Sunday, 3 February 2019

The Adventure.

The Emergent and The Accidental.
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Venture, Nature, Culture and Texture.
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उद्भव / The Emergence और प्रादुर्भाव / The Accidental.
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संस्कृत में नृ (नृत्य) धातु से व्युत्पन्न विभिन्न शब्द इस प्रकार हैं :
नृप, नरेश, नारा (जल), नर, नारद, नारायण, नारी,
इनमें से नृप एवं नरेश का मूल अर्थ है वह परम सत्ता जो अपने ही लिए अपनी अभिव्यक्ति जड-चेतन के रूप में करती है। नृप उसका फैलाव / विस्तार है तो नरेश (ईश्वर) उसका प्रेरक स्वामी। इस प्रकार जगत तथा जगदीश उसी एकमेव परम सत्ता की दो अभिव्यक्तियाँ (नृत्य) हैं।
नारा का अर्थ है बहाव / प्लव / flow.
इसी नृ के सज्ञाति शब्द हैं :
natal, nature, natural, nuptial, nephew, niece, news, nepotism / nepotistic, nation, Nazi,
यही शब्द तमिल भाषा में 'नाड' / 'नाडु' की तरह स्थान / देश के अर्थ में ग्रहण किया जाता है। 
व् / वं वान्ति / वमन / वामन का जनक वर्ण है जिसके सज्ञाति शब्द हैं :
venture, vantage, advantage (आदि वान्ति-ज), adventure.
'क्ल्' वर्ण से व्युत्पन्न विभिन्न धातुरूप इस प्रकार हैं :
क्लिद् - क्लिद्यति (आर्डर होना, गीला होना, स्वेद उत्पन्न होना), क्लेदयति,
क्लम् - क्लाम्यति (थकना), क्लमयति / क्लम्यते,
क्लिश् - क्लिश्नाति,  पीड़ा देना / होना, क्लेशयति, क्लिश्यते।
इसके अंग्रेजी समतुल्य हैं :
clime, climb, climate, clement, clemency, clone, clash, claim, cleric, clergy, cleave, clear, ...
और भी अनेक शब्द सीधे शब्द-कोष की सहायता से तुलना के द्वारा जाने जा सकते हैं।
इसी प्रकार कल् धातु से बने कल्प, कल्य, कलत्र (परिवार, कुल) का अर्थ हुआ संस्कृति, कुलचार, कुलाचार जिसकी छवि अंग्रेज़ी 'culture' में अनायास देखी जा सकती है।
संस्कृत में ही एक और धातु है 'तक्ष्' -  'तनूकणे', तक्षति तक्ष्णोति, -जिसका प्रयोग घड़ने, बनाने, काटने (तक्षक), रूपायित करने के अर्थ में होता है।  गौण अर्थ में इसका प्रयोग 'लिपि' / 'लिखने' के अर्थ में भी होता है।
अंग्रेज़ी (या उस भाषा में जिससे अंग्रेज़ी को वर्तमान स्वरूप मिला है) में यही :
tech / text बना है। इससे ही बना है 'texture'.
धर्म तथा धृति शब्द 'धृ' धातु से से बने हैं, जो 'धारण करने', 'संरक्षित रखने' के अर्थ में प्रयुक्त होता है।
जबकि 'धातु' शब्द 'धा' क्रिया का संज्ञारूप है, जिसका अर्थ है :  'मूल स्वरूप से अभिन्न होना'।
इस प्रकार धर्म के दो रूप प्राप्त होते हैं :
पहला वह; - जो स्वभाव है।
दूसरा वह; - जो बाद में धारण किया गया है।
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The Existential is What 'Is' which is ever so timelessly.
In Sanskrit the same is denoted by the word 'सत्', while the word 'exist' is from the root-verb 'अस्' - 'अस्ति' .  Again the same could be derived from Sanskrit in yet another way : ईक्ष् / अव-ईक्ष्  as is found in a great number of words that are formed with the prefix 'ex' as in exact - ईक्ष्-अस्त , exaggerate - ईक्ष्-अग्रे-गति, exalt - ईक्ष्-अल्-तः, exceed - ex-cede -ईक्ष्-छिद्, expatriate and so on.
सत् / 'sat', is dharma in the sense that it is imperishable, immutable अविकारी while सनातन is also dharma in the sense that it is 'flow'.
सत् / 'sat'  is the Unchangeable and immutable aspect of  dharma, while सनातन / sanAtana is the flow of the same principle that is perceived as transient phenomenon.
The Emergent : When an organism becomes so mature and evolved that 'Life' in it manifests as 'consciousness' there is the emergence of a 'me' sense in the organism with the accompanying consequential 'it'sense.
Just as we 'feel' our thumb by touching it by the forefinger and our attention is centered on the thumb, and again as we 'feel' our forefinger by touching it by the thumb and our attention is focused on the forefinger; and the same 'consciousness' is at play while performing the role in two ways, the 'me' sense and the 'it' sense are but two modes of the same consciousness that we ARE.
But once the duality is manifest, this 'consciousness' is at once identified with the body as 'myself' or 'self' and the perceived object is taken as 'it'.
This is dharma in two aspects in regard to consciousness.
In scriptures; these two aspects in an organism are called सत् / 'sat' and चित् / 'cit' respectively. The same consciousness  again expressed as the 'individual' / व्यष्टि and the 'whole' / समष्टि as well.
Again, though सत् / 'sat' is the common factor of 'me' and 'it', and the  'चित्' / 'cit' becomes 'चित्त' / mind or mental mode, and 'it' the known object thus perceived in the 'consciousness'.
This is the Essential Dharma ; -irrespective of 'nature' which is the tendency superimposed upon this Essential Dharma.
The Essential Dharma is what it is, as just IS.
And what we know as nature is but The Superficial Dharma only.
In this basically undivided / whole 'consciousness', the 'mind' appears / emerges and assumes existence in the form of 'me' and 'it'.
This mind is the emerging 'consciousness' while the me sense and the it sense are the accidental.
Discovering what is the innate Essential Dharma is the adventure that needs elaborate eagerness, earnestness and sincerity.
[Remark : The word 'innate' itself could be seen as the cognate / cogent of the Sanskrit word :
अनु-नति -- taking one inwards. This again is from the root-word  नृ / 'nri' / 'nat' as we saw in the beginning.]
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