Saturday, 23 February 2019

योग, ज्ञान और अग्नि

योगाग्नि : ज्ञानयोग 
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वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।
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अर्थ : समस्त वर्णों को तथा उनके समस्त अर्थों के संघों को, रसों तथा वेदवाक्यों को भी मङ्गलमय स्वरूप प्रदान करनेवाले भगवान् श्रीगणेश तथा माता सरस्वती की मैं वन्दना करता हूँ।
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अस्तित्व के बारे में मूढ से भी मूढ भी जानता है कि मैं ज्ञाता (हूँ) और अन्य सब कुछ ज्ञेय है।
इस प्रकार 'मैं' का ज्ञान (ज्ञाता) ज्ञेय से आवरित है । ज्ञाता के अभाव में यह भी नहीं कहा जा सकता, कि ज्ञेय का ज्ञाता से स्वतंत्र अस्तित्व है भी या नहीं।  वह प्रश्न ही नहीं उठता ।
इस प्रकार ज्ञाता बोधमात्र है । किन्तु यही बोध तब ज्ञान का रूप ले लेता है जब इसे 'वर्ण' प्राप्त होता है ।
वर्ण का तात्पर्य है कोई रंग-रूप, आकृति (shade and form).
वर्ण शब्द 'वृ' धातु का विस्तार है जिसका उपयोग वृणोति (चुनने / elect), वृणीते (छाँटने / select), तथा वारण / वारयति, -निवारण करने (reject) करने के अर्थ में अलग-अलग स्थानों पर होता है।
वरं का अर्थ होता है श्रेष्ठ, अवरं का अर्थ होता है 'दूसरा' / और ।
जैसे वर्ण का अर्थ होता है, वैसे ही अर्थ का भी वर्ण होता है ।  इसलिए वर्ण का ज्ञान होते ही वर्णों के समूह (संघ) का तथा अर्थों के भी संघों का ज्ञान होता है ।
इन सभी वर्णों तथा उनके अर्थों (तात्पर्यों) में से कुछ मङ्गलकारी / शुभ होते हैं तो कुछ अमङ्गल / अशुभ भी हो सकते हैं। इसी प्रकार इन असंख्य तात्पर्यों में से कुछ रसपूर्ण, कुछ रसहीन तथा कुछ नीरस (विरस) [साधु चरित सुभ चरित कपासू । निरस बिसद गुनमय फल जासू।।] भी हो सकते हैं। क्योंकि निरस होने पर भी वे गुणमय तो होते ही हैं। और वेदवाणी भी इसी प्रकार किसी के लिए सार्थक या निरर्थक, सरस, रसरहित या विरस, हो सकती है।
ज्ञान वर्ण के रूप में अग्नि है और अग्नि अर्थ के रूप में ज्ञान (बोध) है।
अग्नि स्वज्योति है किन्तु उस स्थूल ज्योति का बोध जिसे होता है वह स्वयं सूक्ष्मतर चेतनज्योति है, -जिसे अग्नि का एवं अपने-आपका भी ज्ञान अवश्य ही होता है। अग्नि के इस प्रकार के परोक्ष ज्ञान को ही प्रकृति तथा प्रत्यक्ष ज्ञान को पुरुष कहा जाता है । इस प्रकार से पुरुष, अस्तित्व का वर्गीकरण जड तथा चेतन इन दो वर्णों में करता है । यह तो कोई चेतन, अर्थात् 'पुरुष' ही होता है जो समस्त ज्ञेय को प्रकृति कहता है, किन्तु जिसे वह 'जड' कहता है वह चेतन है या चेतनारहित इसका कोई सुनिश्चित प्रमाण उसके पास नहीं होता । वर्ण का ही एक प्रकार / लक्षण है 'लिंग', और इस प्रकार चेतन पुरुष भी लिंग-विशेष के अनुसार पुनः पुंलिंग या स्त्रीलिंग होता है।इस प्रकार इस चेतन पुरुष की भी पुनः दो 'प्रकृतियाँ' / विशेषताएँ 'नर' तथा 'नारी' हो जाती हैं।
जब यह चेतन पुरुष जीवन के विविध अनुभवों और उनके ज्ञान (वर्ण) को बुद्धि / स्मृति में ग्रहण करता है, तो ज्ञान की बुद्धि / स्मृति रूपी इस अग्नि में क्रमशः परिपक्व होने लगता है।  इस अग्नि में उसके स्वरूप की सारी अशुद्धियाँ जलकर भस्म हो जाती हैं और केवल शुद्ध ज्ञान ही ज्योतिर्मय स्वरूप में शेष रहता है ।  'नर' की प्रकृति / प्रवृत्ति 'नारी' की प्रकृति / प्रवृत्ति से इस रूप में बहुत भिन्न होती है कि 'नर' की बुद्धि तर्ककुशल होती है, जबकि 'नारी' की बुद्धि भावनाकुशल होती है । इसलिए 'नर' तर्क से 'ईश्वर' नामक जिस परम सत्ता का 'अनुमान' करता है, उसका ही 'निश्चय' 'नारी' भावना से कर लेती है।
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।
(गीता अध्याय ३, श्लोक ११)
इस प्रकार 'नर' जहाँ ईश्वर / 'देवता' को तर्क से जानता है, वहीँ 'नारी' ईश्वर / 'देवता' को भावना से अनुभव करती है, और दोनों ही इस प्रकार अपने-अपने तरीके से उस परम श्रेय की प्राप्ति कर लेते हैं ।
भगवान् शंकर जहाँ 'नर' का आदर्श उदाहरण हैं, वहीँ भगवती पार्वती 'नारी' का ।
इसलिए भगवान् शंकर 'ईश्वर' के स्वरूप का चिंतन करते हुए अपने ही हृदय में उसे अन्तर्यामी की तरह जान लेते हैं, तो भगवती पार्वती केवल उससे परम-प्रीति होने मात्र से ही उसे अन्तर्यामी की तरह जान लेती हैं ।
गोस्वामी तुलसीदास का श्रीरामचरितमानस इसी आख्यान से शुरू होता है ।
वन में विचरते श्रीराम को आँसू बहाते हुए सीता की खोज में भटकते देख, सती (तब पार्वती दक्षपुत्री थी और उसका सती नाम था) को संदेह होता है कि उसके पति (शंकर) इस राजपुत्र को ईश्वर समझकर प्रणाम क्यों कर रहे हैं, जबकि यह तो कोई साधारण सा मनुष्य प्रतीत होता है । तब भगवान् शंकर उसके संदेह को (उसके कहे बिना ही) जान जाते हैं और उससे कहते हैं :
"मैं कुछ पल इस बरगद-तले विश्राम करता हूँ तब तक तुम स्वयं ही इसकी परीक्षा क्यों नहीं कर लेती कि तुम्हें साधारण सा प्रतीत होनेवाला यह मनुष्य ईश्वर है या नहीं।"
जब सती भगवान् श्रीराम के ईश्वर होने या न होने के अपने संदेह की निवृत्ति के लिए उनके सामने से सीता का रूप धारण कर गुज़रती हैं तो भगवान् श्रीराम उन्हें प्रणाम कर पूछते हैं :
"तुम भगवान् शंकर के बिना अकेली ही इस वन में कहाँ भटक रही हो? भगवान् शंकर कहाँ हैं ?"
[उल्लेखनीय है कि 'श्रीरमण महर्षि से बातचीत' / Talks with Sri Raman Maharshi पुस्तक में भी यह कथा है।] 
इस पर सती को स्पष्ट हो जाता है कि श्रीराम साक्षात ईश्वर परब्रह्म हैं, और वह भय से व्याकुल होकर तुरंत वहाँ जाने लगती हैं जहाँ भगवान् शंकर बरगदतले उनकी प्रतीक्षा कर रहे होते हैं । सती से पूछते हैं :
"तुमने किस प्रकार से परीक्षा की ?"
इस पर सती सकुचा जाती हैं और कुछ नहीं कहतीं।
तब भगवान् शंकर ध्यान लगाकर पूरे प्रसंग को जान जाते हैं और देख लेते हैं कि सती ने किस प्रकार सीता का वेश धारणकर भगवान् श्रीराम की परीक्षा ली थी।  
तब भगवान् शंकर को अत्यंत पीड़ा होती है और उन्हें लगता है कि अब वे सती को पत्नी की तरह नहीं देख सकते क्योंकि वह अब उनके लिए सीता की तरह आराध्या हैं न कि पत्नी की तरह प्रिय । और उनसे पति की तरह का व्यवहार करना ईश्वर-भक्ति के विरुद्ध उनके लिए अवश्य ही अकल्पनीय घोर पाप और अपराध होगा ।
तब दोनों कैलास लौट जाते हैं और भगवान् शंकर 87000 वर्षों तक के लिए 'स्वरूप को संभालकर' समाधि में डूब जाते हैं।  जब वे उस समाधि से उठते हैं तो दक्ष के यज्ञ का समाचार उन्हें प्राप्त होता है और सती उनसे वहाँ जाने की अनुमति माँगती है । पहले तो भगवान् शंकर उसे वहाँ न जाने के लिए समझाते हैं किन्तु फिर अंततः नन्दीश्वर आदि गणों को उनके साथ भेजकर उन्हें जाने देते हैं ।
भगवान् शंकर को यज्ञ में आमंत्रित न किए जाने और यज्ञ में भगवान् शंकर के लिए हवन का भाग न दिए जाने पर सती योगाग्नि प्रज्वलित कर उसमें स्वयं को भस्म कर लेती हैं ।
अग्नि ज्ञान है और ज्ञान अग्नि, अग्नि भावना है और भावना अग्नि ।
योग अग्नि है और अग्नि योग।
ज्ञान / भावना का अग्नि से योग है योगाग्नि ।
लेकिन पूरी कथा तो बालकाण्ड में ही पढ़ना चाहिए। 
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