श्रीराम-जन्मभूमि
इन्द्र का यज्ञ और निमि का यज्ञ !
--
वाल्मीकि-रामायण : सर्ग 55
(पिछली पोस्ट से निरंतर)
स राजा वीर्यसम्पन्नः पुरं देवपुरोपमम् ।
निवेशयामास तदा अभ्याशे गौतमस्य तु ।।5
अर्थ :
'उन पराक्रमसम्पन्न नरेश (निमि) ने उन दिनों गौतम-आश्रम के निकट देवपुरी के समान एक नगर बसाया ।
पुरस्य सुकृतं नाम वैजयन्तमिति श्रुतम् ।
निवेशं यत्र राजर्षिर्निमिश्चक्रे महायशाः ।।6
'महायशस्वी राजर्षि निमि ने जिस नगर में अपना निवासस्थान बनाया, उसे सुन्दर नाम दिया गया वैजयन्त । इसी नाम से उस नगर की प्रसिद्धि हुई । (देवराज इन्द्र के प्रासाद का नाम वैजयन्त है, उसी की समता से निमि के नगर का भी यही नाम रखा गया था ।)
तस्य बुद्धिः समुत्पन्ना निवेश्य सुमहापुरम् ।
यजेयं दीर्घसत्रेण पितुः प्रह्लादयन् मनः ।।7
अर्थ :
'उस महान नगर को बसाकर राजा के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैं पिता के हृदय को आह्लाद प्रदान करने के लिए एक ऐसे यज्ञ का अनुष्ठान करूँ, जो दीर्घकाल तक चालू रहनेवाला हो ।
ततः पितरमामन्त्र्य इक्ष्वाकुं हि मनोः सुतम् ।
वसिष्ठं वरयामास पूर्वं ब्रह्मर्षिसत्तमम् ।।8
अनन्तरं स राजर्षिर्निमिरिक्ष्वाकुनन्दनः ।
अत्रिमङ्गिरसं चैव भृगुं चैव तपोनिधिम् ।।9
अर्थ :
'तदनन्तर इक्ष्वाकुनन्दन राजर्षि निमि ने अपने पिता मनुपुत्र इक्ष्वाकु से पूछकर अपना यज्ञ कराने के लिये सबसे पहले ब्रह्मर्षिशिरोमणि वसिष्ठजी का वरण किया । उसके बाद अत्रि, अङ्गिरा, तथा तपोनिधि भृगु को भी आमन्त्रित किया।।
तमुवाच वसिष्ठस्तु निमिं राजर्षिसत्तमम् ।
वृतोऽहं पूर्वमिन्द्रेण अन्तरं प्रतिपालय ।।10
अर्थ :
'उस समय ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ने राजर्षियों में श्रेष्ठ निमि से कहा -- 'देवराज इन्द्र ने एक यज्ञ के लिये पहले से ही मेरा वरण कर लिया है; अतः वह यज्ञ जब तक समाप्त न हो जाए तब तक तुम मेरे आगमन की प्रतीक्षा करो' । अनन्तरं महाविप्रो गौतमः प्रत्यपूरयत् ।
वसिष्ठोऽपि महातेजा इन्द्रयज्ञमथाकरोत् ।।11
अर्थ :
'वसिष्ठजी के चले जाने के बाद महान् ब्राह्मण महर्षि गौतम ने आकर उनके काम को पूरा कर दिया । उधर महातेजस्वी वसिष्ठ भी इन्द्र का यज्ञ पूरा कराने लगे ।
निमिस्तु राजा विप्रांस्तान् समानीय नराधिपः ।
अयजिद्धमवत्पार्श्वे स्वपुरस्य समीपतः ।
पञ्चवर्षसहस्राणि राजा दीक्षामथाकरोत्।।12
(उपरोक्त श्लोक 3 पंक्तियों का है ।)
अर्थ :
'नरेश्वर राजा निमि ने उन ब्राह्मणों को बुलाकर हिमालय के पास अपने नगर के निकट ही , यज्ञ आरम्भ कर दिया, राजा निमि ने पाँच हजार वर्षों तक के लिए यज्ञ की दीक्षा ली ।
इन्द्रयज्ञावसाने तु वसिष्ठो भगवानृषिः ।
सकाशमागतो राज्ञो हौत्रं कर्तुमनिन्दितः ।।13
तदन्तरमथापश्यद् गौतमेनाभिपूरितः ।
अर्थ :
'उधर इन्द्र-यज्ञ की समाप्ति होने पर अनिन्द्य भगवान् वसिष्ठ ऋषि राजा निमि के पास होतृकर्म (यज्ञ) करने के लिए आये। वहाँ आकर उन्होंने देखा कि जो समय प्रतीक्षा के लिये दिया था, उसे गौतम ने आकर पूरा कर दिया ।
कोपेन महताविष्टो वसिष्ठो ब्रह्मणः सुतः ।।14
स राज्ञो दर्शनाकाङ्क्षी मुहूर्तं समुपाविशत् ।
तस्मिन्नहनि राजर्षिर्निद्रापहृतो भृशम्।।15
अर्थ :
यह देख ब्रह्मकुमार वसिष्ठ महान् क्रोध से भर गये और राजा से मिलने के लिए (एक) मुहूर्त भर अर्थात् दो घड़ी (घटिका, जो 24 मिनट की होती है) वहाँ बैठे रहे। परंतु उस दिन राजर्षि निमि अत्यन्त निद्रा के वशीभूत हो सो गये थे ।
(निमि तथा निद्रा काल के दो माप (measure) हैं। इसी प्रकार दिन, घड़ी, मुहूर्त तथा वर्ष भी काल के माप (measure) हैं । किन्तु ये माप भी पुनः काल के दो अलग अलग आयामों में होते हैं । दिन, घड़ी, मुहूर्त तथा वर्ष काल के ऐतिहासिक, जागृत दशा के समय में घटित होते हैं । निद्रा में काल का यह पैमाना कार्य नहीं करता वहाँ कोई दूसरा पैमाना कार्य करता है । इसी प्रकार देवलोक तथा मृत्युलोक में भी काल का पैमाना अलग-अलग होता है ।)
ततो मन्युर्वसिष्ठस्य प्रादुरासीन्महात्मनः ।
अदर्शनेन राजर्षेर्व्याहर्तुमुपचक्रमे।। 16
अर्थ :
'राजा मिले नहीं, इस कारण महात्मा वसिष्ठ मुनि को बड़ा क्रोध हुआ । वे राजर्षि को लक्ष्य करके बोलने लगे --
यस्मात् त्वमन्य वृतवान् मामवज्ञाय पार्थिव ।
चेतनेन विनाभूतो देहस्ते पार्थिवैष्यति ।।17
अर्थ :
'भूपाल निमे ! तुमने मेरी अवहेलना करके अन्य पुरोहित (गौतम ऋषि) का वरण कर लिया है, इसलिये तुम्हारा यह शरीर अचेतन होकर गिर जायगा'
ततः प्रबुद्धो राजा तु श्रुत्वा शापमुदाहृतम् ।
ब्रह्मयोनिमथोवाच स राजा क्रोधमूर्च्छितः ।।18
अर्थ :
'तदनन्तर राजा की नींद खुली । वे उनके दिये हुए शाप की बात सुनकर क्रोध से मूर्च्छित हो गये और ब्रह्मयोनि वसिष्ठ से बोले --
अजानतः शयानस्य क्रोधेन कलुषीकृतः ।
उक्तवान् मम शापाग्निं यमदण्डमिवापरम्।।19
अर्थ :
'मुझे आपके आगमन की बात मालूम नहीं थी इसलिए सो रहा था । परंतु आपने क्रोध से कलुषित होकर मेरे ऊपर दूसरे यमदण्ड की भाँति शापाग्नि का प्रहार किया है ।
तस्मात् तवापि ब्रह्मर्षे चेतनेन विनाकृतः ।
देहः स सुचिरप्रख्यो भविष्यति न संशयः ।।20
अर्थ :
"अतः ब्रह्मर्षे ! चिरन्तन शोभा से युक्त जो आपका शरीर है, वह भी अचेतन होकर गिर जायगा --इसमें संशय नहीं है ।
इति रोषवशादुभौ तदानी -
मन्योन्यं शपितौ नृपद्विजेन्द्रौ ।
सहसैव बभूवतुर्विदेहौ
तत्तुल्याधिगतप्रभाववन्तौ।।21
अर्थ :
'इस प्रकार उस समय रोष के वशीभूत हुए वे दोनों नृपेंद्र और द्विजेन्द्र परस्पर शाप दे सहसा विदेह हो गये । उन दोनों के प्रभाव ब्रह्माजी के समान थे ।
(सर्ग 55 पूर्ण हुआ)
--
वर्त्तमान में अयोध्या में भगवान् श्रीराम की जन्मस्थली पर मन्दिर का निर्माण बहुत ज्वलंत प्रश्न है ।
संस्कृत में 'निम' प्रत्यय 'अर्ध' के अर्थ में प्रयुक्त होता है । (हिंदी - उर्दू में नीम-हक़ीम पर ध्यान दें !)
राजा निमि इसके अपवाद न थे । वे कोई महान् यज्ञ करने जा रहे थे । जैसे हमारा शासन अयोध्या में राम-जन्मभूमि पर मन्दिर-निर्माण रूपी यज्ञ करने के लिए उत्कण्ठित दिखाई देता है । इन्द्र का यज्ञ किसी दूसरे (देवलोक) के तल पर होनेवाली घटना है । ऋषि वसिष्ठ के लिये देवलोक या पृथ्वीलोक पर 'सशरीर' आना-जाना कोई कठिन कार्य नहीं है । ऋषि गौतम के लिए भी शायद ऐसा ही है । किन्तु गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या और इन्द्र की कथा भी यहाँ याद आती है ।
वाल्मीकि रामायण में भी यह कथा आती है, जहाँ अहल्या कौतूहलवश गौतम के वेष में उनकी अनुपस्थिति में उनके आश्रम में आये हुए इन्द्र के प्रति आकर्षित होती है और दोनों में समागम होता है । ऋषि गौतम अहल्या को शाप देकर कहते हैं :
"दुर्बुद्धे ! अब तुम भगवान् श्रीराम का अवतार होने तक शिला (की तरह जड) होकर रहो । उनके चरणों का स्पर्श होने पर तुम पुनः पहले जैसी निष्कलंक और पवित्र हो जाओगी।"
फिर इन्द्र देवताओं से जाकर कहते हैं :
"तुम्हारा काम (भगवान् श्रीराम का अवतार होने के लिए जो आवश्यक था ) मैंने कर दिया है।"
(... इसके बाद की कथा ऋग्वेद में भी पाई जाती है।)
अभी ब्रह्मर्षि वसिष्ठ शायद इन्द्र के किसी यज्ञ के अनुष्ठान में गए हुए हैं, और न भी गए हों तो भी उन्हें आमंत्रण करने तक का भान हमारे समय के राजा निमि को नहीं है । हमारे समय के निमि को तो इस बारे में भी सुनिश्चय नहीं है कि क्या भगवान् श्रीराम का जन्म भी कभी हुआ था ?
इस सर्ग के गूढ़ार्थ अनेक और कई तरह के हैं इसलिए इनका मर्म तो महर्षि वाल्मीकि ही जानते हैं।
हम जैसे पामर तो बस अनुमान और विवाद करते रहते हैं।
--
सुना है कल दिनांक 26 फ़रवरी 2019 से पुनः इस मामले में सुनवाई होनेवाली है ।
जय श्रीराम !
--
इन्द्र का यज्ञ और निमि का यज्ञ !
--
वाल्मीकि-रामायण : सर्ग 55
(पिछली पोस्ट से निरंतर)
स राजा वीर्यसम्पन्नः पुरं देवपुरोपमम् ।
निवेशयामास तदा अभ्याशे गौतमस्य तु ।।5
अर्थ :
'उन पराक्रमसम्पन्न नरेश (निमि) ने उन दिनों गौतम-आश्रम के निकट देवपुरी के समान एक नगर बसाया ।
पुरस्य सुकृतं नाम वैजयन्तमिति श्रुतम् ।
निवेशं यत्र राजर्षिर्निमिश्चक्रे महायशाः ।।6
'महायशस्वी राजर्षि निमि ने जिस नगर में अपना निवासस्थान बनाया, उसे सुन्दर नाम दिया गया वैजयन्त । इसी नाम से उस नगर की प्रसिद्धि हुई । (देवराज इन्द्र के प्रासाद का नाम वैजयन्त है, उसी की समता से निमि के नगर का भी यही नाम रखा गया था ।)
तस्य बुद्धिः समुत्पन्ना निवेश्य सुमहापुरम् ।
यजेयं दीर्घसत्रेण पितुः प्रह्लादयन् मनः ।।7
अर्थ :
'उस महान नगर को बसाकर राजा के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैं पिता के हृदय को आह्लाद प्रदान करने के लिए एक ऐसे यज्ञ का अनुष्ठान करूँ, जो दीर्घकाल तक चालू रहनेवाला हो ।
ततः पितरमामन्त्र्य इक्ष्वाकुं हि मनोः सुतम् ।
वसिष्ठं वरयामास पूर्वं ब्रह्मर्षिसत्तमम् ।।8
अनन्तरं स राजर्षिर्निमिरिक्ष्वाकुनन्दनः ।
अत्रिमङ्गिरसं चैव भृगुं चैव तपोनिधिम् ।।9
अर्थ :
'तदनन्तर इक्ष्वाकुनन्दन राजर्षि निमि ने अपने पिता मनुपुत्र इक्ष्वाकु से पूछकर अपना यज्ञ कराने के लिये सबसे पहले ब्रह्मर्षिशिरोमणि वसिष्ठजी का वरण किया । उसके बाद अत्रि, अङ्गिरा, तथा तपोनिधि भृगु को भी आमन्त्रित किया।।
तमुवाच वसिष्ठस्तु निमिं राजर्षिसत्तमम् ।
वृतोऽहं पूर्वमिन्द्रेण अन्तरं प्रतिपालय ।।10
अर्थ :
'उस समय ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ने राजर्षियों में श्रेष्ठ निमि से कहा -- 'देवराज इन्द्र ने एक यज्ञ के लिये पहले से ही मेरा वरण कर लिया है; अतः वह यज्ञ जब तक समाप्त न हो जाए तब तक तुम मेरे आगमन की प्रतीक्षा करो' । अनन्तरं महाविप्रो गौतमः प्रत्यपूरयत् ।
वसिष्ठोऽपि महातेजा इन्द्रयज्ञमथाकरोत् ।।11
अर्थ :
'वसिष्ठजी के चले जाने के बाद महान् ब्राह्मण महर्षि गौतम ने आकर उनके काम को पूरा कर दिया । उधर महातेजस्वी वसिष्ठ भी इन्द्र का यज्ञ पूरा कराने लगे ।
निमिस्तु राजा विप्रांस्तान् समानीय नराधिपः ।
अयजिद्धमवत्पार्श्वे स्वपुरस्य समीपतः ।
पञ्चवर्षसहस्राणि राजा दीक्षामथाकरोत्।।12
(उपरोक्त श्लोक 3 पंक्तियों का है ।)
अर्थ :
'नरेश्वर राजा निमि ने उन ब्राह्मणों को बुलाकर हिमालय के पास अपने नगर के निकट ही , यज्ञ आरम्भ कर दिया, राजा निमि ने पाँच हजार वर्षों तक के लिए यज्ञ की दीक्षा ली ।
इन्द्रयज्ञावसाने तु वसिष्ठो भगवानृषिः ।
सकाशमागतो राज्ञो हौत्रं कर्तुमनिन्दितः ।।13
तदन्तरमथापश्यद् गौतमेनाभिपूरितः ।
अर्थ :
'उधर इन्द्र-यज्ञ की समाप्ति होने पर अनिन्द्य भगवान् वसिष्ठ ऋषि राजा निमि के पास होतृकर्म (यज्ञ) करने के लिए आये। वहाँ आकर उन्होंने देखा कि जो समय प्रतीक्षा के लिये दिया था, उसे गौतम ने आकर पूरा कर दिया ।
कोपेन महताविष्टो वसिष्ठो ब्रह्मणः सुतः ।।14
स राज्ञो दर्शनाकाङ्क्षी मुहूर्तं समुपाविशत् ।
तस्मिन्नहनि राजर्षिर्निद्रापहृतो भृशम्।।15
अर्थ :
यह देख ब्रह्मकुमार वसिष्ठ महान् क्रोध से भर गये और राजा से मिलने के लिए (एक) मुहूर्त भर अर्थात् दो घड़ी (घटिका, जो 24 मिनट की होती है) वहाँ बैठे रहे। परंतु उस दिन राजर्षि निमि अत्यन्त निद्रा के वशीभूत हो सो गये थे ।
(निमि तथा निद्रा काल के दो माप (measure) हैं। इसी प्रकार दिन, घड़ी, मुहूर्त तथा वर्ष भी काल के माप (measure) हैं । किन्तु ये माप भी पुनः काल के दो अलग अलग आयामों में होते हैं । दिन, घड़ी, मुहूर्त तथा वर्ष काल के ऐतिहासिक, जागृत दशा के समय में घटित होते हैं । निद्रा में काल का यह पैमाना कार्य नहीं करता वहाँ कोई दूसरा पैमाना कार्य करता है । इसी प्रकार देवलोक तथा मृत्युलोक में भी काल का पैमाना अलग-अलग होता है ।)
ततो मन्युर्वसिष्ठस्य प्रादुरासीन्महात्मनः ।
अदर्शनेन राजर्षेर्व्याहर्तुमुपचक्रमे।। 16
अर्थ :
'राजा मिले नहीं, इस कारण महात्मा वसिष्ठ मुनि को बड़ा क्रोध हुआ । वे राजर्षि को लक्ष्य करके बोलने लगे --
यस्मात् त्वमन्य वृतवान् मामवज्ञाय पार्थिव ।
चेतनेन विनाभूतो देहस्ते पार्थिवैष्यति ।।17
अर्थ :
'भूपाल निमे ! तुमने मेरी अवहेलना करके अन्य पुरोहित (गौतम ऋषि) का वरण कर लिया है, इसलिये तुम्हारा यह शरीर अचेतन होकर गिर जायगा'
ततः प्रबुद्धो राजा तु श्रुत्वा शापमुदाहृतम् ।
ब्रह्मयोनिमथोवाच स राजा क्रोधमूर्च्छितः ।।18
अर्थ :
'तदनन्तर राजा की नींद खुली । वे उनके दिये हुए शाप की बात सुनकर क्रोध से मूर्च्छित हो गये और ब्रह्मयोनि वसिष्ठ से बोले --
अजानतः शयानस्य क्रोधेन कलुषीकृतः ।
उक्तवान् मम शापाग्निं यमदण्डमिवापरम्।।19
अर्थ :
'मुझे आपके आगमन की बात मालूम नहीं थी इसलिए सो रहा था । परंतु आपने क्रोध से कलुषित होकर मेरे ऊपर दूसरे यमदण्ड की भाँति शापाग्नि का प्रहार किया है ।
तस्मात् तवापि ब्रह्मर्षे चेतनेन विनाकृतः ।
देहः स सुचिरप्रख्यो भविष्यति न संशयः ।।20
अर्थ :
"अतः ब्रह्मर्षे ! चिरन्तन शोभा से युक्त जो आपका शरीर है, वह भी अचेतन होकर गिर जायगा --इसमें संशय नहीं है ।
इति रोषवशादुभौ तदानी -
मन्योन्यं शपितौ नृपद्विजेन्द्रौ ।
सहसैव बभूवतुर्विदेहौ
तत्तुल्याधिगतप्रभाववन्तौ।।21
अर्थ :
'इस प्रकार उस समय रोष के वशीभूत हुए वे दोनों नृपेंद्र और द्विजेन्द्र परस्पर शाप दे सहसा विदेह हो गये । उन दोनों के प्रभाव ब्रह्माजी के समान थे ।
(सर्ग 55 पूर्ण हुआ)
--
वर्त्तमान में अयोध्या में भगवान् श्रीराम की जन्मस्थली पर मन्दिर का निर्माण बहुत ज्वलंत प्रश्न है ।
संस्कृत में 'निम' प्रत्यय 'अर्ध' के अर्थ में प्रयुक्त होता है । (हिंदी - उर्दू में नीम-हक़ीम पर ध्यान दें !)
राजा निमि इसके अपवाद न थे । वे कोई महान् यज्ञ करने जा रहे थे । जैसे हमारा शासन अयोध्या में राम-जन्मभूमि पर मन्दिर-निर्माण रूपी यज्ञ करने के लिए उत्कण्ठित दिखाई देता है । इन्द्र का यज्ञ किसी दूसरे (देवलोक) के तल पर होनेवाली घटना है । ऋषि वसिष्ठ के लिये देवलोक या पृथ्वीलोक पर 'सशरीर' आना-जाना कोई कठिन कार्य नहीं है । ऋषि गौतम के लिए भी शायद ऐसा ही है । किन्तु गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या और इन्द्र की कथा भी यहाँ याद आती है ।
वाल्मीकि रामायण में भी यह कथा आती है, जहाँ अहल्या कौतूहलवश गौतम के वेष में उनकी अनुपस्थिति में उनके आश्रम में आये हुए इन्द्र के प्रति आकर्षित होती है और दोनों में समागम होता है । ऋषि गौतम अहल्या को शाप देकर कहते हैं :
"दुर्बुद्धे ! अब तुम भगवान् श्रीराम का अवतार होने तक शिला (की तरह जड) होकर रहो । उनके चरणों का स्पर्श होने पर तुम पुनः पहले जैसी निष्कलंक और पवित्र हो जाओगी।"
फिर इन्द्र देवताओं से जाकर कहते हैं :
"तुम्हारा काम (भगवान् श्रीराम का अवतार होने के लिए जो आवश्यक था ) मैंने कर दिया है।"
(... इसके बाद की कथा ऋग्वेद में भी पाई जाती है।)
अभी ब्रह्मर्षि वसिष्ठ शायद इन्द्र के किसी यज्ञ के अनुष्ठान में गए हुए हैं, और न भी गए हों तो भी उन्हें आमंत्रण करने तक का भान हमारे समय के राजा निमि को नहीं है । हमारे समय के निमि को तो इस बारे में भी सुनिश्चय नहीं है कि क्या भगवान् श्रीराम का जन्म भी कभी हुआ था ?
इस सर्ग के गूढ़ार्थ अनेक और कई तरह के हैं इसलिए इनका मर्म तो महर्षि वाल्मीकि ही जानते हैं।
हम जैसे पामर तो बस अनुमान और विवाद करते रहते हैं।
--
सुना है कल दिनांक 26 फ़रवरी 2019 से पुनः इस मामले में सुनवाई होनेवाली है ।
जय श्रीराम !
--
No comments:
Post a Comment