कथञ्चाहम् ?
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अहम् या अहं परमेश्वर का प्रथम नाम है।
अस्तित्व नाम और रूप से ही व्यक्त और अभिव्यक्त है।
यह पोस्ट विशेष रूप से परम आदरणीय श्री पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ठ जी को समर्पित है, क्योंकि इसे लिखने की प्रेरणा उनके इस विडिओ को देखते-सुनते समय मन में हुई।
यद्यपि वे उनके उद्बोधन में समाये ज्ञान का श्रेय लेने से विनम्रतापूर्वक इन्कार कर देते हैं और इसे किसी और (श्री आर. एस. एन. सिंह आदि) से प्राप्त कहते हैं। पर इस पर बहस करने का कोई मतलब नहीं। मतलब की बात यह है, कि उनके द्वारा दिए गए उद्बोधन के इस वाक्य ने मेरा ध्यान खींचा कि किस प्रकार विदेशी आक्रांताओं ने अनेक प्रकार से अत्यंत समृद्ध और श्रेष्ठ भारतीय संस्कृति, ज्ञान और परंपरा को न सिर्फ नष्ट-भ्रष्ट किया बल्कि योजनापूर्वक जन-मन के सम्पूर्ण भारतीय मानस में अपने गौरवपूर्ण इतिहास के प्रति हीनता व अनादर का भाव पैदा किया। प्रस्तुत पोस्ट में, जिसे वैसे तो मेरे इस ब्लॉग की मूल विषय-वस्तु की दृष्टि से लिख रहा हूँ, उनके इस कथन की पुष्टि देखी जा सकती है।
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अहम् क्या है?
अहम् 'प्रथम' है।
'प्रथ्यते इति प्रथा / प्रथमः / प्रथमं / प्रथमा' ।
अंग्रेज़ी का 'First' इसी 'प्रथ' का cognate / सज्ञात है।
वैसे 'First' को प्रस्थः का cognate / सज्ञात कहना भी गलत न होगा।
(संस्कृत में तथा दूसरी भी प्रायः सभी भाषाओं में अहम् तथा अहम् के अर्थ के द्योतक सभी शब्द पुंलिंग, स्त्रीलिंग तथा नपुंसकलिंग तीनों लिंगों (genders) में समान रूप से प्रयुक्त होते हैं।)
अहम् पुंलिंग है।
अहम् स्त्रीलिंग है।
अहम् नपुंसकलिंग है।
अहम् वर्ण 'अ' से 'ह' तक की सम्पूर्ण वर्णमाला का द्योतक है।
'अ' से 'ह' तक के वर्ण पुनः, क्रमशः स्वर तथा व्यञ्जन वर्ग में आते हैं।
'अ - उ - म्' तीनों स्वर संयुक्त रूप से 'ॐ' अर्थात् प्रणव हैं।
इस प्रकार प्रणव केवल स्वर है।
ॐकार प्रथमस्तस्य चतुर्दशस्वरास्तथा।
वर्णाश्चैव त्रयस्त्रिंशदनुस्वारस्तथैव च।।
विसर्जनीयाश्च परो जिह्वामूलीय एव च।
उपध्मानीय एवापि द्विपञ्चाशदमी स्मृता।।
ॐकारः प्रथमः तस्य चतुर्दशाः स्वराः तथा।
वर्णाः च एव त्रयस्त्रिंशत् अनुस्वारः तथा एव च।।
विसर्जनीयाः च परः जिह्वामूलीय एव च।
उपध्मानीय एव अपि द्विपञ्चाशत् अमी स्मृता।।
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वर्णों की मातृका (matrix) में 52 अक्षर कहे जाते हैं।
(देवी के 52 शक्ति पीठ इसी का माहात्म्य है।)
उनमें सर्वप्रथम ॐकार है।
(इसलिए 'अहम्' प्रथम होने से 'ॐकार' है; या 'ॐकार' प्रथम होने से अहम् है । दोनों का एक ही आशय है।)
अकारः कथितो ब्रह्मा उकारो विष्णुरुच्यते।
मकारश्च स्मृतो रुद्रस्त्रयश्चैते गुणा स्मृताः।।
अर्धमात्रा च या मूर्ध्नि परमः स सदाशिवः।।
(स्कन्द-पुराण -- माहेश्वर-खण्ड --कुमारिका-खण्ड, 3 /251, 3 /252)
पुनः अ-कार से औ-कार तक जो चौदह स्वर हैं, वे चौदह 'मनुस्वरूप' हैं :
स्वायम्भुव, स्वारोचिष, औत्तम, रैवत, तामस, चाक्षुष तथा वैवस्वत (जो इस समय हमारे वर्तमान युग में हैं। )
सावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, रूद्रसावर्णि, दक्षसावर्णि, धर्मसावर्णि, रौच्य तथा भौत्य --
ये चौदह मनु कहे जाते हैं।
वैवस्वत मनु ऋ-कार स्वरूप हैं।
(इनका उल्लेख गीता अध्याय 4 में पाया जाता है :
'विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।')
'क' से 'ह' तक तैंतीस देवता हैं।
'क' से 'ठ' तक बारह 'आदित्य' हैं।
(बारह ज्योतिर्लिङ्ग)
'ड' से 'ब' तक ग्यारह 'रुद्र' हैं।
'भ' से 'श' तक आठ 'वसु' हैं।
'स' और 'ह' दोनों अश्विनीकुमार हैं।
(सोऽहम् / हम्-सो / हंसो)
अनुस्वार (ं) , विसर्ग (ः), जिह्वामूलीय क़, ख़, और उपध्मानीय प (जैसा 'आप्त' शब्द के उच्चारण में प्रयोग किया जाता है), फ़, -- क्रमशः जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज इस प्रकार के चार जीव हैं।
जो पुरुष इन उपरोक्त देवताओं का आश्रय लेकर कर्मानुष्ठान में तत्पर होते हैं, वे ही अर्धमात्रास्वरूप नित्यपद 'सदाशिव' में लीन होते हैं।
जिस शास्त्र में पापी मनुष्यों के द्वारा ये देवता नहीं माने गए हैं, उस शास्त्र का उपदेश यदि साक्षात ब्रह्मा भी करें तो भी नहीं मानना चाहिए।
52 शक्ति-पीठ तथा 12 ज्योतिर्लिङ्ग का उल्लेख इसीलिए यहाँ किया गया।
अतः जो दुरात्मा इन उपरोक्त कहे गए देवताओं का उल्लंघन, उपेक्षा, अवहेलना, तिरस्कार करते हुए तप, दान, अथवा जप करते हैं, वे मृत्यु के बाद वायुप्रधान मार्ग से जाकर सर्दी से काँपते रहते हैं।
[इसकी तुलना में सूर्य तथा चंद्र (उत्तरायण तथा दक्षिणायन मार्ग से जानेवाले क्रमशः ब्रह्मलोक अथवा देवताओं के लोकों में जाते हैं।]
चूँकि वेद का अधिकारी हर कोई नहीं होता तथा वेद अधिक गूढ़ हैं, और वेद में हर किसी की रुचि हो यह भी ज़रूरी नहीं, इसलिए शेष मनुष्यों के लिए पुराणों की रचना की गयी है। पुराण भी उतने ही प्रामाणिक और श्रेयस की प्राप्ति के लिए उतने ही सहायक हैं जितने कि वेद हैं । पुराण रोचक भी हैं और केवल मनोरंजन की दृष्टि से भी पढ़ने पर धीरे धीरे अपने गूढ़ तत्व की ओर ध्यान को आकर्षित करने लगते हैं।
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पुनः --- 'अहम्' (प्रत्यय) :
अहंकार / अहंकृति है,
अहम्-भावना है,
अहम्-मति है,
अहम्-स्मृति है,
अहम्-विवेक है,
अहम् -एक है,
अहम् -अनेक है,
अहम् - शून्य है,
अहम् - अशून्य है,
अहम् -पुरुष (पुंलिङ्ग) है,
अहम् -प्रकृति (स्त्रीलिङ्ग) है,
अहम् -कारण (योनि) है,
अहम् परिणाम / कार्य / / प्रभाव /फल है,
अहम् - बीज है,
अहम् -वृक्ष है,
अहम् लक्षण (लिङ्ग) है,
अहम् अव्यक्त प्रकृति है,
अहम् -प्रथम पुरुष / first person, मध्यम पुरुष / second person, तथा अन्य पुरुष third person है।
अहम् -उत्तम पुरुष / पुरुषोत्तम / (अस्मत्) / अव्यक्त अधिष्ठान है,
अहम् -मध्यम पुरुष (युष्मत्)/ व्यक्त दृश्य अधिष्ठान है।
अहम् - दृग्दृश्य दोनों का अधिष्ठान 'तत्' अर्थात् अन्य पुरुषवाची समष्टि ब्रह्म है।
को अहम्? तथा किम् अहम्? से 'अहम्' के स्वरूप की जिज्ञासा करना आत्मानुसंधान है।
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हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।।19
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्तमेव च।।20
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।।34
(गीता अध्याय 10)
मे - 'अहम् का'
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अहम् या अहं परमेश्वर का प्रथम नाम है।
अस्तित्व नाम और रूप से ही व्यक्त और अभिव्यक्त है।
यह पोस्ट विशेष रूप से परम आदरणीय श्री पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ठ जी को समर्पित है, क्योंकि इसे लिखने की प्रेरणा उनके इस विडिओ को देखते-सुनते समय मन में हुई।
यद्यपि वे उनके उद्बोधन में समाये ज्ञान का श्रेय लेने से विनम्रतापूर्वक इन्कार कर देते हैं और इसे किसी और (श्री आर. एस. एन. सिंह आदि) से प्राप्त कहते हैं। पर इस पर बहस करने का कोई मतलब नहीं। मतलब की बात यह है, कि उनके द्वारा दिए गए उद्बोधन के इस वाक्य ने मेरा ध्यान खींचा कि किस प्रकार विदेशी आक्रांताओं ने अनेक प्रकार से अत्यंत समृद्ध और श्रेष्ठ भारतीय संस्कृति, ज्ञान और परंपरा को न सिर्फ नष्ट-भ्रष्ट किया बल्कि योजनापूर्वक जन-मन के सम्पूर्ण भारतीय मानस में अपने गौरवपूर्ण इतिहास के प्रति हीनता व अनादर का भाव पैदा किया। प्रस्तुत पोस्ट में, जिसे वैसे तो मेरे इस ब्लॉग की मूल विषय-वस्तु की दृष्टि से लिख रहा हूँ, उनके इस कथन की पुष्टि देखी जा सकती है।
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अहम् क्या है?
अहम् 'प्रथम' है।
'प्रथ्यते इति प्रथा / प्रथमः / प्रथमं / प्रथमा' ।
अंग्रेज़ी का 'First' इसी 'प्रथ' का cognate / सज्ञात है।
वैसे 'First' को प्रस्थः का cognate / सज्ञात कहना भी गलत न होगा।
(संस्कृत में तथा दूसरी भी प्रायः सभी भाषाओं में अहम् तथा अहम् के अर्थ के द्योतक सभी शब्द पुंलिंग, स्त्रीलिंग तथा नपुंसकलिंग तीनों लिंगों (genders) में समान रूप से प्रयुक्त होते हैं।)
अहम् पुंलिंग है।
अहम् स्त्रीलिंग है।
अहम् नपुंसकलिंग है।
अहम् वर्ण 'अ' से 'ह' तक की सम्पूर्ण वर्णमाला का द्योतक है।
'अ' से 'ह' तक के वर्ण पुनः, क्रमशः स्वर तथा व्यञ्जन वर्ग में आते हैं।
'अ - उ - म्' तीनों स्वर संयुक्त रूप से 'ॐ' अर्थात् प्रणव हैं।
इस प्रकार प्रणव केवल स्वर है।
ॐकार प्रथमस्तस्य चतुर्दशस्वरास्तथा।
वर्णाश्चैव त्रयस्त्रिंशदनुस्वारस्तथैव च।।
विसर्जनीयाश्च परो जिह्वामूलीय एव च।
उपध्मानीय एवापि द्विपञ्चाशदमी स्मृता।।
ॐकारः प्रथमः तस्य चतुर्दशाः स्वराः तथा।
वर्णाः च एव त्रयस्त्रिंशत् अनुस्वारः तथा एव च।।
विसर्जनीयाः च परः जिह्वामूलीय एव च।
उपध्मानीय एव अपि द्विपञ्चाशत् अमी स्मृता।।
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वर्णों की मातृका (matrix) में 52 अक्षर कहे जाते हैं।
(देवी के 52 शक्ति पीठ इसी का माहात्म्य है।)
उनमें सर्वप्रथम ॐकार है।
(इसलिए 'अहम्' प्रथम होने से 'ॐकार' है; या 'ॐकार' प्रथम होने से अहम् है । दोनों का एक ही आशय है।)
अकारः कथितो ब्रह्मा उकारो विष्णुरुच्यते।
मकारश्च स्मृतो रुद्रस्त्रयश्चैते गुणा स्मृताः।।
अर्धमात्रा च या मूर्ध्नि परमः स सदाशिवः।।
(स्कन्द-पुराण -- माहेश्वर-खण्ड --कुमारिका-खण्ड, 3 /251, 3 /252)
पुनः अ-कार से औ-कार तक जो चौदह स्वर हैं, वे चौदह 'मनुस्वरूप' हैं :
स्वायम्भुव, स्वारोचिष, औत्तम, रैवत, तामस, चाक्षुष तथा वैवस्वत (जो इस समय हमारे वर्तमान युग में हैं। )
सावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, रूद्रसावर्णि, दक्षसावर्णि, धर्मसावर्णि, रौच्य तथा भौत्य --
ये चौदह मनु कहे जाते हैं।
वैवस्वत मनु ऋ-कार स्वरूप हैं।
(इनका उल्लेख गीता अध्याय 4 में पाया जाता है :
'विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।')
'क' से 'ह' तक तैंतीस देवता हैं।
'क' से 'ठ' तक बारह 'आदित्य' हैं।
(बारह ज्योतिर्लिङ्ग)
'ड' से 'ब' तक ग्यारह 'रुद्र' हैं।
'भ' से 'श' तक आठ 'वसु' हैं।
'स' और 'ह' दोनों अश्विनीकुमार हैं।
(सोऽहम् / हम्-सो / हंसो)
अनुस्वार (ं) , विसर्ग (ः), जिह्वामूलीय क़, ख़, और उपध्मानीय प (जैसा 'आप्त' शब्द के उच्चारण में प्रयोग किया जाता है), फ़, -- क्रमशः जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज इस प्रकार के चार जीव हैं।
जो पुरुष इन उपरोक्त देवताओं का आश्रय लेकर कर्मानुष्ठान में तत्पर होते हैं, वे ही अर्धमात्रास्वरूप नित्यपद 'सदाशिव' में लीन होते हैं।
जिस शास्त्र में पापी मनुष्यों के द्वारा ये देवता नहीं माने गए हैं, उस शास्त्र का उपदेश यदि साक्षात ब्रह्मा भी करें तो भी नहीं मानना चाहिए।
52 शक्ति-पीठ तथा 12 ज्योतिर्लिङ्ग का उल्लेख इसीलिए यहाँ किया गया।
अतः जो दुरात्मा इन उपरोक्त कहे गए देवताओं का उल्लंघन, उपेक्षा, अवहेलना, तिरस्कार करते हुए तप, दान, अथवा जप करते हैं, वे मृत्यु के बाद वायुप्रधान मार्ग से जाकर सर्दी से काँपते रहते हैं।
[इसकी तुलना में सूर्य तथा चंद्र (उत्तरायण तथा दक्षिणायन मार्ग से जानेवाले क्रमशः ब्रह्मलोक अथवा देवताओं के लोकों में जाते हैं।]
चूँकि वेद का अधिकारी हर कोई नहीं होता तथा वेद अधिक गूढ़ हैं, और वेद में हर किसी की रुचि हो यह भी ज़रूरी नहीं, इसलिए शेष मनुष्यों के लिए पुराणों की रचना की गयी है। पुराण भी उतने ही प्रामाणिक और श्रेयस की प्राप्ति के लिए उतने ही सहायक हैं जितने कि वेद हैं । पुराण रोचक भी हैं और केवल मनोरंजन की दृष्टि से भी पढ़ने पर धीरे धीरे अपने गूढ़ तत्व की ओर ध्यान को आकर्षित करने लगते हैं।
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पुनः --- 'अहम्' (प्रत्यय) :
अहंकार / अहंकृति है,
अहम्-भावना है,
अहम्-मति है,
अहम्-स्मृति है,
अहम्-विवेक है,
अहम् -एक है,
अहम् -अनेक है,
अहम् - शून्य है,
अहम् - अशून्य है,
अहम् -पुरुष (पुंलिङ्ग) है,
अहम् -प्रकृति (स्त्रीलिङ्ग) है,
अहम् -कारण (योनि) है,
अहम् परिणाम / कार्य / / प्रभाव /फल है,
अहम् - बीज है,
अहम् -वृक्ष है,
अहम् लक्षण (लिङ्ग) है,
अहम् अव्यक्त प्रकृति है,
अहम् -प्रथम पुरुष / first person, मध्यम पुरुष / second person, तथा अन्य पुरुष third person है।
अहम् -उत्तम पुरुष / पुरुषोत्तम / (अस्मत्) / अव्यक्त अधिष्ठान है,
अहम् -मध्यम पुरुष (युष्मत्)/ व्यक्त दृश्य अधिष्ठान है।
अहम् - दृग्दृश्य दोनों का अधिष्ठान 'तत्' अर्थात् अन्य पुरुषवाची समष्टि ब्रह्म है।
को अहम्? तथा किम् अहम्? से 'अहम्' के स्वरूप की जिज्ञासा करना आत्मानुसंधान है।
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हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।।19
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्तमेव च।।20
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।।34
(गीता अध्याय 10)
मे - 'अहम् का'
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