Friday, 30 August 2019

Ancient Tamil Language, Culture and Tradition.

Dravidian, Aryan, Tamil and Sanskrit
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I came across Tamil when I knew Bhagavan Sri Ramana Maharshi and His Literature.
I tried hard to learn the language but then felt, without oral practice, this language could not be learnt well satisfactorily. There are two kinds of scripts used in Classical Tamil one is Grantha-lipi, while other is the Brahmi-script  accommodated to help and facilitate legal and literary requirements.
The 12 lands around The River Kaveri constitute the mainland of Tamil-speaking people.
Dr. Nagaswami has narrated the whole truth in the video.
I also felt that the purpose of simplifying Tamil was to meet the requirements of the average people.  They really don't need the many letters that are there to serve the literary precision,
However the two reasons why this was allowed could be seen in the fact that All Veda-knowledge was taught orally as well as in written as well.
When it comes to share the same, the Granth-lipi / ग्रन्थ-लिपि was introduced so as to enable the pronunciation perfect. Dr. Nagaswami has cleared many a doubts about our understanding of the ancient Tamil Language, Culture and Tradition.
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Thursday, 29 August 2019

शिव की ध्यान-समाधि

शिव-परिवार 
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जब भगवान् शिव ध्यान-समाधि से बाहर आए तो पुनः पार्वती और बालक गणेश को उसी प्रकार एक-दूसरे से खेलते देखा। उन्हें याद आया कि ध्यान-समाधि में प्रविष्ट होने से पहले भी वे दोनों उसी प्रकार खेल रहे थे।
"प्रभो ! आप कितने समय तक ध्यान-मग्न रहे ?"
पार्वती ने पूछा।
"तुम लोग जितने समय तक खेलते रहे, उतने ही समय तक !"
 भगवान् शिव ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया।
"हमें तो समय का तब भान ही कहाँ था?"
पार्वती बोलीं।
"मुझे भी नहीं था !"
 भगवान् शिव ने कहा।
"यह कैसा रहस्य है ! क्या समय अनुभव नहीं है? या समय एक प्रतीति और वैचारिक अनुमान मात्र है?"
"अनुभव की दृष्टि से तो प्रत्येक प्राणी के लिए समय का अस्तित्व अलग-अलग प्रकार से होता है किन्तु अनुभव स्वयं ही क्षण-क्षण घटित और विलीन होता है।  फिर यह 'क्षण-क्षण' भी केवल अनुमान ही तो होता है जिसे स्मृति के सूत्र में पिरो लिया जाता है। इस प्रकार स्मृति और अनुभव के संयोग को ही एक अनादि और अनंत समय की प्रतीति के रूप में ग्रहण कर लिया जाता है। अब यदि मैं कहूँ कि समाधि के समय न तो कोई अनुभव था, न कोई समय तो इससे क्या यही सिद्ध नहीं होता, कि अनुभव और समय समाधि की अनुपस्थिति में ही प्रकट और विलीन होते हैं?"
"मेरा वाला तरंग-बिंदु न्याय !"
 भगवान् गणेश प्रसन्नता से उत्साह से बोले !
"तुम्हारा वाला?"
 भगवान् शिव और पार्वती दोनों ने एक साथ पूछा।
"हाँ वही, जिसे मैंने पिछली बार आप दोनों के लिए स्पष्ट किया था। "
लीला के ही लिए, दोनों ही बालक को चकित भाव से देखने लगे।
"देखो ! एक ही देहस्थ आत्मा से अनेक दिशाओं में अनेक इन्द्रियाँ प्रकट होती हैं। दो नेत्रों से प्रकाश-रूपी अनुभव-रूपी तरंग प्रकट होती है, जिसके माध्यम से समय-रूपी कल्पना प्रकट होती है।  इन दोनों को भूल से भिन्न-भिन्न समझ लिया जाता है। और इस प्रकार समय में अनुभव, तथा अनुभव में समय की तरह दो भिन्न और स्वतंत्र सत्ताओं का आभास होने लगता है।"
माता-पिता आश्चर्यचकित और मुग्ध होकर बालक के बोल सुन रहे थे।
"और यह देहस्थ आत्मा?"
 पार्वती ने प्रश्न किया।
"हाँ, अनुभव और समय की ही तरह यह देह और यह देहस्थ आत्मा भी परस्पर दो भिन्न और स्वतंत्र सत्ताओं की तरह प्रतीत होने लगते हैं। "
"और यह संसार?"
भगवान् शिव ने कौतूहल से पूछा। 
"देह और संसार भी इसी तरह एक ही उपादान से निर्मित होते हैं और एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व नहीं हो सकता।"
भगवान् शिव ने तब बालक को उठाकर गले से लगा लिया और पार्वती पिता-पुत्र के स्नेह के दृश्य से अभिभूत होकर प्रसन्नता-विभोर हो उठीं ।
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Wednesday, 28 August 2019

Pakistan Occupied Ghulam Jammu and Kasmir

While looking for :
Pir-Panjal range,
(पीर-पांजाल)
I came across the above link in Wikipedia.
Please Note;
There-in some-one have mischievously and with bad intention, 
changed the information :
regarding Pakistan Occupied Kashmir,
as :
"Pakistani region Azad Jammu and Kashmir".
If you are reading this post and are logged in with Wikipedia,
Please edit / correct this to :
"Pakistan occupied Jammu and Kashmir"
This is just to point out how we Indians are careless about our own harm done by the propagandist anti-national lobby.
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Now the post :
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In the previous post I have described about how 'Shamana-dharma' / शमन-धर्म;
which is prevalent on earth since times immemorial is but a stream of
'Sanatana-Dharma'/ 'सनातन-धर्म' . 
Though the शैव-धर्म teaches and follows certain aspects which are prohibited in the
'वैदिक-धर्म' / Vaidika dharma,
वेद honors and declares too that Lord Shiva is beyond the comprehension of Veda itself.
Again at the same time,
Veda also states that
'Lord Shiva' is 'सर्ववेदस्वरूपं' / of the very form and essence of Veda as well.
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The form of ''Shamana-dharma' / शमन-धर्म " that originated, evolved and blossomed in Kashmir,
was the "वीर-शैव-सिद्धान्त" / "Veera-Shaiva-Siddhanta".
As the adjoining Geographically landscape is close to the region of the :
"Pir-Panjal (पीर-पांजाल) range of Mountains in the Himalayas",
and the word "Beer" is but a cognate of "Veer",
and the word 'Sheba' is but a cognate of 'Shiva' / 'Shaiva';
it took this form on the west of 'Kuru/ कुरु'
The two political Dynasties / kingdoms are described in great details in "Mahabharata'.
While The Queen 'Kunti' belonged to the Dynasty of "Kuntals"
--The southern parts of this day Maharashtra, and the northern parts of Mysore;
The Queen Gandhari belonged to Gandhara (Present day Afghanistan).
Again The Queen Draupadi / Panchali belonged to पाञ्चाल, which is the same hilly mountainous terrain in 
 "Pir-Panjal (पीर-पांजाल) range of Mountains" in the Himalayas.
We can also rest assured that in Arabic,
the Sanskrit letter 'b' is pronounced and written as 'p'.
I'm not aware if this is the same in Persian also.
But the presence of
"Beer Sheba"
in Israel loudly proclaims the same fact.
I'm not going to claim anything,
I'm rather trying to see if there is a pattern and paradigm.
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Monday, 26 August 2019

Beer-Sheba, Bethlehem, Tel-aviv (Jaffa / Yafo)

नई वेताल-कथा ... 
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घर से कहीं बहुत दूर ऋषि अंगिरा के गिरीश (Greece) स्थित आश्रम में रहते हुए हातिम ताई को उन दिनों की याद आती थी जब वह कापालिकों के संसार में रहता था। क्या वह अब पुनः कभी अपने माता-पिता से मिल पाएगा ? कापालिकों की परंपरा में कुछ लोग अवश्य उसके अपने पैतृक स्थान मिस्र (महेश्वर) देश के भी थे, किन्तु उनसे भी वह यहीं मिला था।  मिश्र में रहते हुए वह इतना छोटा था कि वहाँ अगर कोई रहे हों तो भी वह कैसे समझ सकता था?
यह तो उसे यहाँ आने पर पता चला कि मिस्र में प्रेत-विद्या अत्यंत विकसित थी और भूत-विद्या (material-science, chemical and medicine) के भी ज्ञाता अनेक थे।
उनका सिद्धांत कुछ इस प्रकार से था :
पृथ्वी पृथ्वी में प्रवेश करती है, अर्थात् बड़ा भारी (गुरु) पिंड अपने से छोटे को अपनी ओर खींचता है।
आज की भाषा में इसे Law of Gravitation कहते हैं।
संस्कृत में ग्रावा / ग्रावन्  का अर्थ होता है - पत्थर।
ग्रावा से ही बना गिरि और गिरीश।
उद्गार, निगीर्ण, उद्गीर्ण आदि शब्द जिस धातु से बनाते हैं उसका प्रथम पुरुष एकवचन लट्-लकार रूप होता है 'गिरति', जिसका अर्थ है : गिरता है। गिर् से गिरीश, ग्रीस, ग्रीक दृष्टव्य हैं ।
जब किसी की मृत्यु हो जाती थी तो सामान्य व्यक्ति की स्थिति में उसे भूमि में दफना कर उसकी क़ब्र पर एक बड़ा भारी पत्थर रख दिया जाता था ताकि उसकी आत्मा (रूप / रूह / शरीर) भूमि में विलीन हो जाए।
किन्तु किसी विशेष धनवान व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर उसके शव के साथ सोना-चांदी, रत्न, बर्तन, प्याले, वस्त्र तक भूमि में रखे जाते थे। यहाँ तक कि किसी पात्र में जल, शराब आदि ऐसी वस्तुएँ भी जो बरसों तक सड़ना तो बहुत दूर, खराब तक नहीं होतीं। और यह माना जाता था कि मृत मनुष्य श्वास ही होता है जो बारम्बार अपनी मृत देह तक तब तक आता-जाता रहता है जब तक कि उसकी आयु होती है। आयु अर्थात् शरीर जब तक पूरी तरह विघटित होकर नष्ट नहीं हो जाता। इसलिए उसे जलाया नहीं जाता था।
न जलाने के पीछे एक कारण यह भी था कि अगर उसकी (शरीर अर्थात् आत्मा / रूप / रूह की) आयु शेष हो तो उस अवस्था में उसकी शेष आयु असह्य पीड़ा में पूरी होगी।
ग्रावा से ही दूसरी भाषाओं में शब्द बना 'grave' !
चाहे उसे दफनाया जाता या ऐसे ही कहीं रखा जाता तो भी उसकी श्वास जो उस स्थिति में इधर-उधर भटक कर पुनः अपने शरीर तक आती शरीर की दुर्दशा देखकर दुःखी होती। इसीलिए शरीर को ऐसे रसायन-द्रव्यों के लेप आदि से सुरक्षित रखा जाता कि आयु बीतने तक उसे कम से कम कष्ट झेलना पड़े।
आयु बीतने पर उसकी श्वास स्थूल शरीर को छोड़कर हवा में उसी प्रकार विलीन हो जाती, जैसे उसका स्थूल शरीर भूमि में विलीन हो जाता था। इसके बाद भी उसका व्यक्तित्व 'वेताल' की तरह शिव-लोक में अहं-रूप में भ्रमण करता रहता।
जिन लोगों का अंतिम संस्कार विधिपूर्वक नहीं हो पाया हो, उनकी श्वास (वायुरूपी आत्मा) यहाँ-वहाँ भटकती रहती थी और कभी-कभी किसी शव पर ही अधिकार कर लेती। तब कहा जाता की वह जीवित व्यक्ति प्रेताविष्ट (Possessed) हो गया है। इस प्रकार येन-केन-प्रकारेण दूसरे की उम्र चुरा लेती। और विशेष स्थिति में तो किसी दुर्बल-चित्त वाले मनुष्य को जीवित ही पकड़कर उसके माध्यम से जीवन के सुखों को थोड़े समय के लिए भोग लेती। इस प्रकार भूताविष्ट तथा प्रेताविष्ट दो भिन्न प्रकार हैं।
इसलिए 'अंतिम संस्कार' के समय शव के साथ धातु या पत्थर के किसी पात्र में आप-गंगम् (गंगा-जल) रखा जाता, जिससे शेष आयु तक उसे प्यास का कष्ट न उठाना पड़े।
भागीरथी गंगा वैसे तो हिमालय से निकलकर गंगासागर में समुद्र से मिल जाती है, किन्तु पाताल-गंगा के रूप में वह भूमि के दूसरे तलों अर्थात् अतल, तलातल, रसातल तथा पाताल में तथा स्वर्ग एवं अंतरिक्ष में भी नित्य विद्यमान रहती है, क्योंकि वह शिव से अभिन्न है।
जब हातिम ताई वहाँ था उस समय उस नदी का विस्तार क्षीण धारा से शुरू होकर बढ़ते-बढ़ते कभी-कभी उस मंदिर तक पहुँच जाता था जहाँ दो गरुड़-स्तम्भ थे, जिनमें से एक पर गरुड़-प्रतिमा, तो दूसरे पर साक्षात कोई गरुड़ आकर बैठ जाता था।  हातिम ताई को याद है उसी मंदिर के प्राकार (परिसर) में  वह शिवलिंग भी था जिसे शम्भू कहा जाता था जो स्वयंभू था।  'आप-गंगम्' नदी भी इसी प्रकार स्वयंभू थी, क्योंकि आसपास कोई पर्वत नहीं था। उस नदी के जल से ही शिव का अभिषेक कापालिक करते थे। वर्तमान आबे-ज़मज़म का अवश्य ही कोई संबंध इस 'आप-गंगम्' से होगा। बहुत बाद में महाभारत युद्ध के बाद वह स्थान इतना बदल गया, कि जलस्रोत भूमि के बहुत भीतर चला गया और तब से उसे कुआँ समझा जाने लगा। 
जिस व्यक्ति ने जीते जी इस सत्य को समझ लिया है उसके मृत शरीर को चाहे दफनाया या जलाया जाए, या जल में प्रवाहित कर दिया जाए, वह मृत्य के बाद भी वेताल के रूप में शिव-लोक में वास करता है।
दफनाए जाने का दूसरा कारण यह भी है कि अनेक स्थानों पर दाह-संस्कार के लिए पर्याप्त लकड़ी मिलना भी मुश्किल होता है, खासकर रेगिस्तान में और ठंडे देशों में।
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इस पूरी विद्या का अध्ययन वीर-शैव परंपरा में अनादि काल से होता आया है और यद्यपि इसके सूक्ष्म और गूढ़ व्यापक आध्यात्मिक अर्थ भी हैं, साधारण मनुष्य में इतनी जिज्ञासा या रुचि नहीं होती, कि वह उन पर ध्यान दे। साधारण मनुष्य बस विश्वास करता है कि इस प्रकार से उसके प्रियजन 'अमर' हो जाएंगे।
[प्रसंगवश उम्र, उमर, अमर, अम्र, अमीर, अमीरात, Emirates  ..... आदि तुल्य हैं। ]
शायद इसका संबंध 'अमरीकः' से होते हुए 'अमरीका' तथा महा-अमरीका / Mesoamerican  माया सभ्यता से भी है, जैसे महाप्रथमीय; 'मेसोपोटामिया - Mesopotamia' है, वैसे ही महा-अमरीका / Mesoamerica है, जिसे माया सभ्यता कहा जाता है।
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जैसे पृथ्वी का बड़ा पिंड छोटे को खींचता है, पृथ्वी जल को, जल वायु को, वायु अग्नि को, और अग्नि आकाश को खींचता है। विलोम-क्रम में; - पुनः आकाश अग्नि को (क्योंकि अग्नि आकाश में हर दिशा में फैलती है, और इसी तर्क से), अग्नि वायु को, वायु जल को तथा जल पृथ्वी को खींचता है।  यह जगत-देह है जिसमें ये पञ्च-प्राण क्रीडारत हैं। इसी प्रकार प्रत्येक जीव (organism) भी एक पूर्ण जगत है जिसमें ये ही पाँच तत्व और प्राण जब सामञ्जस्य के साथ संतुलित होकर क्रीडारत होते हैं तो उस देह में जीवभाव व्यक्त (manifest) होता है।
किन्तु स्थूल पृथ्वीतत्व के अभाव में भी शेष चार तत्वों के द्वारा एक जीवित सत्ता व्यक्त (manifest) होती है। इस प्रकार चार प्रकार के वेताल पृथ्वी के अभाव में जल, वायु, अग्नि और आकाश के तत्वों की प्रधानता के अनुसार आयु पूर्ण होने तक भ्रमण करते या भटकते रहते हैं।
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प्रेत-विद्या और मृत्यु-विद्या के पंडित उपरोक्त अनुसार उन वेताल-आत्माओं रूपों / रूहों का वर्गीकरण :
क्रमशः जल (आप- आबी), वायु (वात -वातीय-बादी), अग्नि (तेज -तैश-तिश- आतिश-आतिशी) तथा आकाशीय (जैव / ग़ैबी) के रूप में करते हैं। चूँकि वर्ण देवता-स्वरूप हैं, इसलिए शाबर मन्त्रों के माध्यम से मृत व्यक्ति के विशिष्ट रूप से संपर्क किया जा सकता है जो प्रायः व्यक्ति की जीवित अवस्था में ही पहले से खोज लिया जाता है। पृथ्वी-तत्व प्रधान मृत व्यक्ति को ख़ाकी (ज़मीनी) रूप प्राप्त होता है, इसलिए उसे ज़मीन में दफनाया जाता है। 'ख़ाकी' संस्कृत 'खाकीय' का सज्ञात (cognate)प्रतीत होता है क्योंकि 'ख' वर्ण स्थान का द्योतक है। शेष व्यक्तियों को उनकी आर्थिक स्थिति के अनुसार चतुष्फलकीय / tetrahedron आवरण / आवरक / क़ब्र में।  इन चार फलकों के अनुपात ही मृतक का मरणोत्तर स्वरूप क्या है यह तय करते थे।
इसी प्रकार 'क़ब्र' भी क-वृ का सज्ञात हो सकता है, ... जो अंग्रेज़ी में स-वृ -- cover हो जाता है। 
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कापालिक जानते थे कि आयु पूर्ण हो जाने पर मनुष्य पुनः उस विशिष्ट देवता जल, वायु, अग्नि तथा आकाश के मार्ग से 'नए' शरीर में जन्म लेगा। प्रेत-विद्या की मर्यादा यहीं तक थी। मृत्यु-विद्या के पंडित व्यक्ति को अहम्-वृत्ति (ego-sense) मानकर उस वृत्ति के स्वरूप के आधार पर व्यक्ति के संस्कार तथा संस्कार के आधार पर उसका भावी जन्म तय करते थे।
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इस अहम्-वृत्ति का आगमन जिस ब्रह्माकार-वृत्ति से होता है, उसका संकेत पिछली पोस्ट्स में दिया जा चुका है, -विशेष कर तरंगबिन्दु न्याय कथा में।
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अचानक याद आया द्वादश पञ्जरिका स्तोत्रम का यह श्लोक :
का तेऽष्टादशदेशे चिन्ता वातुल तव किं नास्ति नियन्ता।
यस्त्वां हस्ते सुदृढनिबद्धं बोधयति प्रभवादिविरूद्धम्।। 
(भवप्रत्ययो प्रभवः .... 'भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम्।'  .... पातञ्जल योगसूत्र; - समाधिपाद 19)     
जैसा कहा गया, व्याकरण के अनुसार भी कोई मूल वर्ण (ह्रस्व, दीर्घ, आदि अचामष्टादश भेद) अधिकतम 18 प्रकार का हो सकता है।  संभवतः उपरोक्त श्लोक में 'वातुल' वेताल के ही अर्थ का संकेत करता है। 
मरकर वेताल होना 'प्रभव' ही है।         
इस पोस्ट को यहीं विराम देता हूँ।
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Thursday, 22 August 2019

नए संकेत

ईशिता और आत्मीयता 
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हातिम ताई को दूर दूर तक इसका आभास तक नहीं था कि आचार्य ने उसे जो नाम प्रदान किया था वह नाम मनुष्यता के ज्ञात इतिहास में भविष्य में वैसा ही अमर हो जाएगा जैसा कि मनु का नाम मनुज से पहले से है।
कापालिकों के नगर में रहने तक वह ईश्वर को एक व्यक्ति-विशेष की तरह जानना-समझना और अनुभव करना चाहता था। किन्तु कठोलिकों के नगर में आने पर उसकी दृष्टि आमूलतः इस प्रकार बदल गयी जिसकी  कि उसे कभी कल्पना तक न थी। उसे स्पष्ट हुआ कि यद्यपि कापालिक-दर्शन किसी को ईश्वर होने के लिए सहायक हो सकता है, किन्तु  ईश्वर-साक्षात्कार के लिए किसी और के लिए, वह एक बहुत बड़ी रुकावट और बाधा भी हो सकता है।
उसे समझ में आया कि ईश्वर को व्यक्ति-विशेष के रूप में स्वीकार करना ही मूलतः भ्रामक और त्रुटिपूर्ण है।  क्योंकि तब यह जानने का प्रश्न उठता है कि 'व्यक्ति क्या है?' क्या इस बारे में हम सुनिश्चित कुछ जानते हैं? किन्तु जब ईश्वर को व्यक्ति-विशेष की तरह संज्ञा या सर्वनाम, क्रिया, विशेषण या क्रिया-विशेषण के रूप में नहीं, बल्कि उस नियामक सत्ता के रूप में समझने का यत्न किया जाता है जो सर्वत्र और सदा विद्यमान है तो उसे ईशिता (Governance), नियंता कहा जा सकता है। इसलिए उसे 'एक' या 'अनेक' कहना भी इसी प्रकार से अधूरा और अपर्याप्त है। क्योंकि वह सत्ता 'एक' तथा 'अनेक' होते हुए भी इन शब्दों (विशेषणों) की आवश्यकता से रहित है। 'एक' अथवा 'अनेक' भी शून्य की तरह संख्या के रूप में विशेषण ही तो हैं ! जो किसी वस्तु की विशेषता का वर्णन न की उसके स्वरूपा का। उस सत्ता को एक, अनेक अथवा शून्य में बाँटना बुद्धि के दायरे में ही संभव होता है, जबकि बुद्धि स्वयं भी हमेशा ही अपने ही दायरे में बँधी होने से कभी मुक्त नहीं हो सकती।
शून्य का एक अर्थ है अभाव।  उस अर्थ में भी वह सत्ता शून्य नहीं है। 
इसलिए बुद्धि की सीमा में ईश्वर या आत्मा की विवेचना कर पाना लगभग असंभव ही है।       
हातिम ताई को यह दृष्टि इसलिए प्राप्त हो सकी, क्योंकि उसने अपने स्वयं को आचार्य द्वारा दिए गए नाम 'आत्मीयता' / 'आत्मतया' (as and like the pure self only) के अर्थ में समझने का प्रयास किया। उसे अनायास स्पष्ट हुआ कि ईशिता या ईश्वर को जानने-समझने से पहले उसे स्वयं अपने-आपको जानना समझना होगा। और तब उसे यह भी स्पष्ट हुआ कि जैसे 'व्यक्ति' एक कल्पना और स्मृति है, उसी तरह व्यक्ति-विशेष के रूप में 'ईश्वर' भी केवल कल्पना और स्मृति है, जबकि सच्चाई यह है कि जैसे 'स्वयं' होना कल्पना और स्मृति नहीं बल्कि ठोस अकाट्य सत्य है, उसी तरह ईशिता भी ऐसा और यही सत्य है। इसलिए बुद्धि की सहायता से ईश्वर या अपने-आपको जानना असंभव न भी हो तो भी कठिन अवश्य है।  वास्तव में ईश्वर या अपने-आप (आत्मा) को जानने-समझने का तात्पर्य है वह होना। और यह तभी संभव है जब बुद्धि निश्चल और जिज्ञासा प्रबल हो। बुद्धि कुण्ठित नहीं बल्कि स्तब्ध हो।
यह आकस्मिक संयोग नहीं था कि हातिम ताई का नाम अदम / आदम (Adam) के रूप में अमर हो गया। यहाँ तक कि उसे 'प्रथम प्रवक्ता' (The First Prophet) भी कहा गया।
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व्यतीत होनेवाला समय

दिवास्वप्न / आकाशकुसुम 
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किसी भी मनुष्य के लिए समय की पहचान दो प्रकार से होती है :
एक वह, जिसे वह (अनुभवों की) स्मृति के माध्यम से जानता है।
इस स्मृति को अत्यंत विकसित, परिष्कृत और व्यवस्थित, तर्कसंगत बनाकर वह कल्पना से भावी समय का विचार भी कर सकता है जो शुद्ध भौतिक स्तर और वैज्ञानिक धरातल पर भी अचूक, बिलकुल सटीक, सत्य भी सिद्ध हो सकता है। किन्तु जब लोगों, वस्तुओं, स्थितियों एवं घटनाओं के सन्दर्भ में कोई अनुमान लगाया जाता है, तो वह अनुमान स्मृतिजनित होने से व्यतीत होनेवाले समय के अंतर्गत होता है। जबकि ऐसा व्यतीत होने वाला समय अटल अचल समय के उस एक अति अल्प अंश की एक व्यक्तिगत स्मृति से अधिक कुछ नहीं है, जिसकी प्रामाणिकता सदा संदिग्ध रहती है। ऐसे किसी स्मृतिगत समय को सार्वत्रिक और सार्वकालिक सत्य कहना मूलतः त्रुटिपूर्ण है।
हातिम ताई के मन में जब ईश्वर के बारे में कौतूहल उठता था तो उसे बस इतना ही स्पष्ट होता था कि ईश्वर 'वह' है, जिसे जानना या संभव हो तो देखना या किसी प्रकार से जिससे वह संपर्क करना चाहता है। 
जब वह संसार के लोगों के बारे में सोचता था तो उसके सामने ईश्वर, ऋषि, धर्मपिता और आत्मीयता के बारे में प्रश्न उठता था, और उसे लगता था कि ऋषि 'वह' है जिसे ईश्वर-साक्षात्कार हुआ होता है।  किन्तु ऋषि के  बारे में भी इस कल्पना से उसे ईश्वर-साक्षात्कार के लिए कोई मदद कहाँ मिलती थी? धर्मपिता के बारे में  जब वह सोचता था तो उसे लगता था कि वह ईश्वर है किन्तु प्रच्छन्न ईश्वर, जिससे बात तो की जा सकती है, किन्तु वह भी ईश्वर-प्राप्ति के लिए उसे कोई सहायता नहीं दे सकता।  और स्वयं अपने बारे में उसे लगता था कि ईश्वर, ऋषि और धर्मपिता 'आत्मीय' तो हैं, किन्तु बस आत्मा की तरह प्रिय, न कि ईश्वर का परिचय / पहचान । 
व्यतीत हुआ समय उसे आकाशकुसुम सा प्रतीत होता था, जो न व्यतीत होनेवाले आकाश की पृष्ठभूमि में निरंतर खिलता और मुरझाता रहता था।
इस उदाहरण में उसे ईश्वर का एक धुँधला आभास अवश्य होता था।
न व्यतीत होनेवाला समय, जिसे अनादि और अनंत कहा जाता है, वास्तव में वह नहीं है, जिसका आदि / आरम्भ मध्य और अंत न हो, बल्कि वही शायद वह ईश्वर है, जो नित्य और सनातन है, - इसलिए आदि, मध्य और अंत उस पर लागू नहीं होता। आदि, मध्य और अंत तो व्यतीत होनेवाले उस समय पर ही लागू होता है, जो स्मृति का हिस्सा है। और स्मृति की ही तरह भंगुर भी।
तो ईश्वर 'मैं' अथवा 'तुम' से विलक्षण 'वह' है जिसका उल्लेख सदा अन्य-पुरुष एकवचन (third person, singular) के रूप में किया जाता है।  और यदि ऐसा है तो क्या वह कभी 'ज्ञात' का हिस्सा हो सकता है?
जो भी ज्ञात होता है वह कभी अज्ञात था, और जो भी अज्ञात है वह कभी ज्ञात हो सकता है, किन्तु ईश्वर ऐसी कोई वस्तु नहीं है।
फिर ईश्वर / आत्मा क्या है?
क्योंकि ईश्वर यदि सिर्फ उसके लिए है तो क्या वह आत्मा से भिन्न हो सकता है?
और यदि हो सकता है तो ऐसा ईश्वर अनात्म होगा।
फिर 'वह' कौन है?        
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तद्युष्मदोरस्मदि संप्रतिष्ठा,
तस्मिन् विनष्टेऽस्मदिमूलबोधात् ।
तद्युष्मदस्मन्मतिवर्जितैका,
स्थितिर्ज्वलन्ती सहजात्मनः स्यात् ॥
(महर्षि श्रीरमणरचित सद्दर्शनम् श्लोक १६)
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तत् (वह) युष्मत् (तुम) दोनों का स्थान अहं (मैं) के अंतर्गत होता है।
किन्तु स्वयं अहं भी अन्य वृत्तियों की तरह आता-जाता होने से स्पष्ट है कि उसका मूलस्थान स्थिर और आने-जाने वाली वस्तु नहीं है। इस प्रकार वह मूल वस्तु तत् (वह) युष्मत् (तुम) और अहं (मैं) से विलक्षण है और इस प्रकार की तत् (वह) युष्मत् (तुम) और अहं (मैं) बुद्धि मन में वहीं से उठती है।  तत् (वह) युष्मत् (तुम) और अहं (मैं) बुद्धि से रहित स्वयं मन ही इस प्रकार वह प्रत्यक्ष आत्मा /ईश्वर है जो नित्य प्रकट और प्रत्यक्ष है।
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tadyuṣmadorasmadi saṃpratiśṭhā,
tasmin vinaṣṭe:'smadi mūlabodhāt |
tadyuṣmadasmanmativarjitaikā,
sthitirjvalantī sahajātmanaḥ syāt ||
(maharṣi śrīramaṇaracita saddarśanam śloka 16)
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(for details, you may please see my ramanavinay blog.)
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Dedicated to Sri Bharadwaj Muni.

श्री भारद्वाज मुनिविरचितम्
आरुरुक्षोर्मुनेरभ्यासम् संस्कार-निग्रहणञ्च :
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चित्तैः वायवश्चैव वायुभिः तानि चित्तानि ।
वायुभिः प्राणाश्चैव प्राणैः वायवः अपि ॥१
चित्तैः भावाश्चैव भावैश्च चित्तैरपि ।
भावैश्च भावनाः तद्वत् भावनाभिः भावाश्च ॥२
सूर्यचन्द्रनाडीभ्यां गतिश्चित्तप्राणयोः ।
ऊष्णशीतप्रदातारौ तथा तन्नाडीद्वयम् ॥३
एकेनापि कुरु तस्मात्संयमनं सर्वान् हि तान् ।
विभिन्न दशायं  तु अवधानं कुर्वात्मनि ॥४
यदा यदा हि निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततो ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥५
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श्री भारद्वाज ऋषि की प्रेरणा से लिखित यह रचना उन्हें ही समर्पित है।
अर्थ और संक्षिप्त व्याख्या :
चित्त, वायु (श्वास), प्राण, भाव, भावनाएँ, तथा मन एवं बुद्धि भी) ये सभी चंद्र-सूर्य नाड़ियों की गति के कारण गतिशील होते हैं और ये दोनों नाड़ियाँ भी उनके कारण। चूँकि सभी परस्पर अत्यंत निर्भर हैं, इसलिए उनमें से किसी भी एक को भी संयमित कर लेने से दूसरों को नियंत्रित किया जा सकता है।
इस प्रकार मनुष्य जिस किसी भी मनःस्थिति में हो, उस मनःस्थिति से तत्काल मुक्ति के लिए उनमें से किसी एक उपाय का अवलम्बन ले। इस प्रकार संस्कार-प्रेरित बाध्यकारी अभ्यासों को वश में करता हुआ अवधान (attention) को पुनः पुनः आत्मा पर लाकर वहीं स्थिर रहे।
अंतिम श्लोक गीता अध्याय 6/26 से लिया गया है।  

ārurukṣormunerabhyāsam saṃskāra-nigrahaṇañca :
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cittaiḥ vāyavaścaiva vāyubhiḥ tāni cittāni |
vāyubhiḥ prāṇāścaiva prāṇaiḥ vāyavaḥ api ||1
cittaiḥ bhāvāścaiva bhāvaiśca cittairapi |
bhāvaiśca bhāvanāḥ tadvat bhāvanābhiḥ  bhāvāśca ||2
sūryacandranāḍībhyāṃ gatiścittaprāṇayoḥ |
ūṣṇaśītapradātārau tathā tannāḍīdvayam ||3
ekenāpi kuru tasmātsaṃyamanaṃ sarvān hi tān |
vibhinna daśāyaṃ  tu avadhānaṃ kurvātmani ||4
yadā yadā hi niścarati manaścañcalamasthiram |
tato tato niyamyaitadātmanyeva vaśaṃ nayet ||5
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Meaning and a brief Commentary
Various aspects like citta / the momentum, vāyu / breath, prāṇa / the subtle invisible life-force that triggers the visible breath, bhāva / thought, bhāvanā / sentiments, feelings and emotions -- the response, along-with the nerves (and the whole nervous system) all constitute one whole activity that is the Mind.
(The two major nerves are the Sun and the Moon which are the pathways of prāṇa, while the breath is the vehicle of the same -- the subtle, visible Life-force).
As these all aspects are closely interrelated, controlling any one of them results in controlling the whole state of the Mind. So by such means, which-ever is possible at the moment one can gain control over the Mind. (Because no one can struggle with the mind.)
Bringing out thus at once a change in the state of Mind, one should always bring the attention to the 'Self' the simple, spontaneous of just 'Being' and should not identify with the 'becoming' -- which is the state of Mind. Mind is always an unending activity of 'becoming'.
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This gradually brings to end the latent tendencies (saṃskāra) which ever so keep one away from the 'Self'.
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The last stanza is a verbatim rendering of the shloka 26 chapter 6, -from The Gita.
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Wednesday, 21 August 2019

आरुरुक्ष / योगरूढ

स्थितप्रज्ञ-दशा
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बचपन में ही माता-पिता से बिछुड़कर हातिमताई जब से उनसे दूर हो गया था, और दूसरे अनुभवों की तरह ही यद्यपि यह पहचान भी अनित्य थी, किन्तु मानों उसकी एक अमिट छाप  उसके मन पर थी । दूसरे तमाम अनुभवों, उनकी पहचान और उनकी स्मृति के बनने-मिटते रहने पर भी यह स्मृति उनकी तरह बनती-मिटती नहीं थी । और बचपन की कुछ बहुत छोटी-छोटी वे घटनाएँ थीं, जो किसी भी शिशु-मन में स्वप्न सी अंकित हो जाया करती हैं । वे पुनः पुनः बरसों बाद भी स्वप्न में या अचानक अनायास मन में उभर आती हैं । शायद इसे भावावेग, भावातिरेक या nostalgia कह सकते हैं ।
वह स्थिति,
जब तुम न रुक पाओ, न भाग पाओ,
जब तुम न सो पाओ, न जाग पाओ ।
यह आश्चर्य की बात नहीं थी कि हम सभी की तरह हातिमताई भी अपनी पहचान को भूलकर,
उनकी पहचान में ही अपना अस्तित्व देखता था ।
कठोलिकों के गिरीश (ग्रीस) स्थित) आश्रम में आने से पहले  वह केवल ईश्वर का विचार किया करता था । क्या ईश्वर उसके पिता की तरह है? या ईश्वर उसकी माता की तरह है? अर्थात् ईश्वर पुरुष है, अथवा स्त्री है? हातिम ताई को इस बारे में सन्देह नहीं था, कि वह स्वयं अपने पिता की तरह पुरुष है, किन्तु ईश्वर के बारे में विचार करते समय उसके मन में प्रायः यह प्रश्न उठता था कि कहीं ईश्वर उसकी माता की तरह स्त्री तो नहीं है?
महेश्वर (मिस्र) में ईश्वर को लिङ्ग-स्वरूप में देखकर तो उसे यही लगा था कि ईश्वर पुरुष होगा, और इसी दृष्टि से उसकी पूजा लिङ्ग के रूप में की जाती है । वैसे भी लिङ्ग का अर्थ है लक्षण, संकेत या चिह्न । फिर उसे यह भी लगता था कि ईश्वर किसी माता-पिता की सन्तान नहीं है, क्योंकि तब उसके माता-पिता के भी पूर्वजों के प्रश्न पर विचार करना होगा और इस निरर्थक श्रंखला का प्रारंभ कहाँ है, इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता ।
हातिम ताई बस इतना ही जानता था कि ईश्वर ’वह’ है : अन्य पुरुष ।
जैसे उसे यह भी नहीं पता था कि ’वह’ स्त्री है या ’पुरुष’, वैसे ही हातिम ताई इससे भी अनभिज्ञ था,
कि ईश्वर ’एक’ है या ’अनेक’ ।
हातिम ताई यह अवश्य जानता था कि ईश्वर अद्भुत्, अनिर्वचनीय और अद्वितीय-अप्रतिम (unique) है, और  उसके और समस्त अन्य जीवों की तरह चेतन भी है ।
किन्तु हातिम ताई यह नहीं समझ पाता था कि ईश्वर बुद्धिगम्य है या नहीं, इन्द्रियगम्य है या नहीं, मनोगम्य है या नहीं । यदि ईश्वर ईशिता है तो क्या वही बुद्धि, इन्द्रियों, मन तथा प्राणियों का तथा उनके माध्यम से संपूर्ण जगत का ही नियंता नहीं है? क्योंकि बुद्धि, इन्द्रियाँ, मन तथा प्राण आदि स्वयं चेतन नहीं हैं, तथा किसी अहं-भावना के सक्रिय होने पर ही विषयों की तरह जाने जाते हैं । समस्त विषय दृश्य हैं जबकि अहं-भावना भी इसी प्रकार दृश्य है । किन्तु एक भेद यह है कि अहं-भावना पुनः बुद्धिगम्य है, या बुद्धि से ही ’विषय’ की तरह उसका अनुमान किया जाता है । यही पेंच है जो उसे ईश्वर को प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः (परोक्षतः किसी माध्यम या युक्ति की सहायता से) जानने में बाधक था । अपनी बुद्धि के इस प्रकार से कुंठित हो जाने पर वह ईश्वर के बारे में सोचना बन्द कर देता था, या कहें कि उसे रुक जाना पड़ता था ।
किन्तु कभी-कभी ऐसी स्थितियाँ भी उसके साथ हुआ करती थीं जब भाव-विभोर अवस्था में वह उस सत्ता से इतना एकीभूत होकर उसमें निमग्न हो जाता था, जब उसे संसार, जगत् और देह-मन-प्राण तथा इन्द्रियों की सुध-बुध नहीं रह जाती थी।  तो उस समय अहं-भावना ही कैसे रह सकती थी ? बुद्धि ठिठक जाती थी, किन्तु चित्त समाहित होकर ’न व्यतीत होनेवाले समय’ में खोया / लीन रहता था ।               
वह स्थिति,
जब तुम न रुक पाओ, न भाग पाओ,
जब तुम न सो पाओ, न जाग पाओ ।
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यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति। 
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।52 
(गीता अध्याय 2, 2/52)
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उस समय उसकी बुद्धि कुण्ठित नहीं, निश्चल और स्तब्ध रहती थी :
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला। 
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।53 
(गीता अध्याय 2,  2/53)
तात्पर्य यह कि हातिम ताई योगारूढ स्थिति में था। 
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते। 
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।3
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते। 
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी  योगरूढस्तदोच्यते।।4 
(गीता अध्याय 6, 6/3, 6/4) 
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कापालिकों के नगर में हातिम ताई की स्थिति 'आरुरुक्ष' मुनि की थी, 
तो कठोलिकों के नगर में 'योगारूढ' की !
दोनों ही स्थितियाँ शमः / शं शमन-धर्म के दो सोपान थे जिनका स्थान उसके जीवन में था । 
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Tuesday, 20 August 2019

स्मृति और पहचान / व्यतीत होने वाला समय

पुराण तथा इतिहास 
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हातिमताई बचपन में ही अपने माता-पिता से बिछुड़ गया था, इसलिए उसके मन में अपने माता-पिता की छवि / पहचान (की स्मृति) एक नारी-मूर्ति तथा एक पुरुष-मूर्ति जैसी थी । यह पहचान ही स्मृति थी क्योंकि स्मृति ही तो वह मानसिक प्रतिमा होती है, जो किसी चीज़ की पहचान होती है । पहचान और स्मृति अन्योन्याश्रित होने से एक ही मनःस्थिति के दो नाम हैं । पहचान हो तो स्मृति होती है, और स्मृति हो तो पहचान । दोनों एक-दूसरे को पुनर्जीवित करती हैं और भूल से, प्रमादवश ही मन उन्हें दो भिन्न वस्तुएँ समझ बैठता है । यही भूल राजा निमि ने की थी, इसलिए उसे मनुष्य के पलक झपकने-मात्र के स्थान में अमरत्व की तरह पुनर्जन्म प्राप्त हुआ था । यही नित्य पर अनित्यता तथा अनित्य पर नित्यता के भाव के रूप में संसार के परिवर्तनशील होने का आभास जगाता है । स्मृति तथा पहचान के रूप में इस प्रकार राजा निमि अनादि काल से मनुष्य की पलकों के बीच विद्यमान रहता है । आयु, निमि (व्यतीत होने वाला समय), वसिष्ठ, ययाति, शर्मिष्ठा, देवयानी, पूरु तथा यदुवंश की कथा विस्तार से वाल्मीकि-रामायण, उत्तरकाण्ड के सर्ग 56 तथा अगले सर्गों नें पढ़ी जा सकती है, जो न तो ’मिथ’ / Myth है, न साहित्यिक कौशल । यह किसी दूसरे, अधिक व्यापक आधिदैविक अस्तित्व के तल पर होनेवाली घटनाओं का वर्णन है, जिसके एक अंश को ही एक समय में समझा जा सकता है । तथापि इसमें किसी दूसरे समय में हो रही घटनाओं का भी तदनुसार यथावत् उल्लेख किया गया है । ’मिथ’ शब्द की व्युत्पत्ति भी दो भिन्न अर्थों में की जाती है : मिथ्या के अर्थ में जो प्रतीति (अनित्य) और यथार्थ (नित्य) का एक दूसरे पर आरोपण है । दूसरा अर्थ है -द्वैतयुक्त । चूँकि नित्य-अनित्य भी द्वैत है जो सनातन रूप से अस्तित्व का द्योतक है इसलिए नित्य-अनित्य के जोड़े (मिथुन) / युगल को ही ’मिथ’ कहा जाता है । यह आधिदैविक तथा आधिभौतिक सत्यों का समन्वय और समसामयिक सन्दर्भों में किया जानेवाला व्यापक वर्णन है । चूँकि इनका प्रयोजन भिन्न-भिन्न मनसिकता एवं बुद्धियुक्त मनुष्यों को शिक्षा प्रदान करना मात्र होता है, न कि कोरा मनोरंजन, इसलिए मूलतः तो इनका आध्यात्मिक आधार ही उन्हें एक सूत्र में बाँधता है । 
इसलिए पुराण तथा रामायण एवं महाभारत जैसे ग्रन्थ अस्तित्व के भिन्न-भिन्न तलों पर एक साथ हो रही घटनाओं का वर्णन है । और वह कल्पना-विलास कदापि नहीं है ।
महाकवि भवभूति तथा कालिदास रचित ग्रंथों में भी इसी प्रकार से विभिन्न आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक स्थितियों तत्वों का अनायास सुंदर मेल देखा जा सकता है।  इसलिए उनकी प्रामाणिकता पर संदेह करना स्वयं हमारे अपने अज्ञान का ही द्योतक है। 
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Thursday, 15 August 2019

सौभाग्य या दुर्भाग्य?

दर्शन दो !
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पता नहीं यह उसका सौभाग्य था या दुर्भाग्य कि हातिम ताई को जीवन-दर्शन को दो प्रकार से जानने का अवसर मिला था। कापालिकों के नगर में भोग जीवन का सहज दर्शन था जबकि कठोलिकों के नगर में त्याग ही जीवन का दर्शन था। कापालिक जहाँ भोग को तप का ही एक प्रकार मानकर तदनुसार (धर्म का) आचरण करते थे, वहीं  कठोलिक त्याग को ही तप का एक प्रकार मानते थे। 
आचार्य ने जब हातिम ताई को ईशोपनिषद् का पाठ पढ़ाना प्रारम्भ किया था तो उन्हें कल्पना तक न थी कि उनका शिष्य इतना प्रतिभाशाली होगा, और न हातिम ताई को इसकी कल्पना या अनुमान था कि वह अपनी योग्यता का प्रदर्शन करता।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
के पाठ के उपरान्त आचार्य ने उपनिषद् के प्रथम मन्त्र का उपदेश हातिम ताई (आत्मतया / आत्मीयता) को दिया :
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम्।।
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हातिम ताई इतना प्रतिभाशाली था कि उसने कापालिकों और कठोलिकों के दो भिन्न, यहाँ तक कि परस्पर विपरीत दिखलाई देनेवाले जीवन-दर्शनों का संतुलित समायोजन इस एक मन्त्र में देख और कर भी लिया।
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जब उसने ध्यानपूर्वक इन दोनों दर्शनों अर्थात् दृष्टियों की तुलना की तो उसे समझ में आया कि कापालिक जहाँ ईश्वरवादी होकर सम्पूर्ण अस्तित्व को ईश से ओत-प्रोत और ईश को सम्पूर्ण अस्तित्व में समाहित मानते हुए भोग को भी तप जानकर विवेकपूर्वक इस प्रकार जीवन के सुखों दुःखों, सुविधाओं और कष्टों का उपभोग करते थे जिसका केंद्रीय तत्व था प्रेम। इसलिए उनके जीवन में नैतिकता-अनैतिकता का निर्धारण इस विवेक से ही तय होता था।
कठोलिकों की दृष्टि में ईश्वर नामक सत्ता को स्वरूपतः जानने की तुलना में अपने-आपको जानना अधिक सरल और प्रामाणिक भी था।
कठोलिक त्याग करते हुए उपभोग को जीवन की आवश्यकता समझते हुए भोग में प्रवृत्त होते थे, जबकि कापालिक त्याग को भी भोग का ही एक प्रकार मानते हुए जीवन का सहज उल्लास अनुभव करते थे।
दोनों के द्वारा किए जानेवाले (धर्म के) आचरण में स्वरूपतः भेद नहीं था किन्तु इसके मूल में स्थित वह प्रेरणा परस्पर कुछ भिन्न भिन्न थी। 
कापालिक ईश / ईश्वर को सर्वोच्च और एकमेव (Unique Principle) मानते थे जबकि कठोलिक आत्मा को  ही एकमात्र सर्वोच्च और एकमेव (Unique Principle) मानते थे।
इस आभासी भिन्नता के अतिरिक्त न तो दोनों के (धर्म के) आचरण में कोई भिन्नता थी, और न ही कोई भिन्नता उस एकमात्र सर्वोच्च और एकमेव (Unique Principle) को ग्रहण किए जाने की उनकी दृष्टियों में थी, जिसे कापालिक ईसर, इस्र, ईश्वर या महेश्वर कहते थे और कठोलिक जिसे 'आत्मा' कहते थे।
शायद मिस्र (महेश्वर) में जन्म होने से ही हातिम ताई अनायास ही इस सत्य से भलीभाँति परिचित था।
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Wednesday, 14 August 2019

रा दाने

त्रैविद्या मां
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गिरीश स्थित उस आश्रम में जहाँ पूर्वकाल से महर्षि अङ्गिरा का स्थान था अनाहत यज्ञकर्म होता था।
सभी देवता यज्ञ में आमंत्रित किए जाते थे, आवाहनपूर्वक उन्हें आहुति दी जाती थी।  किन्तु यह सतयुग के काल में होता था।
सन्दर्भ के लिए यहाँ यह उल्लेख किया जा सकता है कि सत का अर्थ ही है सनातन; - जो नित्य में अनित्य तथा अनित्य में नित्य की तरह दिखाई देता है। राजा निमि की कथा में बतलाया गया है कि किस प्रकार राजा निमि ने मनुष्य और इतर पलक झपकने वाले प्राणियों की पलकों के बीच अपना स्थान पाया।
सूत्रदृष्टि से यह सूक्ष्म कालखंड जिसे निमिष कहा जाता है वह आधार / कसौटी है जिस पर भौतिक 'व्यतीत होनेवाले समय' का सत्यापन किया जाता है, और जो घटनाओं के क्रम से परिभाषित होता है। घटनामात्र नित्य और अनित्य इन दो प्रकारों से व्यक्त और अव्यक्त होती है, जिन्हें स्मृति में संजो लिया जाता है।
हर प्राणी का अपना स्मृति-जगत होता है, जो उसके जन्म के समय व्यक्त रूप ग्रहण करता है और मृत्यु होने के समय पुनः अव्यक्त स्वरूप में लौट जाता है।  न तो किसी जीव का नाश होता है न पुनः सृजन होता है।
यही नैमिषारण्य है जहाँ किसी समय 88000 ऋषि एकत्र हुए / होते हैं। और ऋषि सूत उन्हें (गरुड़-पुराण) की कथा सुनाते हैं। पृथा (फ़ारस) के समुदाय के लोग उसी गरुड़ को आराध्य मानते हैं।
युग का अर्थ है सन्धि या मिलन, कड़ी।  सतयुग से त्रेता हुआ/ होता है ।  सत निर्विकार होने पर भी उस पर विकार आरोपित किए जाने से उसका विस्तार (सन्तरण) त्रेतायुग के रूप में हुआ / होता है।  त्रेता में राम रावण और राक्षस त्रयी हुई / होती है। त्रेता से द्वापर हुआ  / होता है।  द्वापर अर्थात् द्वा-परक।  जहाँ धर्म-अधर्म, नीति-अनीति, सत्य-असत्य आदि का ध्रुवीकरण हुआ / होता है।  द्वापर पुनः 'कलि' के रूप में प्रकट हुआ / होता है। इस प्रकार चारों युग पलक के झपकने-मात्र में होते रहते हैं।
ऋषि अङ्गी से अङ्गिरा हुए जिन्हें अङ्गिरस् भी कहा जाता है। अङ्गिरस् से Angeles का सादृश्य वैसा ही है जैसा अङ्गिरा से Angel का।  ऋषि-वत्सल से 'रसूल' का भी ऐसा ही सादृश्य है। इसे पुनः 'ऋषिवत्-सल' से भी प्राप्त किया जा सकता है। (स्पष्ट है कि यहाँ केवल भाषा के इतिहास की दृष्टि से विवेचना की जा रही है, न कि किसी धर्म-विशेष के सन्दर्भ में।)
सतयुग का तात्पर्य है विशुद्ध चेतनता का तत्व।  त्रेता का तात्पर्य है सत / सत् / सत्य / चेतना का मन, प्राण तथा जड-जगत के रूप में अभिव्यक्त होना। इसी का रूपान्तर पुनः जड-चेतन है। जड दृश्य है जिसे 'देखा जाता है।' चेतन वह है जिसे दिखाई देता है।  यह द्वापर हुआ।  पुनः इस द्वापर से कलिरूप अहंकार उत्पन्न होता है जो अंधकार और अँधेरे सा अविद्यमान होते हुए भी प्रबल और दुर्धर्ष रूप से मनुष्य की बुद्धि पर हावी हो जाता है और बुद्धि उसी से निर्देशित होकर मनुष्य को शुभ-अशुभ विविध कर्मों में प्रवृत्त करती है। 
इस प्रकार मलिन-बुद्धि के ही कारण मनुष्य अपने-आपको शुभ-अशुभ विविध कर्मों का कर्ता तथा उनका भोग करनेवाला होने की मान्यता से ग्रस्त हो जाता है।
यह बुद्धि ही जो आत्मा के अंग-अंग में व्याप्त है शुद्ध दशा में अङ्गि तथा अङ्गिरा (अंगों में रमनेवाली) है। अर्थात् यही सृष्टिरूपा अखिल विश्व और इस विश्व में जन्म लेनेवाला प्रत्येक प्राणी भी है।
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पिछले पोस्ट 'ला आदाने' में पाणिनि के अष्टाध्यायी के जिस सूत्र का और जिस पर श्री वरदराज लिखित व्याख्या का उल्लेख किया था, उसी सूत्र की उसी व्याख्या में 'ला आदाने' से पहले 'रा दाने' का वर्णन है।
ऋषि अङ्गिरा इसी का प्रकाश है। अङ्गिरा को 'अङ्गि रा' के रूप में देखने पर अन्य रीति से भी इस शब्द की रूपसिद्धि होती है; -जिसका तात्पर्य है "प्रदान करनेवाला"। वह तत्व, जो मनुष्य को बुद्धि देता है।
जो मनुष्य में मूलतः चेतना की तरह नित्य और सनातन रूप से अवस्थित है।
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।22
(गीता अध्याय 10)
इस प्रकार वह 'अस्मि-चेतना' जो बुद्धि से पूर्व होती है उसे ही यहाँ मनुष्य में विद्यमान परब्रह्म / ईश्वर कहा गया है। 'अस्मि' का अर्थ है -- 'हूँ'। प्राणिमात्र में यह सहज प्रत्यभिज्ञा (पहचान) कभी अविद्यमान नहीं होती, इसका अभाव किसी तर्क, अनुभव आदि से कभी सिद्ध नहीं किया जा सकता। मूलतः यह दृष्टा-दृश्य से भी स्वतंत्र है जबकि दृष्टा-दृश्य (subject-object) चेतना का बुद्धि द्वारा किया जानेवाला आभासी विभाजन मात्र। 
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Tuesday, 13 August 2019

The Law and The Love

ला आदाने 
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In the previous post I tried to understand how the verb-root 'ला' shaped the culture and the society at large. 'ला' in a way was the holy syllable (वर्ण, अक्षर, वर्णाक्षर) that meant 'to bring about', 'to give away', 'to deliver', 'to facilitate' and 'to felicitate'.
Grammatically; 'आदान' means the 'Dative Case'.
Thus 'ला' / 'La' (as is pronounced in the word 'salaam') gives us a 'Lot'.
Again in Sanskrit,
the word 'Lot' could be seen as the Ablative Case of the noun 'ला' / 'La',
though the same as a root-verb could be declined in tenses (तिङन्त) giving us :
'लाति' in the 'लट्-लकार' -- the simple present tense.
Initially, The Tradition of Man in terms of any society in general, was inspired from this holy syllable (वर्ण, अक्षर, वर्णाक्षर) in two ways according to their temperament, sentiments, ethos (ऐतिह्य) and the  orientation of mind.
The Logical Mind discovered the 'Law',
While the Poetic / Artistic Mind the 'Love'.
There was a hazy balance between the two.
The Jew; -- The People of Jehovah discovered the strict Law.
The People of God (as Love) discovered the Poetry / Art.
The Greek were in the Middle.
They discovered Mathematics, Science and Art as well.
As is often said :
The War and the Love hardly obey Tradition and ritual.
The Religion that is Tradition only conforming to the certain tenets and principles established through the dictates of Logic and Love therefore come across the present state of chaos where all and every-one is in Love and War with any-one else.
And God is no exception.
He/She is also in Love and at War at the same time with His/Her own folk.
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The 'Faith' and 'Belief' too conform with 'Logic' and 'Love' mixed up together in disproportion.
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A brief History of Law and Love.

'ला' आदाने 
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While pondering over the Arabic word 'La' as is pronounced in 'सलाम',
I felt I could take a leaf from Sanskrit.
So I tried to understand the significance of this word (or say the letter / word 'La' -- वर्ण 'ला').
In Sanskrit the letter 'La' / वर्ण 'ला' is a verb-root (क्रियापद).
And at the same time it is also अव्यय a word that does not decline while used as an independent word. For example in English; 'No', 'Yes' 'Hello', 'Well' ... are such words.
In Sanskrit however, the letter 'La' / वर्ण 'ला' as a verb-root (क्रियापद) comes under the
अदादिगण class of verbs.
पाणिनि अष्टाध्यायी 
तिङन्ते अदादि गणः   notes :
लङः शाकटायनस्यैव (3/4/111)
The commentary by ShriVaradaraja further deals with it, in the following way :
.....
भा दीप्तौ
ष्णा शौचे
श्रा पाके
द्रा कुत्सायाम् गतौ
प्सा भक्षणे
रा दाने
ला आदाने 
...
This is how the verb 'to bring' has entered Hindi Language.
लाता है ; 'brings'.
Simply, 'La' translates to 'to bring' or 'लाना'.
The word 'La' in Arabic seems to be an article that could not be declined.
To me;
 Law and Love seem to be cognates of the same.
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Surprisingly, while writing the word for the Sanskrit word 'वर्ण', it struck to me that
'WORD' might be a cognate of  'वर्ण' itself.
[Though so far I was of the view that 'WORD' was a derivative of 'वर्त' !]
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Monday, 12 August 2019

अङ्गिरस्-जाबालऋषि

'जहि' और 'जहाति'
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हातिम ताई के पूर्व-वृत्तान्त में कहा गया कि किस प्रकार गरुड़ उसे महेश्वर (मिस्र) से कापालिकों के राज्य में ले आया था, और पुनः वहाँ से गिरीश (ग्रीस) स्थित महर्षि भृगु के आश्रम के समीप छोड़ गया।
महर्षि भृगु के आश्रम में प्रधानतः कठोपनिषद् की शिक्षा दी जाती थी, और वहाँ कठोलिकों के साथ-साथ  प्रायः कापालिक व जाबालिक परंपराओं के ऋषियों तथा उनके शिष्यों का आगमन भी होता रहता था। स्वयं महर्षि भृगु के आश्रम से भी ऋषि एवं आचार्य पूरी पृथ्वी पर ब्रह्मकर्म के अनुष्ठान और यज्ञों के निमित्त भ्रमण करते रहते थे। विभिन्न नरेश उनके लिए प्रायः रथों और वाहनों का प्रबंध भी उत्साहपूर्वक करते थे। गज (पीलु) और उष्ट्र तथा रथों में युक्त द्रुतगामी अश्व (अर्व) त्वरापूर्वक उन्हें सुदूर स्थानों तक ले जाते थे। और यह तभी संभव हो पाता था जब कोई नरेश, कोई राजा, नृप या पृथ्वीपति किसी बहुत बड़े यज्ञ का अनुष्ठान कर रहा होता।
ऋषि प्रायः केवल उनके कर्तव्य के निर्वाह हेतु ही ऐसे यज्ञों में सम्मिलित होते थे न कि स्वर्ण, रत्नों या गौ आदि की कामना से। वेद-विधान से किए जानेवाले यज्ञों के अनुष्ठान के लिए उन्हें निमंत्रित किए जाने पर यह उन का दायित्व भी होता था।
ऐसा ही एक स्थान था पीलुस्थान (वर्तमान Palestine / गजा पट्टी ?); -जिसे गज-स्थान भी कहा जाता था क्योंकि वहाँ के उस नरेश के पास असंख्य हाथी (पीलु) और उष्ट्र (ऊँट) एवं अश्व भी थे। हाथियों के साथ रहने से पर्याय से ऊँटों को भी पीलु कहा जाता था जिससे उस स्थान का नाम गजा और पीलु प्रसिद्ध हो गया। शतरंज खेलनेवालों को पता है कि जिस मोहरे को अंग्रेज़ी में rook कहा जाता है, उसे ही हिंदी / उर्दू में 'फ़ील' कहा जाता है, जो 'पीलु' का ही अपभ्रंश (aberration) या सज्ञात (cognate) है।
आज भी गजा-पट्टी उसी जगह का नाम है जो फलस्तीन के नाम से मशहूर है।
आज भी यहूदी अपने 'ईश्वर के स्थान' - अल-इस्र / ईश्वरालय / इसरायल की तलाश में हैं।  
पैग़म्बर मूसा द्वारा मिस्र छोड़कर जाने से बहुत पहले की कथा है यह।
अतिग्रस् (Tigris) और उपरेतस् (Euphrates) नदियों के संगम के स्थान पर उससे उत्तर में 200 योजन दूर महाप्रथमीय (Mesopotamia) क्षेत्र में महर्षि भृगु और अङ्गिरा की परंपरा में 'उणादि-पाठ' पढ़ने अनेक शिष्य चारों ओर से आते थे।
ऐसे ही समय आचार्य धातुपाठ की कक्षा में 'हन्' और 'हा' धातुओं के प्रयोग का वर्णन कर रहे थे।
उत्कर्ष, उच्छेद, उड्डीय, उत्पात, उद्भ्रांत, उन्मूलन, उद्यम, उद्रेक, उल्लास, उद्वमन, उच्छोष, उत्साह, उद्धार, आदि उदाहरण देते हुए उन्होंने शिष्यों को अक्षर समाम्नाय के 14 माहेश्वर-सूत्रों में से प्रथम
 'अ इ उ ण्' को स्मरण करने के लिए कहा।
[संक्षेप में 'अ', 'इ' तथा 'उ' ये तीनों वर्ण परस्पर एक दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त किए जा सकते हैं।
'इल' का 'अल' या 'उल';  'अल' का 'इल' या 'उल'; या 'उल' का 'इल' या 'अल' व्यवहार पर निर्भर है।]     
तब उन्होंने शिष्यों से ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र का उच्चारण कराते हुए 'अग्निमीडे' से 'ईडे' की पुनरुक्ति की।
तब उन्होंने अजा एका लोहितकृष्णशुक्ला से उणादि प्रत्यय द्वारा :
ईद-उत्-अज-हा की सिद्धि की ।
तत्पश्चात् पुनः 'हन्' और 'हा' धातुओं के प्रयोग का वर्णन करते हुए कहा :
"इनमें से प्रथम 'हन्' धातु अदादिगणीय परस्मैपदीय है, जिसका लोट् लकार मध्यम पुरुष एकवचन रूप होता है : 'जहि' ... जिसका तात्पर्य है 'मारो'।
इनमें से द्वितीय 'हा' धातु जुहोत्यादिगणीय परस्मैपदीय है, जिसका लट् लकार प्रथम पुरुष एकवचन रूप होता है 'जहाति' ... जिसका तात्पर्य है 'छोड़ता' या 'त्यागता' है।
[टिप्पणी गीता अध्याय 2 श्लोक 50 में 'जहाति', एवं अध्याय 3 श्लोक 43 तथा अध्याय 11 श्लोक 34 में
'जहि' का प्रयोग इन्हीं अर्थों में है।]
आचार्य ने तब शिष्यों से कहा :
अजा प्रकृति भी अजर अमर और नित्य अवध्य है,
प्रकृति यद्यपि त्रिगुण युक्त सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी भी है,
और अज / पुरुष (आत्मा) भी अजर अमर और निर्गुण अर्थात् गुणमात्र से रहित और प्रकृति की ही तरह नित्य अवध्य है, इस प्रकार जानकर इसे उत्सव (ईद) जानो।
--
मेरे मन में एक सवाल उठा :
अरबी और संस्कृत में बोले जानेवाले ये शब्द यदि एक ही तात्पर्य के द्योतक हैं, तो क्या यह आकस्मिक संयोग, महज़ एक इत्तफ़ाक़ ही है?
या यह इस ओर भी संकेत करता है कि जैसे PIE (Proto-Indo-European) भाषा की कल्पना की गयी उससे अधिक महत्वपूर्ण है यह जानना और इस पर ध्यान देना कि PIA (Proto-Indo-Arabic) उससे भी पहले और उससे भी अधिक प्रामाणिक है।
केवल लिपि की भिन्नता के आधार पर भारतीय भाषाओं को PIE (Proto-Indo-European) से सम्बद्ध करना और इस प्रकार PIA (Proto-Indo-Arabic) की जानबूझकर उपेक्षा करने से हमारा ध्यान ही इस तथ्य पर नहीं जाता कि अंग्रेज़ी और दूसरी यूरोपीय भाषाएँ जिस तरह संस्कृत से व्यत्पन्न (अपभ्रंश या सज्ञात) हैं, अरबी उनकी तुलना में संस्कृत से कहीं अधिक निकट है।
निश्चित ही इस ब्लॉग में लिखे जाने वाले अरबी के उद्धरण धर्म के सन्दर्भ से नहीं बल्कि भाषाशास्त्र के सन्दर्भ से देखे जाने चाहिए।
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Sunday, 11 August 2019

Revelation

तरङ्गबिन्दुन्याय -2 
कुछ दिनों पहले  इसी ब्लॉग में 
Delusion, Illusion, Hallucination and Paradox,
शीर्षक से नर्मदा की कथा लिखी थी। 
गरुड़ की कथा भी हातिम ताई के बहाने लिख चुका हूँ।
लेकिन आज जब गरुड़ेश्वर बाँध और नर्मदा नदी की वर्तमान बाढ़ की स्थिति का समाचार देख रहा हूँ,
तो डर लग रहा है कि उक्त पोस्ट में वर्णित घटना कहीं सत्य सिद्ध होनेवाला पूर्वाभास न हो जाए !
जब मैं वर्ष 1984 में ओंकारेश्वर गया था, तो लोगों से सुना था कि नर्मदा को बाँधा नहीं जा सकता,
और न ऐसा यत्न किया जाना चाहिए।
यहाँ तक कि इसका विचार तक मन में नहीं लाया जाना चाहिए।
किन्तु होनी को कौन टाल सकता है?
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The Zero, the Partial and the Ultimate.

Poetry
The Egg
--
As soon as the shell is broken,
The Ego emerges out.
As soon as the Ego emerges,
Split is The Consciousness.
As soon as The Consciousness is split,
Appear The 'Me', and the 'Not-Me' too,
Emerge out and Appear as the two ends.
The one is the center,
The circumference the other.
As soon as extends the periphery,
An infinity of radii emerges out.
Each one joins the center,
With a point on the periphery,
How-so-ever small or big.
And is Identified The center,
With the point.
The identification holds for a second,
Or for a whole eon.
Though time matters not,
And emerges out in imagination only.
The Split is the only pain,
And is so the identification too.
Yet this goes on and on,
Even if when;
The identification is Zero,
That is;
--When the Ego has gone to sleep.
For then,
There is the identification perfect.
With the thought :
"I know nothing."
Yet there is the perception,
There is the Consciousness,
--'Still' and Latent as the potential,
Though not Manifest,
Though in perfect oblivion,
In, -- and at abeyance.
And even in death,
The same thing happens again,
When the shell is broken once again,
And the Ego leaves the body,
Enters into another realm,
The one that is ever so unknown,
In this body; - In this world.
--
        

   

Thursday, 8 August 2019

कठ-धर्म, हठ-धर्म और मठ-धर्म,

पिछ्ला बाकी 
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काया से संबंधित कल लिखे श्लोकों में 'कण्ठ' का उल्लेख छूट गया जो अब प्रस्तुत है :
क-वर्णं कस्मिन् स्थितं कं स्थितं वा कण्ठं तत्।
तत्र स्थितं हि कण्ठे यत् कण्ठस्थमिति उच्यते।।
--
शमन धर्म के पूर्ववर्णित प्रकारों को मठ-धर्म, हठ-धर्म एवं कठ-धर्म भी कहा जाता था।
शमन-धर्म के साथ संयुक्तरूप से इसे 'शठ-धर्म' भी कहा जाने लगा जो विभ्रम पैदा करता है,
इसलिए उसका प्रयोग केवल साहित्यिक अलंकारयुक्त भाषा तक ही सीमित रह गया।
हठ-धर्म का विशिष्ट अभ्यास करनेवाले योगी भी थे जिन्होंने इसकी परिभाषा 'ह' और 'ठ' वर्णाक्षरों के संयोग से बने शब्द 'हठ' की विवेचना से की।  'ह' वैसे भी महाप्राण वर्ण है और विसर्ग के रूप में भी प्रयुक्त होता है।
'ठ', 'टवर्ग' का वर्ण है जो स्थितिवाचक है।  जैसे 'घट-पट' आदि में 'ट' शब्द को दृढ़ता प्रदान करता है, वैसे ही 'मठ', 'कठ' आदि में 'ठ' वर्ण भी यही कार्य करता है। किन्तु 'शठ' में यह अर्थ का अनर्थ कर देता है।
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अनुभूति मात्र हृदयस्थ, कण्ठस्थ और मुखस्थ हो सकती है।
कठ-धर्म, हठ-धर्म और मठ-धर्म का आचरण भी इसी प्रकार क्रमशः कारण, सूक्ष्म और व्यक्त रूप में होता है।
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त्रैविद्या मां

Mesopotamia
महाप्रथमीय (मेसोपोटेमिया)
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शमन धर्म के मूल पीठ महेश्वर स्थित महाप्रथमीय क्षेत्र में सनातन धर्म का प्रचलन शमन धर्म के रूप में था ।
यह वही महेश्वर (मिस्र) है जहाँ हातिम ताई का जन्म हुआ था और जहाँ वह एक-दो वर्ष की आयु का होने तक माता-पिता के साथ रहा । जहाँ से गरुड़ उसे उठाकर कापालिकों के नगर से कुछ दूर खजूर के एक वृक्ष पर रख गया था । वास्तव में गरुड़ से ही उसे प्रथम दीक्षा प्राप्त हुई थी । कापालिकों के राज्य में कापालिकों के दो समुदाय थे, एक थे प्रधानतः कापालिक दूसरे थे जाबालिक । दोनों ही आर्ष-अङ्गिरा ऋषि Arch-Angel अर्थात् जाबालऋषि (Gabriel) की ही परंपरा को मानते थे जिसका उद्गम्-स्थल महेश्वर (मिस्र) था ।
पात्रता और अधिकारिता के आधार पर महेश्वर (मिस्र) में स्थित प्रधान मठ में जिस त्रैविद्या की शिक्षा दी जाती थी उस आधार पर बाद में परंपरा के विस्मरण (विचार -'Vicar' एवं विशप्त / विशप् - 'Bishop') होने से केवल औपचारिक रूप से ही त्रैविद्या का अनुष्ठान किया जाने लगा और उसका मूल तत्व धेरे-धीरे विलुप्तप्राय हो गया ।
महेश्वर (मिस्र) में भूतभावन भगवान् शंकर के गण श्मशान-साधना में निष्णात और पारंगत थे और प्रेत-विद्या का लौकिक रूप और प्रकार वहीं से प्रारंभ हुआ ।
कापालिकों के राज्य / नगर में भूतभावन भगवान् शंकर (ईश्वर / इस्र)  की आराधना लिङ्ग अर्थात् कपाल के रूप में होती थी :
किरीट, केश, कपाल, कर्ण,
कपोल, केयूर, कर, कफोणि। 
कटि कटिबन्ध च कमण्डलं
क-वाचक काया अंगन्यास ।। 
भृगु जाबालि यः अङ्गिरसः।
उशनाकृत कल्पनाविलास।।   
--
’क’ वर्णमाला में प्रथम वर्ण है जो ’चारों ओर’ का पर्याय है । उपरोक्त श्लोक में इसी रहस्य का वर्णन है ।
त्रैविद्या का वर्णन गीता अध्याय ९ में इस प्रकार प्राप्त होता है :
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥२०
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।
एवं त्रैधर्म्यमनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥२१
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥२२
येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥२३
अहं हि सर्व यज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥२४
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥२५
--
traividyā māṃ somapāḥ pūtapāpā yajñairiṣṭvā svargatiṃ prārthayante |
te puṇyamāsādya surendralokamaśnanti divyāndivi devabhogān ||20
te taṃ bhuktvā svargalokaṃ viśālaṃ kṣīṇe puṇye martyalokaṃ viśanti |
evaṃ traidharmyamanuprapannā gatāgataṃ kāmakāmā labhante ||21
ananyāścintayanto māṃ ye janāḥ paryupāsate |
teṣāṃ nityābhiyuktānāṃ yogakṣemaṃ vahāmyaham ||22
ye:'pyanyadevatābhaktā yajante śraddhayānvitāḥ |
te:'pi māmeva kaunteya yajantyavidhipūrvakam ||23
ahaṃ hi sarva yajñānāṃ bhoktā ca prabhureva ca |
na tu māmabhijānanti tattvenātaścyavanti te ||24
yānti devavratā devānpitr̥̄nyānti pitṛvratāḥ |
bhūtāni yānti bhūtejyā yānti madyājino:'pi mām ||25
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इस कथा का नायक हातिम ताई अवश्य ही महाभारत युद्ध होने से पूर्व से ही हुआ था, क्योंकि मिस्र के पिरामिड्स का निर्माण महाभारत युद्ध के बहुत बाद में हुआ था | श्री नागेश नीलकण्ठ ओक के अनुसार महाभारत का युद्ध ईसा से 5661 वर्ष पहले हुआ था।  जबकि पिरामिडों का निर्माण ईसा से 3000 वर्ष पहले।
यह उल्लेख इसलिए भी ज़रूरी है ताकि पश्चिम के तीन religions के सन्दर्भ से इसे न जोड़ा जाए।
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इस कथा को और आगे लिखने से पहले हमें तीन ऐतिहासिक प्रसंगों पर विचार करना होगा :
1 पिरामिडों का निर्माण जिस प्रेत-विद्या के आधार पर किया गया, वह 'शमन धर्म' ।
2 कापालिकों / जाबालिकों का 'शमन-धर्म'
3 कठोलिकों का 'शमन-धर्म'
--
इसी 'त्रैविद्या' को 'शमन-धर्म' के सन्दर्भ से और भिन्न तरीके से समझा जा सकता है।
यद्यपि यहाँ यह देखा जाना भी उतना ही ज़रूरी है कि भगवान् श्री आदि शंकराचार्य ने अपने गीता-भाष्य में  इसका अर्थ 'ऋक् -यजु -साम' किया है। किन्तु 'शमन-धर्म' के सन्दर्भ में इसे उपरोक्त 3 रूपों में देखा जा सकता है। मां / mām से 'mummy' का सादृश्य उल्लेखनीय है। पिरामिडों में जिन राजा-रानियों को दफ़्नाया जाता था, उनके शरीर को 'मोम' (a preservative used in embalming) के लेप और मसालों के प्रयोग से सुरक्षित रखा जाता था।
'मिस्र' से mason / mission / मिस्री / मिशनरी की उत्पत्ति तो स्पष्ट ही है, इसे संस्कृत शब्द श्मशान के भी सज्ञात / सजात / cognate शब्द की तरह देखा जा सकता है।
संक्षेप में पश्चिम के तीनों religions में अंतिम संस्कार के रूप में दफ़न किया जाना प्रचलित है ही, जबकि पूर्व की परंपराओं में किसी विशेष स्थिति में ही मृतक को दफ़्नाया जाता या समाधि दी जाती है।
यहाँ यह स्पष्ट किया जाना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि संस्कृत भाषा में 'शव' को ही 'प्रेत' कहा जाता है न कि मृतक की रूह, soul या जीव को। इसलिए 'प्रेत्य' का अर्थ हुआ -मरणोत्तर होनेवाला, किया जानेवाला कार्य।
यहाँ गीता से जो श्लोक उद्धृत किए गए हैं उनकी विस्तार से विवेचना मेरे गीता से संबंधित ब्लॉग में हिंदी तथा अंग्रेज़ी में देखी जा सकती है।
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इसलिए इस कथा में आगे चलकर जाबाल्युपनिषद् तथा कठोपनिषद् के माध्यम से कापालिकों / जाबालिकों एवं कठोलिकों के 'शमन-धर्म' की परंपरा का वर्णन करने का विचार है।
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Monday, 5 August 2019

Delusion, Illusion, Paradox, Hallucination

तरङ्गबिन्दुन्याय
--         
सबिन्दुसिन्धुसुस्खलत् ...
(श्री आदि शंकराचार्य रचित नर्मदाष्टकम् से)
--
मोह, भ्रम, विरोधाभास, विभ्रम   
भगवान् शंकर जब समाधि में निमग्न थे उनके वक्ष अर्थात् हृदय-स्थल से एक स्वेद-बिन्दु गिरा ।
पलक झपकते ही वह एक बड़ी तरंग में बदल गया । वह तरंग शीघ्र ही सिन्धु में परिणत हो गई और माता पार्वती को बहा ले गई ।
भगवान् की समाधि भंग हुई और उन्होंने देखा कि माता पार्वती कहीं नहीं दिखाई दे रही ।
तब वे पुनः ध्यान में प्रविष्ट हुए और कुछ समय पश्चात् जब उनका ध्यान पूर्ण हुआ और उन्होंने अपने नेत्र खोले तो माता पार्वती वहीं उनके समीप बैठी हुई मूर्तिमान् बाल-गणेश से खेल रही थीं ।
तब भगवान् शंकर ने उनसे पूछा :
"पार्वती ! तुम इतने लंबे समय तक कहाँ चली गई थी?"
माता पार्वती ने कहा :
"प्रभो ! आप जब ध्यान में डूबे थे तब मैंने आपके वक्ष-स्थल से एक स्वेद-बिन्दु को गिरते देखा था ।
वह बिन्दु अभी गिरा ही था कि तत्काल ही एक विशाल तरंग के रूप में हर दिशा में बढ़ता चला गया ।
जैसे स्फुलिङ्ग से ज्वालाएँ निकलती और बढ़ती हैं जिनमें से पुनः और भी अनेक स्फुलिङ्ग निकलते हैं, ठीक वैसे ही उस स्वेद-बिन्दु से एक तरंग उठी और उसने पूरी सृष्टि के साथ-साथ मुझे भी आत्मसात् कर लिया । पता नहीं कितने समय तक मैं उसमें लीन रही और जब आँखें खुली तो देखा कि मेरे पास यह मूर्तिमान् बाल-गणेश क्रीडारत थे । मैंने सहज स्नेहवश उन्हें उठा लिया और इसी समय आपकी समाधि पूर्ण हुई और अब आप इस समय मुझसे यह प्रश्न पूछ रहे हैं ।"
तब भगवान् शंकर का ध्यान उस शिशु-गणेश की तरफ गया ।
उन्हें भी उस पर पुत्र-प्रेम उत्पन्न हुआ और उन्होंने उससे पूछा :
"वत्स ! देव !! तुम कौन हो?"
तब उस देव-शिशु ने कहा :
"हे महादेव मैं तो आप दोनों की ही सन्तान हूँ ।"
इससे भगवान् महादेव की जिज्ञासा शान्त नहीं हुई ।
उन्होंने तब शिशु से पूछा :
"मैं नहीं जान पाया ।"
तब माता पार्वती ने उस शिशु से पूछा :
"अच्छा यह बतलाओ कि मुझे दिखलाई देने से पूर्व तुम कहाँ थे?"
तब शिशु गणेश बोले :
"हे माता तब मैं अदृश्य और अमूर्त रूप में माता नर्मदा की जल राशि में अनादि काल से क्रीडारत था ।"
तब भगवान् शंकर और माता पार्वती की जिज्ञासा और कौतूहल और प्रबल हो उठे ।
उन्होंने शिशु से प्रश्न किया ;
’नर्मदा कौन है ?"
तब शिशु ने कहा :
"माता! तुम्हें स्मरण होगा जब भगवान् शंकर समाधिस्थ थे तो उनके वक्षस्थल से एक स्वेद-बिन्दु गिरा था जो शीघ्र ही विशालाकार सिन्धु में रूपान्तरित हो गया था । तब भी मैं अदृश्य होते हुए सब कुछ देख रहा था । वही स्वेद-बिन्दु सृष्टि-रूपा साकार नर्मदा है । वही मेकलसुता पृथ्वी पर जीवों के कल्याण के लिए अवतरित हुई है ।"
तब भगवान् शंकर और माता पार्वती को माता नर्मदा के स्वरूप का ज्ञान हुआ ।
तब शिशु ने माता से कहा :
"मुझे प्यास लगी है ।"
माता पार्वती ने तब चाँदी की एक कटोरी में नर्मदा का जल शिशु के समक्ष प्रस्तुत किया ।
शिशु ने वह कटोरी भगवान् शंकर को देते हुए पूछा :
"इसमें आपको क्या दिखलाई देता है?"
भगवान् शंकर बोले :
"इसमें जल है और जल में सूर्य प्रतिबिम्बित हो रहा है ।"
तब शिशु ने कटोरी को माता पार्वती के सामने रखकर पूछा :
"माता! आपको इसमें क्या दिखलाई देता है ?"
माता बोलीं :
"इसमें वैसे तो सूर्य का प्रतिबिम्ब दिखलाई दे रहा है किन्तु कटोरी में जल की प्रकाशित गोलाकार सीमा भी दिखलाई दे रही है ।"
तब शिशु ने पिता से पूछा :
"तात ! जब इसमें सूर्य का प्रतिबिम्ब नहीं देखा जाता और केवल जल की गोलाकार सीमा ही देखी जाती है तब क्या उस सीमा में स्थित एक बिन्दु भी तुम्हें दिखाई देता है ?"
भगवान् भोलेनाथ बोले :
"हाँ वत्स ! जैसे चाँदी की किसी अँगूठी में एक रत्न जड़ा होता है, वैसे ही जल की इस प्रकाशित परिधि में सूर्य का एक छोटा सा किन्तु अधिक प्रकाशित बिम्ब भी दिखलाई देता है ।"
"अच्छा ! अब उस कटोरी को धीरे-धीरे उठाकर अपने नेत्रों के पास लाओ ।"
तब भगवान् शंकर ने सावधानी से उस कटोरी को अपने नेत्रों के समीप लाने का उपक्रम किया ।
जब कटोरी उनके नेत्रों के बहुत पास आ गयी तब उन्हें उस अँगूठी में एक के स्थान पर दो रत्न पास पास जड़े हुए दिखाई दिये ।
तब शिशु ने प्रश्न किया :
"तात क्या तुम्हें अँगूठी में दो रत्न जड़े दिखलाई देते हैं ?"
"हाँ वत्स निकट से देखने पर वे दो प्रतीत होते हैं जबकि दूर से देखने पर एक ही बिम्ब एक रत्न जैसा दिखाई देता है ।"
पिता ने चकित होकर कहा ।
"अच्छा ! अब तुम कटोरी को नेत्रों के इतने निकट से इस प्रकार देखो कि तुम्हें दो बिम्ब दिखलाई देने लगें ।"
भगवान् ने बालक के कहे अनुसार जब ऐसा किया तो बालक ने कहा :
"अब तुम कोई भी एक नेत्र बन्द कर दूसरे नेत्र से अँगूठी में दिखाई देनेवाले रत्न देखो ।"
जब भगवान् शंकर ने इस प्रकार से अवलोकन किया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि पास से देखने पर वास्तव में दोनों नेत्र एक ही बिम्ब को अलग अलग दो बिम्बों की तरह ग्रहण करते हैं किन्तु दूर से देखने पर उन दोनों बिम्बों में सामञ्जस्य हो जाने से एक ही बिम्ब दिखाई देता है ।
भगवान् शंकर बालक की चतुराई पर विस्मित हुए और पुनः ध्यान में समाधिस्थ हो गए ।
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(कल्पित)
प्रेरणा :
सुबह सुबह चाय पीते हुए यही क्रम मेरी आँखों के सामने प्रतीत हुआ जब मेरे पीछे स्थित बिजली के बल्ब की रोशनी के दो प्रतिबिम्ब मेरे चाय के कप में मुझे दिखलाई दिये । फ़िर कौतूहलवश मैंने उनका कारण जानने का यत्न किया तो यह रहस्य मुझ पर प्रकट हुआ ।
(याद आया भौतिक-शास्त्र की कक्षा में ऑप्टिकल-लेन्स का 'फोकल-लेंथ' ज्ञात करने के प्रयोग में इसी  तकनीक का इस्तेमाल होता था।)
सज्ञात : Cognates;
प्रकष् -- Focus प्रकल् -- Focal   
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निष्कर्ष एवं फलश्रुति :
From Delusion follow the Illusion, the Paradox, and the Hallucination.
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'अन्नं ब्रह्म'

त्रिधारिता / त्रिग्रथिता
अयमात्मा ब्रह्म 
Another Triad.
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This is part 2 of the previous post.
The Physical body is but a well-organised (organic) composition of matter where the Consciousness comes into expression from the latent state inherent. The Consciousness is NOT the result or consequence of the organic structure of the body, but IS the awareness that emerges, distinguishes and discriminates between the body and the world around it. Though the essential core elements that the body and the world are made of are the same, the manifest consciousness in the body assumes the form of a separate entity, other than the world.
The body is essentially the food it consumes and the consciousness is never feeble or strong, but there is this sense of being that gets translated into 'being' an entity. This entity is the Mind. This Mind, the compact of senses external to the body, viz. touch, smell, sight, taste and sound further ramifies and develops into the inner / internal senses of the kind that is of the form of perception, articulation and memory of the experiences gained through the external senses.
Mind is therefore the subtle result of the food consumed by the body.
This food is not only the material-like we intake, eat or drink.
Whatever is grasped by and through the senses is also called 'food' 'अन्नं ब्रह्म'.
This strengthens and forms the structure of the Mind (in each and every individual).
The Consciousness that is associated with the body in the seed form is very much akin to nature, while as and when the same is associated with the Mind, the faculties of Mind gradually develop and the feelings at the level of mind come into existence. The repetition of feelings gets translated into 'pleasant' or 'unpleasant', even disagreeable experience(s). Feelings take the form of memory, stored there-in and the responses of memory are the 'emotions' and the 'sentiments'.
The Consciousness that is basically 'awareness' only, and is totally identified with the body only, gradually assumes identification with the objects that form and compose the Mind. The Mind that has a constantly changing form and pattern, has no support of its own and is body at one end while the consciousness at the another.
The one end, the Physical body is but the material aspect of the Mind, while the consciousness is the  awareness-aspect of the same. Both these two aspects utterly lack in them the sense of 'me' / 'I' yet the Mind assumes such an identity non-existent.
Consciousness transcends the body and the Mind comes into being.
Consciousness transcends the Mind and is itself is revealed as the Awareness.
Awareness is devoid of 'me' or 'I'-sense, and that is the fact, the Mind can grasp / understand never.
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Sunday, 4 August 2019

Gross, Subtle and Comprehensive

त्रिग्रथिताः (The Three Triads)
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यंत्र, मंत्र और तंत्र : स्थूल, सूक्ष्म और व्यापक
(yantra, mantra, and tantra : Gross, Subtle and Comprehensive)
Existence; -The Potential and the Manifest comprises of three expressions of the same and unique Reality. By 'Unique' we tend to think it is 'One'. Though it is the Sole and Soul Existence, classifying it as 'one' or 'many' at once bifurcates the same into the the 'one' who thinks of it, and the one that is thought of. The apparent division of the thinker and the the thought (the noun) at once emerges out. Along-with emerges the thought (the verb) as well.
This triad again at the Gross, Subtle and the Comprehensive, all-pervasive levels give rise to person, the world and the (imaginary sense of) relationship between the two.
Here is also a strange paradox. The thinker can imagine and Superimpose even yet another entity that governs the whole Phenomenal and the Potential. This may be called 'God' or 'The Lord Supreme' or by a name you would like to give it.
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The Sanskrit Connection :
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यंत्र / yantra; - signifies movement; -the one that is external to the thinker.
मंत्र / mantra; - signifies the movement -the one that is internal to the thinker.
तंत्र / tantra; -signifies the movement that is outward as well as inward too.
These 3 elements constitute the whole existential game-plan.
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यंत्र / yantra, मंत्र / mantra and तंत्र / tantra could again be viewed in terms of 'देवता' / 'devatA' of which (at least in my knowledge) there is no equivalent in English. We could loosely call it 'Spirit'.
Interestingly; this word 'Spirit' too is a cognate of the संस्कृत word 'स्फुरित' / 'sphurit' / 'स्फूर्त' / 'sphoorta'. There are many other words like 'spate' and 'spurt' which owe their origin to the same Sanskrit root ' 'स्फुर्'. One such word is 'Phosphorus'.
'Phosphorus' could again be traced to the Sanskrit word 'प्रस्फुरस्' which means 'shining' / 'burning' by itself. 'burn' is again सज्ञात / cognate अपभ्रंश / aberration of 'ज्वल्' / 'ज्वर्'.
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 यंत्र / yantra, मंत्र / mantra and तंत्र / tantra could again be of the form and essence of 'वैदिक' / 'vaidika' or 'अवैदिक' / 'a-vaidika' . Originally belonging to the 'Veda' (all-pervasive Gross, Subtle and the Comprehensive Knowledge) is what is summarily called 'वैदिक' / 'vaidika'.
Again,      
यंत्र / yantra, मंत्र / mantra and तंत्र / tantra could again be of the form and essence of
'अवैदिक' / 'a-vaidika', that is not belonging directly to the Veda.
Veda is the the timeless (all-pervasive Gross, Subtle and the Comprehensive Knowledge) and therefore is all-inclusive as well.
This 'अवैदिक' / 'a-vaidika' knowledge, though prevalent in different cultures and traditions is usually preserved and maintained through customs. Usually by means of the word of mouth. That is by the spoken and the heard word.
There are therefore the यंत्र / yantra, मंत्र / mantra and तंत्र / tantra,
essentially of the शाबर / shAbara kind.
We have the words 'Cyber' 'Cipher' and 'Sabre' that connote the शाबर / shAbara.
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शाबर / shAbara is cognate of शर्व / शर्वरी / शबरी / a word in Sanskrit; - meaning 'the night'.
There is another word 'शब' / 'sheb' in the Persian from Urdu and in turn in Urdu from Sanskrit
शाबर / shAbara, 'शब' / 'sheb'.
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This is therefore the Real Black Magic.
We might remember :
Magic itself is a derivation of 'Mayik' which is closely connected with the 'Mayan' Civilization.
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Saturday, 3 August 2019

Friend's Day

The Sun and The Moon :
The Lord and a Great Friend.
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मित्रवत् सर्वभूतेषु पितृवत् यो अर्यमा। 
ग्रीष्मे तपति तप्यते शिशिरे हरति शैत्यं सः।।
चन्द्रमा तस्य मित्रो सोम सैव रसात्मको। 
पूषन् पोषयति पृथ्वीं ओषधीभ्यः तथा शशि।। 
ॐ मित्राय नमः।। 
ॐ नमो मित्राभ्याम् ।। 
ॐ नमो मित्रेभ्यः।।   
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मित्र नामक सूर्य, समस्त भूत प्राणिमात्र का परम श्रेष्ठ मित्र है, अर्यमा नामक सूर्य सबका पिता है, जो ग्रीष्म ऋतु में तप करता हुआ प्राणिमात्र को तप करने की शिक्षा देता है और शिशिर ऋतु में सबका शीत हरता है। 
जिस प्रकार सोम नामक चन्द्रमा जो सूर्य का मित्र है और सोम के रूप में रसात्मक है, अन्न तथा ओषधियों से उसी प्रकार से पूरी पृथ्वी का पोषक है जैसे पूषन् नामक सूर्य प्राण से समस्त भूत प्राणिमात्र का पोषण करता है। 
--
The Lord Sun who as 'मित्र' is friend of all beings, is also as 'अर्यमा' the Father Supreme of all Life.
The Lord keeps performing austerities and Penance during the summers, while taking away the cold during the winters, giving us light and heat.
The Lord Moon who as 'सोम' is of the form of nectar and feeds the earth by means of food and vegetables, fruits and herbs, medicines and juice.
While the Moon gives us the 'Consciousness', the Sun nourishes us by means of 
प्राण (the vital breath). 
The two friends together are the Great and true friends of all who give out the gifts for us all.
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Obeisance to every friend;
Obeisance to these two Great friends;
Obeisance to all Great friends.
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Happy Friend's Day !
मैत्री-दिवस की शुभकामनाएँ !
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Thursday, 1 August 2019

यकीन की सच्चाई

आत्मतया : आत्मीयता,
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कापालिकों ने हातिम ताई का नाम बदलकर उसे ’आत्मतया’ कर दिया था । उसके धर्मपिता कहते थे कि सब कुछ आत्मतया है । उसे यद्यपि यह सब समझ में नहीं आता था, पर वह सोचता था कि यदि सब कुछ आत्मतया है तो क्या ईश्वर और महेश्वर भी आत्मतया है?  तब धर्मपिता कहते थे :
"जो महेश्वर है, वही ईश्वर है, जो ईश्वर है, वही महेश्वर है ।
आत्मतया का अर्थ है दोनों एक दूसरे के ही दो रूप हैं ।"
शायद उस समय हातिम ताई इतनी परिपक्व बुद्धि का नहीं था, कि इन बातों का गूढ किंतु प्रकट तात्पर्य ग्रहण कर सके ।
तब उसके धर्मपिता ने उससे प्रश्न किया :
’क्या हर व्यक्ति अपने-आपको ’मैं’ के रूप में ही नहीं जानता है?
और क्या हर व्यक्ति अपने-आपको ’मैं’ कहकर ही अपना परिचय दूसरों को नहीं देता ?"
हातिम ताई चुपचाप सुनता रहा ।
"अब मान लो, महेश्वर या ईश्वर तुम्हारे समक्ष प्रकट हुए,
तो क्या वे भी अपने-आपको ’मैं’ ही कहकर अपना परिचय नहीं देंगे ?"
"हाँ, मुझे गरुड़ ने जब खजूर के पेड़ पर ला छोड़ा था तो उसने भी स्वयं को ’मैं’ ही कहा था ।
लेकिन इसके बाद पता नहीं कैसे और कितने समय में मैं दो-तीन साल की आयु से बढ़कर सत्रह-अठारह साल का हो गया, लेकिन इस बीच उसी पेड़ पर जब मुझे भूख-प्यास लग रही थी, और मुझे मेरे माता-पिता की याद आ रही थी, और मैं रो रहा था, जब मैंने ईश्वर या परमेश्वर दोनों से प्रार्थना की थी कि मुझे बचाओ; मेरी रक्षा करो, तो मुझसे किसी आवाज ने कहा था :
"अगर तुम्हारा यकीन सच्चा है तो 'मैं' तुम्हारी रक्षा करूँगा ।"
और तभी उस खजूर पर बेमौसम ही फल आ गये थे । और फिर जब मैंने उन्हें तोड़ने के लिए हाथ आगे बढ़ाया तो वे अचानक अदृश्य हो गये थे । तब मैंने ईश्वर / महेश्वर / परमेश्वर से कहा था :
"जैसी तुम्हारी मरजी !"
और तभी वे फल पुनः दिखलाए दिये,
और जब मैंने उन्हें तोड़ा, तो मुझे अपने यकीन की सच्चाई पर भरोसा हुआ ।
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जब गरुड़ ने दूसरी बार हातिम ताई को कापालिकों के नगर से उठाकर कठोलिकों के बीच छोड़ दिया था, तो हातिम ताई को न तो डर लगा था, न चिन्ता हुई थी । उसे कुछ वैसा ही लगा था, -जैसे कोई बिल्ली अपने किसी बच्चे को मुँह में दबाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है ।
जब कठोलिकों (कठोलिक आचार्यों) ने उससे उसका नाम पूछा था, तो उसने उन्हें कभी तो अपना नाम 'हातिम ताई' बतलाया था, और कभी-कभी ’आत्मतया’ भी ।
जब उसे यज्ञोपवीत और दीक्षा दी गई थी, और जब पुनः उसके आचार्यों ने उसका नाम बदलकर ’आत्मीयता’ कर दिया था तो उसे आश्चर्य हुआ था कि क्या मेरे नाम के इतने प्रकार हो सकते हैं ?
तब आचार्य ने उसे स्पष्ट किया था :
"सभी का एक ही नाम है : ’मैं’ । यह नाम सबका होने से हर कोई इससे अपने-आपको तो जानता है किन्तु अपने-आपका नाम दूसरों के लिए कुछ और होना ज़रूरी है, ताकि सब एक-दूसरे को पहचान सकें । हर पहचान हमेशा बनती-मिटती रहती है, जबकि ’मैं’ की पहचान बनती-मिटती नहीं । इसलिए अपने को जाना जाता है, दूसरों को पहचाना जाता है।
इसलिए (दूसरों की) पहचान तात्कालिक होती है, जबकि ’मैं’ को जानना; - 'मैं' की पहचान बिना नाम के भी स्थायी, हमेशा बनी रहती है । फिर एक ही मनुष्य में क्या ऐसे दो ’मैं’ होते हैं ? अगर दो ’मैं’ नहीं होते, तो एक भी अपने-आपको कैसे पहचान सकेगा ? इसलिए ’मैं’ न तो एक है, न दो या अनेक । फिर यह ’नहीं है’ ऐसा कहना भी गलत होगा ।
इसलिए ’मैं’, ’ईश्वर, ’महेश्वर’ ’परमेश्वर’ 'सच्चाई', 'यकीन'  एक-दूसरे के ही अलग-अलग नाम हैं ।" 
"और हातिम ताई ? ... ’आत्मतया’? ... ’आत्मीयता’, ...'यकीन', ...'सच्चाई'?"
"सभी नाम हैं भाई ! नाम न हो तो क्या तुम नहीं होते?"
हातिम ताई को फिर भी अपना यह नया नाम ’आत्मीयता’, -’आत्मतया’से अधिक अच्छा लगा था ।
इसकी एक वजह यह भी थी कि इससे उसे अपने माता-पिता याद आते थे,
जिन्होंने उसका नाम हातिम (ताई) रखा था।  
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