ऐतरेय उपनिषद्
प्रथम अध्याय
द्वितीय खण्ड
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ता एता देवताः सृष्टा अस्मिन् महत्यर्णवे प्रापतंस्तमशानायापिपासाभ्यामन्ववार्जत्
ता एनमब्रुवन्नायतनं नः प्रजानीहि यस्मिन् प्रतिष्ठिता अन्नमदामेति।।१।।
(महति अर्णवे ... प्रापतन् ... तं अशनाया-पिपासाभ्यां अन्ववार्जत् .. ता एनं अब्रुवन् आयतनं नः
... अन्नं अदाम इति )
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प्रथम खण्ड में वर्णित :
तमभ्यतपत् .. तस्या ... रेतस आपः।।४।।
में स्पष्ट किया गया कि उस परम ईश्वरीय सत्ता से जो परमात्मा अथवा आत्मा और इदम् से अभेद है, किस प्रकार जगत्प्रतिमा का उद्भव हुआ। इसके पूर्ण होने पर सृष्टि-विधान का प्रवाह पुनः आपः अर्थात् उस जलतत्व में परिणत हुआ जिसका वर्णन मन्त्र २ में अम्भः शब्द से है।
(स इमाँल्लोकानसृजत। अम्भोमरीचिर्मरमापोऽदोअम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठान्तरिक्षं
मरीचयः पृथिवी मरो या अधस्तात्ता आपः।।२।।)
इस प्रकार आध्यात्मिक अधिष्ठान का वर्णन होने के बाद देवता-सृष्टि हुई जो आधिदैविक-सृष्टि है।
इस आधिदैविक सृष्टि के आधार-रूप में परमात्मा ने स्वयं अपने-आपको ही तप अर्थात् ईक्षण द्वारा
उस प्रतिमा में चैतन्य आरोपित किया जिससे उस जगत्प्रतिमा में तदनन्तर इन्द्रियों तथा देवताओं
का प्रादुर्भाव हुआ। ये देवता जो पञ्च महाभूतात्मक स्वरूप के हैं, इन्द्रियों और मन के मध्य संपर्क का
साधन हैं। इन्द्रियों के तथा उनसे सम्बद्ध देवताओं के सृजन के बाद स्थूल महाभूतात्मक आधिभौतिक
सृष्टि हुई जो पदार्थ और ऊर्जा, प्राण और चेतना की क्रीड़ा है।
जगत्प्रतिमा में अवस्थित ईश्वर के प्रतिरूप में देवताओं की प्रतिष्ठापना होने के बाद चैतन्य (हिरण्यगर्भ)
के व्यक्त होने से उस प्रतिरूप में स्वयं के एक स्वतंत्र अस्तित्व होने का भान हुआ। तब परमात्मा ने उन्हें
भूख और प्यास से युक्त कर दिया, और भूख तथा प्यास ने परमात्मा से अपने रहने के लिए किसी स्थान
को माँगा, जहाँ से वे अपना आहार ग्रहण कर सकें ।
(यह वही भूख-प्यास है जिसकी शान्ति और तृप्ति किसी लौकिक उपभोग से पूर्ण नहीं होती। )
ताभ्यो गामानयत्ता अब्रुवन्न वै नोऽयमलमिति
ताभ्योऽश्वमानयत्ता अब्रुवन्न वै नोऽयमलमिति ।।२।।
तब परमात्मा ने स्थान देने के लिए उनके सम्मुख गौ को प्रस्तुत किया।
तब देवताओं तथा भूख-प्यास ने कहा :
यह हमारे लिए पर्याप्त नहीं है,
तब परमात्मा ने स्थान देने के लिए उनके सम्मुख अश्व को प्रस्तुत किया।
तब देवताओं तथा भूख-प्यास ने कहा :
यह हमारे लिए पर्याप्त नहीं है,
ताभ्यः पुरुषमानयत्ता अब्रुवन् सुकृतं बतेति।
पुरुषो वाव सुकृतम्।
ता अब्रवीद्यथायतनं प्रविशतेति।
तब परमात्मा ने स्थान देने के लिए उनके सम्मुख पुरुष (मनुष्य-रूपी शरीर) प्रस्तुत किया।
तब देवता और भूख-प्यास ने कहा :
यह अवश्य ही श्रेष्ठ है। पुरुष (शरीर) अवश्य ही श्रेष्ठ है।
और भूख-प्यास से भी पहले उस शरीर में वे देवता यथास्थान प्रविष्ट हुए ।
उस मनुष्य-रूपी शरीर में ही समस्त देवता इस प्रकार प्रविष्ट हुए :
अग्निर्वाग्भूत्वा मुखं प्राविशद्वायुः प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशदादित्यश्चक्षुर्भूत्वाक्षिणी
प्राविशद्दिशः श्रोत्रं भूत्वा कर्णौ प्राविशन्नोषधिवनस्पतयो लोमानि भूत्वा त्वचं प्राविशन्-
चन्द्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशन्मृत्युरपानो भूत्वा नाभिं प्राविशदापो रेतो भूत्वा शिश्नं
प्राविशन्।।
तमशानायापिपासे अब्रूतामावाभ्यामभिप्रजानीहीति।
ते अब्रवीदेतास्वेव वां देवतास्वाभजाम्येतासु भागिन्यौ करोमीति।
तस्माद्यस्यै कस्यै च देवतायै हविर्गृह्यते भागिन्यावेवास्यामशनायापिपासे भवतः।।५।।
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तब परमात्मा से भूख तथा प्यास ने कहा :
"हम दोनों के रहने लिए भी उपयुक्त स्थान दीजिए।'
तब परमात्मा ने उन दोनों के लिए इन्द्रियों में स्थान निर्धारित किया।
इसलिए जिस किसी देवता के निमित्त हवि (यज्ञ में) प्रदान की जाती है उससे ही इन दोनों को
भी अन्न प्राप्त हो जाता है।
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प्रथम अध्याय
द्वितीय खण्ड
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ता एता देवताः सृष्टा अस्मिन् महत्यर्णवे प्रापतंस्तमशानायापिपासाभ्यामन्ववार्जत्
ता एनमब्रुवन्नायतनं नः प्रजानीहि यस्मिन् प्रतिष्ठिता अन्नमदामेति।।१।।
(महति अर्णवे ... प्रापतन् ... तं अशनाया-पिपासाभ्यां अन्ववार्जत् .. ता एनं अब्रुवन् आयतनं नः
... अन्नं अदाम इति )
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प्रथम खण्ड में वर्णित :
तमभ्यतपत् .. तस्या ... रेतस आपः।।४।।
में स्पष्ट किया गया कि उस परम ईश्वरीय सत्ता से जो परमात्मा अथवा आत्मा और इदम् से अभेद है, किस प्रकार जगत्प्रतिमा का उद्भव हुआ। इसके पूर्ण होने पर सृष्टि-विधान का प्रवाह पुनः आपः अर्थात् उस जलतत्व में परिणत हुआ जिसका वर्णन मन्त्र २ में अम्भः शब्द से है।
(स इमाँल्लोकानसृजत। अम्भोमरीचिर्मरमापोऽदोअम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठान्तरिक्षं
मरीचयः पृथिवी मरो या अधस्तात्ता आपः।।२।।)
इस प्रकार आध्यात्मिक अधिष्ठान का वर्णन होने के बाद देवता-सृष्टि हुई जो आधिदैविक-सृष्टि है।
इस आधिदैविक सृष्टि के आधार-रूप में परमात्मा ने स्वयं अपने-आपको ही तप अर्थात् ईक्षण द्वारा
उस प्रतिमा में चैतन्य आरोपित किया जिससे उस जगत्प्रतिमा में तदनन्तर इन्द्रियों तथा देवताओं
का प्रादुर्भाव हुआ। ये देवता जो पञ्च महाभूतात्मक स्वरूप के हैं, इन्द्रियों और मन के मध्य संपर्क का
साधन हैं। इन्द्रियों के तथा उनसे सम्बद्ध देवताओं के सृजन के बाद स्थूल महाभूतात्मक आधिभौतिक
सृष्टि हुई जो पदार्थ और ऊर्जा, प्राण और चेतना की क्रीड़ा है।
जगत्प्रतिमा में अवस्थित ईश्वर के प्रतिरूप में देवताओं की प्रतिष्ठापना होने के बाद चैतन्य (हिरण्यगर्भ)
के व्यक्त होने से उस प्रतिरूप में स्वयं के एक स्वतंत्र अस्तित्व होने का भान हुआ। तब परमात्मा ने उन्हें
भूख और प्यास से युक्त कर दिया, और भूख तथा प्यास ने परमात्मा से अपने रहने के लिए किसी स्थान
को माँगा, जहाँ से वे अपना आहार ग्रहण कर सकें ।
(यह वही भूख-प्यास है जिसकी शान्ति और तृप्ति किसी लौकिक उपभोग से पूर्ण नहीं होती। )
ताभ्यो गामानयत्ता अब्रुवन्न वै नोऽयमलमिति
ताभ्योऽश्वमानयत्ता अब्रुवन्न वै नोऽयमलमिति ।।२।।
तब परमात्मा ने स्थान देने के लिए उनके सम्मुख गौ को प्रस्तुत किया।
तब देवताओं तथा भूख-प्यास ने कहा :
यह हमारे लिए पर्याप्त नहीं है,
तब परमात्मा ने स्थान देने के लिए उनके सम्मुख अश्व को प्रस्तुत किया।
तब देवताओं तथा भूख-प्यास ने कहा :
यह हमारे लिए पर्याप्त नहीं है,
ताभ्यः पुरुषमानयत्ता अब्रुवन् सुकृतं बतेति।
पुरुषो वाव सुकृतम्।
ता अब्रवीद्यथायतनं प्रविशतेति।
तब परमात्मा ने स्थान देने के लिए उनके सम्मुख पुरुष (मनुष्य-रूपी शरीर) प्रस्तुत किया।
तब देवता और भूख-प्यास ने कहा :
यह अवश्य ही श्रेष्ठ है। पुरुष (शरीर) अवश्य ही श्रेष्ठ है।
और भूख-प्यास से भी पहले उस शरीर में वे देवता यथास्थान प्रविष्ट हुए ।
उस मनुष्य-रूपी शरीर में ही समस्त देवता इस प्रकार प्रविष्ट हुए :
अग्निर्वाग्भूत्वा मुखं प्राविशद्वायुः प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशदादित्यश्चक्षुर्भूत्वाक्षिणी
प्राविशद्दिशः श्रोत्रं भूत्वा कर्णौ प्राविशन्नोषधिवनस्पतयो लोमानि भूत्वा त्वचं प्राविशन्-
चन्द्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशन्मृत्युरपानो भूत्वा नाभिं प्राविशदापो रेतो भूत्वा शिश्नं
प्राविशन्।।
तमशानायापिपासे अब्रूतामावाभ्यामभिप्रजानीहीति।
ते अब्रवीदेतास्वेव वां देवतास्वाभजाम्येतासु भागिन्यौ करोमीति।
तस्माद्यस्यै कस्यै च देवतायै हविर्गृह्यते भागिन्यावेवास्यामशनायापिपासे भवतः।।५।।
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तब परमात्मा से भूख तथा प्यास ने कहा :
"हम दोनों के रहने लिए भी उपयुक्त स्थान दीजिए।'
तब परमात्मा ने उन दोनों के लिए इन्द्रियों में स्थान निर्धारित किया।
इसलिए जिस किसी देवता के निमित्त हवि (यज्ञ में) प्रदान की जाती है उससे ही इन दोनों को
भी अन्न प्राप्त हो जाता है।
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