ऐतरेय उपनिषद्
प्रथम अध्याय,
प्रथम खण्ड
--
ॐ आत्मा वा.......।।१।।
स इमाँ ...... ....... ।।२।।
स ईक्षते .... ..... .. ।।३।।
तमभ्यतपत्तस्याभितप्तस्य मुखं निरभिद्यत यथाण्डं मुखाद्वाचोऽग्निर्नासिके निरभिद्येतां
नासिकाभ्यां प्राणः प्राणाद्वायुरक्षिणी निरभिद्येतामक्षिभ्यां चक्षुश्चक्षुष आदित्यः कर्णौ निरभि-
द्येतां कर्णाभ्यां श्रोत्रं श्रोत्रादृिशस्त्वङ् निरभिद्यत त्वचो लोमानि लोमभ्य ओषधिवनस्पतयो
हृदयं निरभिद्यत हृदयान्मनो मनसश्चन्द्रमा नाभिर्निरभिद्यत नाभ्याऽपानोऽपानान्मृत्युः शिश्नं
निरभिद्यत शिश्नाद्रेतो रेतस आपः।
--
व्यतीत होनेवाला (और व्यतीत न होनेवाला) समय :
प्रथम मन्त्र में आत्मा (अहम्) और इदम् का अभेद कहा गया।
द्वितीय मन्त्र में किसी अन्य के अस्तित्व का निषेध किया गया।
प्रथम मन्त्र में 'आसीत्' का प्रयोग भूतकाल लङ्-लकार एकवचन अन्य-पुरुष में किया गया।
इस प्रकार उस सत्ता आत्मा (अहम्) का वर्णन, -जिससे एकवचन 'काल' का उद्भव हुआ,
अन्य-पुरुष एकवचन सर्वनाम के रूप में किया गया।
प्रथम और तृतीय मन्त्र में 'स ईक्षत' में ईक्ष् धातु का प्रयोग भूतकाल लङ्-लकार एकवचन
अन्य-पुरुष में किया गया। 'ईक्ष्' धातु पुनः 'ईश्' -- ईशिता के अर्थ में 'ईश्वर' का पर्याय है।
दोनों धातुएँ आत्मनेपदी हैं, अर्थात् जो आत्मा (अहम्) के निमित्त प्रयुक्त होती हैं।
इस प्रकार कर्ता स्वयं ही अपना कर्म होता है।
तप और ईक्षण दोनों इसी प्रकार के कार्य हैं।
तप का अर्थ है 'ईक्षण', जो दृष्टा-दृश्य रूपी दर्शन से इस अर्थ में भिन्न है।
'ईक्षण' का अर्थ हुआ प्रमाद-राहित्य।
प्रमाद ही मृत्यु अर्थात् काल है जो व्यतीत होनेवाला समय है,
-जिसका प्रारम्भ और अन्त होता है।
पातञ्जल योग-सूत्र समाधिपाद 26 में इसे ही 'गुरु' नाम दिया गया है :
स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदनात्।।
इस प्रकार जिस सृष्टि का वर्णन ऐतरेय उपनिषद् में किया जा रहा है, वह नित्य, सनातन और
शाश्वत है, न कि आदि-अन्त से युक्त वह भौतिक सृष्टि जिसका उद्भव और अवसान व्यतीत
होनेवाले समय में होता रहता है।
चतुर्थ मन्त्र :
तमभ्यतपत्तस्याभितप्तस्य
तम् अभि-अतपत्-तस्य-अभितप्तस्य ..
से भी स्पष्ट है कि आत्मा स्वयं ही तप अर्थात् ईक्षण रुपी कर्म, और उस कर्म का कर्त्ता भी है।
और वह काल के अवच्छेद (व्यवधान/ बाधा) से रहित है।
इस प्रकार समष्टि-आत्मा के काल-निरपेक्ष अस्तित्व में ही काल-सापेक्ष समय का, -प्रतीति और
आभास की तरह व्यष्टि-चेतना में उद्भव और अवसान होता है।
इस प्रकार समष्टि-सत्ता रूपी 'पुरुष' से; - समष्टि-चेतना रूपी आत्मा (अहम्) वा इदम् में प्रथमतः
जो विवर हुआ वह वैसा ही था, जैसे अन्डे के फूटते समय उसमें पैदा होता है।
यह विवर ही मुख हुआ।
मुख से वाचा, अग्नि भी तथा नासिका उत्पन्न हुए।
नासिका से प्राण तथा प्राण से वायु और नेत्र उत्पन्न हुए।
नेत्रों से चक्षु (नेत्र-इन्द्रिय);
और चक्षु से आदित्य और कर्ण (दोनों कान) उद्भूत हुए।
कर्ण (दोनों कानों) से श्रोत्र अर्थात् श्रवण-इन्द्रिय का उद्भव हुआ।
श्रोत्र से दिशाएँ और त्वचा उद्भूत हुए।
त्वचा से लोम (रोयें) उत्पन्न हुए।
रोयों से ओषधियाँ तथा वनस्पति तथा हृदय (सृष्टि रूपी पुरुष का, अथवा भौतिक शरीर में अवयव
के रूप में शरीर के हृदय नामक अंग का) उद्भव हुआ।
तदनन्तर, समष्टि हृदय से समष्टि मन का, तथा व्यष्टि-हृदय से व्यष्टि-मन का उद्भव हुआ।
(मन से ही) नाभि का उद्भव हुआ,
नाभि से अपान (प्राण का ही एक प्रकार) तथा अपान से मृत्यु, तथा शिश्न (जननेन्द्रिय) ...
शिश्न से रेतस् (प्रवाह), रेतस् (प्रवाह) से आपः।
--
प्रसंगवश
इस प्रकार 'सृष्टि' का विचार तीन स्तरों पर किया जा सकता है :
1. वैयक्तिक सृष्टि
जिसमें व्यष्टि-सत्ता व्यतीत होनेवाले समय में बार बार अपने लोक में व्यक्त और अव्यक्त
होती रहती है, और जिसमें उसका अतीत स्मृति के रूप में इतिहास की तरह
अंकित होता है।
2. लौकिक सृष्टि
जिसमें व्यक्ति के द्वारा अनुभव किए जानेवाले लोक में उस जैसे दूसरे भी असंख्य 'व्यक्ति' होते हैं,
जो उसकी दृष्टि में जन्म लेते और मरते हुए प्रतीत होते हैं। इस लोक का अपना अतीत और भविष्य
व्यक्ति-विशेष की कल्पना में होता है, जिसकी सत्यता सदैव संदेहास्पद होती है। इसी कल्पना से बने
संसार में भौतिक वैज्ञानिक उस काल-स्थान के संबंध में अन्वेषण करता रहता है जिसका सुनिश्चित
कोई आधार या अधिष्ठान नहीं हो सकता।
3. समष्टि सृष्टि
जिसमें उपरोक्त दोनों सृष्टियाँ साथ साथ, व्यक्त और अव्यक्त की तरह अस्तित्व ग्रहण करती हैं।
--
कितनी सृष्टियाँ
इस प्रकार सृष्टि तथा लय का विचार वैयक्तिक, लौकिक और समष्टि के स्तर के आधार से किया जा
सकता है। जैसे पितृ-पक्ष प्रारम्भ होने का समय 'महालय' प्रारम्भ होता है। इसी पितृ-पक्ष में पितृ-लोक
में विद्यमान पितर मृत्युलोक में आकर अपने वंशजों से संपर्क करने का प्रयत्न करते हैं। यह उनके वंश
के उत्पन्न हुए मनुष्यों की आस्था पर भी निर्भर होता है कि वे कहाँ तक और कितने संतुष्ट होते हैं, और
'महालय' पूर्ण होने अर्थात् शारदीय नवरात्र के प्रारम्भ होने तक पुनः अपने लोक में लौट पाते हैं।
इसी प्रकार प्रलय नामक घटना का उल्लेख वैयक्तिक मृत्यु के अर्थ में तथा लोक-विशेष के मिटने के अर्थ
में भी किया जाता है, जबकि 'महाप्रलय' वह है जिसमें समष्टि-चेतना का ही लय अपने कारण में हो जाता
है। इसका समय 'कल्पान्त' होता है।
इस सब में कोई क्रम तो अवश्य है ही, यद्यपि हमारे लोक में इसकी सत्यता को जान-समझ पाना हमारे लिए लगभग असंभव सा है।
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प्रथम अध्याय,
प्रथम खण्ड
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ॐ आत्मा वा.......।।१।।
स इमाँ ...... ....... ।।२।।
स ईक्षते .... ..... .. ।।३।।
तमभ्यतपत्तस्याभितप्तस्य मुखं निरभिद्यत यथाण्डं मुखाद्वाचोऽग्निर्नासिके निरभिद्येतां
नासिकाभ्यां प्राणः प्राणाद्वायुरक्षिणी निरभिद्येतामक्षिभ्यां चक्षुश्चक्षुष आदित्यः कर्णौ निरभि-
द्येतां कर्णाभ्यां श्रोत्रं श्रोत्रादृिशस्त्वङ् निरभिद्यत त्वचो लोमानि लोमभ्य ओषधिवनस्पतयो
हृदयं निरभिद्यत हृदयान्मनो मनसश्चन्द्रमा नाभिर्निरभिद्यत नाभ्याऽपानोऽपानान्मृत्युः शिश्नं
निरभिद्यत शिश्नाद्रेतो रेतस आपः।
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व्यतीत होनेवाला (और व्यतीत न होनेवाला) समय :
प्रथम मन्त्र में आत्मा (अहम्) और इदम् का अभेद कहा गया।
द्वितीय मन्त्र में किसी अन्य के अस्तित्व का निषेध किया गया।
प्रथम मन्त्र में 'आसीत्' का प्रयोग भूतकाल लङ्-लकार एकवचन अन्य-पुरुष में किया गया।
इस प्रकार उस सत्ता आत्मा (अहम्) का वर्णन, -जिससे एकवचन 'काल' का उद्भव हुआ,
अन्य-पुरुष एकवचन सर्वनाम के रूप में किया गया।
प्रथम और तृतीय मन्त्र में 'स ईक्षत' में ईक्ष् धातु का प्रयोग भूतकाल लङ्-लकार एकवचन
अन्य-पुरुष में किया गया। 'ईक्ष्' धातु पुनः 'ईश्' -- ईशिता के अर्थ में 'ईश्वर' का पर्याय है।
दोनों धातुएँ आत्मनेपदी हैं, अर्थात् जो आत्मा (अहम्) के निमित्त प्रयुक्त होती हैं।
इस प्रकार कर्ता स्वयं ही अपना कर्म होता है।
तप और ईक्षण दोनों इसी प्रकार के कार्य हैं।
तप का अर्थ है 'ईक्षण', जो दृष्टा-दृश्य रूपी दर्शन से इस अर्थ में भिन्न है।
'ईक्षण' का अर्थ हुआ प्रमाद-राहित्य।
प्रमाद ही मृत्यु अर्थात् काल है जो व्यतीत होनेवाला समय है,
-जिसका प्रारम्भ और अन्त होता है।
पातञ्जल योग-सूत्र समाधिपाद 26 में इसे ही 'गुरु' नाम दिया गया है :
स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदनात्।।
इस प्रकार जिस सृष्टि का वर्णन ऐतरेय उपनिषद् में किया जा रहा है, वह नित्य, सनातन और
शाश्वत है, न कि आदि-अन्त से युक्त वह भौतिक सृष्टि जिसका उद्भव और अवसान व्यतीत
होनेवाले समय में होता रहता है।
चतुर्थ मन्त्र :
तमभ्यतपत्तस्याभितप्तस्य
तम् अभि-अतपत्-तस्य-अभितप्तस्य ..
से भी स्पष्ट है कि आत्मा स्वयं ही तप अर्थात् ईक्षण रुपी कर्म, और उस कर्म का कर्त्ता भी है।
और वह काल के अवच्छेद (व्यवधान/ बाधा) से रहित है।
इस प्रकार समष्टि-आत्मा के काल-निरपेक्ष अस्तित्व में ही काल-सापेक्ष समय का, -प्रतीति और
आभास की तरह व्यष्टि-चेतना में उद्भव और अवसान होता है।
इस प्रकार समष्टि-सत्ता रूपी 'पुरुष' से; - समष्टि-चेतना रूपी आत्मा (अहम्) वा इदम् में प्रथमतः
जो विवर हुआ वह वैसा ही था, जैसे अन्डे के फूटते समय उसमें पैदा होता है।
यह विवर ही मुख हुआ।
मुख से वाचा, अग्नि भी तथा नासिका उत्पन्न हुए।
नासिका से प्राण तथा प्राण से वायु और नेत्र उत्पन्न हुए।
नेत्रों से चक्षु (नेत्र-इन्द्रिय);
और चक्षु से आदित्य और कर्ण (दोनों कान) उद्भूत हुए।
कर्ण (दोनों कानों) से श्रोत्र अर्थात् श्रवण-इन्द्रिय का उद्भव हुआ।
श्रोत्र से दिशाएँ और त्वचा उद्भूत हुए।
त्वचा से लोम (रोयें) उत्पन्न हुए।
रोयों से ओषधियाँ तथा वनस्पति तथा हृदय (सृष्टि रूपी पुरुष का, अथवा भौतिक शरीर में अवयव
के रूप में शरीर के हृदय नामक अंग का) उद्भव हुआ।
तदनन्तर, समष्टि हृदय से समष्टि मन का, तथा व्यष्टि-हृदय से व्यष्टि-मन का उद्भव हुआ।
(मन से ही) नाभि का उद्भव हुआ,
नाभि से अपान (प्राण का ही एक प्रकार) तथा अपान से मृत्यु, तथा शिश्न (जननेन्द्रिय) ...
शिश्न से रेतस् (प्रवाह), रेतस् (प्रवाह) से आपः।
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प्रसंगवश
इस प्रकार 'सृष्टि' का विचार तीन स्तरों पर किया जा सकता है :
1. वैयक्तिक सृष्टि
जिसमें व्यष्टि-सत्ता व्यतीत होनेवाले समय में बार बार अपने लोक में व्यक्त और अव्यक्त
होती रहती है, और जिसमें उसका अतीत स्मृति के रूप में इतिहास की तरह
अंकित होता है।
2. लौकिक सृष्टि
जिसमें व्यक्ति के द्वारा अनुभव किए जानेवाले लोक में उस जैसे दूसरे भी असंख्य 'व्यक्ति' होते हैं,
जो उसकी दृष्टि में जन्म लेते और मरते हुए प्रतीत होते हैं। इस लोक का अपना अतीत और भविष्य
व्यक्ति-विशेष की कल्पना में होता है, जिसकी सत्यता सदैव संदेहास्पद होती है। इसी कल्पना से बने
संसार में भौतिक वैज्ञानिक उस काल-स्थान के संबंध में अन्वेषण करता रहता है जिसका सुनिश्चित
कोई आधार या अधिष्ठान नहीं हो सकता।
3. समष्टि सृष्टि
जिसमें उपरोक्त दोनों सृष्टियाँ साथ साथ, व्यक्त और अव्यक्त की तरह अस्तित्व ग्रहण करती हैं।
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कितनी सृष्टियाँ
इस प्रकार सृष्टि तथा लय का विचार वैयक्तिक, लौकिक और समष्टि के स्तर के आधार से किया जा
सकता है। जैसे पितृ-पक्ष प्रारम्भ होने का समय 'महालय' प्रारम्भ होता है। इसी पितृ-पक्ष में पितृ-लोक
में विद्यमान पितर मृत्युलोक में आकर अपने वंशजों से संपर्क करने का प्रयत्न करते हैं। यह उनके वंश
के उत्पन्न हुए मनुष्यों की आस्था पर भी निर्भर होता है कि वे कहाँ तक और कितने संतुष्ट होते हैं, और
'महालय' पूर्ण होने अर्थात् शारदीय नवरात्र के प्रारम्भ होने तक पुनः अपने लोक में लौट पाते हैं।
इसी प्रकार प्रलय नामक घटना का उल्लेख वैयक्तिक मृत्यु के अर्थ में तथा लोक-विशेष के मिटने के अर्थ
में भी किया जाता है, जबकि 'महाप्रलय' वह है जिसमें समष्टि-चेतना का ही लय अपने कारण में हो जाता
है। इसका समय 'कल्पान्त' होता है।
इस सब में कोई क्रम तो अवश्य है ही, यद्यपि हमारे लोक में इसकी सत्यता को जान-समझ पाना हमारे लिए लगभग असंभव सा है।
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