Wednesday, 20 February 2019

नैमिषारण्य

चतुर्युगी नारायण की कथा
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अपने राज्य का सुचारु संचालन और प्रजा की संतुष्टि के प्रति आश्वस्त होने के बाद राजा नृग आखेट के लिए कुछ सैनिकों के साथ वन में चले जाया करते थे, जहाँ वे वन की विषम परिस्थितियों में क्रूर और हिंसक जानवरों का शिकार करते थे । हाँ, वे उनके साथ कभी कभी उन मृगों का शिकार भी अवश्य करते थे जो अपने मृग-समुदाय के बहुत शक्तिशाली नायक होते थे । उद्देश्य एकमात्र यह होता था कि अंततः उन्हें अत्यंत थकाकर हरा दिया जाए। उसके थक जाने पर वे उसे बस छोड़ देते थे और लौट आते थे, उसका वध कदापि नहीं करते थे, न उनके किसी सैनिक को ऐसा करने की आज्ञा थी ।
इसी क्रम में वे एक बार एक अतिशय चपल मृग का पीछा करते हुए अपेक्षाकृत गहन वन में भटक गए। उन्हें प्यास भी लग रही थी । वे प्यास के कारण व्याकुल होकर दूर दूर तक यह देख रहे थे कि क्या कहीं पानी मिल सकेगा ?
उन्हें थोड़ी ही दूर पर किसी आश्रम के चिह्न दिखाई पड़े और वे उस दिशा में चल पड़े ।
समीप जाने पर उन्हें कुछ कुटियाएँ दिखलाई दीं, और वे उनमें से एक के द्वार पर जा खड़े हुए ।
इसी समय उस कुटिया से दो-तीन बालक बाहर आए तो राजा ने उनसे उनके बारे में पूछा।
तब राजा को बताया गया कि यह ऋषि गरुत्म का आश्रम है ।
चूँकि ऋषि गरुत्म उस समय कहीं गए हुए थे इसलिए राजा ने अपना घोड़ा समीप के वृक्ष से बाँध दिया, और उनकी प्रतीक्षा करता हुआ बाहर बैठा रहा । उन बालकों ने राजा और उसके घोड़े को पीने के लिए जल दिया,  राजा को फल इत्यादि खाने के लिए दिए और राजा स्वस्थचित्त होकर बैठ गए।
तभी आकाश में तेज गति से उड़ता हुआ एक विकराल गरुड़ वहाँ आ पहुँचा, और उसका आकार धीरे-धीरे छोटा होते होते अंततः वह मुनि के रूप में राजा के समक्ष आ खड़ा हुआ ।
राजा नृग ने उन्हें अपना परिचय देते हुए सादर चरणस्पर्श और प्रणाम किया।
तब वे मुनि जो स्वयं गरुत्मान् ऋषि ही थे, राजा से बोले :
"राजन्य ! मेरे इस अरण्य में तुम जैसा कोई धर्मशील मनुष्य ही प्रवेश कर पाता है । तुम आखेट करते हुए भी केवल क्रीड़ा के लिए ही निरपराध प्राणियों का पीछा करते हो, उन्हें मारते नहीं और उन्हें चोट पहुँचाए या वध किए बिना ही छोड़ देते हो । तुम जैसे पुण्यात्मा ही मेरे इस वन में प्रवेश कर पाते हैं । और जो भी यहाँ प्रवेश करता है, उसकी पात्रता होती है कि मैं उससे भगवान् चतुर्युगी नारायण के स्वरूप का वर्णन करूँ ! इसीलिए मैं यहाँ इस आश्रम नित्य और सनातन रूप से वास करता हूँ !
भगवान् चतुर्युगी नारायण ही नर के रूप में नित्य अवतरित होते हैं और निमिषमात्र में चारों युगों की सृष्टि कर लेते हैं। वे ही चारों युगों के रूप में काल का सृजन करते हैं जबकि स्वयं वे काल से अस्पर्शित हैं, जबकि  काल उनके तत्व से नितान्त अनभिज्ञ रहता है । काल के साथ ही आकाश आदि पञ्चतत्व प्रकट (और लुप्त) होते रहते हैं। यह क्रम भगवान् चतुर्युगी नारायण के नेत्रों के निमिषमात्र के उन्मेष-निमेष के समय में बारम्बार होता रहता है ।
चारों युग नर (मनुष्य) के लिए अत्यंत विस्तारपूर्ण प्रतीत होते हैं और वह उन पर कोई क्रम कल्पित और आरोपित कर वैसा अनुभव करने लगता है, जबकि चारों 'युग' युगपत् अर्थात् परस्पर साथ ही और सबके एक ही समय में होते हैं, और भगवान् चतुर्युगी नारायण के निमिषमात्र उन्मेष-निमेष के समय में होते हैं । मनुष्य में भी ऐसा होता है, किन्तु प्रत्येक मनुष्य-विशेष की स्थिति में, कोई एक युग किसी समय सर्वोपरि महत्त्व का, प्रधान, -और शेष तीन गौण होते हैं। ऐसा ही पूरे मनुष्य-जगत के लिए भी होता है कि मर्त्यलोक में रहनेवाला पूरा मनुष्य-समुदाय अपने लिए किसी युग में अवस्थित होता है किन्तु फिर भी तप या पुण्य के प्रभाव से वह अन्य युगों में बार बार ऐसे ही आता-जाता रह सकता है, जैसे मैं इस अरण्य में आता-जाता और रहता हूँ ।   
सत्-युग में मनुष्य की वाणी ही उसका साक्षात धर्म होती है।
त्रेतायुग में वाणीरूपी धर्म गौण हो जाता है और मन्त्ररूपी धर्म प्रबल और प्रधान होता है।
द्वापरयुग में मन्त्ररूपी धर्म भी गौण हो जाता है, और तन्त्ररूपी धर्म प्रबल और प्रधान होता है।
कलियुग में तन्त्ररूपी धर्म भी गौण हो जाता है और यन्त्ररूपी धर्म प्रबल और प्रधान होता है।
जैसे वेद वाणीरूपी साक्षात धर्म है, स्तवन इत्यादि कर्मकांड मन्त्ररूपी धर्म है, और लौकिक फलों का हेतु तन्त्ररूपी धर्म है, वैसे ही यन्त्ररूपी धर्म तो साक्षात यातना और यंत्रणा ही होता है। 
तुम्हारे पुण्य के प्रभाव से इस उपदेश का फल तुम्हें प्राप्त हुआ । अब तुम पश्चिम के मार्ग से जाओ जो तुम्हें तुम्हारे राज्य की ओर ले जाएगा।"
राजा नृग ने उनकी आज्ञा पाकर घोड़े को वृक्ष से खोला और पश्चिम के मार्ग से जाने लगे।
अभी वे कुछ दूर तक पहुँचे ही थे कि उन्हें आकाश में उनके सिर के बहुत ऊपर से उड़कर जाता हुआ वही गरुड़ दिखाई दिया, जो उन्हें उस आश्रम में दिखाई दिया था।
कौतूहलवश राजा ने पीछे की ओर दृष्टि दौड़ाई तो वहाँ न कहीं कोई घोर अरण्य था, न आश्रम, न वे बालक।
राजा नृग तब तक सुरक्षित रूप से अपने राज्य में प्रविष्ट हो चुके थे।
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(कल्पित)      
         
   
                   

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