धर्मग्रन्थ के तात्पर्य
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मूल, भाष्य, व्याख्या, अर्थ, टीका और टिप्पणी
किसी भी धर्मग्रन्थ की भाषा से अवगत होना उस धर्म को ठीक से समझने-जानने के लिए सबसे पहली, प्रथम अपरिहार्य आवश्यकता है । चाहे वह धर्म / धर्मग्रन्थ ईश्वरवादियों का हो, एकेश्वरवादियों का हो, बहुदेवतावाद को माननेवालों का हो, अनीश्वरवादियों का हो, या नास्तिकों का हो ।
ईश्वरवादी का तात्पर्य है उस चैतन्य शक्तिमान् सार्वत्रिक सत्ता को स्वीकार करनेवाले जो कारण से कार्य को और कार्य से कारण को, ईश्वर को और उसके कार्य को एक-दूसरे से अभिन्न मानते हैं, किन्तु व्यवहार के स्तर पर उसे आराध्य की तरह औपाधिक और औपचारिक रूप से अपना इष्ट भी मानते हैं । इसलिए भिन्न भिन्न ईश्वरवादियों के बीच मूलतः कोई मतभेद नहीं होता । वे तमाम मतभेदों को बुद्धिगत मान्यताओं के बीच की भिन्नता समझकर अपने अपने ढंग से इष्ट की उपासना / पूजा करते हैं । एकेश्वरवादियों, बहुदेवतावाद को माननेवालों, अनीश्वरवादियों, या नास्तिकों से भी उनका कोई मतभेद नहीं होता, क्योंकि उन्हें स्पष्ट है कि किसी भी मनुष्य की बुद्धि किसी भी दूसरे मनुष्य की बुद्धि से भिन्न प्रकार से कार्य करती है और इसलिए सभी बुद्धियों का जिस स्रोत से आगमन होता है, वह स्रोत इन सभी मतभेदों और विरोधाभासों से रहित है । वही स्रोत तो प्रत्येक मनुष्य की बुद्धि को परिचालित करता है और एक ही मनुष्य में भिन्न भिन्न समय पर भिन्न भिन्न प्रकार की बुद्धियाँ पैदा होती रहती हैं जिनमें से कुछ शुभ और कल्याणप्रद तो कुछ अशुभ और विनाशकारी होती हैं । साथ ही प्रत्येक मनुष्य का विवेक ही सदा उसे चेतावनी देता है कि कौन सी बुद्धि कैसी है । लेकिन बड़े से बड़ा बुद्धिमान भी प्रायः दुर्बुद्धि से ग्रस्त होकर अपना और संसार का अहित करता रहता है ।
कोई भी धर्मग्रन्थ उस धर्म-विशेष के संस्थापक की बुद्धि / विवेक के अनुसार उसके अनुभवों की तथा उसे 'सत्य का जो साक्षात्कार हुआ, जैसे हुआ',- उसकी उसके शब्दों में की गयी प्रस्तुति होता है। किसी भी दूसरे व्यक्ति के लिए उस धर्मग्रन्थ का ठीक-ठीक मर्म समझ पाना तब तक असंभव न भी होता हो, तो भी कठिन तो होता ही है जब तक कि वह धर्मग्रन्थ आदेशात्मक शब्दों में न कहा / लिखा गया हो ।
विधि -Thou shalt do.
निषेध - Though shalt not do.
और उस भाषा को जाननेवालों के लिए उस धर्मग्रन्थ की शिक्षाओं का पालन तदनुसार कम या अधिक कठिन हो सकता है । किन्तु जब उस भाषा को न जाननेवालों को उन शिक्षाओं को समझना होता है तो मूल ग्रन्थ के सर्वाधिक सही भाष्य, व्याख्या, अर्थ, टीका और टिप्पणी का सहारा लेना ज़रूरी हो जाता है । और जब स्वयं उस भाषा को जाननेवाले तक उस ग्रन्थ की शिक्षाओं के तात्पर्य का अलग अलग अर्थ ग्रहण करते हैं, तो भाष्य, व्याख्या, अर्थ, टीका और टिप्पणी के माध्यम से उस ग्रन्थ की शिक्षाओं को ठीक से समझ पाना तो और भी कठिन हो सकता है ।
किसी भी धर्मग्रन्थ में केवल "विधि -Thou shalt do." और "निषेध - Though shalt not do." ही होते हों तो भी उसे व्यवहार में लाना शायद संभव है लेकिन जीवन इतने तक ही सीमित नहीं होता । क्योंकि "विधि - Thou shalt do." और "निषेध - Though shalt not do." को जानने के बाद भी उस शिक्षा का पालन किस प्रकार से किया जाना चाहिए यह प्रश्न तो पैदा होता ही रहेगा । जिसे "विधि - Thou shalt do." के दायरे में करने तक सीमित समझा जाता है, वह भी परिस्थितियों की भिन्नता के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार से हो सकता है या उसका होना बस असंभव ही हो जाता है । इसी प्रकार जिसे "निषेध - Though shalt not do." के दायरे में न करने तक सीमित समझा जाता है, वह भी परिस्थितियों की भिन्नता के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार से हो सकता है या उसका होना बस असंभव ही हो जाता है ।
संक्षेप में : कोई भी धर्म हो या कोई भी धर्मग्रन्थ हो, उसकी शिक्षाओं का व्यवहार में पालन करना हमेशा एक ऐसी चुनौती होता है जिसका उत्तर कभी-कभी तो हमारे पास होता है पर अक्सर नहीं होता ।
जब धर्म का संस्थापक अपनी किताब छोड़कर विदा हो जाता है तो उसकी समाधि बनते बनते उस धर्म के अनेक सूत्रकार, भाष्यकार, शास्त्रकार, टीकाकार और अर्थ-प्रतिपादक प्रकट हो उठते हैं। साथ ही उठ खड़े होते हैं उसके आलोचक और स्वघोषित मर्मज्ञ । आलोचक और टिप्पणीकार तो कोई भी हो सकता है । 'प्रामाणिक प्रतिनिधि' (authorized proponent) कौन हो, इस बारे में अनिश्चय से देर-अबेर अनेक सम्प्रदाय (sect) अस्तित्व में आ जाते हैं, हर सम्प्रदाय का मठ बन जाता है और फिर धर्म राजनीति का अखाड़ा बन जाता है । इस प्रकार का धर्म मनुष्य पर, वास्तव में धर्म के नाम से अपनी पहचान बनाकर भी ठेठ अधर्म ही होता है।
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मूल, भाष्य, व्याख्या, अर्थ, टीका और टिप्पणी
किसी भी धर्मग्रन्थ की भाषा से अवगत होना उस धर्म को ठीक से समझने-जानने के लिए सबसे पहली, प्रथम अपरिहार्य आवश्यकता है । चाहे वह धर्म / धर्मग्रन्थ ईश्वरवादियों का हो, एकेश्वरवादियों का हो, बहुदेवतावाद को माननेवालों का हो, अनीश्वरवादियों का हो, या नास्तिकों का हो ।
ईश्वरवादी का तात्पर्य है उस चैतन्य शक्तिमान् सार्वत्रिक सत्ता को स्वीकार करनेवाले जो कारण से कार्य को और कार्य से कारण को, ईश्वर को और उसके कार्य को एक-दूसरे से अभिन्न मानते हैं, किन्तु व्यवहार के स्तर पर उसे आराध्य की तरह औपाधिक और औपचारिक रूप से अपना इष्ट भी मानते हैं । इसलिए भिन्न भिन्न ईश्वरवादियों के बीच मूलतः कोई मतभेद नहीं होता । वे तमाम मतभेदों को बुद्धिगत मान्यताओं के बीच की भिन्नता समझकर अपने अपने ढंग से इष्ट की उपासना / पूजा करते हैं । एकेश्वरवादियों, बहुदेवतावाद को माननेवालों, अनीश्वरवादियों, या नास्तिकों से भी उनका कोई मतभेद नहीं होता, क्योंकि उन्हें स्पष्ट है कि किसी भी मनुष्य की बुद्धि किसी भी दूसरे मनुष्य की बुद्धि से भिन्न प्रकार से कार्य करती है और इसलिए सभी बुद्धियों का जिस स्रोत से आगमन होता है, वह स्रोत इन सभी मतभेदों और विरोधाभासों से रहित है । वही स्रोत तो प्रत्येक मनुष्य की बुद्धि को परिचालित करता है और एक ही मनुष्य में भिन्न भिन्न समय पर भिन्न भिन्न प्रकार की बुद्धियाँ पैदा होती रहती हैं जिनमें से कुछ शुभ और कल्याणप्रद तो कुछ अशुभ और विनाशकारी होती हैं । साथ ही प्रत्येक मनुष्य का विवेक ही सदा उसे चेतावनी देता है कि कौन सी बुद्धि कैसी है । लेकिन बड़े से बड़ा बुद्धिमान भी प्रायः दुर्बुद्धि से ग्रस्त होकर अपना और संसार का अहित करता रहता है ।
कोई भी धर्मग्रन्थ उस धर्म-विशेष के संस्थापक की बुद्धि / विवेक के अनुसार उसके अनुभवों की तथा उसे 'सत्य का जो साक्षात्कार हुआ, जैसे हुआ',- उसकी उसके शब्दों में की गयी प्रस्तुति होता है। किसी भी दूसरे व्यक्ति के लिए उस धर्मग्रन्थ का ठीक-ठीक मर्म समझ पाना तब तक असंभव न भी होता हो, तो भी कठिन तो होता ही है जब तक कि वह धर्मग्रन्थ आदेशात्मक शब्दों में न कहा / लिखा गया हो ।
विधि -Thou shalt do.
निषेध - Though shalt not do.
और उस भाषा को जाननेवालों के लिए उस धर्मग्रन्थ की शिक्षाओं का पालन तदनुसार कम या अधिक कठिन हो सकता है । किन्तु जब उस भाषा को न जाननेवालों को उन शिक्षाओं को समझना होता है तो मूल ग्रन्थ के सर्वाधिक सही भाष्य, व्याख्या, अर्थ, टीका और टिप्पणी का सहारा लेना ज़रूरी हो जाता है । और जब स्वयं उस भाषा को जाननेवाले तक उस ग्रन्थ की शिक्षाओं के तात्पर्य का अलग अलग अर्थ ग्रहण करते हैं, तो भाष्य, व्याख्या, अर्थ, टीका और टिप्पणी के माध्यम से उस ग्रन्थ की शिक्षाओं को ठीक से समझ पाना तो और भी कठिन हो सकता है ।
किसी भी धर्मग्रन्थ में केवल "विधि -Thou shalt do." और "निषेध - Though shalt not do." ही होते हों तो भी उसे व्यवहार में लाना शायद संभव है लेकिन जीवन इतने तक ही सीमित नहीं होता । क्योंकि "विधि - Thou shalt do." और "निषेध - Though shalt not do." को जानने के बाद भी उस शिक्षा का पालन किस प्रकार से किया जाना चाहिए यह प्रश्न तो पैदा होता ही रहेगा । जिसे "विधि - Thou shalt do." के दायरे में करने तक सीमित समझा जाता है, वह भी परिस्थितियों की भिन्नता के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार से हो सकता है या उसका होना बस असंभव ही हो जाता है । इसी प्रकार जिसे "निषेध - Though shalt not do." के दायरे में न करने तक सीमित समझा जाता है, वह भी परिस्थितियों की भिन्नता के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार से हो सकता है या उसका होना बस असंभव ही हो जाता है ।
संक्षेप में : कोई भी धर्म हो या कोई भी धर्मग्रन्थ हो, उसकी शिक्षाओं का व्यवहार में पालन करना हमेशा एक ऐसी चुनौती होता है जिसका उत्तर कभी-कभी तो हमारे पास होता है पर अक्सर नहीं होता ।
जब धर्म का संस्थापक अपनी किताब छोड़कर विदा हो जाता है तो उसकी समाधि बनते बनते उस धर्म के अनेक सूत्रकार, भाष्यकार, शास्त्रकार, टीकाकार और अर्थ-प्रतिपादक प्रकट हो उठते हैं। साथ ही उठ खड़े होते हैं उसके आलोचक और स्वघोषित मर्मज्ञ । आलोचक और टिप्पणीकार तो कोई भी हो सकता है । 'प्रामाणिक प्रतिनिधि' (authorized proponent) कौन हो, इस बारे में अनिश्चय से देर-अबेर अनेक सम्प्रदाय (sect) अस्तित्व में आ जाते हैं, हर सम्प्रदाय का मठ बन जाता है और फिर धर्म राजनीति का अखाड़ा बन जाता है । इस प्रकार का धर्म मनुष्य पर, वास्तव में धर्म के नाम से अपनी पहचान बनाकर भी ठेठ अधर्म ही होता है।
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