ऐतरेय उपनिषद्
प्रथम अध्याय
तृतीय खण्ड
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स ईक्षतेमे नु लोकाश्च लोकपालाश्चान्नमेभ्यः सृजा इति।।१।।
ईक्षणरूपी तप से अपने उस प्रतिरूप की सृष्टि होने के अनन्तर ईक्षण से ही उसमें संकल्प हुआ कि
उस प्रतिरूप (तथा उस प्रतिरूप / जगत्प्रतिमा में निविष्ट / प्रविष्ट देवताओं) के रहने के लिए लोकों,
तथा उनके द्वारा भक्षण करने के लिए अन्न की सृष्टि हो।
जैसा कि पहले ही स्पष्ट किया गया है :
आत्मा (अहम्) वा इदम् एक एवाग्र आसीत् ;
यह संकल्प आत्मा में निहित उस शक्ति की ही अभिव्यक्ति था,
जो आत्मा (अहम्) वा इदम् से अभिन्न है।
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सोऽपोऽभ्यतपत्ताभ्योऽभितप्ताभ्यो मूर्तिरजायत।
या वै सा मूर्तिरजायतान्नं वै तत्।।२
--
(सः अपः अभ्यतपत् ताभ्यः अभितप्ताभ्यः मूर्तिः अजायत।
या वै मूर्तिः अजायताः अन्नं वै तत्।।)
यहाँ उल्लेखनीय है कि देवताओं, अश्व, गौ तथा मनुष्य-देह सहित जिस आत्मा (अहम्) वा इदम्
के ईक्षणरूपी इस तप से सृष्टि अव्यक्त / अनभिव्यक्त से अभिव्यक्त रूप में प्रकट (manifest)
हुई, वह स्वयं भी तब तक अमूर्त (abstract) तो था, -किन्तु अप्रकट नहीं था !
यह भी उल्लेखनीय है कि 'था' शब्द का प्रयोग व्यावहारिक अर्थ में औपचारिक रूप से किया जा रहा
है, -न कि इस अर्थ में कि यह कार्य 'व्यतीत होनेवाले समय' के अंतर्गत अतीत में कभी उस 'घटना'
की तरह हुआ, जिसका प्रारम्भ और अन्त होता है।
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वह अहम् वा इदम् से अभिन्न आत्मा अर्थात् परमात्मा, जल (जल -महाभूत; --बहुवचन, अर्थात्
पृथिवी, वायु, अग्नि और आकाश इन अन्य चार महाभूतों सहित जल / आप आदि) से उन्हें संयुक्त
कर मूर्तरूप में अभिव्यक्त हुआ।
जो वह मूर्तियाँ (मूर्त स्वरूप) इस प्रकार प्रकट हुईं वही 'अन्न' हुआ।
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तदेनत्सृष्टं पराङत्यजिघांसत्तद्वाचाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोद्वाचा गृहीतुम्।
यद्धैनद्वाचाग्रहैष्यदभिव्याहृत्य हैवान्नमत्रप्स्यत्।।३
(तत् एनत् सृष्टं पराङ्-अति-अजिघांसत्-तत्-वाचा-अजिघृक्षत्-तत्-न अशक्नोद्-वाचा गृहीतुम्।
यद् ह एनत् वाचा ग्रहैष्यत् अभिव्याहृत्य ह एव अन्नम् अतृप्स्यत्।।)
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इस प्रकार सृष्ट अन्न को परमात्मा (के उस प्रतिरूप) ने वाचा (वाणी) से ग्रहण करना चाहा,
किन्तु वाणी से न ग्रहण कर सका :
-- अर्थात् 'अन्न' शब्द का उच्चारण करने मात्र से उसे अन्न प्राप्त न हो सका।
यदि वह ऐसा कर सका होता तो 'अन्न' शब्द के उच्चारण से ही तृप्त हो जाता।
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प्रथम अध्याय
तृतीय खण्ड
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स ईक्षतेमे नु लोकाश्च लोकपालाश्चान्नमेभ्यः सृजा इति।।१।।
ईक्षणरूपी तप से अपने उस प्रतिरूप की सृष्टि होने के अनन्तर ईक्षण से ही उसमें संकल्प हुआ कि
उस प्रतिरूप (तथा उस प्रतिरूप / जगत्प्रतिमा में निविष्ट / प्रविष्ट देवताओं) के रहने के लिए लोकों,
तथा उनके द्वारा भक्षण करने के लिए अन्न की सृष्टि हो।
जैसा कि पहले ही स्पष्ट किया गया है :
आत्मा (अहम्) वा इदम् एक एवाग्र आसीत् ;
यह संकल्प आत्मा में निहित उस शक्ति की ही अभिव्यक्ति था,
जो आत्मा (अहम्) वा इदम् से अभिन्न है।
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सोऽपोऽभ्यतपत्ताभ्योऽभितप्ताभ्यो मूर्तिरजायत।
या वै सा मूर्तिरजायतान्नं वै तत्।।२
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(सः अपः अभ्यतपत् ताभ्यः अभितप्ताभ्यः मूर्तिः अजायत।
या वै मूर्तिः अजायताः अन्नं वै तत्।।)
यहाँ उल्लेखनीय है कि देवताओं, अश्व, गौ तथा मनुष्य-देह सहित जिस आत्मा (अहम्) वा इदम्
के ईक्षणरूपी इस तप से सृष्टि अव्यक्त / अनभिव्यक्त से अभिव्यक्त रूप में प्रकट (manifest)
हुई, वह स्वयं भी तब तक अमूर्त (abstract) तो था, -किन्तु अप्रकट नहीं था !
यह भी उल्लेखनीय है कि 'था' शब्द का प्रयोग व्यावहारिक अर्थ में औपचारिक रूप से किया जा रहा
है, -न कि इस अर्थ में कि यह कार्य 'व्यतीत होनेवाले समय' के अंतर्गत अतीत में कभी उस 'घटना'
की तरह हुआ, जिसका प्रारम्भ और अन्त होता है।
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वह अहम् वा इदम् से अभिन्न आत्मा अर्थात् परमात्मा, जल (जल -महाभूत; --बहुवचन, अर्थात्
पृथिवी, वायु, अग्नि और आकाश इन अन्य चार महाभूतों सहित जल / आप आदि) से उन्हें संयुक्त
कर मूर्तरूप में अभिव्यक्त हुआ।
जो वह मूर्तियाँ (मूर्त स्वरूप) इस प्रकार प्रकट हुईं वही 'अन्न' हुआ।
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तदेनत्सृष्टं पराङत्यजिघांसत्तद्वाचाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोद्वाचा गृहीतुम्।
यद्धैनद्वाचाग्रहैष्यदभिव्याहृत्य हैवान्नमत्रप्स्यत्।।३
(तत् एनत् सृष्टं पराङ्-अति-अजिघांसत्-तत्-वाचा-अजिघृक्षत्-तत्-न अशक्नोद्-वाचा गृहीतुम्।
यद् ह एनत् वाचा ग्रहैष्यत् अभिव्याहृत्य ह एव अन्नम् अतृप्स्यत्।।)
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इस प्रकार सृष्ट अन्न को परमात्मा (के उस प्रतिरूप) ने वाचा (वाणी) से ग्रहण करना चाहा,
किन्तु वाणी से न ग्रहण कर सका :
-- अर्थात् 'अन्न' शब्द का उच्चारण करने मात्र से उसे अन्न प्राप्त न हो सका।
यदि वह ऐसा कर सका होता तो 'अन्न' शब्द के उच्चारण से ही तृप्त हो जाता।
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