सतत संघर्ष
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जैसे आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी का उद्भव होता है और वे परस्पर एक से दूसरे में सतत परिवर्तित होते रहते हैं, लगभग वैसे ही 'कल्पना' से 'विचार', 'विचार' से 'भ्रम', 'भ्रम' से 'परंपरा', 'परंपरा' से 'इतिहास' और 'इतिहास' से 'कल्पना' का उद्भव होता है, और 'कल्पना', 'विचार', 'भ्रम', 'परंपरा' और 'इतिहास' क्रमशः एक से दूसरे में सतत परिवर्तित होते रहते हैं।
हर जीवित, जीता-जागता मनुष्य अनायास और अनजाने ही इस प्रपञ्च का शिकार हो जाता है और मनुष्यों के विभिन्न समुदाय / समूह इस प्रपञ्च के किसी एक अवयव से अपने-आपको जोड़कर अनेक कृत्रिम विभाजन पैदा कर लेते हैं जिसके परिणाम सभी को प्रभावित करते हैं। मनुष्य इसे अपना 'धर्म' या 'संस्कृति, 'सभ्यता', 'राष्ट्र', 'पहचान' या जातीय / नस्ली / भाषाई अस्मिता कहें ऐसा कोई 'नाम' देकर स्वयं को गौरवान्वित कर लेता है। सारतः यह शुद्ध राजनीति होता है जिसमें अनेक समूह परस्पर सतत युद्धरत होते हैं। जहाँ लोभ, भय, आदर्श, आत्मोत्सर्ग / बलिदान की भावना, 'नाम' आदर्श / प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाते हैं, और 'विचार' को ideology या philosophy कहा जाता है। इस प्रकार 'राजनीति' कबीलाई अस्तित्व का प्राण होती है । कबीले सर्वत्र और सदा बने रहते हैं और मनुष्य कितना भी अधिक बौद्धिक और भौतिक विकास कर ले, कितना भी अधिक समृद्ध और ऐश्वर्यसम्पन्न हो जाए, इस प्रकार के किसी न किसी कबीले का ही एक सदस्य भर होकर रह जाता है।
अपने-आपसे यह अंतहीन युद्ध ही मनुष्य या मनुष्य-मात्र की भी नियति है।
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किन्तु ध्यान दिए जाने लायक यह तथ्य मनुष्य की आँखों से प्रायः ओझल हो जाता है कि यह सारा प्रपञ्च जहाँ से प्रकट होता है वह स्रोत ही इस समूचे नाटक का मूक दृष्टा है और इस नाटक में कभी कोई हस्तक्षेप नहीं करता।
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जैसे आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी का उद्भव होता है और वे परस्पर एक से दूसरे में सतत परिवर्तित होते रहते हैं, लगभग वैसे ही 'कल्पना' से 'विचार', 'विचार' से 'भ्रम', 'भ्रम' से 'परंपरा', 'परंपरा' से 'इतिहास' और 'इतिहास' से 'कल्पना' का उद्भव होता है, और 'कल्पना', 'विचार', 'भ्रम', 'परंपरा' और 'इतिहास' क्रमशः एक से दूसरे में सतत परिवर्तित होते रहते हैं।
हर जीवित, जीता-जागता मनुष्य अनायास और अनजाने ही इस प्रपञ्च का शिकार हो जाता है और मनुष्यों के विभिन्न समुदाय / समूह इस प्रपञ्च के किसी एक अवयव से अपने-आपको जोड़कर अनेक कृत्रिम विभाजन पैदा कर लेते हैं जिसके परिणाम सभी को प्रभावित करते हैं। मनुष्य इसे अपना 'धर्म' या 'संस्कृति, 'सभ्यता', 'राष्ट्र', 'पहचान' या जातीय / नस्ली / भाषाई अस्मिता कहें ऐसा कोई 'नाम' देकर स्वयं को गौरवान्वित कर लेता है। सारतः यह शुद्ध राजनीति होता है जिसमें अनेक समूह परस्पर सतत युद्धरत होते हैं। जहाँ लोभ, भय, आदर्श, आत्मोत्सर्ग / बलिदान की भावना, 'नाम' आदर्श / प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाते हैं, और 'विचार' को ideology या philosophy कहा जाता है। इस प्रकार 'राजनीति' कबीलाई अस्तित्व का प्राण होती है । कबीले सर्वत्र और सदा बने रहते हैं और मनुष्य कितना भी अधिक बौद्धिक और भौतिक विकास कर ले, कितना भी अधिक समृद्ध और ऐश्वर्यसम्पन्न हो जाए, इस प्रकार के किसी न किसी कबीले का ही एक सदस्य भर होकर रह जाता है।
अपने-आपसे यह अंतहीन युद्ध ही मनुष्य या मनुष्य-मात्र की भी नियति है।
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किन्तु ध्यान दिए जाने लायक यह तथ्य मनुष्य की आँखों से प्रायः ओझल हो जाता है कि यह सारा प्रपञ्च जहाँ से प्रकट होता है वह स्रोत ही इस समूचे नाटक का मूक दृष्टा है और इस नाटक में कभी कोई हस्तक्षेप नहीं करता।
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