ऐतरेय : एक भूमिका
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अभी दो घड़ी पहले स्वप्न देख रहा था।
एक बहुत बड़ा शहर है जिसमें मेरे अलावा कोई दूसरा प्राणी नहीं दिखाई दिया।
बस जले हुए बहुत से भवन हैं, जले हुए कोयला और राख हुए वृक्ष हैं और रास्ते, चौराहे, तिराहे आदि हैं।
वहाँ कभी दुकानें, मॉल या दूसरे स्थान रहे होंगे।
यहाँ अनेक लोग रहे और आते-जाते रहे होंगे।
किन्तु इस समय तो मैं नितांत अकेला था।
और चारों ओर इतना अन्धेरा था कि बस 200 फुट की दूरी तक की चीज़ों की आकृति भर दिखलाई पड़ती थी।
मुझे न जाने ऐसा कुछ लगा मानों मैं विक्रम हूँ जो चन्द्रमा की सतह पर खड़ा है।
हालाँकि यह तुलना मैं अब ही कर रहा हूँ।
मैं बस एक यंत्रचालित रोबोट था।
मुझे आभास था कि यह स्वप्न है और इसके बाद यही स्वप्नावस्था किसी और रूप में बदल जाएगी।
मुझे न भय हो रहा था, न आश्चर्य, क्योंकि मुझे मालूम है कि एक ही तत्व ऐतरेय ही सब कुछ है।
यही वह स्वप्नबीज (The Seed-Consciousness) है, जो एकोऽहं है।
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इसी ब्लॉग में कुछ समय पहले स्कन्द-पुराण से ऐतरेय की कथा उद्धृत की थी।
करीब 36 वर्षों पूर्व ऐतरेय उपनिषद् के नाम से आकर्षित हुआ था। किन्तु तब यह मेरे लिए असंख्य नामों की तरह एक और नाम ही तो था। हाँ विगत कुछ वर्षों में दो-तीन बार इसका अवलोकन भी हुआ होगा।
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कल दोपहर यूँ ही घर में बैठा हुआ था।
कुछ लिखने का विचार हुआ किन्तु तत्काल ही विलीन हो गया।
स्मृति से एक प्रेरणा उठी और जिज्ञासा हुई कि कैसे एक ही चेतना / Consciousness व्यक्त होकर असंख्य नाम-रूप की तरह असीम जगत और उसमें अवस्थित असंख्य जड़-चेतन वस्तुओं में रूपान्तरित हो जाती है, -या ऐसा प्रतीत होने लगता है । और फिर काल-स्थान तथा उसके अंतर्गत अपने-आपके एक विशिष्ट 'व्यक्ति' होने की भावना उत्पन्न होती है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाएँ क्रम से एक ही सुदीर्घ आदि-अन्तरहित स्वप्न के असंख्य टुकड़ों की तरह एक के बाद दूसरी आती और जाती रहती हैं। जो चेतना जाग्रत अवस्था में क्षीण-प्राय क्षणिक या सुदीर्घ विस्तृत विचार के रूप में व्यक्त होती है, वही स्वप्नावस्था में दृश्य-श्रव्य (audio-visual) रूप से अनुभव की जाती है। तथापि अपने 'एक' होने की भावना एक सूत्र की तरह तमाम अवस्थाओं में अनुस्यूत (पिरोई) होते हुए भी सब से अछूती और अप्रभावित रहती है।
क्या यह आश्चर्य नहीं है कि जागृति के समय और स्वप्न में भी हर किसी को अपने जैसे असंख्य नाम-रूप दिखलाई पड़ते हैं किन्तु उन सबकी क्षणिकता भी प्रत्यक्ष जान पड़ती है। एक ऐसा सत्य जिसे सिद्ध करने का सवाल भी नहीं उठता। किन्तु इससे यही स्पष्ट होता है कि सभी नाम-रूप यद्यपि इन्द्रिय-अनुभव हैं, और बुद्धि से सोचने पर ही परस्पर भिन्न-भिन्न दिखाई देते हैं, तत्वतः एक ही सत्य हैं।
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तब मेरा ध्यान पुनः ऐतरेय उपनिषद् की ओर आकर्षित हुआ और मन हुआ कि एक बार और इसका अवलोकन और अध्ययन करूँ। छोटा सा यह ग्रन्थ गागर में सागर है। सभी उपनिषदों की अपने रोचक शैली है जो भिन्न-भिन्न मानसिकता के मनुष्यों के लिए कम या अधिक अनुकूल हो सकती है। कठोपनिषद् भी ऐसा ही ग्रन्थ है, और जैसे नचिकेता उसका प्रमुख पात्र है, उसी तरह 'ऐतरेय' इस ऐतरेय उपनिषद् का प्रमुख पात्र है।
ऐतरेय उपनिषद् के गूढ़ तात्पर्य का सार - अगले पोस्ट में।
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स्वप्नबीज, ऐतरेय, उपनिषद्, सोऽहं, हं-सो, अश्विनौ,
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Wish and hope to translate the above post into English.
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अभी दो घड़ी पहले स्वप्न देख रहा था।
एक बहुत बड़ा शहर है जिसमें मेरे अलावा कोई दूसरा प्राणी नहीं दिखाई दिया।
बस जले हुए बहुत से भवन हैं, जले हुए कोयला और राख हुए वृक्ष हैं और रास्ते, चौराहे, तिराहे आदि हैं।
वहाँ कभी दुकानें, मॉल या दूसरे स्थान रहे होंगे।
यहाँ अनेक लोग रहे और आते-जाते रहे होंगे।
किन्तु इस समय तो मैं नितांत अकेला था।
और चारों ओर इतना अन्धेरा था कि बस 200 फुट की दूरी तक की चीज़ों की आकृति भर दिखलाई पड़ती थी।
मुझे न जाने ऐसा कुछ लगा मानों मैं विक्रम हूँ जो चन्द्रमा की सतह पर खड़ा है।
हालाँकि यह तुलना मैं अब ही कर रहा हूँ।
मैं बस एक यंत्रचालित रोबोट था।
मुझे आभास था कि यह स्वप्न है और इसके बाद यही स्वप्नावस्था किसी और रूप में बदल जाएगी।
मुझे न भय हो रहा था, न आश्चर्य, क्योंकि मुझे मालूम है कि एक ही तत्व ऐतरेय ही सब कुछ है।
यही वह स्वप्नबीज (The Seed-Consciousness) है, जो एकोऽहं है।
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इसी ब्लॉग में कुछ समय पहले स्कन्द-पुराण से ऐतरेय की कथा उद्धृत की थी।
करीब 36 वर्षों पूर्व ऐतरेय उपनिषद् के नाम से आकर्षित हुआ था। किन्तु तब यह मेरे लिए असंख्य नामों की तरह एक और नाम ही तो था। हाँ विगत कुछ वर्षों में दो-तीन बार इसका अवलोकन भी हुआ होगा।
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कल दोपहर यूँ ही घर में बैठा हुआ था।
कुछ लिखने का विचार हुआ किन्तु तत्काल ही विलीन हो गया।
स्मृति से एक प्रेरणा उठी और जिज्ञासा हुई कि कैसे एक ही चेतना / Consciousness व्यक्त होकर असंख्य नाम-रूप की तरह असीम जगत और उसमें अवस्थित असंख्य जड़-चेतन वस्तुओं में रूपान्तरित हो जाती है, -या ऐसा प्रतीत होने लगता है । और फिर काल-स्थान तथा उसके अंतर्गत अपने-आपके एक विशिष्ट 'व्यक्ति' होने की भावना उत्पन्न होती है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाएँ क्रम से एक ही सुदीर्घ आदि-अन्तरहित स्वप्न के असंख्य टुकड़ों की तरह एक के बाद दूसरी आती और जाती रहती हैं। जो चेतना जाग्रत अवस्था में क्षीण-प्राय क्षणिक या सुदीर्घ विस्तृत विचार के रूप में व्यक्त होती है, वही स्वप्नावस्था में दृश्य-श्रव्य (audio-visual) रूप से अनुभव की जाती है। तथापि अपने 'एक' होने की भावना एक सूत्र की तरह तमाम अवस्थाओं में अनुस्यूत (पिरोई) होते हुए भी सब से अछूती और अप्रभावित रहती है।
क्या यह आश्चर्य नहीं है कि जागृति के समय और स्वप्न में भी हर किसी को अपने जैसे असंख्य नाम-रूप दिखलाई पड़ते हैं किन्तु उन सबकी क्षणिकता भी प्रत्यक्ष जान पड़ती है। एक ऐसा सत्य जिसे सिद्ध करने का सवाल भी नहीं उठता। किन्तु इससे यही स्पष्ट होता है कि सभी नाम-रूप यद्यपि इन्द्रिय-अनुभव हैं, और बुद्धि से सोचने पर ही परस्पर भिन्न-भिन्न दिखाई देते हैं, तत्वतः एक ही सत्य हैं।
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तब मेरा ध्यान पुनः ऐतरेय उपनिषद् की ओर आकर्षित हुआ और मन हुआ कि एक बार और इसका अवलोकन और अध्ययन करूँ। छोटा सा यह ग्रन्थ गागर में सागर है। सभी उपनिषदों की अपने रोचक शैली है जो भिन्न-भिन्न मानसिकता के मनुष्यों के लिए कम या अधिक अनुकूल हो सकती है। कठोपनिषद् भी ऐसा ही ग्रन्थ है, और जैसे नचिकेता उसका प्रमुख पात्र है, उसी तरह 'ऐतरेय' इस ऐतरेय उपनिषद् का प्रमुख पात्र है।
ऐतरेय उपनिषद् के गूढ़ तात्पर्य का सार - अगले पोस्ट में।
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स्वप्नबीज, ऐतरेय, उपनिषद्, सोऽहं, हं-सो, अश्विनौ,
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Wish and hope to translate the above post into English.
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