Friday, 1 February 2019

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दण्डकारण्य / काकभुशुण्डि / काकुत्स्थः / काकपक्ष / विश्वामित्र
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ॐ ओमान यम / यमन / Yemen, साध / Chad, सौध / Saudi, सूदन / Sudan सूडान, अवज्ञप्ति / ईजिप्ट Egypt, Palestine / फलस्तीन, जाबालि / जाबालृ / गैब्रिएल / Gabriel...
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काकभुशुण्डि का अर्थ है भू-शुण्डि (हाथी) अर्थात् पीलु जिसके नाम से वर्तमान फलस्तीन है।
जैसे नाग का एक अर्थ सर्प-विशेष और एक अन्य अर्थ हाथी भी होता है, वैसे ही भू-शुण्डि का एक अर्थ तोप और दूसरा अर्थ हाथी भी होता है।
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काकभुशुण्डि उवाच :
ऋषि विश्वामित्र तब दोनों राजकुमारों को साथ लेकर उस दारुण वन में पहुँचे जहाँ राज दण्ड का राज्य था।
उस दारुण वन में अनेक दण्डी मुनि एवं ऋषि कठोर तप करते थे। उन्हीं में से एक किसी पर्वत की तलहटी के एक सुरम्य स्थान पर कुटी बनाकर रहते थे। उसी वन में आचार्य शुक्र का भी भव्य आश्रम था जहाँ प्रायः दैत्य और कभी-कभी दानव भी उनके दर्शनों के लिए आते थे। दैत्यों और दानवों के लिए वैसे तो आचार्य शुक्र उनकी भौतिक / सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिए मुख्यतः वैदिक विधान से यज्ञों का अनुष्ठान करते थे, किंतु कुछ दैत्यराज तथा दानवराज जैसे कि असुर-राज राजा बलि आदि कल-कल करते उस निर्झर के समीप स्थित उस आश्रम में विश्राम के लिए भी आया करते थे।
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इस सन्दर्भ में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यद्यपि वैदिक तथा पौराणिक पात्रों; - ऋषियों, देवताओं,मुनियों, तपस्वियों, प्रपिताओं (Prophets), प्रागमवरों (पैगम्बरों ?), गंधर्वों, यक्षों, असुरों, राक्षसों, यक्षों, किन्नरों, नागों, अप्सराओं तथा यहाँ तक कि पर्वतों, सागरों, सरिताओं, जलाशयों, अरण्यों, उपत्यकाओं, और मनुष्यों तथा अन्य प्राणियों के तथा भूतों (गृह, नक्षत्र, काल, स्थान तथा प्रकृतियों) के व्यक्तिगत नाम को उनके कुल के नाम से इंगित किया जाता था, जब उनकी कथा कही जाती है तो यह नाम पूरे कुल का भी द्योतक हो सकता है। 
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एक बार राजा दण्ड अपने गुरु आचार्य शुक्र (भृगुपुत्र) के दर्शन के लिए जा पहुँचे और उस समय आचार्य किसी कार्य से आश्रम से कहीं बाहर गए हुए थे। आचार्य  की अप्रतिम सुन्दर कन्या जिसका नाम अरजा था, ने राजा से कहा कि उसके पिता अभी आश्रम में नहीं हैं। उस कुमारी अति सुन्दर कन्या को देखकर राजा दण्ड काममोहित हो उठा और उससे कामयाचना करने लगा।  तब उस कन्या ने राजा से कहा :
"हे राजन् ! तुम्हारी बुद्धि मारी गयी है। यदि तुम मुझसे विवाह भी करना चाहो तो मेरे पिता से बात कर उनकी अनुमति मिलने पर ही मुझसे विवाह कर सकते हो, किंतु इस प्रकार मुझसे कामयाचना करना सर्वथा पाप है।"  राजा तो काम के आवेश से अंधा हो रहा था। उसने भार्गव-कन्या पर बलपूर्वक अनाचार किया और वहाँ से चला गया।
जब ऋषि भृगु के पुत्र आचार्य शुक्र लौटकर आए तो अपनी कन्या को रोता हुआ देखा कर उससे सारा वृत्तांत सुना और उस स्थान को शाप दिया।
तब ऋषि भार्गव ने कहा कि अब समस्त कुल-सहित राजा दण्ड का सम्पूर्ण विनाश हो जाएगा।  अपने शिष्यों से उन्होंने कहा कि वे इस राज्य की सीमा के अंत में जो देश हैं वहां जाकर निवास करें।
अपनी पुत्री से उन्होंने कहा :
स तथोक्त्वा मुनिजनमरजामिदमब्रवीत ।
इहैव वस दुर्मेधे आश्रमे सुसमाहिता ।। 13
इदं योजनपर्यन्तं सरः सुरुचिरप्रभम् ।
अरजे विज्वरा भुङ्क्ष्व कालश्चात्र प्रतीक्ष्यताम्।। 14
(वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 81)
हे खोटी (अशुभ) बुद्धि वाली इस राज्य पर निरंतर सात दिनों सात दिनों तक धूल की वर्षा होगी लेकिन तुम इस सुन्दर सरोवर के समीप रहती हुई परमात्मा का ध्यान करते हुए उचित समय की प्रतीक्षा करो, जब तुम पाप से निवृत्त होकर पुनः पवित्र हो जाओगी।
[हमारी खोटी बुद्धि यह प्रश्न उठा सकती है कि इस पूरे प्रकरण में इस बाला का क्या अपराध था ? इसमें बस यही कहा जा सकता है कि किसी भी अशुभ कर्म से ही जीवन में मनुष्य को उसका अशुभ फल समय आने पर प्राप्त होता है और अशुभ कर्म की प्रेरणा ही खोटी बुद्धि है।]   
इस प्रकार दण्डकारण्य का वह सुरम्य स्थान एक दारुण वन में परिणत हो गया।
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काकभुशुण्डि ने कहा :
ऋषि भार्गव के उस आश्रम में इससे पहले व्याघ्र और हिरन उस निर्झर पर एक साथ निर्भय होकर पानी पीते थे। प्रथम बार मैं जब उस आश्रम के पास पहुँचा तो मुझे प्यास लग रही थी।  और मैंने निर्झर के समीप ऋषि जाबालि की कुटिया देखी।
तब मुझे काकभुशुण्डि नाम की प्राप्ति उनसे ही हुई थी।
मैं तब काक (कौआ) नहीं बल्कि विशाल गजराज था और अपने दल के साथ उस क्षेत्र में विचरण करता था।
वैसे तो मैं नितांत शाकाहारी था किंतु अपने बल के मद में कितने ही विशालकाय वृक्षों को उखाड़कर पैरों तले रौंद दिया करता था। अनेक जीव मेरे पैरों तले कुचलकर मर जाते थे लेकिन मुझे अपने मद और गर्व में डूबे रहने से इसका आभास तक नहीं होता था। तब एक दिन मेरी प्रिय हथिनी ने मुझसे निवेदन किया कि आहार के लिए जीवों की ह्त्या करना उतना बड़ा पाप नहीं है, जितना कि बल के घमंड में उन्हें मार डालना।  तब मैंने उसकी बात को अनसुना कर दिया था।
एक दिन ऐसे ही मेरे पैरों तले कुचले गए एक खरगोश को कुछ कौए अपना आहार बना रहे थे तो मुझे लगा कि हाँ, मेरी प्रिया ठीक कहती थी। किंतु तभी उन कौओं में से एक बोला :
हे गजराज ! हमने तो पूर्व जन्म में अपनी दुर्बुद्धि से अशुभ कर्म करने के फलस्वरूप इस काक-योनि में जन्म लिया है, और इसे सुख-दुःखपूर्वक भोगकर हम उस अशुभ कर्म (के फल) से निवृत्त हो जाएँगे किन्तु तुम्हारा क्या होगा, क्या तुम इस बारे में कभी विचार करते हो ?
वहाँ से चलकर जब मैं ऋषि जाबालि की कुटिया के समीप आया तो देखा कि थोड़ी दूर पर स्थित एक गुफा में एक सिंह मुँह खोले आराम कर रहा था, और उसके समीप एक हिरन का बच्चा उससे खेल रहा था।  मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ।
 "अरे मृगछौने!"
-मैंने उससे पूछा :
"क्या तुम्हें नहीं पता कि तुम्हारे और दूसरे मृगों के लिए भी यह सिंह साक्षात काल है क्योंकि तुम इसके आहार हो !"
तब वह बोला :
"हे तात ! मुझसे मेरी माता ने कहा था कि सोए हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं नहीं चला आता।
(न ही सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः)
वैसे तो यह सत्य है, किन्तु चूंकि इस ऋषि ने इस क्षेत्र में रहनेवाले सभी प्राणियों को अभयदान दिया है, इसलिए इस ऋषि आश्रम के समीप कई योजन तक सभी प्राणियों का परस्पर वैर भाव अनायास इतना शांत हो जाता है कि वे अपनी भूख-प्यास तक भूल जाते हैं और अपने आहार के लिए भी दूसरे प्राणियों की हिंसा नहीं करते। और इसलिए मुझे सिंह से भय नहीं लगता।"
तभी मैंने देखा कि एक हरिणी उस गुफा में आई जो उस मृगछौने की माता ही थी।  तब वे दोनों वहां से चले गए।  इस बीच सिंह की निद्रा पूर्ण हो चुकी थी और वह हुंकार भरता हुआ गुफा से बाहर चला आया।
मुझे लगा, क्या वह मुझ पर आक्रमण कर मुझे अपना आहार बना लेगा ?
किन्तु जब उसने मृगछौने को भी नहीं मारा तो क्या वह ऐसा कर सकता है?
और मेरे सोचते-सोचते वह सिंह मेरे पास से गुज़रकर निर्झर के जल से प्यास बुझाने लगा।  उसने मुझ पर  दृष्टि तक नहीं डाली।
तब मुझे साहस हुआ और मैं ही उसके समीप जा पहुंचा।
मैंने उससे पूछा :
"हे तात ! क्या तुम्हें नहीं पता कि मृग और हाथी आदि तुम्हारा स्वाभाविक आहार हैं ?"
"पता तो था किंतु ऋषि के सान्निध्य में रहते हुए मुझे एक दिन अचानक जाति-स्मरण हुआ कि अपने पूर्व जन्म में मैं एक राजा था और पशुमांस खाने की लालसा से शिकार करने का पाप अर्थात् अशुभ कर्म किया करता था जिसके फलस्वरूप मुझे इस योनि में जन्म लेना पड़ा। तब मुझे स्पष्ट हुआ कि हिंसा किए बिना निराहार रहते हुए अंततः समय आने पर इस प्रकार 'तप' के अनुष्ठान से इस अशुभ देह को त्याग देना कठिन तो है किन्तु श्रेयस्कर भी है।  और तब से मैं केवल जल पीकर जीवित हूँ।"
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ऋषि विश्वामित्र ने यह कथा दोनों राजपुत्रों (श्रीराम तथा श्रीलक्ष्मण) को सुनाते हुए कहा :
"हे पुत्रों ! निरपराध का वध करना पाप है और वन में विचरते प्राणियों का अकारण वध भी ऐसा ही है किन्तु फिर भी इस सिंह को ही या किसी अन्य प्राणी को ही देखो जिसे किसी अशुभ कर्म के फल से यह विशेष शरीर प्राप्त हुआ होता है और इससे उसकी मुक्ति का उपाय भी विधाता ने पहले से ही किया होता है। चाहे वह मृत्यु किसी भी प्रकार की क्यों न हो। इसलिए विधाता के विधान को परिवर्तित कर पाना किसी के लिए संभव नहीं।
अब देखो ! तुम्हारा जन्म काकुत्स्थवंश में हुआ और तुम्हें काकपक्ष से मंडित होना पड़ा यह विधाता का ही लिखा है। विधाता ने ही प्रसन्न होकर गजराज को उपदेश देनेवाले उस कौए (काक) को यह वर दिया था कि त्रेतायुग में जब भगवान् श्रीराम अवतार लेंगे तो उसके पंखों की तरह अपना केश-विन्यास करेंगे।"
तब दोनों राजकुमारों को स्पष्ट हुआ कि उनके केश-विन्यास को काकपक्ष क्यों कहा जाता है।
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(केवल मनोरंजन के ध्येय से यह पोस्ट लिखी है, आशा है इससे किसी की भावना को ठेस नहीं लगेगी। ) 
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