जीवनी-शक्ति (Life-force)
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मुण्डकोपनिषत् तथा प्रश्नोपनिषत्, शक्तिपात :
मुण्डकोपनिषत्,
द्वितीय मुण्डक,
-प्रथम खण्ड के अनुसार :
तदेतत्सत्यं यथा सुदीप्तात्पावकाद्विस्फुलिङ्गाः प्रभवन्ते सरूपाः।
तथाक्षराद्विविधाः सोम्य भावाः प्रजायन्ते तत्र चैवापियन्ति।।१
अर्थ :
हे सोम्य (प्रिय)! जैसे अच्छी तरह से प्रदीप्त अग्नि से उसके जैसे रूपवाली अनेक चिंगारियाँ उठती हैं, उसी तरह अक्षर (परब्रह्म) से उसके जैसे रूपवाली अनेक प्रजाएँ प्रकट होती हैं।
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दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः सबाह्याभ्यन्तरो ह्यजः।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात्परतो परः।।२
अर्थ :
वह दिव्य अमूर्त पुरुष जो बाह्याभ्यन्तरसहित जन्मरहित है, प्राण तथा मन से भी अस्पर्शित है, शुभ्र (तेजस्वी) और अक्षरस्वरूप होने से परब्रह्म है।
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एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी।।३
अर्थ :
इसी परात्पर पुरुष से प्राण मन और सभी इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं तथा आकाश, वायु, तेज, जल एवं समस्त व्यक्त सृष्टि को धारण करनेवाली पृथिवी भी इसी से उत्पन्न होते हैं ।
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अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्रसूर्यौ दिशः श्रोत्रे वाग्विवृताश्च वेदाः।
वायुः प्राणो हृदयं विश्वमस्य पद्भ्यां पृथिवी ह्येष सर्वभूतान्तरात्मा।।४
अर्थ :
अग्नि इसी परात्पर पुरुष परमेश्वर का मूर्धा (शीर्ष) है, चन्द्र तथा सूर्य दोनों नेत्र, दिशाएँ दोनों कान, और वेद मुख से निकली वाणी हैं। वायु इसके प्राण और यह विश्व हृदय है, पृथिवी इसके दोनों चरण हैं।
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तृतीय मुण्डक,
- प्रथम खण्ड के अनुसार :
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।।१
अर्थ :
मानों जैसे पीपल के एक ही वृक्ष पर परस्पर भिन्न प्रतीत होनेवाले दो पक्षी होते हों इस प्रकार से अस्तित्व में (जीव / जीवात्मा तथा ईश्वर / परमात्मा) दोनों दिखाई देते हैं। (क्योंकि जीव तो इस अस्तित्व को संचालित नहीं करता और वह अपने ही तथा संसार के भी उस कारण के बारे में केवल अनुमान भर कर सकता है जो संसार का नियंता है, संसार जड दृश्य / विषय होने से उसका वह कारण नहीं हो सकता और जीव विषयी होने से यद्यपि सीमित चेतन अवश्य है किन्तु संसार और स्वयं के जीवन को कौन सी सत्ता नियंत्रित और परिचालित करती है, इसे भी नहीं जानता। अतः वह चेतन कारण जो विषय तथा विषयी का मूल है 'परमात्मा' / ईश्वर है यह तथ्य अकाट्य सत्य सिद्ध होता है। )
उन दोनों में से जीवरूपी पक्षी तो स्वादवश उस संसाररूपी वृक्ष के फलों को खाता है, जबकि वह अविकारी 'परमात्मा' / ईश्वर केवल देखता है।
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समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः।
जुष्टं सदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः।।२
अर्थ :
उस समान (एक ही) वृक्ष पर बैठा वह पक्षी (जीव) जो स्वाद से मोहित होकर सुख-दुःख रूपी फलों का उपभोग (शोक) करता हुआ जब दूसरे पक्षी 'परमात्मा' / ईश्वर को देख लेता है तो उस जैसा हो जाता है, उसकी महिमा से एक होकर शोक से रहित हो जाता है।
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यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्।
तदा विद्वानपुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्युपैति।।३
अर्थ :
वह जब उस ज्योतिर्मय पुरुष 'परमात्मा' / ईश्वर को जो कि ब्रह्म का भी एकमात्र कारणरहित कारण है, तब उसे देखता हुआ विद्वान पुण्य तथा पाप से दूर होकर उस जैसा निरञ्जन हो जाता है।
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प्राणो ह्येष यः सर्वभूतैर्विभाति विजानन्विद्वान्भवते नातिवादी।
आत्मक्रीडः आत्मरतिः क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः।।४
अर्थ :
प्राण ही वह कारण है जो सभी भूतों के अस्तित्व में आने का एकमात्र आधार है और जिससे सभी भूत और लोक देखे जाते हैं, ऐसा जानता हुआ वह अपनी आत्मा ही में रमता हुआ तथा सुखी होता हुआ कर्मरत होकर भी ब्रह्मवेत्ताओं में वरिष्ठ कहा जाता है।
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इस प्रकार प्राण ही देह के भीतर तथा बाहर वायु हैं।
जैसे एक ही वायु अनेक प्रकार से अनेक गतियों से युक्त होकर भिन्न भिन्न कार्य करती है, उसी प्रकार एक ही प्राण अनेक प्रकार से अनेक गतियों से युक्त होकर भिन्न भिन्न कार्य देह के अंतर्गत करते हैं। प्राण का स्वभाव है गतिशीलता इसलिए यद्यपि देह के अंतर्गत कोई ऐसा सुनिश्चित स्थान नहीं है जहाँ प्राण 'रहते' हों, वे पूरे शरीर में व्याप्त होते हुए विभिन्न कार्य करते हैं किन्तु जैसे विद्युत् के संचार में एक सिरा (terminal) होता है जहाँ से बिजली पूरे घर में संचरित होती है और उससे अनेक भिन्न भिन्न कार्य होते हैं, वैसे ही शरीर के अंतर्गत हृदय ही वह मांस-पिण्ड है जहाँ से प्राणों का संचार पूरे शरीर में होता है।
हृदय ही वह स्थान है जहाँ से भौतिक-प्राण तथा वृत्तिरूपी मन का उद्गम होता है।
यह प्राण कार्य की विशेषता के अनुसार उदान, समान, व्यान तथा अपान कहे जाते हैं।
तथा प्रश्नोपनिषत्,
प्रः नु प्रश्नो एव प्राणः।
प्रश्नोपनिषत् प्राणयोग निदर्शन है।
प्रथम प्रश्न :
अथ कबन्धी कात्यायन उपेत्य पप्रच्छ।
भगवन् कुतो ह वा इमाः प्रजाः प्रजायन्त इति।।३
अर्थ :
ऋषि पिप्पलाद की आज्ञा पाकर वे लोग श्रद्धापूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वहीँ तपश्चर्या करने लगे। महर्षि की देख-रेख में संयमपूर्वक रहकर एक वर्ष तक उन्होंने त्यागमय जीवन बिताया। उसके बाद वे सब पुनः पिप्पलाद ऋषि के पास गए तथा उनमें से सर्वप्रथम कत्य ऋषि के प्रपौत्र कबन्धी ने श्रद्धा और विनयपूर्वक पूछा :
"भगवन् ! जिससे ये सम्पूर्ण चराचर जीव नाना रूपों में उत्पन्न होते हैं, जो उनका सुनिश्चित परम कारण है, वह कौन है ?"
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तस्मै स होवाच प्रजाकामो वै प्रजापतिः। स तपोऽतप्यत स तपस्तप्त्वा स मिथुनमुत्पादयते। रयिं च प्राणं चेत्येतौ में बहुधा प्रजाः करिष्यत इति।।४
अर्थ :
उस कबन्धी ऋषि से ऋषि पिप्पलाद ने कहा :
"उस परम सत्ता ने तप का अनुष्ठान किया। इस तप के अनुष्ठान से तप करने से उनसे रयि एवं प्राण यह युगल उत्पन्न होता है। ये दोनों रयि (चेतना- ज्ञानशक्ति) तथा प्राण (ऊर्जा / क्रियाशक्ति) मेरे लिए अनेक प्रकार की प्रजाओं की सृष्टि करें।"
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आदित्यो ह वै प्राणो प्राणो रयिरेव चन्द्रमा रयिर्वा एतत् सर्वं यन्मूर्तं चामूर्तं च तस्मान्मूर्तिरेव रयिः।।5
अर्थ :
निश्चय ही आदित्य (सूर्यमण्डल) ही प्राण है और चन्द्रमा ही रयि है अथवा यह समस्त जो मूर्त तथा अमूर्त भी है वही रयि है, अतएव मूर्ति (आकृति) ही रयि है।
[क्योंकि नाम प्रतिमा से पृथक नहीं होता और प्रतिमा नाम से अभिन्न होती है। अतः यह सब नाम-रूपमय रयि अर्थात् चेतना या बोधस्वरूप ही है।]
इस प्रकार चेतना और प्राण का स्वरूपतः एकत्व (अनन्यता) को जानने के बाद देह में संचरित होकर देह के विभिन्न कार्य करनेवाले प्राण जिन्हें क्रमशः प्राण, व्यान, समान, उदान तथा अपान कहा जाता है, एक ही ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति के कार्य हैं। प्राणरूप से यही देह तथा देह से भिन्न प्रतीत होनेवाले जगत में भी इसी प्रकार व्यष्टि से समष्टि सभी स्तरों पर कार्य करते हैं। किन्तु किसी भी देह से संबद्ध होने पर उस शरीर के स्वामित्व की भावना के उत्पन्न होते ही उस शरीर तक ही सीमित व्यक्ति के रूप में चित्त तथा प्राण जीव की उपाधि प्राप्त करते हैं और तब जीव की पुनः अपने स्रोत से मिलने की व्याकुलता ही उसे उस तत्व के अनुसंधान की ओर ले जाती है।
उपसंहार :
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श्रीरमण विरचित 'उपदेश-सार' के दो श्लोक पुनः यहाँ दृष्टव्य हैं :
वायुरोधनाल्लीयते मनः।
जालपक्षिवद्रोधसाधनम्।।११
अर्थ :
जिस प्रकार जाल लगाकर किसी पक्षी को पकड़ लिया जाता है उसी प्रकार प्राणायाम की सहायता से चित्त का निरोध किया जा सकता है और तब चित्त (अस्थायी रूप से) लय को प्राप्त होता है। यह भी मनःसंयम का एक उपाय है।
[टिप्पणी : विभिन्न प्रकार की समाधियाँ मन के भिन्न भिन्न प्रकार से लय होने से घटित होती हैं। और यही शक्तिपात के द्वारा भी किया जाना / होना संभव है, किन्तु उसके अपने लाभ-हानि आदि अनेक प्रभाव हो सकते हैं।]
चित्तवायव श्चितक्रियायुता।
शाखायोर्द्वयी शक्तिमूलका।।१२
अर्थ :
चित्त एवं श्वास (अर्थात् वायुरूपी प्राण) क्रमशः ज्ञानशक्ति (बोध) मूलक और क्रियामूलक, किन्तु वस्तुतः एक ही शक्ति की दो शाखाएँ होते हैं।
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[टिप्पणी : उपदेश-सार सम्पूर्ण ग्रंथ को मेरी profile में दिए गए मेरे
ramanavinay blog
पर जाकर देख सकते हैं।]
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मुण्डकोपनिषत् तथा प्रश्नोपनिषत्, शक्तिपात :
मुण्डकोपनिषत्,
द्वितीय मुण्डक,
-प्रथम खण्ड के अनुसार :
तदेतत्सत्यं यथा सुदीप्तात्पावकाद्विस्फुलिङ्गाः प्रभवन्ते सरूपाः।
तथाक्षराद्विविधाः सोम्य भावाः प्रजायन्ते तत्र चैवापियन्ति।।१
अर्थ :
हे सोम्य (प्रिय)! जैसे अच्छी तरह से प्रदीप्त अग्नि से उसके जैसे रूपवाली अनेक चिंगारियाँ उठती हैं, उसी तरह अक्षर (परब्रह्म) से उसके जैसे रूपवाली अनेक प्रजाएँ प्रकट होती हैं।
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दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः सबाह्याभ्यन्तरो ह्यजः।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात्परतो परः।।२
अर्थ :
वह दिव्य अमूर्त पुरुष जो बाह्याभ्यन्तरसहित जन्मरहित है, प्राण तथा मन से भी अस्पर्शित है, शुभ्र (तेजस्वी) और अक्षरस्वरूप होने से परब्रह्म है।
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एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी।।३
अर्थ :
इसी परात्पर पुरुष से प्राण मन और सभी इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं तथा आकाश, वायु, तेज, जल एवं समस्त व्यक्त सृष्टि को धारण करनेवाली पृथिवी भी इसी से उत्पन्न होते हैं ।
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अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्रसूर्यौ दिशः श्रोत्रे वाग्विवृताश्च वेदाः।
वायुः प्राणो हृदयं विश्वमस्य पद्भ्यां पृथिवी ह्येष सर्वभूतान्तरात्मा।।४
अर्थ :
अग्नि इसी परात्पर पुरुष परमेश्वर का मूर्धा (शीर्ष) है, चन्द्र तथा सूर्य दोनों नेत्र, दिशाएँ दोनों कान, और वेद मुख से निकली वाणी हैं। वायु इसके प्राण और यह विश्व हृदय है, पृथिवी इसके दोनों चरण हैं।
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तृतीय मुण्डक,
- प्रथम खण्ड के अनुसार :
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।।१
अर्थ :
मानों जैसे पीपल के एक ही वृक्ष पर परस्पर भिन्न प्रतीत होनेवाले दो पक्षी होते हों इस प्रकार से अस्तित्व में (जीव / जीवात्मा तथा ईश्वर / परमात्मा) दोनों दिखाई देते हैं। (क्योंकि जीव तो इस अस्तित्व को संचालित नहीं करता और वह अपने ही तथा संसार के भी उस कारण के बारे में केवल अनुमान भर कर सकता है जो संसार का नियंता है, संसार जड दृश्य / विषय होने से उसका वह कारण नहीं हो सकता और जीव विषयी होने से यद्यपि सीमित चेतन अवश्य है किन्तु संसार और स्वयं के जीवन को कौन सी सत्ता नियंत्रित और परिचालित करती है, इसे भी नहीं जानता। अतः वह चेतन कारण जो विषय तथा विषयी का मूल है 'परमात्मा' / ईश्वर है यह तथ्य अकाट्य सत्य सिद्ध होता है। )
उन दोनों में से जीवरूपी पक्षी तो स्वादवश उस संसाररूपी वृक्ष के फलों को खाता है, जबकि वह अविकारी 'परमात्मा' / ईश्वर केवल देखता है।
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समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः।
जुष्टं सदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः।।२
अर्थ :
उस समान (एक ही) वृक्ष पर बैठा वह पक्षी (जीव) जो स्वाद से मोहित होकर सुख-दुःख रूपी फलों का उपभोग (शोक) करता हुआ जब दूसरे पक्षी 'परमात्मा' / ईश्वर को देख लेता है तो उस जैसा हो जाता है, उसकी महिमा से एक होकर शोक से रहित हो जाता है।
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यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्।
तदा विद्वानपुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्युपैति।।३
अर्थ :
वह जब उस ज्योतिर्मय पुरुष 'परमात्मा' / ईश्वर को जो कि ब्रह्म का भी एकमात्र कारणरहित कारण है, तब उसे देखता हुआ विद्वान पुण्य तथा पाप से दूर होकर उस जैसा निरञ्जन हो जाता है।
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प्राणो ह्येष यः सर्वभूतैर्विभाति विजानन्विद्वान्भवते नातिवादी।
आत्मक्रीडः आत्मरतिः क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः।।४
अर्थ :
प्राण ही वह कारण है जो सभी भूतों के अस्तित्व में आने का एकमात्र आधार है और जिससे सभी भूत और लोक देखे जाते हैं, ऐसा जानता हुआ वह अपनी आत्मा ही में रमता हुआ तथा सुखी होता हुआ कर्मरत होकर भी ब्रह्मवेत्ताओं में वरिष्ठ कहा जाता है।
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इस प्रकार प्राण ही देह के भीतर तथा बाहर वायु हैं।
जैसे एक ही वायु अनेक प्रकार से अनेक गतियों से युक्त होकर भिन्न भिन्न कार्य करती है, उसी प्रकार एक ही प्राण अनेक प्रकार से अनेक गतियों से युक्त होकर भिन्न भिन्न कार्य देह के अंतर्गत करते हैं। प्राण का स्वभाव है गतिशीलता इसलिए यद्यपि देह के अंतर्गत कोई ऐसा सुनिश्चित स्थान नहीं है जहाँ प्राण 'रहते' हों, वे पूरे शरीर में व्याप्त होते हुए विभिन्न कार्य करते हैं किन्तु जैसे विद्युत् के संचार में एक सिरा (terminal) होता है जहाँ से बिजली पूरे घर में संचरित होती है और उससे अनेक भिन्न भिन्न कार्य होते हैं, वैसे ही शरीर के अंतर्गत हृदय ही वह मांस-पिण्ड है जहाँ से प्राणों का संचार पूरे शरीर में होता है।
हृदय ही वह स्थान है जहाँ से भौतिक-प्राण तथा वृत्तिरूपी मन का उद्गम होता है।
यह प्राण कार्य की विशेषता के अनुसार उदान, समान, व्यान तथा अपान कहे जाते हैं।
तथा प्रश्नोपनिषत्,
प्रः नु प्रश्नो एव प्राणः।
प्रश्नोपनिषत् प्राणयोग निदर्शन है।
प्रथम प्रश्न :
अथ कबन्धी कात्यायन उपेत्य पप्रच्छ।
भगवन् कुतो ह वा इमाः प्रजाः प्रजायन्त इति।।३
अर्थ :
ऋषि पिप्पलाद की आज्ञा पाकर वे लोग श्रद्धापूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वहीँ तपश्चर्या करने लगे। महर्षि की देख-रेख में संयमपूर्वक रहकर एक वर्ष तक उन्होंने त्यागमय जीवन बिताया। उसके बाद वे सब पुनः पिप्पलाद ऋषि के पास गए तथा उनमें से सर्वप्रथम कत्य ऋषि के प्रपौत्र कबन्धी ने श्रद्धा और विनयपूर्वक पूछा :
"भगवन् ! जिससे ये सम्पूर्ण चराचर जीव नाना रूपों में उत्पन्न होते हैं, जो उनका सुनिश्चित परम कारण है, वह कौन है ?"
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तस्मै स होवाच प्रजाकामो वै प्रजापतिः। स तपोऽतप्यत स तपस्तप्त्वा स मिथुनमुत्पादयते। रयिं च प्राणं चेत्येतौ में बहुधा प्रजाः करिष्यत इति।।४
अर्थ :
उस कबन्धी ऋषि से ऋषि पिप्पलाद ने कहा :
"उस परम सत्ता ने तप का अनुष्ठान किया। इस तप के अनुष्ठान से तप करने से उनसे रयि एवं प्राण यह युगल उत्पन्न होता है। ये दोनों रयि (चेतना- ज्ञानशक्ति) तथा प्राण (ऊर्जा / क्रियाशक्ति) मेरे लिए अनेक प्रकार की प्रजाओं की सृष्टि करें।"
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आदित्यो ह वै प्राणो प्राणो रयिरेव चन्द्रमा रयिर्वा एतत् सर्वं यन्मूर्तं चामूर्तं च तस्मान्मूर्तिरेव रयिः।।5
अर्थ :
निश्चय ही आदित्य (सूर्यमण्डल) ही प्राण है और चन्द्रमा ही रयि है अथवा यह समस्त जो मूर्त तथा अमूर्त भी है वही रयि है, अतएव मूर्ति (आकृति) ही रयि है।
[क्योंकि नाम प्रतिमा से पृथक नहीं होता और प्रतिमा नाम से अभिन्न होती है। अतः यह सब नाम-रूपमय रयि अर्थात् चेतना या बोधस्वरूप ही है।]
इस प्रकार चेतना और प्राण का स्वरूपतः एकत्व (अनन्यता) को जानने के बाद देह में संचरित होकर देह के विभिन्न कार्य करनेवाले प्राण जिन्हें क्रमशः प्राण, व्यान, समान, उदान तथा अपान कहा जाता है, एक ही ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति के कार्य हैं। प्राणरूप से यही देह तथा देह से भिन्न प्रतीत होनेवाले जगत में भी इसी प्रकार व्यष्टि से समष्टि सभी स्तरों पर कार्य करते हैं। किन्तु किसी भी देह से संबद्ध होने पर उस शरीर के स्वामित्व की भावना के उत्पन्न होते ही उस शरीर तक ही सीमित व्यक्ति के रूप में चित्त तथा प्राण जीव की उपाधि प्राप्त करते हैं और तब जीव की पुनः अपने स्रोत से मिलने की व्याकुलता ही उसे उस तत्व के अनुसंधान की ओर ले जाती है।
उपसंहार :
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श्रीरमण विरचित 'उपदेश-सार' के दो श्लोक पुनः यहाँ दृष्टव्य हैं :
वायुरोधनाल्लीयते मनः।
जालपक्षिवद्रोधसाधनम्।।११
अर्थ :
जिस प्रकार जाल लगाकर किसी पक्षी को पकड़ लिया जाता है उसी प्रकार प्राणायाम की सहायता से चित्त का निरोध किया जा सकता है और तब चित्त (अस्थायी रूप से) लय को प्राप्त होता है। यह भी मनःसंयम का एक उपाय है।
[टिप्पणी : विभिन्न प्रकार की समाधियाँ मन के भिन्न भिन्न प्रकार से लय होने से घटित होती हैं। और यही शक्तिपात के द्वारा भी किया जाना / होना संभव है, किन्तु उसके अपने लाभ-हानि आदि अनेक प्रभाव हो सकते हैं।]
चित्तवायव श्चितक्रियायुता।
शाखायोर्द्वयी शक्तिमूलका।।१२
अर्थ :
चित्त एवं श्वास (अर्थात् वायुरूपी प्राण) क्रमशः ज्ञानशक्ति (बोध) मूलक और क्रियामूलक, किन्तु वस्तुतः एक ही शक्ति की दो शाखाएँ होते हैं।
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