Tuesday, 19 February 2019

राजा नृग की कथा - वाल्मीकि रामायण

वाल्मीकि रामायण,
उत्तरकाण्ड -सर्ग 53
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चत्वारो दिवसाः सौम्य कार्यं पौरजनस्य च ।
अकुर्वाणस्य सौमित्रे तन्मे मर्माणि कृन्तति ।।4
अर्थ :
सौम्य ! सुमित्राकुमार लक्ष्मण ! मुझे पुरवासियों का काम किये बिना चार दिन बीत चुके हैं, यह बात मेरे मर्मस्थल को विदीर्ण कर रही है ।
आहूयन्तां प्रकृतयः पुरोधा मन्त्रिणस्तथा ।
कार्यार्थिनश्च पुरुषाः स्त्रियो वा पुरुषर्षभ ।।5
अर्थ :
पुरुषप्रवर ! तुम प्रजा, पुरोहित और मन्त्रियों को बुलाओ । जिन पुरुषों अथवा स्त्रियों को कोई काम हो, उनको उपस्थित करो।
[टिप्पणी :
1 सुमित्रापुत्र (सौमित्र) दो हैं; -लक्ष्मण और शत्रुघ्न । अन्य संकेत है -उनमें से एक सोम का पुत्र है, दूसरा मित्र का, या दोनों ही सोम तथा साथ ही मित्र के पुत्र भी हैं । जैसे अंजनिपुत्र केसरीनन्दन तथा वायुपुत्र भी हैं ।
2. अगले ही अर्थात् 54वें सर्ग में कहा गया  है :
तानुवाच नृगो राजा सर्वाश्च प्रकृतीस्तथा ।
दुःखेन सुसमाविष्टः श्रूयतां में समाहीताः।।6
जहाँ 'प्रकृति' का तात्पर्य है प्राकृत देवता अर्थात् वैदिक देवता इंद्र, सोम, वरुण, अग्नि, यम, सूर्य, चन्द्र आदि ]
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पौरकार्याणि यो राजा न करोति दिने दिने ।
संवृते नरके घोरे पतितो नात्र संशयः।।6
श्रूयते हि पुरा राजा नृगो नाम महायशाः ।
बभूव पृथिवीपालो ब्रह्मण्यः सत्यवाक् शुचिः।।7
अर्थ :
सुना जाता है कि पहले इस पृथिवी पर नृगनाम से प्रसिद्ध एक महायशस्वी राजा राज्य करते थे । वे भूपाल, बड़े ब्राह्मणभक्त सत्यवादी तथा आचार-विचार से पवित्र थे ।
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इस सर्ग में फिर विस्तार से बतलाया गया है कि किस प्रकार प्रजा के प्रति कर्तव्य में प्रमादवश हुई उनकी त्रुटि के कारण शापवश गिरगिट की योनि में फिर उनका जन्म हुआ और यद्यपि वह समय उन्होंने अत्यंत आरामपूर्वक व्यतीत किया।
नृग का तात्पर्य है नृप । किन्तु नृग प्रजा के बीच से, प्रजातन्त्र के विधान से बना राजा है । महर्षि वाल्मीकि ने यह सर्ग शायद संकेत के लिए लिखा होगा, ऐसा लगता है ।
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अगले सर्ग 55 वें में राजा निमि की और वसिष्ठ की कथा है, जिसका विस्तार 56 वें सर्ग में भी है, जहाँ यह जानना रोचक है कि किस प्रकार वे दोनों नृपेंद्र और द्विजेन्द्र परस्पर शाप देकर सहसा विदेह हो गए और बाद में नूतन शरीरों में कैसे उनका जन्म हुआ ।
वेद में इस प्रकार की सृष्टि को 'द्व्यामुष्यायण' कहा जाता है जहाँ किसी मनुष्य में उसके लौकिक पिता के वंशानुगत अंश के साथ देवताविशेष का अंश जुड़ा होता है। जैसे कोई व्यक्ति जो किसी भी वंश में उत्पन्न हुआ हो, किन्तु किसी दूसरे वंश में उत्पन्न व्यक्ति का दत्तक पुत्र हो या किसी आचार्य / गुरु का शिष्य होने से उसके लिए भी उसके पुत्र के समान जाना जाता हो । जैसे सत्यकाम जाबाल।
कठोपनिषद में अध्याय 1, वल्ली 1, श्लोक 11 में यमराज नचिकेता के पिता के लिए 'औद्दालकि' तथा 'आरुणि' दो संबोधन देते हैं । जिसका शब्दार्थ हुआ उद्दालक तथा अरुण का पुत्र। 
आचार्य शङ्कर अपने भाष्य में कहते हैं :
"यहाँ उद्दालक को ही 'औद्दालकि' कहा है तथा अरुण का पुत्र होने से वह आरुणि है।  अथवा यह भी हो सकता है कि वह 'द्व्यामुष्यायण' हो ।"
(कठोपनिषद्  शांकरभाष्य गीताप्रेस गोरखपुर 578)       
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