स्मृति, कल्पना और तादात्म्य
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क्या स्मृति एक समस्या है?
स्मृति को तीन रूपों में समझा जा सकता है :
शरीर की प्रकृति-प्रदत्त स्मृति, इन्द्रिय-अनुभवों की स्मृति तथा अनुभवों के मानसिक आकलन से बननेवाली काल्पनिक स्मृति । मनुष्य में इनके साथ एक और विशेष प्रकार की स्मृति पाई जाती है जिसका प्रारंभ अनुभवों तथा स्थितियों के शब्दीकरण से होता है। प्रकृति-प्रदत्त स्मृति वह जैव-प्रक्रिया है जिसकी जानकारी मस्तिष्क में सुप्त रूप से संचित होती है और शरीर की आवश्यकता के अनुसार समय-समय पर सक्रिय होती रहती है। जैसे भूख-प्यास की स्मृति, आत्म-रक्षा की प्रवृत्ति, भय और भय से छुटकारा / राहत होने की स्मृति । इस प्रकार की स्मृति वास्तव में प्रकृति का वरदान ही है, न कि समस्या।
इन्द्रिय-अनुभवों की स्मृति जीवन के विकास और वृद्धि में सहायक होती है । और यह भी प्रायः सभी प्राणियों में प्रकृति से ही होती है । इन्हीं अनुभवों से शिशु सीखता है कि कोई वस्तु छूने, गंध, स्वाद, रंग-रूप और आकृति तथा स्पर्श में किसी दूसरी वस्तु से किस प्रकार भिन्न लक्षण की हो सकती है । और यह स्मृति अनुभव की स्मृति के रूप में बिना उसका नामकरण किए मस्तिष्क में संचित हो जाती है । हाँ, बाद में विभिन्न ध्वनियों और शब्दों से इन्हीं वस्तुओं के लिए कोई निश्चित संकेत तय कर लिए जाते हैं जो उन वस्तुओं की शाब्दिक स्मृति का आधार होते हैं । ऐसा कहा जा सकता है कि कल्पना-शक्ति का प्रारंभ और विकास इन्द्रिय-अनुभवों के साथ साथ ही होने लगता है । कल्पना-शक्ति का और अधिक प्रयोग और विकास तो शब्दीकरण के अस्तित्व में आने के बाद ही होता है । कल्पना-शक्ति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रयोग और उपयोग (सदुपयोग या दुरुपयोग भी) तो तभी हो जाता है जब 'समय'( नामक सत्ता) की कल्पना-जनित मान्यता किसी अमूर्त तत्व की तरह अनायास स्वीकार हो जाती है । क्योंकि मूलतः तो 'समय' नामक यह वस्तु प्रत्यक्ष इन्द्रिय-अनुभव न होकर वैचारिक निष्कर्ष मात्र हो सकती है । इस प्रकार इस निष्कर्ष का आधार प्रत्यक्ष अनुभव न होकर कल्पना ही तो होता है । 'स्थान' जिस प्रकार प्रत्यक्षतः इन्द्रिय-अनुभव की तरह जाना जाता है 'समय' को उस प्रकार प्रत्यक्षतः नहीं जाना जाता। इसीलिए विभिन्न इन्द्रियगम्य वस्तुओं के 'विस्तार' की तरह 'स्थान' के 'विस्तार' के बारे में यद्यपि कोई अनिश्चय नहीं होता, लेकिन 'समय' नामक कल्पना का विस्तार कितना है यह समझ पाना कठिन होता है । फिर भी 'समय' की एक कामचलाऊ याददाश्त मस्तिष्क बना ही लेता है और यह 'तुलनात्मक' होती है अर्थात् 'समय' के दो अन्तरालों की परस्पर तुलना (के अनुभव) से । विचित्र बात यह है कि 'समय' की यह अनुमानजनित कल्पना अनुभवों के क्रम में अनायास कार्य करने लगती है । और निश्चित ही इस प्रकार से प्राप्त / सीखे गए अनुमान यद्यपि किसी तरह के 'वैचारिक-निष्कर्ष' कदापि नहीं होते, फिर भी उन्हें व्यावहारिक रूप से बार-बार प्रयोग किए जाने से वे सत्य प्रतीत होने लगते हैं ।
यहाँ तक भी 'समय' समस्या से अधिक उपयोग की एक वस्तु ही अधिक होता है, -भले ही मूर्त हो या अमूर्त, साकार और मापनीय (measurable) हो या निराकार और अमापनीय (immeasurable) हो ।
इससे यह तथ्य तो स्पष्ट है कि व्यावहारिक रूप से 'समय' में 'विस्तार' होता है, और जैसे स्थान का विस्तार 'व्यापक' होता है वैसे ही एक 'व्यापकता' 'समय' के विस्तार पर भी आरोपित की जा सकती है । इसका यह मतलब नहीं, कि ऐसी कोई 'व्यापकता' 'समय' में वास्तव में होती ही हो । क्योंकि सर्वाधिक मुश्किल है इसे 'वैज्ञानिक' या गणितीय आधार पर सिद्ध करना, और मुझे नहीं लगता कि विज्ञान या गणित कभी इसे सिद्ध कर सकेगा।
समस्या यहीं से शुरू होती है। वह है वैचारिक-स्मृति जिसका उपयोग विज्ञान और गणित में असंदिग्ध रूप से है ही, जिससे इंकार नहीं । 'विचार' के ही आधार पर विज्ञान और गणित की मूलभूत संकल्पनाएँ जन्म लेती हैं और उन संकल्पनाओं के आधार पर ही व्यवहार में सत्य प्रतीत होनेवाले 'नियम' अकाट्य की तरह स्वीकृत कर लिए जाते हैं । इस तथ्य पर ध्यान देना हमें असुविधाजनक लगेगा कि 'शून्य' (0) और 'एक' (1) संख्या की तरह केवल मान्यता है जिसे हमने अभ्यासवश सत्य की तरह स्वीकार कर लिया है । कोई वस्तु 'शून्य' (0) है, तो इसका अभिप्राय यह भी हो सकता है कि वह वस्तु अविद्यमान है, 'शून्य' (0) उस के अभाव का सूचक भी हो सकता है । अब जब हम 1, 2, 3 ... आदि कहते हैं, तो यहाँ संख्या किसी वस्तु का गुणविशेष भी हो सकता है और एक जैसी एक अथवा एकाधिक वस्तुओं का सूचक भी हो सकता है । इसलिए व्याकरण की दृष्टि से 'संख्या' गुणवाचक विशेषण हुआ न कि आत्यंतिक सत्य (intrinsic fact) । क्योंकि आत्यंतिक सत्य तो वस्तु (विशेष्य) है, और वह विशेषण से स्वतंत्र है।
किन्तु जहाँ से और जहाँ तक बुद्धि का यत्न हो सकता है, ऐसा भ्रम बुद्धि में हो जाता है। इसलिए 'समय' (के विस्तार) की व्यापकता (या व्यापकता के विस्तार) को तथाकथित 'वैज्ञानिक' या / और गणितीय आधार पर 'मापा' भी जा सकता है, किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि 'समय' एक मापनीय राशि / measurable quantity है।
इसीलिए 'स्मृति' समस्या हो जाती है । 'विचार' 'अतीत' को परिभाषित करता है, पुनरावृत्तिपरक घटनाओं में कल्पित क्रम (pattern) स्थापित कर उन्हें सत्यता दी जाती है, 'स्वयं' का भी इसी प्रकार वास्तविक स्वयं से भिन्न प्रकार से, भिन्न रूप में आकलन किया जाता है और 'अतीत' से 'स्वयं' का तादात्म्य कर लिया जाता है । इस पूरे क्रम में यदि कुछ, कोई वस्तु अकाट्य सत्य अर्थात् 'अविकारी' / immutable है; - तो वह एकमात्र वस्तु है : 'स्वयं' । निपट स्वयं जो विशेष्य है न कि विशेषण । शायद इसीलिए 'स्वयं' अनिर्वचनीय है, -वर्णन से परे ।
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क्या स्मृति एक समस्या है?
स्मृति को तीन रूपों में समझा जा सकता है :
शरीर की प्रकृति-प्रदत्त स्मृति, इन्द्रिय-अनुभवों की स्मृति तथा अनुभवों के मानसिक आकलन से बननेवाली काल्पनिक स्मृति । मनुष्य में इनके साथ एक और विशेष प्रकार की स्मृति पाई जाती है जिसका प्रारंभ अनुभवों तथा स्थितियों के शब्दीकरण से होता है। प्रकृति-प्रदत्त स्मृति वह जैव-प्रक्रिया है जिसकी जानकारी मस्तिष्क में सुप्त रूप से संचित होती है और शरीर की आवश्यकता के अनुसार समय-समय पर सक्रिय होती रहती है। जैसे भूख-प्यास की स्मृति, आत्म-रक्षा की प्रवृत्ति, भय और भय से छुटकारा / राहत होने की स्मृति । इस प्रकार की स्मृति वास्तव में प्रकृति का वरदान ही है, न कि समस्या।
इन्द्रिय-अनुभवों की स्मृति जीवन के विकास और वृद्धि में सहायक होती है । और यह भी प्रायः सभी प्राणियों में प्रकृति से ही होती है । इन्हीं अनुभवों से शिशु सीखता है कि कोई वस्तु छूने, गंध, स्वाद, रंग-रूप और आकृति तथा स्पर्श में किसी दूसरी वस्तु से किस प्रकार भिन्न लक्षण की हो सकती है । और यह स्मृति अनुभव की स्मृति के रूप में बिना उसका नामकरण किए मस्तिष्क में संचित हो जाती है । हाँ, बाद में विभिन्न ध्वनियों और शब्दों से इन्हीं वस्तुओं के लिए कोई निश्चित संकेत तय कर लिए जाते हैं जो उन वस्तुओं की शाब्दिक स्मृति का आधार होते हैं । ऐसा कहा जा सकता है कि कल्पना-शक्ति का प्रारंभ और विकास इन्द्रिय-अनुभवों के साथ साथ ही होने लगता है । कल्पना-शक्ति का और अधिक प्रयोग और विकास तो शब्दीकरण के अस्तित्व में आने के बाद ही होता है । कल्पना-शक्ति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रयोग और उपयोग (सदुपयोग या दुरुपयोग भी) तो तभी हो जाता है जब 'समय'( नामक सत्ता) की कल्पना-जनित मान्यता किसी अमूर्त तत्व की तरह अनायास स्वीकार हो जाती है । क्योंकि मूलतः तो 'समय' नामक यह वस्तु प्रत्यक्ष इन्द्रिय-अनुभव न होकर वैचारिक निष्कर्ष मात्र हो सकती है । इस प्रकार इस निष्कर्ष का आधार प्रत्यक्ष अनुभव न होकर कल्पना ही तो होता है । 'स्थान' जिस प्रकार प्रत्यक्षतः इन्द्रिय-अनुभव की तरह जाना जाता है 'समय' को उस प्रकार प्रत्यक्षतः नहीं जाना जाता। इसीलिए विभिन्न इन्द्रियगम्य वस्तुओं के 'विस्तार' की तरह 'स्थान' के 'विस्तार' के बारे में यद्यपि कोई अनिश्चय नहीं होता, लेकिन 'समय' नामक कल्पना का विस्तार कितना है यह समझ पाना कठिन होता है । फिर भी 'समय' की एक कामचलाऊ याददाश्त मस्तिष्क बना ही लेता है और यह 'तुलनात्मक' होती है अर्थात् 'समय' के दो अन्तरालों की परस्पर तुलना (के अनुभव) से । विचित्र बात यह है कि 'समय' की यह अनुमानजनित कल्पना अनुभवों के क्रम में अनायास कार्य करने लगती है । और निश्चित ही इस प्रकार से प्राप्त / सीखे गए अनुमान यद्यपि किसी तरह के 'वैचारिक-निष्कर्ष' कदापि नहीं होते, फिर भी उन्हें व्यावहारिक रूप से बार-बार प्रयोग किए जाने से वे सत्य प्रतीत होने लगते हैं ।
यहाँ तक भी 'समय' समस्या से अधिक उपयोग की एक वस्तु ही अधिक होता है, -भले ही मूर्त हो या अमूर्त, साकार और मापनीय (measurable) हो या निराकार और अमापनीय (immeasurable) हो ।
इससे यह तथ्य तो स्पष्ट है कि व्यावहारिक रूप से 'समय' में 'विस्तार' होता है, और जैसे स्थान का विस्तार 'व्यापक' होता है वैसे ही एक 'व्यापकता' 'समय' के विस्तार पर भी आरोपित की जा सकती है । इसका यह मतलब नहीं, कि ऐसी कोई 'व्यापकता' 'समय' में वास्तव में होती ही हो । क्योंकि सर्वाधिक मुश्किल है इसे 'वैज्ञानिक' या गणितीय आधार पर सिद्ध करना, और मुझे नहीं लगता कि विज्ञान या गणित कभी इसे सिद्ध कर सकेगा।
समस्या यहीं से शुरू होती है। वह है वैचारिक-स्मृति जिसका उपयोग विज्ञान और गणित में असंदिग्ध रूप से है ही, जिससे इंकार नहीं । 'विचार' के ही आधार पर विज्ञान और गणित की मूलभूत संकल्पनाएँ जन्म लेती हैं और उन संकल्पनाओं के आधार पर ही व्यवहार में सत्य प्रतीत होनेवाले 'नियम' अकाट्य की तरह स्वीकृत कर लिए जाते हैं । इस तथ्य पर ध्यान देना हमें असुविधाजनक लगेगा कि 'शून्य' (0) और 'एक' (1) संख्या की तरह केवल मान्यता है जिसे हमने अभ्यासवश सत्य की तरह स्वीकार कर लिया है । कोई वस्तु 'शून्य' (0) है, तो इसका अभिप्राय यह भी हो सकता है कि वह वस्तु अविद्यमान है, 'शून्य' (0) उस के अभाव का सूचक भी हो सकता है । अब जब हम 1, 2, 3 ... आदि कहते हैं, तो यहाँ संख्या किसी वस्तु का गुणविशेष भी हो सकता है और एक जैसी एक अथवा एकाधिक वस्तुओं का सूचक भी हो सकता है । इसलिए व्याकरण की दृष्टि से 'संख्या' गुणवाचक विशेषण हुआ न कि आत्यंतिक सत्य (intrinsic fact) । क्योंकि आत्यंतिक सत्य तो वस्तु (विशेष्य) है, और वह विशेषण से स्वतंत्र है।
किन्तु जहाँ से और जहाँ तक बुद्धि का यत्न हो सकता है, ऐसा भ्रम बुद्धि में हो जाता है। इसलिए 'समय' (के विस्तार) की व्यापकता (या व्यापकता के विस्तार) को तथाकथित 'वैज्ञानिक' या / और गणितीय आधार पर 'मापा' भी जा सकता है, किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि 'समय' एक मापनीय राशि / measurable quantity है।
इसीलिए 'स्मृति' समस्या हो जाती है । 'विचार' 'अतीत' को परिभाषित करता है, पुनरावृत्तिपरक घटनाओं में कल्पित क्रम (pattern) स्थापित कर उन्हें सत्यता दी जाती है, 'स्वयं' का भी इसी प्रकार वास्तविक स्वयं से भिन्न प्रकार से, भिन्न रूप में आकलन किया जाता है और 'अतीत' से 'स्वयं' का तादात्म्य कर लिया जाता है । इस पूरे क्रम में यदि कुछ, कोई वस्तु अकाट्य सत्य अर्थात् 'अविकारी' / immutable है; - तो वह एकमात्र वस्तु है : 'स्वयं' । निपट स्वयं जो विशेष्य है न कि विशेषण । शायद इसीलिए 'स्वयं' अनिर्वचनीय है, -वर्णन से परे ।
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