दुखती रगें
--
समाज के तल पर हमेशा ही कोई न कोई समस्या समाज के किसी धड़े / तबके को या व्यक्ति को हुआ करती है। समस्या को एक नाम दे दिया जाता है और उस पर राजनीतिक, बौद्धिक या साहित्यिक चिंतन कर अपने आपके लिए समाज में कोई प्रतिष्ठित स्थान पा लिया जाता है, यद्यपि हर कोई उस शब्द-विशेष से अर्थात् समस्या के उस नाम को पढ़कर / सुनकर उसकी कोई मानसिक इमेज बना लेता है। हर कोई इसके बाद इस बारे में आक्रोश, उत्तेजना, तथा चिंता सहित अपनी राय रखता है जबकि बहुत से 'प्रतिष्ठित' कहे जानेवाले लोग ही अक्सर इस मौके का लाभ उठाकर अपने प्रभाव-क्षेत्र को बढ़ाने में इसका इस्तेमाल करते हैं। इन 'प्रतिष्ठित' कहे जानेवाले लोगों को संक्षेप में 'नेता' के नाम से जाना जाता है। हर व्यक्ति ऐसी किसी भी समस्या के केवल उसी पहलू से अपने आपको जुड़ा अनुभव करता है जिससे उसके प्रत्यक्ष या परोक्ष लाभ-हानि, और संबंध आदि होते हैं ।
case-study के रूप में हम ऐसी ही एक समस्या 'आतंकवाद' का उदाहरण लें। हो सकता है कि यह समस्या इस समय आतंकवाद की ऐसी किसी घटना के कारण प्रासंगिक हुई हो, लेकिन पिछले न जाने कितने समय से निरंतर और बार बार कुछ समय के अंतराल से इसका दोहराया जाते रहना इसी का संकेत है कि भले ही हम इसे 'परिभाषित' तक न कर पाए हों, हमारा पूरा जीवन इसके असर की छाया में बीतता रहता है। अनेक कारणों से हम समस्या को उसके वास्तविक स्वरूप तक अनावरित नहीं करते और समस्या भीतर ही भीतर किसी छिपे रोग की तरह हमारे समाज को खोखला (degenerate) करती रहती है। तथाकथित बुद्धिजीवी, विद्वान्, विचारक और सामाजिक नेता भी समस्या को अपने-अपने चश्मे से देखते हैं जिसमें मूलतः उनके निहित स्वार्थ और डर ही ऐसा करने के लिए उन्हें बाध्य करते हैं। वैसे तो लगभग हर मनुष्य ही आतंक की घटना से कम या अधिक प्रभावित होता है, लेकिन ऐसे चश्मे से इस समस्या को देखने-समझने का दावा करनेवाले और अपने-आपको समाज का शुभचिंतक कहनेवाले इस प्रकार समस्या का अपना संस्करण (version) प्रस्तुत कर अपने राजनीतिक स्वार्थ की रोटियाँ ही सेंकने में लगे रहते हैं। अभी तो हमने 'आतंकवाद'' शब्द को ही लिया है और कोई भी 'आतंकवादी' घटना दूर से भले ही हिंसा के किसी प्रकार की तरह दिखाई देती हो, उसके मूल में निहित प्रेरक कारणों पर हमारी दृष्टि ही नहीं जा पाती, और हम उसका सतही मूल्यांकन कर तात्कालिक रूप से आक्रोश और गुस्से से भर जाते हैं और जल्दी ही, ऐसी किसी दूसरी घटना के होने तक हमारा जीवन यूँ ही चलता रहता है। फिर हम इंटरटेनमेंट और रोजमर्रा के प्रश्नों में उलझकर इसे ऐसे भूल जाते हैं जैसे यह कभी हुआ ही नहीं था। जो इस घटना से सीधे प्रभावित और 'शिकार' होते हैं वे अपना जीवन यातना में बिताते रहते हैं, किसी के जीवन का एकमात्र सहारा ही उससे छिन जाता है, कोई ज़िंदगी भर के लिए अपाहिज हो जाता है और 'सरकार' कोई मुआवज़ा देकर उसे और उसके परिवार को लॉलीपॉप थमाकर अपनी सहानुभूति और संवेदना व्यक्त कर कर्तव्यमुक्त हो जाती है। यह तो हुई उन लोगों की बात जो 'आतंकवाद' का शिकार हो जाते हैं। इसी प्रकार वे जवान भी, जो अपना सर्वस्व देश पर न्यौछावर करते हुए देश की प्रतिष्ठा और स्वाभिमान की रक्षा करते हैं, अंततः नियति को स्वीकार कर लेते हैं।
प्रथमदृष्टया लगता है कि अमुक स्थान पर अमुक शख्स ने इस 'फ़िदायीन' वारदात को अंजाम दिया, और इसमें वह भी मारा गया, या जान बचाकर भाग निकला।
यद्यपि 'आतंकवाद' जो ऐसी किसी भी घटना का कारण होता है, ऐसी कोई ठोस / मूर्त चीज़ नहीं होता जिसे पकड़ा जा सके, मिटा या मार डाला जा सके, जिसे कोई सुनिश्चित रूप-रंग आकार और लक्षण से पहचाना या परिभाषित किया जा सके, हममें से हर कोई इस सच्चाई पर शायद ही कभी ध्यान देता हो और इसलिए इसे हम कैसा भी नाम दें राक्षस या पिशाच कहें, यह हमारी पकड़ में नहीं आ पाता ।
लगभग हर कोई इस बारे में ध्यान दिए बिना ही कि 'आतंकवाद' का सारतत्व, मूल चरित्र क्या है, और यह कैसे किसी के लिए इतनी बड़ी प्रेरणा बन जाता है, येन केन प्रकारेण इस 'समस्या' का जल्द से जल्द तात्कालिक हल / समाधान तुरत-फुरत पाना चाहता है। इसमें 'भय' का तत्व तो सर्वोपरि होता ही है और वह भय ही हमें इस समस्या के मूल तक जाने से रोकता है, -यह भी हमें समझ में नहीं आ पाता। यह 'भय' ही हमें यह भी नहीं समझने देता कि 'संगठित धर्म' [organised religion] ही किसी भी प्रकार के आतंकवाद के पैदा होने, फैलने-फूलने की सर्वाधिक बड़ी प्रेरणा होता है। यह कहना आसान है कि फलां 'धर्म' ही आतंकवाद की जड़ है, लेकिन इसके बाद भी उस 'धर्म' के अनुयायियों का डर इतना अधिक होता है कि हम उसका 'नाम' तक लेने का साहस नहीं कर पाते। सवाल यह भी है कि क्या किसी 'धर्म' पर 'आतंकवाद' से जुड़ा होने का आरोप लगाने के बाद क्या हम उनसे यह उम्मीद कर सकते हैं कि वे शांतिपूर्वक धैर्य से हमारी समझ पर सोचेंगे और अपने 'धर्म' की समीक्षा करेंगे ? 'धर्म' के बारे में उनकी जो धारणा / समझ है और जिसके पालन को वे अपना एकमात्र पावन कर्तव्य समझते हैं, वे तो उसी के तारतम्य में अपना व्यवहार करेंगे। वे यह सुनने तक को भी तैयार न होंगे कि 'धर्म' में उन्माद और प्रमाद के लिए, हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। और केवल इस्लाम ही 'संगठित धर्म' है ऐसा कहना अधूरा सच होगा । 'संगठित धर्म' मूलतः भय और बाध्यता पर आधारित होता है और हिन्दू, ईसाई, कैथोलिक या पारसी यहूदी 'धर्म' इसके अपवाद हों यह ज़रूरी नहीं। इस प्रकार का 'संगठित धर्म' ही दूसरों में भय और संदेह पैदा करता है और इन सभी 'धर्मों' के अनुयायी अपने अपने संगठनों में, दूसरे धर्मों के परिप्रेक्ष्य में 'लामबंद' हो जाते हैं।
तब, 'धर्म', जो सभी मनुष्यों के लिए कल्याण का आधार और ज़रूरत हो सकता है, भिन्न-भिन्न 'धार्मिक' संप्रदायों के बीच मतभेद और परस्पर अविश्वास और वैमनस्य तथा युद्ध का कारण बन जाता है। इसलिए जब तक 'धर्म' अपने-आपमें क्या है और क्या नहीं है, इसे कोई स्वयं ही न समझना चाहे, तब तक किसी की 'धार्मिक भावनाओं' पर कुछ कहना भी उनके लिए इतना असह्य हो सकता है कि उससे यह विरोध और शत्रुता और भी अधिक बढ़ने लगते हैं।
इस प्रकार यह समझ लेने पर कि 'धर्म' में उन्माद और प्रमाद तथा उससे जुडी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता, हम शायद 'आतंकवाद' की जड़ों तक जा सकते हैं। व्यक्ति के रूप में कोई 'संगठित धर्म' अर्थात् किसी भी प्रकार के धर्म से जुड़े संगठन से स्वयं को स्वतंत्र कर सकता है किन्तु यह तो उसे ही तय करना होता है कि 'धर्म' किसी भी प्रकार का संगठित रूप लेते ही अपनी शुद्धता को खो देता है। क्योंकि मूलतः तो धर्म नितांत वैयक्तिक मामला है न कि सार्वजनिक।
--
--
समाज के तल पर हमेशा ही कोई न कोई समस्या समाज के किसी धड़े / तबके को या व्यक्ति को हुआ करती है। समस्या को एक नाम दे दिया जाता है और उस पर राजनीतिक, बौद्धिक या साहित्यिक चिंतन कर अपने आपके लिए समाज में कोई प्रतिष्ठित स्थान पा लिया जाता है, यद्यपि हर कोई उस शब्द-विशेष से अर्थात् समस्या के उस नाम को पढ़कर / सुनकर उसकी कोई मानसिक इमेज बना लेता है। हर कोई इसके बाद इस बारे में आक्रोश, उत्तेजना, तथा चिंता सहित अपनी राय रखता है जबकि बहुत से 'प्रतिष्ठित' कहे जानेवाले लोग ही अक्सर इस मौके का लाभ उठाकर अपने प्रभाव-क्षेत्र को बढ़ाने में इसका इस्तेमाल करते हैं। इन 'प्रतिष्ठित' कहे जानेवाले लोगों को संक्षेप में 'नेता' के नाम से जाना जाता है। हर व्यक्ति ऐसी किसी भी समस्या के केवल उसी पहलू से अपने आपको जुड़ा अनुभव करता है जिससे उसके प्रत्यक्ष या परोक्ष लाभ-हानि, और संबंध आदि होते हैं ।
case-study के रूप में हम ऐसी ही एक समस्या 'आतंकवाद' का उदाहरण लें। हो सकता है कि यह समस्या इस समय आतंकवाद की ऐसी किसी घटना के कारण प्रासंगिक हुई हो, लेकिन पिछले न जाने कितने समय से निरंतर और बार बार कुछ समय के अंतराल से इसका दोहराया जाते रहना इसी का संकेत है कि भले ही हम इसे 'परिभाषित' तक न कर पाए हों, हमारा पूरा जीवन इसके असर की छाया में बीतता रहता है। अनेक कारणों से हम समस्या को उसके वास्तविक स्वरूप तक अनावरित नहीं करते और समस्या भीतर ही भीतर किसी छिपे रोग की तरह हमारे समाज को खोखला (degenerate) करती रहती है। तथाकथित बुद्धिजीवी, विद्वान्, विचारक और सामाजिक नेता भी समस्या को अपने-अपने चश्मे से देखते हैं जिसमें मूलतः उनके निहित स्वार्थ और डर ही ऐसा करने के लिए उन्हें बाध्य करते हैं। वैसे तो लगभग हर मनुष्य ही आतंक की घटना से कम या अधिक प्रभावित होता है, लेकिन ऐसे चश्मे से इस समस्या को देखने-समझने का दावा करनेवाले और अपने-आपको समाज का शुभचिंतक कहनेवाले इस प्रकार समस्या का अपना संस्करण (version) प्रस्तुत कर अपने राजनीतिक स्वार्थ की रोटियाँ ही सेंकने में लगे रहते हैं। अभी तो हमने 'आतंकवाद'' शब्द को ही लिया है और कोई भी 'आतंकवादी' घटना दूर से भले ही हिंसा के किसी प्रकार की तरह दिखाई देती हो, उसके मूल में निहित प्रेरक कारणों पर हमारी दृष्टि ही नहीं जा पाती, और हम उसका सतही मूल्यांकन कर तात्कालिक रूप से आक्रोश और गुस्से से भर जाते हैं और जल्दी ही, ऐसी किसी दूसरी घटना के होने तक हमारा जीवन यूँ ही चलता रहता है। फिर हम इंटरटेनमेंट और रोजमर्रा के प्रश्नों में उलझकर इसे ऐसे भूल जाते हैं जैसे यह कभी हुआ ही नहीं था। जो इस घटना से सीधे प्रभावित और 'शिकार' होते हैं वे अपना जीवन यातना में बिताते रहते हैं, किसी के जीवन का एकमात्र सहारा ही उससे छिन जाता है, कोई ज़िंदगी भर के लिए अपाहिज हो जाता है और 'सरकार' कोई मुआवज़ा देकर उसे और उसके परिवार को लॉलीपॉप थमाकर अपनी सहानुभूति और संवेदना व्यक्त कर कर्तव्यमुक्त हो जाती है। यह तो हुई उन लोगों की बात जो 'आतंकवाद' का शिकार हो जाते हैं। इसी प्रकार वे जवान भी, जो अपना सर्वस्व देश पर न्यौछावर करते हुए देश की प्रतिष्ठा और स्वाभिमान की रक्षा करते हैं, अंततः नियति को स्वीकार कर लेते हैं।
प्रथमदृष्टया लगता है कि अमुक स्थान पर अमुक शख्स ने इस 'फ़िदायीन' वारदात को अंजाम दिया, और इसमें वह भी मारा गया, या जान बचाकर भाग निकला।
यद्यपि 'आतंकवाद' जो ऐसी किसी भी घटना का कारण होता है, ऐसी कोई ठोस / मूर्त चीज़ नहीं होता जिसे पकड़ा जा सके, मिटा या मार डाला जा सके, जिसे कोई सुनिश्चित रूप-रंग आकार और लक्षण से पहचाना या परिभाषित किया जा सके, हममें से हर कोई इस सच्चाई पर शायद ही कभी ध्यान देता हो और इसलिए इसे हम कैसा भी नाम दें राक्षस या पिशाच कहें, यह हमारी पकड़ में नहीं आ पाता ।
लगभग हर कोई इस बारे में ध्यान दिए बिना ही कि 'आतंकवाद' का सारतत्व, मूल चरित्र क्या है, और यह कैसे किसी के लिए इतनी बड़ी प्रेरणा बन जाता है, येन केन प्रकारेण इस 'समस्या' का जल्द से जल्द तात्कालिक हल / समाधान तुरत-फुरत पाना चाहता है। इसमें 'भय' का तत्व तो सर्वोपरि होता ही है और वह भय ही हमें इस समस्या के मूल तक जाने से रोकता है, -यह भी हमें समझ में नहीं आ पाता। यह 'भय' ही हमें यह भी नहीं समझने देता कि 'संगठित धर्म' [organised religion] ही किसी भी प्रकार के आतंकवाद के पैदा होने, फैलने-फूलने की सर्वाधिक बड़ी प्रेरणा होता है। यह कहना आसान है कि फलां 'धर्म' ही आतंकवाद की जड़ है, लेकिन इसके बाद भी उस 'धर्म' के अनुयायियों का डर इतना अधिक होता है कि हम उसका 'नाम' तक लेने का साहस नहीं कर पाते। सवाल यह भी है कि क्या किसी 'धर्म' पर 'आतंकवाद' से जुड़ा होने का आरोप लगाने के बाद क्या हम उनसे यह उम्मीद कर सकते हैं कि वे शांतिपूर्वक धैर्य से हमारी समझ पर सोचेंगे और अपने 'धर्म' की समीक्षा करेंगे ? 'धर्म' के बारे में उनकी जो धारणा / समझ है और जिसके पालन को वे अपना एकमात्र पावन कर्तव्य समझते हैं, वे तो उसी के तारतम्य में अपना व्यवहार करेंगे। वे यह सुनने तक को भी तैयार न होंगे कि 'धर्म' में उन्माद और प्रमाद के लिए, हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। और केवल इस्लाम ही 'संगठित धर्म' है ऐसा कहना अधूरा सच होगा । 'संगठित धर्म' मूलतः भय और बाध्यता पर आधारित होता है और हिन्दू, ईसाई, कैथोलिक या पारसी यहूदी 'धर्म' इसके अपवाद हों यह ज़रूरी नहीं। इस प्रकार का 'संगठित धर्म' ही दूसरों में भय और संदेह पैदा करता है और इन सभी 'धर्मों' के अनुयायी अपने अपने संगठनों में, दूसरे धर्मों के परिप्रेक्ष्य में 'लामबंद' हो जाते हैं।
तब, 'धर्म', जो सभी मनुष्यों के लिए कल्याण का आधार और ज़रूरत हो सकता है, भिन्न-भिन्न 'धार्मिक' संप्रदायों के बीच मतभेद और परस्पर अविश्वास और वैमनस्य तथा युद्ध का कारण बन जाता है। इसलिए जब तक 'धर्म' अपने-आपमें क्या है और क्या नहीं है, इसे कोई स्वयं ही न समझना चाहे, तब तक किसी की 'धार्मिक भावनाओं' पर कुछ कहना भी उनके लिए इतना असह्य हो सकता है कि उससे यह विरोध और शत्रुता और भी अधिक बढ़ने लगते हैं।
इस प्रकार यह समझ लेने पर कि 'धर्म' में उन्माद और प्रमाद तथा उससे जुडी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता, हम शायद 'आतंकवाद' की जड़ों तक जा सकते हैं। व्यक्ति के रूप में कोई 'संगठित धर्म' अर्थात् किसी भी प्रकार के धर्म से जुड़े संगठन से स्वयं को स्वतंत्र कर सकता है किन्तु यह तो उसे ही तय करना होता है कि 'धर्म' किसी भी प्रकार का संगठित रूप लेते ही अपनी शुद्धता को खो देता है। क्योंकि मूलतः तो धर्म नितांत वैयक्तिक मामला है न कि सार्वजनिक।
--
No comments:
Post a Comment