वेद और वेदधर्म
गीता अध्याय 15, श्लोक 15 में वर्णन है :
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।।
--
अर्थ :
'मैं' (आत्मा / अहम्) नामक सत्ता जो सभी भूतों (जीवमात्र) के हृदय में सदैव विद्यमान है, उसी 'मैं' (अहम्) नामक सत्ता से ही उन सभी भूतमात्र में स्मृति तथा ज्ञान, और उनका (स्मृति तथा ज्ञान का) लोप होता है । जिसे वेदान्तशास्त्र के द्वारा 'मैं' (अहम्) कहा जाता है, और जो कुछ भी जान लिए जाने-योग्य है वेदों के माध्यम से जिसे जाना जाता है वह जानना तथा जाननेवाला भी यही 'मैं' (आत्मा / अहम्) ही है ।
--
सामान्य अर्थ में 'मैं' -सर्वनाम (pronoun) शब्द से जिसे इंगित किया जाता है, -और जिसके लिए संस्कृत में 'अहम्' (जिसका cognate / सज्ञाति I AM है) का प्रयोग किया जाता है, वह 'अहम्' मूलतः 'अस्मद्' प्रत्यय का उत्तम पुरुष एकवचन है, और तीनों लिंगों में उसका वही समान तात्पर्य है, जिसे निरपेक्ष और निरपवाद रूप से सभी के द्वारा अपने-आपको इंगित करने के लिए किया जाता है ।
'अहम्' के इस तत्व को, अर्थात् इसकी सनातन और निरंतर अबाध सत्ता (अस्तित्व) को, तर्क या अनुभव से असत्य नहीं सिद्ध किया जा सकता । क्योंकि यह सदा प्रत्यक्ष और अपरोक्ष है। फिर भी इसके गूढ़ तात्पर्य से प्रायः हर कोई अनभिज्ञ होता है और इसके व्यवहारपरक उपयोग तक ही सीमित इसकी मान्यता होती है।
हर कोई अनायास अपने अर्थात् 'मैं' के अस्तित्व को जानता है और उसकी यह जानकारी सदा उसके शरीर, विचार, संस्कार, और विचारजनित मान्यताओं से इस 'मैं' को निरंतर परिभाषित करते हुए इस 'मैं' के बारे में होती है। इस प्रकार यह 'मैं' किसी दूसरे के परिप्रेक्ष्य में ही होता है, जबकि स्वयं अपना अस्तित्व इस 'मैं' के अभाव में भी सुनिश्चित और अकाट्य तथ्य है ।
वेदान्त उपरोक्त रीति से 'अहम्' के इस तत्व की विवेचना (विवेकपूर्वक समीक्षा) करता है और स्पष्ट करता है कि यह तत्व 'मैं' व्यावहारिक रूप से भी अवश्य ही उपयोगी है किन्तु उसका वास्तविक तात्पर्य कोई नहीं जानता, क्योंकि कोई ऐसा अन्य है ही नहीं जो इस 'अहम्' / आत्मा से भिन्न और स्वतंत्र होता हो । 'मैं' शब्द का वाच्यार्थ है : 'I', 'मैं' शब्द का लक्ष्यार्थ है : वे सारे लक्षण जिससे इसकी 'पहचान' की जाती है, किन्तु मैं का वास्तविक तात्पर्य उन समस्त लक्षणों के जोड़ से भी नितान्त भिन्न प्रकार की सत्यता है।
'मैं' शब्द से जब अपने शरीर, स्वभाव, संपत्ति, चरित्र, गुणों आदि का वर्णन किया जाता है तो ये समस्त लक्षण / 'उपाधियाँ' उस अहम्-सत्ता के बारे में कदापि कुछ भी नहीं कहती जिस सत्य के ये समस्त बाह्य लक्षण मात्र हैं।
अहम्-सत्ता अविकारी (immutable), अटल (immovable), अचल (steady), अ-क्षर (indestructible) सत्य है, जबकि लक्षण / उपाधियाँ सतत विकारशील (changing), अस्थायी (temporary), चलायमान (fleeting) और नाशवान (perishing) प्रकृति (nature) के हैं।
इस प्रकार मनुष्य की बुद्धि में 'मैं' / अहम्-सत्ता के आभासी और यथार्थ स्वरूप के बारे में अस्पष्टता पैदा हो जाती है, और बुद्धि उस आभासी 'मैं' को अपना आधार मान लेती है जो निरंतर बनता-मिटता रहता है। इसकी ओर उसका ध्यान तब तक नहीं जा पाता, जब तक कि बुद्धि में इस सारे जगत्प्रपंच के अर्थ और प्रयोजन, ज़रूरत और महत्त्व के बारे में प्रश्न नहीं उठता । ऐसे प्रश्न के उठने का एक संभव कारण यह हो सकता है कि उसे यह सारा अस्तित्व दुःखप्रद लगने लगे, जिसमें यद्यपि छोटे-छोटे सुखद प्रतीत होनेवाले अनुभव भी होते हैं किन्तु अंततः सब निरर्थक और समाप्त हो जाता है, या क्या इस निरंतर विकारशील आभासी अस्तित्व का कोई स्थिर सुनिश्चित नित्य आधार अवश्य है, -ऐसी कल्पना बुद्धि में उठे और वह उसे जानने की दिशा में चल पड़े।
इस प्रकार वेदान्तशास्त्र जो बहुत कठिन और उबाऊ भी प्रतीत होता है, व्यवहार में उस दिशा में आगे जाने के तरीके के विषय में, संक्षेप में यह कहता है कि 'वेद' और 'वेद को जानना' / 'वेद को जाननेवाला' एक और एकमेव वास्तविकता (identical and unique Reality) हैं। दूसरे ढंग से कहें तो वेद को जाननेवाला स्वयं ही ज्ञानस्वरूप होता है जहाँ ज्ञाता और ज्ञेय परस्पर अभिन्न और अनन्य (अभेद) होते हैं। जहाँ जाना गया विषय और उसे जाननेवाला विषयी केवल बोधमात्र होते हैं । यह बोध कोई अनुभव विशेष नहीं है क्योंकि अनुभवमात्र, अनुभव नामक घटना और उसे जाननेवाला इस प्रकार के दो अवयवों का जोड़ होता है और अनुभव का ज्ञान केवल एक (शाब्दिक या भावनात्मक) मानसिक चित्र।
--
प्रसंगवश यह देखना रोचक होगा कि संस्कृत 'विद्' धातु के चार अर्थ हो सकते हैं :
जानना, होना, पाना तथा कहना।
'विद्' - वेत्ति - जानता है,
'विद्' - विद्यते - है, विद्यमान है
'विद्' - विन्दति / विन्दते, - प्राप्त करता है,
'विद्' - वेदयते - आवेदयते / निवेदयते - कहा जाता है।
इसी 'विद्' के cognate / सज्ञाति हैं vide (Latin) - देखिए, video.
'विद्' - विन्दति / विन्दते का जर्मन cognate / सज्ञाति है 'finden' जो अंग्रेज़ी में 'find' का रूप लेता है।
इसी प्रकार 'विद्' - vide से बनता है 'fide' 'confide', confident, Fidel, feudal, faith,
अरबी / फ़ारसी भाषा में फ़िदा / फिदायीन इसी के अन्य रूप हैं।
--
1986 में एक अंग्रेज़ी पुस्तक :
"The Fears and the Phobia"
पढ़ी थी .
भीः - भीरु से 'fear' की तथा 'भाव-भीत' से 'Phobia' की समानता देखि जा सकती है ।
उपरोक्त पुस्तक "The Fears and the Phobia" में भिन्न भिन्न प्रकार के जिन भयों / डरों से कोई ग्रस्त होता है उनका नाम तथा लक्षण तो बतलाये गए थे लेकिन इस ओर कोई संकेत तक नहीं था कि 'डर' स्वरूपतः क्या है।
याद आता है बचपन में मुझे अँधेरे का डर लगता था। तब पिताजी टॉर्च लेकर मेरे साथ उस जगह जाते थे और उस जगह पर रौशनी डालकर मुझसे पूछते थे :
"तुम्हें किसका डर लगता है? साँप का? बिल्ली का ? भूत का ? चोर का ? -देखो यहाँ कुछ नहीं है।"
तब मेरे पास उनकी बात का जवाब नहीं होता था लेकिन डर ख़त्म नहीं होता था ।
अभी कल ही मेनका गाँधी की नई पुस्तक "The Dragon Under My Bed" की समीक्षा पढ़ी।
जिसमें
FOMO (Fear of Missing out) और
JOMO (Joy of Missing out)
का वर्णन किया गया है ।
भीड़ से डर और अकेलेपन से डर, यद्यपि ये दोनों डर दो अलग अलग बातों के डर हैं ऐसा लगता है लेकिन मूल डर अपनी पहचान को खोने का डर जो दोनों ही स्थितियों में मूलतः हुआ करता है। किन्तु यह डर भी वस्तुतः इसीलिए पैदा होता है कि अपनी पहचान के माध्यम से ही तो हमारा अपना होना परिभाषित होता है। यद्यपि भिन्न भिन्न स्थितियों में यह पहचान भी पल पल बदलती रहती है, अपना 'होना' जिसमें यह सब होता है, कभी बदल ही नहीं सकता। और मज़े की बात यह भी है कि उस 'होने' की कोई पहचान नहीं बन सकती। यदि यह पता चल सके कि तमाम पहचान मिट जाने पर भी अपना होना न तो मिट सकता है, न ख़त्म हो सकता है, तो एक आश्चर्यजनक ख़ुशी अनायास हाथ लगती है।
शायद इसे ही -
"The Dragon Under My Bed"
पुस्तक में -
JOMO (Joy of Missing out) कहा गया है।
--
गीता अध्याय 15, श्लोक 15 में वर्णन है :
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।।
--
अर्थ :
'मैं' (आत्मा / अहम्) नामक सत्ता जो सभी भूतों (जीवमात्र) के हृदय में सदैव विद्यमान है, उसी 'मैं' (अहम्) नामक सत्ता से ही उन सभी भूतमात्र में स्मृति तथा ज्ञान, और उनका (स्मृति तथा ज्ञान का) लोप होता है । जिसे वेदान्तशास्त्र के द्वारा 'मैं' (अहम्) कहा जाता है, और जो कुछ भी जान लिए जाने-योग्य है वेदों के माध्यम से जिसे जाना जाता है वह जानना तथा जाननेवाला भी यही 'मैं' (आत्मा / अहम्) ही है ।
--
सामान्य अर्थ में 'मैं' -सर्वनाम (pronoun) शब्द से जिसे इंगित किया जाता है, -और जिसके लिए संस्कृत में 'अहम्' (जिसका cognate / सज्ञाति I AM है) का प्रयोग किया जाता है, वह 'अहम्' मूलतः 'अस्मद्' प्रत्यय का उत्तम पुरुष एकवचन है, और तीनों लिंगों में उसका वही समान तात्पर्य है, जिसे निरपेक्ष और निरपवाद रूप से सभी के द्वारा अपने-आपको इंगित करने के लिए किया जाता है ।
'अहम्' के इस तत्व को, अर्थात् इसकी सनातन और निरंतर अबाध सत्ता (अस्तित्व) को, तर्क या अनुभव से असत्य नहीं सिद्ध किया जा सकता । क्योंकि यह सदा प्रत्यक्ष और अपरोक्ष है। फिर भी इसके गूढ़ तात्पर्य से प्रायः हर कोई अनभिज्ञ होता है और इसके व्यवहारपरक उपयोग तक ही सीमित इसकी मान्यता होती है।
हर कोई अनायास अपने अर्थात् 'मैं' के अस्तित्व को जानता है और उसकी यह जानकारी सदा उसके शरीर, विचार, संस्कार, और विचारजनित मान्यताओं से इस 'मैं' को निरंतर परिभाषित करते हुए इस 'मैं' के बारे में होती है। इस प्रकार यह 'मैं' किसी दूसरे के परिप्रेक्ष्य में ही होता है, जबकि स्वयं अपना अस्तित्व इस 'मैं' के अभाव में भी सुनिश्चित और अकाट्य तथ्य है ।
वेदान्त उपरोक्त रीति से 'अहम्' के इस तत्व की विवेचना (विवेकपूर्वक समीक्षा) करता है और स्पष्ट करता है कि यह तत्व 'मैं' व्यावहारिक रूप से भी अवश्य ही उपयोगी है किन्तु उसका वास्तविक तात्पर्य कोई नहीं जानता, क्योंकि कोई ऐसा अन्य है ही नहीं जो इस 'अहम्' / आत्मा से भिन्न और स्वतंत्र होता हो । 'मैं' शब्द का वाच्यार्थ है : 'I', 'मैं' शब्द का लक्ष्यार्थ है : वे सारे लक्षण जिससे इसकी 'पहचान' की जाती है, किन्तु मैं का वास्तविक तात्पर्य उन समस्त लक्षणों के जोड़ से भी नितान्त भिन्न प्रकार की सत्यता है।
'मैं' शब्द से जब अपने शरीर, स्वभाव, संपत्ति, चरित्र, गुणों आदि का वर्णन किया जाता है तो ये समस्त लक्षण / 'उपाधियाँ' उस अहम्-सत्ता के बारे में कदापि कुछ भी नहीं कहती जिस सत्य के ये समस्त बाह्य लक्षण मात्र हैं।
अहम्-सत्ता अविकारी (immutable), अटल (immovable), अचल (steady), अ-क्षर (indestructible) सत्य है, जबकि लक्षण / उपाधियाँ सतत विकारशील (changing), अस्थायी (temporary), चलायमान (fleeting) और नाशवान (perishing) प्रकृति (nature) के हैं।
इस प्रकार मनुष्य की बुद्धि में 'मैं' / अहम्-सत्ता के आभासी और यथार्थ स्वरूप के बारे में अस्पष्टता पैदा हो जाती है, और बुद्धि उस आभासी 'मैं' को अपना आधार मान लेती है जो निरंतर बनता-मिटता रहता है। इसकी ओर उसका ध्यान तब तक नहीं जा पाता, जब तक कि बुद्धि में इस सारे जगत्प्रपंच के अर्थ और प्रयोजन, ज़रूरत और महत्त्व के बारे में प्रश्न नहीं उठता । ऐसे प्रश्न के उठने का एक संभव कारण यह हो सकता है कि उसे यह सारा अस्तित्व दुःखप्रद लगने लगे, जिसमें यद्यपि छोटे-छोटे सुखद प्रतीत होनेवाले अनुभव भी होते हैं किन्तु अंततः सब निरर्थक और समाप्त हो जाता है, या क्या इस निरंतर विकारशील आभासी अस्तित्व का कोई स्थिर सुनिश्चित नित्य आधार अवश्य है, -ऐसी कल्पना बुद्धि में उठे और वह उसे जानने की दिशा में चल पड़े।
इस प्रकार वेदान्तशास्त्र जो बहुत कठिन और उबाऊ भी प्रतीत होता है, व्यवहार में उस दिशा में आगे जाने के तरीके के विषय में, संक्षेप में यह कहता है कि 'वेद' और 'वेद को जानना' / 'वेद को जाननेवाला' एक और एकमेव वास्तविकता (identical and unique Reality) हैं। दूसरे ढंग से कहें तो वेद को जाननेवाला स्वयं ही ज्ञानस्वरूप होता है जहाँ ज्ञाता और ज्ञेय परस्पर अभिन्न और अनन्य (अभेद) होते हैं। जहाँ जाना गया विषय और उसे जाननेवाला विषयी केवल बोधमात्र होते हैं । यह बोध कोई अनुभव विशेष नहीं है क्योंकि अनुभवमात्र, अनुभव नामक घटना और उसे जाननेवाला इस प्रकार के दो अवयवों का जोड़ होता है और अनुभव का ज्ञान केवल एक (शाब्दिक या भावनात्मक) मानसिक चित्र।
--
प्रसंगवश यह देखना रोचक होगा कि संस्कृत 'विद्' धातु के चार अर्थ हो सकते हैं :
जानना, होना, पाना तथा कहना।
'विद्' - वेत्ति - जानता है,
'विद्' - विद्यते - है, विद्यमान है
'विद्' - विन्दति / विन्दते, - प्राप्त करता है,
'विद्' - वेदयते - आवेदयते / निवेदयते - कहा जाता है।
इसी 'विद्' के cognate / सज्ञाति हैं vide (Latin) - देखिए, video.
'विद्' - विन्दति / विन्दते का जर्मन cognate / सज्ञाति है 'finden' जो अंग्रेज़ी में 'find' का रूप लेता है।
इसी प्रकार 'विद्' - vide से बनता है 'fide' 'confide', confident, Fidel, feudal, faith,
अरबी / फ़ारसी भाषा में फ़िदा / फिदायीन इसी के अन्य रूप हैं।
--
1986 में एक अंग्रेज़ी पुस्तक :
"The Fears and the Phobia"
पढ़ी थी .
भीः - भीरु से 'fear' की तथा 'भाव-भीत' से 'Phobia' की समानता देखि जा सकती है ।
उपरोक्त पुस्तक "The Fears and the Phobia" में भिन्न भिन्न प्रकार के जिन भयों / डरों से कोई ग्रस्त होता है उनका नाम तथा लक्षण तो बतलाये गए थे लेकिन इस ओर कोई संकेत तक नहीं था कि 'डर' स्वरूपतः क्या है।
याद आता है बचपन में मुझे अँधेरे का डर लगता था। तब पिताजी टॉर्च लेकर मेरे साथ उस जगह जाते थे और उस जगह पर रौशनी डालकर मुझसे पूछते थे :
"तुम्हें किसका डर लगता है? साँप का? बिल्ली का ? भूत का ? चोर का ? -देखो यहाँ कुछ नहीं है।"
तब मेरे पास उनकी बात का जवाब नहीं होता था लेकिन डर ख़त्म नहीं होता था ।
अभी कल ही मेनका गाँधी की नई पुस्तक "The Dragon Under My Bed" की समीक्षा पढ़ी।
जिसमें
FOMO (Fear of Missing out) और
JOMO (Joy of Missing out)
का वर्णन किया गया है ।
भीड़ से डर और अकेलेपन से डर, यद्यपि ये दोनों डर दो अलग अलग बातों के डर हैं ऐसा लगता है लेकिन मूल डर अपनी पहचान को खोने का डर जो दोनों ही स्थितियों में मूलतः हुआ करता है। किन्तु यह डर भी वस्तुतः इसीलिए पैदा होता है कि अपनी पहचान के माध्यम से ही तो हमारा अपना होना परिभाषित होता है। यद्यपि भिन्न भिन्न स्थितियों में यह पहचान भी पल पल बदलती रहती है, अपना 'होना' जिसमें यह सब होता है, कभी बदल ही नहीं सकता। और मज़े की बात यह भी है कि उस 'होने' की कोई पहचान नहीं बन सकती। यदि यह पता चल सके कि तमाम पहचान मिट जाने पर भी अपना होना न तो मिट सकता है, न ख़त्म हो सकता है, तो एक आश्चर्यजनक ख़ुशी अनायास हाथ लगती है।
शायद इसे ही -
"The Dragon Under My Bed"
पुस्तक में -
JOMO (Joy of Missing out) कहा गया है।
--
No comments:
Post a Comment