शतक्रतु / शक्र / इन्द्र
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इन्द्र आधिदैविक अर्थात् देवलोक का शासक है। ऋग्वेद का प्रारंभ अग्नि की स्तुति से होता है, जहाँ अग्निदेव को प्रत्यक्ष साक्षात् व्यक्त ब्रह्म के रूप में आधिभौतिक जगत का अधिष्ठान तथा उस जगत का स्वसंवेद्य अधिष्ठाता स्वीकार किया गया है। 'दिव्' धातु का प्रयोग 'चमकने' / प्रकाशित होने के अर्थ में दीव्यति (लट्-लकार) में होता है। इसी से बना 'देवता' उस चेतना-विशेष का द्योतक है जो द्यु-लोक (Celestial-Sphere) में तारा, नक्षत्र, ग्रहों, उल्कापिंडों आदि की तरह 'देवता' की उपाधि से जाना जाता है। इस प्रकार 'दिव्' एवं 'द्यु' दोनों धातुएँ प्रकाश के उत्सर्जन की सूचक हैं। 'कृ' धातु का उपयोग 'करने' के अर्थ में होता है और कर्म तथा यज्ञ समानार्थी हैं। यज्ञ को ही इसलिए क्रतु कहा जाता है और इस प्रकार इंद्र को शतक्रतु क्योंकि उसे इन्द्रपद की प्राप्ति एक सौ अश्वमेध यज्ञों के अनुष्ठानों के पूर्ण किए जाने पर प्राप्त होती है। इसलिए जो भी इन्द्र जिस समय होता है वह हमेशा अपनी सत्ता को खोने की संभावना दिखाई देने पर चिंतित हो जाता है और अश्वमेध करनेवाले (प्रायः राजा अर्थात् क्षत्रिय-कुल में उत्पन्न हुए किसी मनुष्य) से उसके अश्वमेध यज्ञ के 99 अनुष्ठान संपन्न होने पर सौवें यज्ञ के अश्व को चुरा लेता है। इसीलिए इन्द्र का एक नाम हरिताश्व भी होता है। दूसरी ओर इन्द्र के रथ में जुते घोड़े भी हरे रंग के होने से उसे हरिताश्व कहा जाता है।
ततः परं तेन मखाय यज्वना तुरङ्गमुत्सृष्ट्यमनर्गलं पुनः।
धनुर्भृतामग्रत एव रक्षिणां जहार शक्र किल गूढविग्रहः।।
(रघुवंशम् 3 / 39)
अर्थ :
उसके बाद उस अश्वमेध यज्ञ के करनेवाले राजा दिलीप के, फिर से यज्ञ के लिए छोड़े गए अप्रतिहत घोड़े को इन्द्र ने छिपकर धनुर्धारी रक्षकों (तथा राजकुमार रघु) के सामने ही हरण कर लिया (चुरा लिया) ।
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इन्द्र के पद को पाकर भी सत्ता खोने का डर समाप्त हो जाए, यह ज़रूरी नहीं।
इन्द्र का पद पाने के लिए मनुष्य को एक सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान पूर्ण करना होता है।
वैसे तो प्रत्येक कर्म ही यज्ञ होता है किन्तु वह पुनः सात्विक राजसिक तथा तामसिक हो सकता है।
अश्वमेध यज्ञ राजसिक प्रकार का होता है।
अभिसन्धाय तु फलं दंभार्थमपि चैव यत्य।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ।।
(गीता अध्याय 17 श्लोक 12)
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यह देखना रोचक होगा कि अंग्रेज़ी के अनेक शब्द शक्र से उद्भूत (सज्ञात / cognate) कहे जा सकते हैं :
Sacred (पवित्र), Sacrifice (शक्रप्रियस्) Secret (रहस्य), Secretary (सचिव), Secrecy (गुप्तता) , Crecy (as in 'Democracy'(गणतन्त्र), 'autocracy' (स्वतन्त्र / स्वशासक / स्वसत्तात्मक / अधिनायकवाद ) 'bureaucracy' (अफसरशाही) , Theocracy (धर्म-शासन), Aristocracy (आर्यिष्ट - श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा संचालित होनेवाली शासन-व्यवस्था )
secretion / secrete (स्राव) आदि।
इन्द्र वैसे भी मघवा / मेघवान है जो वर्षा का देवता है।
और वर्षा के अभाव में हरियाली तो क्या जीना तक बहुत कठिन हो जाता है
इसीलिए वेद में इन्द्र की बहुत स्तुति की जाती है।
यह दृष्टव्य है कि यम को 'कृतान्त' कहा जाता है।
और यम, इन्द्र, अग्नि, सोम, वरुण, सूर्य, वायु आदि आधिदैविक उपाधि के रूप में 'देवता' हैं और वे ही आधिभौतिक रूप में 'अदिति' के पुत्र हैं।
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इन्द्र आधिदैविक अर्थात् देवलोक का शासक है। ऋग्वेद का प्रारंभ अग्नि की स्तुति से होता है, जहाँ अग्निदेव को प्रत्यक्ष साक्षात् व्यक्त ब्रह्म के रूप में आधिभौतिक जगत का अधिष्ठान तथा उस जगत का स्वसंवेद्य अधिष्ठाता स्वीकार किया गया है। 'दिव्' धातु का प्रयोग 'चमकने' / प्रकाशित होने के अर्थ में दीव्यति (लट्-लकार) में होता है। इसी से बना 'देवता' उस चेतना-विशेष का द्योतक है जो द्यु-लोक (Celestial-Sphere) में तारा, नक्षत्र, ग्रहों, उल्कापिंडों आदि की तरह 'देवता' की उपाधि से जाना जाता है। इस प्रकार 'दिव्' एवं 'द्यु' दोनों धातुएँ प्रकाश के उत्सर्जन की सूचक हैं। 'कृ' धातु का उपयोग 'करने' के अर्थ में होता है और कर्म तथा यज्ञ समानार्थी हैं। यज्ञ को ही इसलिए क्रतु कहा जाता है और इस प्रकार इंद्र को शतक्रतु क्योंकि उसे इन्द्रपद की प्राप्ति एक सौ अश्वमेध यज्ञों के अनुष्ठानों के पूर्ण किए जाने पर प्राप्त होती है। इसलिए जो भी इन्द्र जिस समय होता है वह हमेशा अपनी सत्ता को खोने की संभावना दिखाई देने पर चिंतित हो जाता है और अश्वमेध करनेवाले (प्रायः राजा अर्थात् क्षत्रिय-कुल में उत्पन्न हुए किसी मनुष्य) से उसके अश्वमेध यज्ञ के 99 अनुष्ठान संपन्न होने पर सौवें यज्ञ के अश्व को चुरा लेता है। इसीलिए इन्द्र का एक नाम हरिताश्व भी होता है। दूसरी ओर इन्द्र के रथ में जुते घोड़े भी हरे रंग के होने से उसे हरिताश्व कहा जाता है।
ततः परं तेन मखाय यज्वना तुरङ्गमुत्सृष्ट्यमनर्गलं पुनः।
धनुर्भृतामग्रत एव रक्षिणां जहार शक्र किल गूढविग्रहः।।
(रघुवंशम् 3 / 39)
अर्थ :
उसके बाद उस अश्वमेध यज्ञ के करनेवाले राजा दिलीप के, फिर से यज्ञ के लिए छोड़े गए अप्रतिहत घोड़े को इन्द्र ने छिपकर धनुर्धारी रक्षकों (तथा राजकुमार रघु) के सामने ही हरण कर लिया (चुरा लिया) ।
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इन्द्र के पद को पाकर भी सत्ता खोने का डर समाप्त हो जाए, यह ज़रूरी नहीं।
इन्द्र का पद पाने के लिए मनुष्य को एक सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान पूर्ण करना होता है।
वैसे तो प्रत्येक कर्म ही यज्ञ होता है किन्तु वह पुनः सात्विक राजसिक तथा तामसिक हो सकता है।
अश्वमेध यज्ञ राजसिक प्रकार का होता है।
अभिसन्धाय तु फलं दंभार्थमपि चैव यत्य।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ।।
(गीता अध्याय 17 श्लोक 12)
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यह देखना रोचक होगा कि अंग्रेज़ी के अनेक शब्द शक्र से उद्भूत (सज्ञात / cognate) कहे जा सकते हैं :
Sacred (पवित्र), Sacrifice (शक्रप्रियस्) Secret (रहस्य), Secretary (सचिव), Secrecy (गुप्तता) , Crecy (as in 'Democracy'(गणतन्त्र), 'autocracy' (स्वतन्त्र / स्वशासक / स्वसत्तात्मक / अधिनायकवाद ) 'bureaucracy' (अफसरशाही) , Theocracy (धर्म-शासन), Aristocracy (आर्यिष्ट - श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा संचालित होनेवाली शासन-व्यवस्था )
secretion / secrete (स्राव) आदि।
इन्द्र वैसे भी मघवा / मेघवान है जो वर्षा का देवता है।
और वर्षा के अभाव में हरियाली तो क्या जीना तक बहुत कठिन हो जाता है
इसीलिए वेद में इन्द्र की बहुत स्तुति की जाती है।
यह दृष्टव्य है कि यम को 'कृतान्त' कहा जाता है।
और यम, इन्द्र, अग्नि, सोम, वरुण, सूर्य, वायु आदि आधिदैविक उपाधि के रूप में 'देवता' हैं और वे ही आधिभौतिक रूप में 'अदिति' के पुत्र हैं।
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