Sunday, 10 February 2019

कृष्णार्जुनीयम्

जनक-अष्टावक्र संवाद 
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कृष्णार्जुनीय-गीतायाम्
अर्जुन उवाच :
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते।।15
वक्तुमर्हस्य शेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं  व्याप्य तिष्ठसि।।16
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।17
श्री भगवान् उवाच :
पवनः पावतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी।।31
(गीता -अध्याय 10)
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ।।4
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।5 
यं यं वापि  स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।6
(गीता -अध्याय 8)
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अष्टावक्र-गीतायाम् :
जनक उवाच :
कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति।
वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद्ब्रूहि मम प्रभो।।
प्रथमोऽध्यायः
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अष्टावक्र उवाच :
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान्विषवत्त्यज।
क्षमार्जवदयातोषसत्यं पीयूषवद्भज।।1 
पवनः पावतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी।।31
(गीता -अध्याय 10)
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ।।4
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
[अन्तकाले च रामैवं स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
अन्तकाले च रामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।]
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।5
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गोप्रतारतीर्थ की महिमा और श्रीराम के परमधामगमन की कथा* 
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श्रीरामचन्द्रजी ने अपने चरणों से सरयूजी के जल का स्पर्श किया। 
तदनन्तर ब्रह्माजी देवताओं के साथ श्रीरामचन्द्रजी की स्तुति करने लगे -
देव! आप समस्त लोकों के पति हैं, आपके स्वरुप को कोई नहीं जानता।  विशाललोचन ! आप अचिन्त्य एवं अविनाशी ब्रह्मरूप हैं।  महावीर्य ! आप अपने जिस दिव्य स्वरूप को ग्रहण करना चाहें ग्रहण करें। ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर भगवान् श्रीराम ने  अपने भाइयोंसहित दिव्य वैष्णवतेज में सशरीर प्रवेश किया। तत्पश्चात् सुरश्रेष्ठ भगवान् विष्णु का सब देवताओं ने पूजन किया।  देवताओं का मनोरथ पूर्ण हुआ था; इसलिए वे सब बहुत प्रसन्न थे।  उस समय महातेजस्वी भगवान् विष्णु ने पितामह ब्रह्मा से कहा :
"सुव्रत ! इस जनसमुदाय को तुम्हें उत्तम लोक देना चाहिए। "
भगवान् का यह आदेश पाकर सर्वलोकेश्वर ब्रह्मा ने कहा :
"वे समस्त मानव सान्तानिक लोक में निवास करेंगे।  स्वर्गद्वार तीर्थ में श्रीरामचन्द्रजी का चिंतन करते हुए जो प्राणत्याग करता है वह परम उत्तम सान्तानिक  लोक को प्राप्त होता है।  सान्तानिक लोक मेरे लोक से भी ऊपर है।  वानर आदि में से जो जिस देवता के अंश थे, वे उसी में मिलेंगे। सूर्यपुत्र सुग्रीव सूर्यमण्डल में चले जायेंगे।  ऋषि, नाग और यक्ष सभी अपने-अपने कारण को प्राप्त होंगे।"
(*गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक संख्या 279 स्कन्दपुराण -- वैष्णवखण्ड--श्रीअयोध्यामाहात्म्य से साभार उद्धृत )
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टिप्पणी :
गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने यद्यपि सांख्य और ज्ञानयोग की शिक्षा दी है किन्तु यह भी कहा है कि शस्त्रधारियों में श्रीराम वे ही हैं।
दूसरी ओर मुक्ति की इच्छा जिसे है उसे चाहिए कि अंतकाल में मेरा / राम का स्मरण करे। जो अंतकाल में जिस जिस भाव का स्मरण करते हुए प्राण त्यागता है, वह उसी उसी भाव को प्राप्त होता है। राम का स्मरण केवल नामोच्चार मात्र से भी हो जाता है क्योंकि यह वही नाम है जिसका जप उमासहित स्वयं भगवान् शिव भी सदैव करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं :
जान आदिकबि नामप्रतापू।  भयउ सुद्ध करि उलटा जापू।
(बालकाण्ड दोहा १८ - १९)
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