Tuesday, 26 February 2019

अभिव्यक्ति और अभिव्याप्ति

व्यक्ति और व्याप्ति
The Individual and the Collective.
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सर्वप्रथम तो यहाँ पुनः एक बार कहना चाहूँगा कि मेरा यह ब्लॉग किसी भी मत के प्रवर्तन के लिए, या समर्थन  अथवा विक्रोध में नहीं है । इसका एकमात्र प्रयोजन है : मुझे जो सत्य प्रतीत होता है उसे मेरे शब्दों में कहीं लिख रखना और चूँकि ब्लॉग मेरे लिए सर्वाधिक सुविधाजनक है इसलिए इसका प्रयोग कर रहा हूँ । यह भी बिलकुल स्वाभाविक और अपेक्षित ही है कि मेरे शब्दों से कोई सहमत या असहमत हो । सबके प्रति सम्मानपूर्वक कहना चाहूँगा :
"हाँ, मैं सही या गलत हो सकता हूँ किन्तु इस बारे में किसी से कोई बहस नहीं कर सकता ।"
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अपने अध्ययन से मैंने अनुभव किया है कि वेद यद्यपि सनातन धर्म की सारतम और सर्वोत्तम प्रस्तुति, अभिव्यक्ति और अभिव्याप्ति भी है किन्तु वेद और वेद-धर्म की अपनी मर्यादाएँ हैं जिनका उल्लंघन वे नहीं करते । उदाहरण के लिए भगवान् शिव-प्रणीत धर्म की कुछ धाराएँ वैदिक-धर्म के विपरीत जाती प्रतीत होती हैं और स्वयं वेद भी स्वीकार करते हैं कि भगवान् शिव की सम्पूर्ण महिमा का वर्णन कर पाना उनके सामर्थ्य से बाहर है । किन्तु यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि जिस सनातन धर्म का आधार वेद है, उसी वेद का सनातन आधार राम-कथा है । इसे आप यूँ भी कह सकते हैं कि पुराण-कथा भी उसी प्रकार से वेद का सनातन आधार है।
भगवान् शिव अर्थात् परमेश्वर परब्रह्म ही व्यक्ति और व्याप्ति की तरह अपने समस्त स्वरूप में सर्वत्र और सदैव अभिव्यक्त और अनभिव्यक्त हैं ।
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वाल्मीकि रामायण तथा वेद-पुराणों में जिसे इन्द्र कहा गया है वह उसी अभिव्यक्ति और अभिव्याप्ति का एक रूप है।  राम-कथा तथा पुराणों में जिन 'चरित्रों' का वर्णन है वे सब ऐसे ही हैं ।
उदाहरण के लिए अहल्या और ऋषि गौतम की कथा । अहल्या का अर्थ है वह भूमि जिस पर हल नहीं चलाया गया है, -कुँआरी धरती ।  गौतम का अर्थ है उस भूमि का स्वामी ।  यह मनुष्य-सभ्यता का वह रूप है जब कृषि का आविष्कार नहीं हुआ था, अर्थात् मनुष्य जब खेती नहीं करता था । इन्द्र को परम पराक्रमी स्वीकार किया जाता है।  वही मनुष्य इन्द्र के इस देवताओं के राजा के पद पर आसीन हो सकता है जिसने 100 अश्वमेध यज्ञ कर लिए हों।  यह जानना महत्वपूर्ण है कि यद्यपि कर्ममात्र ही यज्ञ है और यज्ञमात्र कर्मरूपी है और इसलिए जैसे कर्म सकाम और निष्काम तथा सात्विक, राजसिक एवं तामसिक होता है; बिलकुल उसी तरह यज्ञ भी सकाम और निष्काम तथा सात्विक, राजसिक एवं तामसिक होता है।
अभिव्यक्ति और अभिव्याप्ति के इस रंगमंच पर इन्द्र, ऋषि गौतम तथा अहल्या केवल नाटक के पात्र हैं । वस्तुतः तो सारा अस्तित्व ही राममय अर्थात् शिवमय, शिवस्वरूप ही है।
इन्द्र के द्वारा अहल्या (पृथ्वी) को अपवित्र किया जाना क्यों आवश्यक था ? क्योंकि धरती पर राक्षस-धर्म के साथ साथ ऋषि-धर्म भी अभिव्यक्त और अभिव्याप्त है । जब तक कृषि प्रारंभ नहीं हुई थी तब से ही ऋषि-धर्म और राक्षस-धर्म के बीच टकराव होता रहा है । और ऋषि ही यज्ञ के माध्यम से देवताओं को प्रसन्न करने और     मनुष्य (इन्द्र) की (शुभ-अशुभ) कामनाओं को पूर्ण करने में सहायक थे । यज्ञ का एक रूप है वेदोक्त विधान से देवताओं से संपर्क करना और उनकी शक्ति से लौकिक कार्य सफल करना । इसलिए इन्द्र ही वेदों का प्रधान देवता है । इन्द्र से भी अधिक महत्वपूर्ण है अग्नि क्योंकि अग्नि जहाँ प्रत्यक्ष देवता है जिसका प्रतिपादन वह स्वयं ही अपने मुख से और प्रभाव से प्रतिपादित करता है, वहीँ इन्द्र गुप्त रहकर ही अपने कार्य करता है ।लौकिक रूप में राजा को ही इन्द्रतुल्य समझा जाता है। ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र ही अग्नि की स्तुति है। 
लौकिक रूप से ही मनुष्य द्वारा कृषि-कार्य होने पर ही मनुष्य / इन्द्र यज्ञों का अनुष्ठान कर सकता है । इसके लिए गाय का घृत सर्वाधिक आवश्यक साधन है क्योंकि तभी अग्निदेवता को उनकी प्रिय आहुति प्रदान की जाती है । आहुति के दो तात्पर्य हैं : आह्वान तथा हवन (हवामहे) ; गाय वैसे भी मनुष्य अन्य पशुओं की तरह अत्यंत उपयोगी है ही किन्तु घृत की उत्पत्ति का साधन होने से स्वयं ही लोकदेवता भी है जो मनुष्य के लिए सर्वथा अवध्य ही है और उसका वध भूल से भी हो जाना ब्रह्महत्या जैसा ही घोर पाप है । उसी गाय की नर-संतति को मनुष्य ने कृषि-कार्य के लिए शस्त्रित (castrate) किया और वह भी एक प्रकार का पाप ही है जिसके प्रायश्चित के लिए वृषोत्सर्ग नामक विधान भी वेद में है ही।  वृषोत्सर्ग का अर्थ नर-वृषभ को चिह्नित कर स्वतंत्र कर दिया जाना, छोड़ दिया जाना ताकि श्रेष्ठ गौवंश की उत्पत्ति, संवर्धन और संरक्षण होता  रहे । गाय तथा बैलों के साथ ही भेड़ -बकरियों को पालना कृषि का एक सहकारी अंग है । उल्लेखनीय है कि अंग्रेज़ी शब्द cow तथा goat गौ के ही सज्ञाति / cognate हैं ।
वेद में कथा है कि इन्द्र द्वारा भूमि (अहल्या) का शीलभंग किया गया तो गौतम के शाप से उसके अंडकोष विलग्न होकर गिर गए।  तब देवताओं ने इन्द्र के लिए भेड़ (मेष) के अंडकोष लाकर उन्हें प्रत्यारोपित किया ।
इन्द्र मघवा, मेघवान् है और वृष्टि (वृषभ) तथा मेघ / मेह / मेष का कारक देवता भी है । भगवान् श्रीकृष्ण का जन्म भी रोहिणी नक्षत्र में हुआ था तथा वे वृष्णि-वंश (वार्ष्णेय) में उत्पन्न हुए थे । गाय तथा गोपों से उनका संबंध तो सभी अच्छी तरह से जानते ही हैं । वे ही भगवान् श्रीकृष्ण, इन्द्र के अहंकार को नष्ट करने के लिए अपनी कनीनिका (little finger) पर गोवर्धन पर्वत को उठाकर कृषि और गौरक्ष्य को इन्द्र के इस प्रयास से बचाते हैं ।
इन्हें प्रतीक या कल्पना कहा जा सकता है किन्तु यह ज़रूरी है कि इन कथाओं का गूढ़ अर्थ न भुला दिया जाए ।  यह इसलिए भी आवश्यक है जिससे कि वैदिक और वेद से जुड़े ग्रंथों की व्याख्या पर्याप्त सतर्कता व सावधानी से की जाए । हाँ, यदि कोई पहले से वेद इत्यादि पर संदेह करता है तो उसके लिए वेद वैसे भी निषिद्ध ही हैं और वेद उसके लिए बाध्यता तो कदापि नहीं है ।
इन्द्र जैसा ही एक पौराणिक चरित्र है राजा इल का । इल और इला परस्पर घनिष्ठतः संबद्ध हैं । वेद में यद्यपि ज्योतिषीय खगोलशास्त्र (Astronomy) का सूक्ष्म वर्णन और विवेचन है तथा 'स्तृ' धातु से उत्पन्न तारागणों (star) के भी आधिदैविक तथा आध्यात्मिक पक्ष को महत्त्व देकर देवता-तत्व के उनके स्वरूप का चित्रण है, किन्तु स्थूल भौतिक दृष्टि से भी उसकी सत्यता नभ में प्रत्यक्ष रूप से देखी जा सकती है । (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड सर्ग 88) में) इला और बुध का एक-दूसरे को देखना तथा बुध का इला और उसकी सखियों को किंपुरुषी नाम देकर पर्वत पर रहने के लिए आदेश देना इसी तथ्य का रोचक वर्णन है । इसके पूर्व के सर्ग में श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण को राजा इल की कथा सुनाते हैं :
"श्रूयते हि पुरा सौम्य कर्दमस्य प्रजापतेः ।
पुत्रो बाह्लीश्वरः श्रीमानिलो नाम सुधार्मिकः।।3
अर्थ :
'सौम्य ! सुना जाता है कि पूर्वकाल में प्रजापति कर्दम (ऋषि) के पुत्र श्रीमान् 'इल' बाह्लिक देश (इलागत / बल्तिस्तान  -- वर्त्तमान - Gilgit-Baltistan तथा 'कारु-इल' कारगिल ) के राजा थे । वे बड़े धर्मात्मा नरेश थे।
स राजा पृथिवीं सर्वां वशे कृत्वा महायशाः ।
राज्यं चैव नरव्याघ्र पुत्रवत् अपालयत् ।।4
अर्थ :
'पुरुषसिंह ! वे महायशस्वी भूपाल सारी पृथिवी को वश में करके अपने राज्य की प्रजा का पुत्र की भाँति पालन करते थे ।
टिप्पणी : यहाँ "सारी पृथिवी को वश में करके" का तात्पर्य है कि उन्होंने भौतिक भूलोक अर्थात् भू-तत्व को वश में कर लिया था और अंतरिक्ष अर्थात् स्थूल भौतिक और सूक्ष्म आधिभौतिक आकाश में विचर रहे थे । इसकी पुष्टि बाद के श्लोकों से होती है ।
सुरैश्च परमोदारैर्दैतेयश्च महाधनैः ।
नाग-राक्षस-गन्धर्वैर्यक्षैश्च सुमहात्मभिः ।।5
पूज्यते नित्यशः सौम्य भयार्तै रघुनन्दन ।
अबिभ्यंश्च त्रयो लोकाः सरोषस्य महात्मनः ।।6
अर्थ :
'सौम्य ! रघुनन्दन ! परम उदार देवता, महाधनी दैत्य तथा नाग, राक्षस, गन्धर्व और महामनस्वी यक्ष, -- ये सब भयभीत होकर सदा राजा इल की स्तुति-पूजा करते थे तथा उन महामना नरेश के रुष्ट हो जाने पर तीनों लोकों के प्राणी भय से थर्रा उठते थे ।
टिप्पणी : जैसे रावण ने पृथिवीलोक को जीत कर इन्द्र तथा देवताओं, यहां तक कि यमराज पर भी विजय पा ली थी, कुछ वैसा ही बल और सामर्थ्य राजा इल में भी था किन्तु वह 'सुधार्मिक' था; न कि निरंतर पापकर्म में संलग्न, रावण जैसा दुर्बुद्धि या हठवादी । उपरोक्त श्लोक इस सत्य को भी रेखांकित करते हैं, -इसके भी द्योतक (key-words) हैं कि राजा इल ही वह ऐतिहासिक राजा था जिसे ईश्वर की तरह पूरे विश्व में स्वीकार किया जाता था।
इस कथा का विस्तार अगली पोस्ट्स में होगा किन्तु यह स्मरण रखना होगा कि किस प्रकार राजा दण्ड के द्वारा भृगुकन्या पर बलात्कार किए जाने के बाद पृथ्वी के उस हिस्से पर निरंतर सात दिनों तक धुलिवर्षा होती रही थी जहाँ ऋषि भृगु ने अपनी पुत्री से उसके पुनः पवित्र होने तक पास के सुन्दर सरोवर के समीप रहने और  समय की प्रतीक्षा करते रहने के लिए कहा था ।
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