Wednesday, 11 September 2019

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ?

आत्मानुसंधान 
नचिकेता : कठं ?
कथं विजानीयात्?
कठं विजानीयात्?
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कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।38
(गीता अध्याय 6)
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्र्येण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रणष्टस्ते धनञ्जय।।72
(गीता अध्याय 18)
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ॐ उशन् ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ।
तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस।।1
तम् ह कुमारम् सन्तं दक्षिणासु नीयमानासु श्रद्धाऽऽविवेश सोऽमन्यत।।2
पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरिन्द्रियाः।
अनन्दा नाम ते लोकास्तान् स गच्छति ता ददत्।।3
स होवाच पितरं तत कस्मै मां दास्यसीति।
द्वितीयं तृतीयं तम् होवाच मृत्यवे त्वा ददामीति।।4
बहूनामेमि प्रथमो बहूनामेमि मध्यमः।
किम् स्विद्यमस्य कर्तव्यं यन्मयाद्य करिष्यति।।5
अनुपश्य यथा पूर्वे प्रतिपश्य तथापरे।
सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः।।6
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ऋषि शुक्राचार्य जिनका ऐश्वर्य धन-संपत्ति लोक में सुना जाता था को संसार से विरक्ति हुई।
उन्होंने समस्त ज्ञात धन-संपत्ति को दान कर दिया।
(ज्ञात से मुक्ति / Freedom from the known)
इस धन-संपत्ति में न केवल स्वर्ण, रत्न, अन्न वस्त्र और भूमि आदि थे, किन्तु वह सब भी था जिसे ज्ञान और स्मृति, इस सबके स्वामित्व की भावना भी थी।
उनका एक पुत्र था जिसका नाम था नचिकेता।
इस प्रकार उन्होंने स्वयं के पुत्र के प्रति अपने 'पितृत्व' के विचार को भी त्याग दिया।
कौन था उनका वह पुत्र ?
निश्चय ही उनका मन ही वह पुत्र था जो सदा कतः, कति, आदि की चिकित्सा (विवेचना और जिज्ञासा) किया करता था।
यह मन जो स्वयं ही स्वयं को 'मेरा' कहकर अपने को दो में बाँट लेता था।
वह स्वयं ही अपना पिता था और स्वयं ही अपना पुत्र भी था।
क्योंकि वह स्मृति की सहायता से स्वयं को अतीत में कल्पित कर लेता था और संकल्प से भविष्य में।
अतीत और भविष्य में होनेवाले अपने स्वरुप के विचार से ही वह अपने स्वयं की वर्तमान की वास्तविक स्थिति से स्वयं को पृथक और भिन्न कर लेता था।
वह नित्य कुमार होते हुए भी स्वयं को बालक, युवा या वृद्ध  मानकर तदनुसार स्वयं को अपनी उस प्रतिमा के रूप में देखने लगता था।
तब उसने स्वयं से प्रश्न किया :
क्या इन गौओं को दान कर दूँ ?
गौओं से उसका आशय था इन्द्रियाँ;
-जो पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा अर्थात् भोगों से परितृप्त थीं, और जिनसे वह पर्याप्त सुख का उपभोग कर चुका था।
तब उसके मन में प्रश्न उठा की इन निर्बल इन्द्रियों को त्यागने से कौन सा स्वर्ग कौन सा आनंद प्राप्त होने वाला है ? अवश्य ही इन्द्रियों के कार्य से विरत हो जाने पर मैं अनंद नामक रिक्त और शून्य, आनंदरहित  अवस्था में ही रहूँगा। तब इस विचार से युक्त उसकी अहंवृत्ति (विचारक) ने उसके मन से प्रश्न किया (उसने मन ही मन पूछा) :
"(पिताजी) तो आप मुझे दान में किसे देंगे?"
दूसरी, तीसरी बार अर्थात् पुनः पुनः इस प्रश्न पर चिंतन कर उसे स्वयं से यह उत्तर मिला :
"(मैं तुम्हें) मृत्यु को दान कर दूँगा।"
तब उसके मन में प्रश्न उठा :
अनेकों में मैं (उत्तम पुरुष सर्वनाम एकवचन -'मैं') - 'प्रथम';
First person होता हूँ।
प्रत्येक मनुष्य अनायास ही स्वयं को प्रथमतः 'मैं' कहता-मानता है। 
हाँ, दूसरों के लिए उनकी दृष्टि में यही 'मैं' कभी-कभी 'तुम' (मध्यम पुरुष सर्वनाम एकवचन -'तुम')
 -'द्वितीय' -Second person होता हूँ।
किन्तु मैं कभी अन्य पुरुष सर्वनाम एकवचन 'वह' (Third person) तो नहीं हो सकता !
क्योंकि 'वह' तो खेती की फसल की तरह पुनः पुनः पैदा और नष्ट होता रहता है।
(जबकि सुनिश्चित रूप से मैं यह नहीं जानता कि क्या 'मेरा' कभी जन्म हुआ, या कभी 'मेरी' मृत्यु होगी?
जन्म और मृत्यु तो सदा किसी दूसरे-तीसरे की ही होती है।)
इसलिए मृत्यु के लिए मेरा क्या प्रयोजन आज सिद्ध होगा जिसके लिए मुझे दान में लेकर उसका कर्तव्य पूरा होगा?
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