Monday, 2 September 2019

कवीनाम् उशना कविः

छन्दांसि यत्र पर्णानि  
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कठोलिक आचार्य चूँकि उशना (शुक्राचार्य) की परंपरा के थे, इसलिए यह बिलकुल स्वाभाविक था कि वे कभी-कभी काव्य की रूपकात्मक शैली में उपदेश देते।  जिसका गूढ अभिप्राय बहुत ध्यान से सुनने पर ही समझा जा सकता था।  इस प्रकार एक ओर वे काव्याभिव्यक्ति कर रहे होते तो दूसरी ओर आचार्य के रूप में गुरु होने का उत्तरदायित्व भी वहन करते होते।
उस शैली में दिए गए उनके वचनों के सौंदर्य का आस्वाद रसिक सामान्य जन केवल ऊपरी तौर पर ही ले पाते थे। इस प्रकार उपदेश का गूढ़ तात्पर्य केवल कोई पात्र व्यक्ति ही समझ पाता था।
ऐसे ही एक समय हातिम ताई (जिसका लोक में प्रचलित नाम 'आदम' था,) ने उन्हें कहते सुना :
"(विवेकरहित मनुष्य के जीवन में), लोभ के वृक्ष में आशाओं के पुष्प पुष्पित होते हैं, वृत्तियों के पल्लव नित नए पल्लवित होते रहते हैं, और आशंकाओं के कच्चे-पक्के फल भी इसी प्रकार निरंतर फलित होते रहते है।  इस वृक्ष की सुगंध से आकर्षित होकर भयरूपी विषधारी सर्प इससे लिपटे रहते हैं। चन्दन के वृक्ष में फल-फूल तो नहीं, किन्तु शीतलता अवश्य होती है, और वे उस शीतलता के सुख के लोभ से ही उसकी ओर आकर्षित होते हैं, ताकि उनमें विद्यमान गरल की ऊष्णता यत्किञ्चित शान्त हो सके। यद्यपि इससे उन्हें न तो अपने विष और न ही दंशवृत्ति से छुटकारा मिल पाता है। यह भी सच है कि इस विष और दंशवृत्ति तथा विषदन्त के होने से एक ओर तो उन्हें आहार मिलने में सरलता होती है, तो दूसरी ओर यही शत्रुओं से उनकी आत्मरक्षा का एकमात्र उपाय भी होता है, क्योंकि फुफकारने मात्र से भी यदि शत्रु सावधान न हो सके तो अन्य कोई विकल्प उनके पास होता ही कहाँ है?"
हातिम ताई को प्रतीत हुआ कि यह कोरी कविता मात्र नहीं, बल्कि आचार्य के इन शब्दों (उपदेश) में कोई गूढ़ आशय छिपा है। आचार्य प्रायः अपने वचनों में 'ह वा' शब्द का प्रयोग करते थे जो संस्कृत में 'अवश्य' के अर्थ में प्रयुक्त होता है।  वेद और उपनिषद् में यह प्रयोग प्रचुरता से पाया जाता है।  जब जब भी आचार्य इसका प्रयोग करते तो हातिम ताई को अपनी पत्नी का स्मरण होता, क्योंकि किसी संयोग से उसका 'हव-वा' नाम इससे बहुत मिलता-जुलता था। एक ओर तो वह आचार्य के शब्दों के काव्य-रस का आनंद लेता, तो दूसरी ओर मन ही मन पत्नी के बारे में सोचने लगता। किन्तु इन दोनों से अधिक वह उस उपदेश के सार पर चिन्तन करता जो आचार्य की वाणी में लक्षित और इंगित होता था।
उसने शायद ही कभी कल्पना की होगी कि आचार्य का यह रूपकात्मक आख्यान गिरीश (ग्रीस) से बाहर जाकर चतुर्दिक् फैलेगा और उसके अपने देश मिस्र, ईराक, ईरान की सीमाओं तक इसकी ख्याति होगी।  इतना ही नहीं यह किंवदंती भर न रहकर इसका उल्लेख भविष्य में धर्म की किताबों में भी होगा।
 "स्मृति ही इस वृक्ष का बीज है, जो इस प्रकार सतत प्रसारित होता है। यह बीज वृक्ष में वैसे ही व्याप्त होता है जैसे अमरबेल में उसका बीज छिपा होता है।
पहचान ही स्मृति है और स्मृति ही पहचान,
-वह चाहे स्वयं (आत्म) की हो या स्वयं से इतर (अनात्म) की।"
आचार्य ने अपने उपदेश का उपसंहार करते हुए कहा।
हातिम ताई को मानों एक आघात सा लगा किन्तु उस धक्के से उसके मन का वह प्रश्न तत्क्षण ध्वस्त और विलीन हो गया, जो उसे पिछले कई दिनों से व्याकुल कर रहा था :
"क्या दृश्य के अभाव में भी दृश्य से भिन्न और स्वतन्त्र कोई दृष्टा होता है?"
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