन्न होती है, और इसीलिए बोध के साथ भावना की संगति होने पर ही वह बुद्धि प्रेरित होती है जो मन्त्र की भावना का प्रत्युत्तर हो।
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शान्तिपाठ
ॐ वाङ्ग मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि।
वेदस्य मे आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीः।
अनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधाम्यृतं वदिष्यामि।
सत्यं वदिष्यामि।
तन्मामवतु।
तद्वक्तारमवतु।
अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ।।
ॐ शान्तिः! शान्तिः!! शान्तिः!!!
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प्रथम अध्याय :
प्रथम खण्ड
ॐ आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्।
नान्यत्किञ्चन मिषत्।
स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति।।१
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एकमात्र आत्मा अर्थात् अहम्, जो इदम् अर्थात् दृश्य-समष्टि भी है, अग्रतः अस्तित्व में था।
अन्य कुछ भी नहीं था।
(न उसे अन्य किसी से प्रयोजन था।)
उन्मिष / निमिष इति मिषयोः रूपौ।
स / सः - ईक्षण करते हुए उसमें भावना हुई कि (मैं -अहम्) लोकों का सृजन करूँ।
स और तत् दोनों अन्य पुरुष एकवचन सर्वनाम हैं।
स पुंलिङ् है, तत् नपुंसकलिङ् है।
इसलिए स का अर्थ है अहम्, तत् का अर्थ है इदम्।
तत्सवितुः का अर्थ हुआ :
'तत्' तथा 'स' को जाननेवाले का।
वरेण्यं का अर्थ है ग्राह्य श्रेष्ठ तत्व।
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ऐतरेय ने तत्सवितुः में वर्णित 'तत्' और 'स' का तात्पर्य
'अहम् ब्रह्मास्मि', 'तत्वमसि' महावाक्य, और गीता के श्लोक :
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।१७
(अध्याय २)
की तुलना से ग्रहण किया।
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