अश्विनौ / Equine / Equinox ?
--
किसी युगप्रवर्तक महापुरुष ने शताब्दी भर पहले उद्घोष किया था :
"Truth is a pathless land."
जिसे सुनकर तमाम बुद्धिजीवि मंत्रमुग्ध हुए और उनकी बुद्धियों के घोड़ों को एक प्रशस्त सुरक्षित अभयारण्य (Reserved Forest) मिला जहाँ बिना किसी सिंह या व्याघ्र के डर के वे निःशंक निर्भय विचरण कर सकें।
सूर्य की पत्नी संज्ञा जब सूर्य के असहनीय तेज से त्रस्त और व्याकुल हो उठी थी तो उसने (अपनी सौत) छाया की रचना कर उससे कहा था :
"मैं पिता के घर जा रही हूँ, तुम मेरे स्थान पर सूर्य के साथ उनकी पत्नी बनकर रहना, मेरी संतानों की देखभाल करना, पर उन पर यह रहस्य प्रकट न होने देना कि तुम संज्ञा नहीं; -छाया हो।"
"ठीक है. किन्तु मेरा ऐसा करना जब मेरे लिए प्राणों पर ही आ बने तो मैं क्या करूँ?"
-छाया ने प्रश्न किया।
"तब तुम उनसे यह सब कह सकती हो।"
संज्ञा तब पिता विश्वकर्मा के घर चली आई।
पिता ने जब देखा कि वह अकेली आई है तो उससे पूछा :
"सूर्यदेव कहाँ हैं, तुम अकेली कैसे आई?"
तब संज्ञा बोली :
"मैं उनके तेज को सहन नहीं कर पा रही थी, इसलिए यहाँ आ गई।"
तब उसके पिता ने उससे कहा :
"नारी का स्थायी वास तो उसके पति का घर ही होता है। तुम पुनः वहीँ जाओ।"
तब संज्ञा वहाँ से चली आई लेकिन सूर्य के घर जाने की बजाय घोर अरण्य में चली गई और घोड़ी का रूप धारण कर वहां चरने लगी।
संज्ञा से सूर्य को पुत्र के रूप में यमराज पहले से ही प्राप्त थे।
छाया से उन्हें सावर्णी मनु (अव-मनु, अ-मनु, Emmanuel), शनिश्चर देवता तथा तापी नदी सन्तानरूप में प्राप्त हुए।
संज्ञा के पुत्र यमराज क्रोधी स्वभाव के थे। छाया अपनी संतानों को तो बहुत प्यार से रखती थी लेकिन संज्ञा के पुत्रों की उपेक्षा कर देती थी। इस प्रकार का पक्षपातपूर्ण बर्ताव देख यमराज को क्रोध आ गया। उन्होंने क्रोध में भरकर छाया को मारने के लिए पैर उठाया। इस पर छाया ने यमराज को शाप दे दिया।
तब यमराज ने अपने पिता से सब वृत्तान्त बताकर कहा :
"पिताजी ! प्रतीत होता है यह हमारी यथार्थ माता नहीं। माता अपने पुत्र को शाप कभी नहीं देती। "
तब सूर्यदेव ने उसे धमकाकर डाँटते हुए पूछा :
"सच सच बताओ कि क्या यह सत्य है?"
तब छाया ने उनसे अपने बारे में सब कुछ कह दिया।
अब सूर्यदेव को संज्ञा की चिंता हुई वे अपनी ससुराल विश्वकर्मा के यहां गए, और संज्ञा के संबंध में जिज्ञासा की । विश्वकर्मा ने कहा :
"हाँ, वह आई तो थी किन्तु मैंने फिर उसे तुम्हारे ही पास भेज दिया था।"
सूर्यनारायण ने कहा :
"अच्छी बात है, मैं उसे खोजता हूँ।"
यह कहकर वे संज्ञा को खोजने गए। देखा कि वह घोर अरण्य में घोड़ी बनी घूम रही है, तब सूर्यनारायण ने भी घोड़े का रूप धारण कर लिया। वहीँ (अरण्य में) अश्विनीकुमारों (अश्विनौ / Equinox) का जन्म हुआ। तब सूर्यनारायण संज्ञा को लेकर विश्वकर्मा के समीप गए।
विश्वकर्मा ने एक आदित्य (अदिति की सन्तानरूपी भगवान् सूर्य) के बारह रूप बना दिए (अर्थात् तब से भगवान् सूर्य की एक पूरी प्रदक्षिणा करने के लिए भूमि को बारह मास लगने लगे ।) और विश्वकर्मा ने भगवान् सूर्यनारायण के तेज को भी इतना कम कर दिया जिसे संज्ञा (पृथ्वी) सुखपूर्वक सह सके।
[स्कन्दपुराण, रेवा-खण्ड अध्याय 42]
तब से भूमि पर सत्य के लिए असंख्य पथ बनते-मिटते रहे और पृथ्वी सत्य की प्राप्ति के लिए पथहीन कभी नहीं रही, लेकिन यह भी सच है कि हर किसी सत्यान्वेषक को अपना पथ स्वयं ही खोजना / बनाना होता है।
--
--
किसी युगप्रवर्तक महापुरुष ने शताब्दी भर पहले उद्घोष किया था :
"Truth is a pathless land."
जिसे सुनकर तमाम बुद्धिजीवि मंत्रमुग्ध हुए और उनकी बुद्धियों के घोड़ों को एक प्रशस्त सुरक्षित अभयारण्य (Reserved Forest) मिला जहाँ बिना किसी सिंह या व्याघ्र के डर के वे निःशंक निर्भय विचरण कर सकें।
सूर्य की पत्नी संज्ञा जब सूर्य के असहनीय तेज से त्रस्त और व्याकुल हो उठी थी तो उसने (अपनी सौत) छाया की रचना कर उससे कहा था :
"मैं पिता के घर जा रही हूँ, तुम मेरे स्थान पर सूर्य के साथ उनकी पत्नी बनकर रहना, मेरी संतानों की देखभाल करना, पर उन पर यह रहस्य प्रकट न होने देना कि तुम संज्ञा नहीं; -छाया हो।"
"ठीक है. किन्तु मेरा ऐसा करना जब मेरे लिए प्राणों पर ही आ बने तो मैं क्या करूँ?"
-छाया ने प्रश्न किया।
"तब तुम उनसे यह सब कह सकती हो।"
संज्ञा तब पिता विश्वकर्मा के घर चली आई।
पिता ने जब देखा कि वह अकेली आई है तो उससे पूछा :
"सूर्यदेव कहाँ हैं, तुम अकेली कैसे आई?"
तब संज्ञा बोली :
"मैं उनके तेज को सहन नहीं कर पा रही थी, इसलिए यहाँ आ गई।"
तब उसके पिता ने उससे कहा :
"नारी का स्थायी वास तो उसके पति का घर ही होता है। तुम पुनः वहीँ जाओ।"
तब संज्ञा वहाँ से चली आई लेकिन सूर्य के घर जाने की बजाय घोर अरण्य में चली गई और घोड़ी का रूप धारण कर वहां चरने लगी।
संज्ञा से सूर्य को पुत्र के रूप में यमराज पहले से ही प्राप्त थे।
छाया से उन्हें सावर्णी मनु (अव-मनु, अ-मनु, Emmanuel), शनिश्चर देवता तथा तापी नदी सन्तानरूप में प्राप्त हुए।
संज्ञा के पुत्र यमराज क्रोधी स्वभाव के थे। छाया अपनी संतानों को तो बहुत प्यार से रखती थी लेकिन संज्ञा के पुत्रों की उपेक्षा कर देती थी। इस प्रकार का पक्षपातपूर्ण बर्ताव देख यमराज को क्रोध आ गया। उन्होंने क्रोध में भरकर छाया को मारने के लिए पैर उठाया। इस पर छाया ने यमराज को शाप दे दिया।
तब यमराज ने अपने पिता से सब वृत्तान्त बताकर कहा :
"पिताजी ! प्रतीत होता है यह हमारी यथार्थ माता नहीं। माता अपने पुत्र को शाप कभी नहीं देती। "
तब सूर्यदेव ने उसे धमकाकर डाँटते हुए पूछा :
"सच सच बताओ कि क्या यह सत्य है?"
तब छाया ने उनसे अपने बारे में सब कुछ कह दिया।
अब सूर्यदेव को संज्ञा की चिंता हुई वे अपनी ससुराल विश्वकर्मा के यहां गए, और संज्ञा के संबंध में जिज्ञासा की । विश्वकर्मा ने कहा :
"हाँ, वह आई तो थी किन्तु मैंने फिर उसे तुम्हारे ही पास भेज दिया था।"
सूर्यनारायण ने कहा :
"अच्छी बात है, मैं उसे खोजता हूँ।"
यह कहकर वे संज्ञा को खोजने गए। देखा कि वह घोर अरण्य में घोड़ी बनी घूम रही है, तब सूर्यनारायण ने भी घोड़े का रूप धारण कर लिया। वहीँ (अरण्य में) अश्विनीकुमारों (अश्विनौ / Equinox) का जन्म हुआ। तब सूर्यनारायण संज्ञा को लेकर विश्वकर्मा के समीप गए।
विश्वकर्मा ने एक आदित्य (अदिति की सन्तानरूपी भगवान् सूर्य) के बारह रूप बना दिए (अर्थात् तब से भगवान् सूर्य की एक पूरी प्रदक्षिणा करने के लिए भूमि को बारह मास लगने लगे ।) और विश्वकर्मा ने भगवान् सूर्यनारायण के तेज को भी इतना कम कर दिया जिसे संज्ञा (पृथ्वी) सुखपूर्वक सह सके।
[स्कन्दपुराण, रेवा-खण्ड अध्याय 42]
तब से भूमि पर सत्य के लिए असंख्य पथ बनते-मिटते रहे और पृथ्वी सत्य की प्राप्ति के लिए पथहीन कभी नहीं रही, लेकिन यह भी सच है कि हर किसी सत्यान्वेषक को अपना पथ स्वयं ही खोजना / बनाना होता है।
--
No comments:
Post a Comment