Friday, 1 February 2019

राजनीति और धर्म का प्रश्न

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे
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सनातन धर्म की दृष्टि में धर्म का स्थान व्यक्तिगत तथा सामाजिक दो स्तरों पर समझा जा सकता है।
सनातन धर्म की दृष्टि में राजनीति का स्थान व्यवस्था के सुचारु और सुस्थिर संचालन तक मर्यादित है।
इसलिए राजनीति व्यवस्था का प्रश्न है और इससे धर्म का संबंध वहीँ तक है जहाँ तक राजनीति अधर्म से प्रेरित न हो और अधर्म को प्रेरित न करे।
राजनीति और धर्म इस प्रकार धर्मक्षेत्र तथा कर्मक्षेत्र के दो ऐसे विभाग हो जाते हैं जिनमें सामंजस्य स्थापित होना समाज / व्यवस्था के सुचारु रूप से संचालन के लिए बहुत आवश्यक है।
धर्म में विकार / विकृति आने से अधर्म (उत्पन्न) होता है। राजनीति में विकार आने से समाज / व्यवस्था में अंतर्कलह, असंतुलन और अशांति पैदा होते हैं। भौगोलिक आधार पर भिन्न-भिन्न समाज धरती के अलग अलग स्थानों पर रहते हैं और उनकी मूल संस्कृति, भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है। भाषाएँ, सामाजिक रीति-रिवाज भी इसी प्रकार भिन्न भिन्न होते हैं और किसी सीमा तक परस्पर विपरीत (किंतु आवश्यक रूप से शत्रुतापूर्ण भी होते हों, यह ज़रूरी नहीं) भी हो सकते हैं। उनकी भाषाएँ, सामाजिक रीति-रिवाज, मान्यताएँ, परंपरा और रूढ़ियाँ अलग-अलग हो सकती हैं और इसकी भी अपनी उपयोगिता और आवश्यकता तो है ही।
अब प्रश्न आता है राजनीति का।
राजनीति के भी पुनः दो पक्ष हैं :
पहला है व्यवस्था और शासन के सुचारु संचालन के लिए आवश्यक नीति (ethics) तथा नीति-निर्देशक सिद्धान्त (policy-guidelines)।
दूसरा पक्ष है भय और लोभ की मानसिकता से ग्रस्त किसी वर्ग-विशेष  को महत्वपूर्ण मानकर उस पर आधारित / केंद्रित सत्ता का वर्चस्व।
भय और लोभ; -व्यक्तिगत, और समूह तथा समूहकेंद्रित समुदाय के परिप्रेक्ष्य में होते हैं,  और मूलतः समाज को व्यवस्था के संचालन के लिए आवश्यक वर्गों में विभक्त न करते हुए ऐसी आशंकाओं तथा लालसाओं से प्रेरित होते हैं जो पूरी तरह काल्पनिक संभावनामात्र होते हैं।
भय और लोभ से रहित राजनीति ही वस्तुतः समाज के समग्र विकास की राजनीति हो सकती है।
यह प्रश्न तब समस्या बन जाता है जब भय, लोभ और शक्ति / सत्ता की लालसा से ग्रस्त कोई समुदाय अपनी परंपरा, रूढ़ि को धर्म कहकर दूसरे समुदायों को बलपूर्वक अपना गुलाम बनाने की प्रवृत्ति से प्रेरित होता है। इसके लिए वह न सिर्फ प्रत्यक्ष हिंसा के भी  आवश्यक और युक्तिसंगत और 'धर्मसंगत' होने का भी दावा कर सकता है बल्कि इसे अपना धार्मिक अधिकार / धार्मिक स्वतन्त्रता तक घोषित कर सकता है। दूसरी ओर कोई समुदाय चतुराईपूर्ण युक्तियों से भी समाज / लोगों का कल्याण करने के बहाने से अपनी मान्यताओं (-जिन्हें वह आस्था, विश्वास का नाम देता है), को दूसरे समुदायों पर थोप सकता है और इस प्रकार वह दूसरे समुदायों के रीति-रिवाज, परंपरा और रूढ़ि तथा भाषा (संक्षेप में 'संस्कृति') को भी प्रभावित और विरूपित कर सकता है लेकिन इससे अंततः न सिर्फ दूसरों का बल्कि उसका अपना भी अहित तथा विनाश ही होता है इस ओर भय तथा लोभ, आशा और लालसा से ग्रस्त होने से वह ध्यान देने में असमर्थ होता है। अपने द्वारा तय किए गए 'धर्म' को महिमामंडित कर वह न केवल समाज को अनेक स्तरों पर विखंडित करता है बल्कि दूसरे समुदायों के दृष्टिकोण को सुनना-समझना तक पाप समझता है। इस प्रकार अपनी मान्यताओं में बँधा हुआ ऐसा कोई भी समुदाय स्वयं ही सतत विभाजित होता हुआ अनेक खण्डों में टूटता रहता है और अवसाद, उत्तेजना, अशांति तथा निराशा में निरंतर संघर्षरत रहकर समाप्त हो जाता है, और अपने पीछे मनुष्य के विनाश और दुर्दशा का, अपनी नृशंसता, विक्षिप्तता तथा मूढ़ता की वीभत्स शृङ्खला छोड़ जाता है। यह इतिहास पुनः पुनः अपने बस को दोहराता रहता है।
जब तक राजनीति धर्म से प्रेरित न होकर धर्म-निरपेक्षता, या सर्वधर्म-समत्व के नाम पर धर्म की अवहेलना, उपहास तथा अपमान तथा अधर्म का महिमामंडन करती रहती है, यह दुष्चक्र समाप्त नहीं हो सकता।  
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