नित्य-अनित्य
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हातिम ताई के आचार्य ने उसकी परीक्षा करने के बाद ही यह तय किया कि वह विवेक-वैराग्य युक्त पात्र अधिकारी है किन्तु उसके अन्तरायों का निवारण नहीं हुआ है। क्योंकि परम्परा के अनुसार तो स्वाभाविक क्रम यही है कि नित्य-अनित्य के पर्याप्त चिंतन से विवेक जागृत होता है, और विवेक जागृत होने पर वैराग्य । विवेक-वैराग्य और वैराग्य के उदय के बाद ही चित्त के अन्तरायों का पूर्ण नाश हो पाता है। किन्तु मनुष्य मात्र के संस्कारों के अनुसार किसी किसी में अन्तरायों के शेष रहते हुए भी विवेक तथा वैराग्य इतनी पर्याप्त मात्रा में होते हैं कि वह शास्त्र-अध्ययन से इस बाधा का निवारण करने में समर्थ हो जाता है।
व्याधि-स्त्यान-संशय-प्रमाद-आलस्य-विरति-भ्रान्ति-दर्शन-अलब्धभूमिकत्व-अनवस्थितत्वानि
चित्त-विक्षेपा: ... ते अन्तरायाः।।
(पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद 30)
चित्त से संबंधित चित्त की इन बाधाओं को अन्तराय कहा है।
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दुःख-दौर्मनस्य-अङ्गम्-एजयत्व-श्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः।।
(पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद 31)
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व्याधि - disease,
स्त्यान - idleness , indolence,
संशय - doubt,
प्रमाद - negligence,
आलस्य - laziness,
विरति - lack of interest (in spiritual endeavor),
भ्रान्ति-दर्शन - delusion,
अलब्धभूमिकत्व - not having settled well in practice.
अनवस्थितत्व - instability,
इत्यादि चित्त-विक्षेप distractions of mind,
के प्रकार हैं, जिन्हें अन्तराय कहा जाता है। ये सभी आध्यात्मिक मार्ग में बाधक obstacles, होते हैं।
केवल नित्य-अनित्य के नियमित चिंतन से भी इन अन्तरायों को दूर किया जा सकता है।
आरुरुक्षो, योगारूढ :
इस प्रकार के अभ्यास से उन संस्कारों को नियंत्रित कर लिया जाता है जिनके कारण योगाभ्यास करनेवाले को समय-समय पर इनसे बाधा होती है।
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आत्म-चिंतन :
आचार्य ने इसीलिए उसे केवल इसी का अभ्यास करने का निर्देश दिया।
उसके लिए इतना ही आवश्यक और पर्याप्त था।
वैसे भी कठोलिक आचार्य न तो हठयोग आदि की शिक्षा देते थे, न भक्तिमार्ग की धारा का आग्रह करते थे।
एक दृष्टि से उन्हें कपिल-मुनि के साङ्ख्य-दर्शन का अनुयायी कहा जा सकता है।
किन्तु जैसा गीता में कहा है :
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्या स्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।। 4
(अध्याय 5)
इसलिए ईश्वर के (अस्तित्व के) बारे में वे मौन ही रहते थे।
ईश्वर और ईशिता परस्पर अभिन्न है। इसलिए साङ्ख्य-दर्शन ईश्वर (के स्वरूप) और उसके कार्य (ईशिता) में भेद नहीं देखता।
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नित्य-अनित्य का चिंतन करते हुए हातिम ताई इस निश्चय पर पहुँचा कि 'मैं' नित्य है जबकि शेष सब दृश्य प्रतीतियाँ 'अनित्य' हैं। किन्तु क्या दृश्य के अभाव में भी 'मैं' नामक 'दृष्टा' का स्वतंत्र अस्तित्व है?
इस स्थिति को प्राप्त होने पर हातिम ताई का मार्ग मानों अवरुद्ध हो गया।
बहुत समय, दिनों तक वह वहीं अटका रहा।
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हातिम ताई के आचार्य ने उसकी परीक्षा करने के बाद ही यह तय किया कि वह विवेक-वैराग्य युक्त पात्र अधिकारी है किन्तु उसके अन्तरायों का निवारण नहीं हुआ है। क्योंकि परम्परा के अनुसार तो स्वाभाविक क्रम यही है कि नित्य-अनित्य के पर्याप्त चिंतन से विवेक जागृत होता है, और विवेक जागृत होने पर वैराग्य । विवेक-वैराग्य और वैराग्य के उदय के बाद ही चित्त के अन्तरायों का पूर्ण नाश हो पाता है। किन्तु मनुष्य मात्र के संस्कारों के अनुसार किसी किसी में अन्तरायों के शेष रहते हुए भी विवेक तथा वैराग्य इतनी पर्याप्त मात्रा में होते हैं कि वह शास्त्र-अध्ययन से इस बाधा का निवारण करने में समर्थ हो जाता है।
व्याधि-स्त्यान-संशय-प्रमाद-आलस्य-विरति-भ्रान्ति-दर्शन-अलब्धभूमिकत्व-अनवस्थितत्वानि
चित्त-विक्षेपा: ... ते अन्तरायाः।।
(पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद 30)
चित्त से संबंधित चित्त की इन बाधाओं को अन्तराय कहा है।
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दुःख-दौर्मनस्य-अङ्गम्-एजयत्व-श्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः।।
(पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद 31)
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व्याधि - disease,
स्त्यान - idleness , indolence,
संशय - doubt,
प्रमाद - negligence,
आलस्य - laziness,
विरति - lack of interest (in spiritual endeavor),
भ्रान्ति-दर्शन - delusion,
अलब्धभूमिकत्व - not having settled well in practice.
अनवस्थितत्व - instability,
इत्यादि चित्त-विक्षेप distractions of mind,
के प्रकार हैं, जिन्हें अन्तराय कहा जाता है। ये सभी आध्यात्मिक मार्ग में बाधक obstacles, होते हैं।
केवल नित्य-अनित्य के नियमित चिंतन से भी इन अन्तरायों को दूर किया जा सकता है।
आरुरुक्षो, योगारूढ :
इस प्रकार के अभ्यास से उन संस्कारों को नियंत्रित कर लिया जाता है जिनके कारण योगाभ्यास करनेवाले को समय-समय पर इनसे बाधा होती है।
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आत्म-चिंतन :
आचार्य ने इसीलिए उसे केवल इसी का अभ्यास करने का निर्देश दिया।
उसके लिए इतना ही आवश्यक और पर्याप्त था।
वैसे भी कठोलिक आचार्य न तो हठयोग आदि की शिक्षा देते थे, न भक्तिमार्ग की धारा का आग्रह करते थे।
एक दृष्टि से उन्हें कपिल-मुनि के साङ्ख्य-दर्शन का अनुयायी कहा जा सकता है।
किन्तु जैसा गीता में कहा है :
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्या स्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।। 4
(अध्याय 5)
इसलिए ईश्वर के (अस्तित्व के) बारे में वे मौन ही रहते थे।
ईश्वर और ईशिता परस्पर अभिन्न है। इसलिए साङ्ख्य-दर्शन ईश्वर (के स्वरूप) और उसके कार्य (ईशिता) में भेद नहीं देखता।
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नित्य-अनित्य का चिंतन करते हुए हातिम ताई इस निश्चय पर पहुँचा कि 'मैं' नित्य है जबकि शेष सब दृश्य प्रतीतियाँ 'अनित्य' हैं। किन्तु क्या दृश्य के अभाव में भी 'मैं' नामक 'दृष्टा' का स्वतंत्र अस्तित्व है?
इस स्थिति को प्राप्त होने पर हातिम ताई का मार्ग मानों अवरुद्ध हो गया।
बहुत समय, दिनों तक वह वहीं अटका रहा।
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