आचार्यद्वय
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देवता यूँ तो 33 कोटि के हैं जिनका वर्णन स्कन्दपुराण और श्रीदेवीभागवत में अत्यन्त स्पष्ट रूप से किया गया है ।
33 कोटि अर्थात् उन्हें ३३ प्रकारों में रखा जा सकता है इसलिए एक ही देवता उनमें से एक या एक से अधिक वर्गों में होता है ।
कोटि का एक अर्थ है शतलक्ष अर्थात् एक सौ लाख ।
वर्णों के विशिष्ट समुच्चय से वे 33 से 33,00,000 हो जाते हैं ।
वैदिक देवता इस प्रकार से मूलतः तो बीजाक्षर रूपी वर्ण होते हैं किंतु प्रत्येक वर्ण के साथ अन्य या उसी वर्ण के संयोग से बननेवाले यौगिक वर्णों के रूप में मंत्राक्षर का स्वरूप ले लेते हैं । इन मंत्रों की ही शुद्धता और उससे जुड़े समुचित कर्मकांड से वे देवता भी मनुष्य के वश में हो जाते हैं क्योंकि वे मंत्रात्मक ही हैं । वश में होने का अर्थ यह नहीं कि उन्हें किसी सेवक की तरह किसी वाञ्छित कार्य में बलपूर्वक संलग्न किया जा सकता है । यज्ञ का अर्थ यही है कि उन्हें संतुष्ट किए जाने और प्रसन्न किए जाने पर ही वे याजक (यज्ञकर्ता) की इच्छित कामना पूरी करते हैं ।
वर्ण को अक्षर भी कहा जाता है क्योंकि वे अविनाशी हैं और सर्ग (सृष्टि) के समय व्यक्त रूप तथा लय (संहार) के समय अनभिव्यक्त / अव्यक्त हो जाते हैं । इस प्रकार पुनः पुनः प्रकट और विलीन होते हुए भी उनका व्यक्त रूप अपरिवर्तित रहता है । इसलिए उन्हें 'प्रकृतियाँ' भी कहा जाता है ।
देवता का मूल स्वरूप है प्राण + चेतना के रूप में कार्यरत विशिष्ट चैतन्य-शक्ति ।
वर्ण जहाँ उनके उच्चारण से स्थूल शक्ति (वाणी) और उच्चारण करनेवाले की चेतना से सूक्ष्म चैतन्य से संयुक्त होकर देवप्रतिमा का रूप लेते हैं और इस प्रकार की प्राण-प्रतिष्ठा होने पर प्रतिमा उस देवता का साक्षात रूप होती है, वहीं मंत्र के पुरश्चरण से वही देवता जागृत होकर उससे संपर्क संभव हो पाता है ।
ये देवता भी मूलतः एक ही परमेश्वर की भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं, जिनसे भिन्न-भिन्न प्रयोजन सिद्ध होते हैं । और सिद्धान्त-रूप में तो न केवल आकाशीय-स्वरूप रखनेवाले, बल्कि स्थूल प्राणिमात्र भी इस प्रकार देवता ही हैं । गीता अध्याय 10 में इन्हें 'विभूति' कहा गया है ।
ये ही ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त चौरासी लाख प्रकार की योनियाँ हैं ।
जैसे n-p-n और p-n-p इस प्रकार के दो मूल घटकों (सेमी-कंडक्टर) से सभी ट्राँज़िस्टर बनाए जाते हैं, वैसे ही वर्ण और उच्चारण से मंत्र के मूल अवयव (components) बनते हैं ।
फिर भी कार्य की दृष्टि से जैसे इन ट्रांज़िस्टर्स के विभिन्न संयोजन भिन्न-भिन्न कार्य संपन्न करने में सहायक होते हैं वैसे ही देवता भी उनके विशिष्ट मंत्रों से मनुष्य की सभी इच्छाओं को पूर्ण कर सकते हैं ।
यह तो हुआ सिद्धान्त ।
इस प्रकार महादेव ’रुद्र’ के रूप में ग्यारह प्रकार से अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं सूर्य ’आदित्य’ के रूप में बारह प्रकार से अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं ... इसी प्रकार सभी अन्य देवता भी ।
इसलिए परमार्थ की दृष्टि से ’ईश्वर’ या परमेश्वर को एक और अनेक से भी विलक्षण माना गया है । उसे शून्य और अशून्य भी कहा गया है । उसे ब्रह्म तथा अब्रह्म भी कहा गया है । यहाँ तक कि परमेश्वर को ’मैं’, ’तुम’, ’यह, ’वह’ आदि विशेषणों से भी रहित कहा गया है । इसलिए वेद परमेश्वर को मानते हैं या नहीं यह प्रश्न ही नहीं उठता । और उन्हें ही शिव, विष्णु, अग्नि, सूर्य या देवी, स्कंद आदि के रूप में भी एकमात्र सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता भी तो कहा ही जाता है लेकिन उन्हें ही सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुआ भी कहा गया है ।
’ऋषि’ भी इसी प्रकार का देवता-विशेष है और भृगु तथा बृहस्पति क्रमशः दैत्याचार्य तथा देवताओं के आचार्य कहे गए हैं ।
अपनी इसी भूमिका के कारण भृगु अर्थात् शुक्राचार्य जहाँ दैत्यों, दानवों, और राक्षसों के आचार्य हैं, वहीं उनमें ’भोग-प्रवृत्ति’को प्रेरित करते हैं, जो अन्ततः उनके विनाश का कारण बनती है । चूँकि वे मूलतः केवल ’अपने’ भोगों, ऐश्वर्य, आधिपत्य के लिए उत्सुक होते हैं और इसलिए ही उनकी सबसे मैत्री और शत्रुता होती रहती है इसलिए इसके सिवा उनकी कोई गति संभव ही नहीं है ।
यहाँ यक्ष, गंधर्व, किन्नर, वानर, नाग, वैनतेय, गरुड़, हंस आदि का उल्लेख करना विषय का अनावश्यक विस्तार होगा ।
भृगु की ही परंपरा में जाबालि ऋषि भी हैं ।
कथा है कि इन भृगु का भगवान् श्रीविष्णु से सदा से वैरभाव रहा है ।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ब्राह्मण ऋषि ब्रह्मज्ञानी होते हैं और वैदिक कर्मकाण्ड के प्रकाण्ड ज्ञाता भी इसलिए उनकी सहायता से राजा, क्या मनुष्य, राक्षस, दैत्य या दानव, सभी ने अपनी कामनाएँ यज्ञों के माध्यम से पूर्ण की हैं । ऋषि सभी के पूर्वज भी हैं, केवल काल-क्रम से उनकी वंशावलि में समय-समय पर हुई उनकी संतानों में से कुछ ऋषि रहे जबकि शेष कुछ और जैसे राक्षस, दैत्य, दानव, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, वानर, नाग, वैनतेय, हंस हो गए । अदिति से देवता (सुरगण) हुए, जबकि दिति से दैत्य (असुरगण) ।
समुद्र-मंथन के समय समुद्र से वारुणि (वरुण देवता का पेय) के उद्भव के समय देवताओं ने उसे स्वीकार कर लिया क्योंकि वरुण से उनकी सख्यता थी, जबकि राक्षसों और दैत्यों ने उसे लेने से इनकार कर दिया ।
इसी प्रकार भृगु और बृहस्पति दोनों के देवता होने पर भी राक्षसों और दैत्यों ने द्वेषवश बृहस्पति को त्याग दिया और भृगु (शुक्राचार्य) को अपने पुरोहित की तरह चुन लिया।
अपनी लौकिक कामनाएँ पूर्ण करने के लिए उन्हें भी वैदिक कर्म-काण्ड की आवश्यकता होती थी और इसके लिए ब्राह्मण पुरोहित ही उन्हें सहायक हो सकता था । इस प्रकार भृगु / शुक्राचार्य असुरों के आचार्य / गुरु हो गए। बृहस्पति जहाँ देवताओं के आचार्य / गुरु थे, वहीँ महर्षि वसिष्ठ मनुष्यों के प्रधान गुरु थे जबकि बहुत से दूसरे ऋषि अत्रि, भरद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, गौतम, याज्ञवल्क्य आदि भी ऐसे ही कुछ अन्य थे । कात्य तथा शाक्य मुनि भी ऐसे ही दो अन्य ऋषि हैं और जाबालि ऋषि उन्हीं के जैसे एक और ऋषि ।
ऋषियों के कुल को गोत्र कहा जाता है क्योंकि ऋषियों का कुल गुरुकुल की परम्परा का पालन करता है जहाँ एक ही गुरुकुल में किसी दूसरे गोत्र में उत्पन्न हुए बालक भी शिष्य की तरह ग्राह्य होते थे और तब उन्हें गुरु के गोत्र में भी माना जाता था ।
इस प्रकार शाक्य-मुनि ब्राह्मण न होने से बुद्ध की परम्परा के माने गए वहीँ जाबालि द्वारा भी सत्यकाम को उपदेश दिया जाना उन्हें ऋषियों की गोत्र-परम्परा से पृथक करता है । और ऐसा उन्हीं की और से किया गया न कि ऋषियों द्वारा ।
कात्य, शाक्य और जाबाल के गोत्र में वे परंपराएँ स्थापित हुईं और पनपीं फली-फूलीं जो कि वैदिक धर्म से भिन्न थीं । और यद्यपि उनसे भी पुनः अनेक शाखाएँ फूटीं।
दिति और अदिति कश्यप ऋषि की पत्नियाँ हैं ।
एक बार इन्हीं भृगु ऋषि के मन में भगवान् श्रीविष्णु के प्रति संदेह उठा कि क्या वे सचमुच क्षमाशील हैं?
पृथ्वी या भूमि को श्रीलक्ष्मी अर्थात् भगवान् श्रीविष्णु की पत्नी कहा जाता है । पृथ्वी को ही क्षमा और सर्वंसहा भी कहा जाता है । इस दृष्टि से भगवान् श्रीविष्णु को भी प्राणिमात्र क्षमाशील समझा जाता है क्योंकि संपूर्ण सृष्टि के वे ही माता-पिता हैं ।
ऋषि भृगु ने भगवान् श्रीविष्णु की क्षमाशीलता की परीक्षा करनी चाही ।
जब भगवान् श्रीविष्णु शेषशय्या पर विश्राम कर रहे थे तो ऋषि भृगु क्रोध में तमतमाते हुए वहाँ जा पहुँचे, और उनके सीने पर लात का प्रहार कर दिया । भगवान् श्रीविष्णु चौंककर उठ बैठे और जब ऋषि को सामने पाया तो उनके चरण स्पर्श कर पूछा :
प्रभो कैसे कृपा की? मेरा सीना तो अत्यंत कठोर है और आपके चरण अत्यन्त मृदु! कहीं आपको चोट तो नहीं आई?
ऋषि का आदर-सत्कार करने के बाद उन्हें विदा किया ।
भृगु ऋषि का भगवान् श्रीविष्णु से और भगवान् शिव से भी इतना वैर कि जब दक्ष ने यज्ञ किया और भगवान् शिव को आमंत्रित नहीं किया और उनकी इच्छा के विरुद्ध भी जब सती उस यज्ञोत्सव में जा पहुँची और पति के अपमान को सह न कर सकने से योगाग्नि में स्वयं को भस्म कर लिया और नन्दीगण (वीरभद्र) ने य्ज्ञ का विध्वंस किया तो इन्हीं भृगु ऋषि ने यज्ञ के विध्वंस को रोकने की चेष्टा की थी ।
जिस यज्ञ का आयोजन सती (पार्वती का पूर्व-जन्म) के पिता दक्ष द्वारा किया गया था वे स्वयं दस प्रजापतियों में से एक हैं । दक्ष का दूसरा अर्थ है निपुण । इस प्रकार ये दस प्रजापति प्रपिता भी कहे जाते हैं
ये वे ही भृगु ऋषि हैं जो परशुराम के रूप में सीता के स्वयंवर से पहले भगवान् श्रीराम द्वारा शिव का धनुष भग्न कर दिए जाने पर क्रोधित हो उठे थे और श्री लक्ष्मण ने उन्हें इस हेतु और अधिक प्रेरित किया।
इन्हीं भृगु ऋषि की तरह एक ऋषि जाबाल (जाबाल-ऋषि) त्रेतायुग में हुए जिन्होंने भगवान् श्रीराम को ऋषि विश्वामित्र के साथ जाने से हतोत्साहित करने की चेष्टा की तो भगवान् श्रीराम ने उन्हें फटकारते हुए कहा कि राजा द्वारा आपके जैसे नास्तिक ’संबुद्ध’ की तो गर्दन काट दी जानी चाहिए (वाल्मीकि रामायण ... गीताप्रेस की व्याख्या में संबुद्ध का अर्थ नास्तिक मतवाले बौद्ध के रूप में वर्णित है।)
इसी रामायण में पुनः राजा दण्ड द्वारा शुक्राचार्य की पुत्री के बलपूर्वक शीलभंग का वर्णन है (उत्तरकाण्ड, सर्ग 80) । ये राजा दण्ड भी, बहुत संभव है कि इक्ष्वाकु के सौ पुत्रों में से जिनमें विकुक्षि, निमि तथा दण्ड को प्रधान माना गया है, एक पुत्र रहे हों, उत्तरकाण्ड सर्ग 55) । जिससे यह समझना सरल हो जाता है कि भृगु अर्थात् शुक्राचार्य का देवों से वैर और दैत्यों के प्रति मैत्रीभाव क्यों है । ये ही शुक्राचार्य राजा बलि (प्रह्लाद का पौत्र, असुरराजा विरोचन का पुत्र) द्वारा किए जा रहे यज्ञ में भगवान् श्रीविष्णु के वामन रूप में दान में तीन पग भूमि लेने के प्रयास को विफल करने की चेष्टा में जलपात्र के जलमार्ग की नली (टोंटी) में घुसकर वामन द्वारा तिनके से बाधा दूर करने के यत्न के कारण अपना एक नेत्र गँवा बैठते हैं ...,
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि पश्चिम की परंपराएँ किस प्रकार वैदिक-धर्म से भिन्न ही नहीं, बल्कि अत्यन्त विपरीत भी हैं ।
ग्रीक संस्कृति की वीनस वही राजा दण्ड की सुपुत्री रही हों तो इसमें आश्चर्य न होगा ।
वैसे वाल्मीकि-रामायण के अनुसार यह स्थान वह दण्डकारण्य है जो वर्तमान में छत्तीसगढ़ के अंतर्गत आता है। स्कन्द-पुराण, रेवाखण्ड में जिस दारुक वन का वर्णन है वह स्थान नर्मदा नदी के तट पर कहीं है।
वैसे यहाँ से अनेक सूत्र (अब्राहम, जाबाल्-ऋषि > गैब्रियल) आदि प्राप्त होते हैं और बाइबिल के संतों के नाम तो पौराणिक वैदिक नामों से ही उद्भूत जान पड़ते हैं । यह सोचना स्वाभाविक है कि वैदिक (वैदिकं / Vatican) का, रोम का सतो-हलिक् (कैथोलिक / Catholic ) का कोई गहरा संबंध है ।
न केवल अंग्रेज़ी, फ़्रेंच, जर्मन, इतालवी, स्वीडिश् आदि का उद्गम संस्कृत में दिखाई देता है बल्कि लैटिन, रूसी आदि का भी । यह संदेह करने का पर्याप्त कारण है कि क्या भाषाशास्त्रियों ने संस्कृत से केवल विद्वेषवश ही लैटिन को संस्कृत के समकक्ष नहीं रखा? जैसे ’आर्य’ और ’द्रविड’ को नस्ल (संस्कृत नृषुलः) कहकर हमारे मन में, सनातन धर्म के अनुयायियों के बीच कृत्रिम विभाजन पैदा किया गया वैसे ही ’आर्यों’ के ’मूलस्थान’ की धारणा आरोपित कर लोकमान्य तिलक जैसे विद्वानों भी भ्रमित हो गए । यह ठीक है कि Arctic / आर्क्टिक् और आर्य शब्दिक रूप से अत्यन्त निकट हैं, किंतु इसी प्रकार से अनेक शब्द आर्य से इतने मिलते जुलते हैं कि आश्चर्य होता है । अंग्रेज़ी का iron, आयरन (लोहा), ग्रीक का Argentum आर्जेन्टम् (चांदी), Aurum ऑरम् (स्वर्ण), यही दर्शाते हैं कि आर्य इस ज्ञान में गहराई तक पैठे हुए थे ।
किन्तु अब्राह्मिक (Abraham / Ibrahim) religions और ब्राह्मण अर्थात् सनातन धर्म को जोड़ती है वह ऋषि अङ्गी, अङ्गिरा (अङ्गिरस) तथा जाबालि के रूप में है जो सर्वाधिक रोचक कड़ी । Angel-Religion, तथा Prophet-Religion के केंद्रीय पात्र लगता है जैसे सीधे ब्राह्मण-ग्रंथों से उठा लिए गए हों और बस उनके नाम किसी हद तक विभिन्न भाषागत प्रभावों से रूपांतरित हो गए हों ।
प्राचीन से प्राचीन बाइबिल में जिस सबसे अधिक रोचक कथा का उल्लेख है वह Jabel / Gable और मोज़ेस के बीच के संबंध का है । Mount Hira Jabal की तरह एक Mount Sinai Egypt के साथ सऊदी अरब में भी पाया जाता है ।
Angel और Arch-Angel अङ्गी, अङ्गिरा (अङ्गिरस) का साम्य तथा जाबालि / Jabal / Gable / Gabriel का साम्य भी इसी प्रकार दृष्टव्य है । Jabal / Gable / Gabriel को आर्ष-अङ्गिरस Arch-Angel के समान महत्त्व प्राप्त है, यद्यपि Jabal / Gable / Gabriel वैदिक दृष्टि से अङ्गी, अङ्गिरा (अङ्गिरस) की तरह महत्वपूर्ण नहीं माने जाते ।
संक्षेप में इस प्रकार Angel अङ्गी, अङ्गिरा (अङ्गिरस), और Prophets (प्रपिता) Religion अस्तित्व में आए ।
यवन-धर्म के अस्तित्व में आने का एक प्रमाण वाल्मीकि रामायण में विश्वामित्र द्वारा बलपूर्वक ऋषि वसिष्ठ से सुरभि / कामधेनु गौ छीनने की कथा बालकाण्ड सर्ग 54 में देखा जा सकता है :
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभिः सासृजत् तदा ।
तस्या हुंभार वोत्सृष्टाः पह्लवाः शतशो नृप ।।18
अर्थ :
'राजकुमार ! उनका (वसिष्ठ का) वह आदेश सुनकर उस गौ ने उस समय वैसा ही किया । उसके हुंकार करते ही सैकड़ों पह्लव जाती के वीर पैदा हो गए।
टिप्पणी : पह्लव वही हैं जो ईरान में 'पहलवी' कहे जाते हैं। ईरान के सम्राट रजा (राजा) आर्यमेहर (आर्यमिहिर) शाह पहलवी कुछ वर्षों पहले ईरानी क्रान्ति के पूर्व भी इसी वंश के थे ।
नाशयन्ति बलं ........पश्यतः ।
स राजा ........ विस्फारितेक्षणः ।।19
पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि ।
विश्वामित्रार्दितान् दृष्ट्वा पह्लवाञ्शतशस्तदा ।।20
भूय एवासृजद् घोराञ्छकान् यवनमिश्रितान् ।
तैरासीत् संवृता भूमिः शकैर्यवनमिश्रितैः ।।21
अर्थ :
'उन्होंने छोटे-बड़े कई तरह के अस्त्रों का प्रयोग करके उन पह्लवों का संहार कर डाला । विश्वामित्र द्वारा उन सैकड़ों पह्लवों को पीड़ित एवं नष्ट हुआ देख उस समय उस शबला गौ ने पुनः यवनमिश्रित शक जाति के भयंकर वीरों को उत्पन्न किया । उन यवनमिश्रित शकों से वहाँ की सारी पृथ्वी भर गयी ।
प्रभावद्भिर्महावीर्यैर्हेमकिंजल्क संनिभैः ।
तीक्ष्णासिपट्टिशधरैर्हेमवर्णाम्बरावृतैः ।।22
निर्दग्धं तद्बलं सर्वं प्रदीप्तैरिव पावकैः ।
ततोऽस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह ।
तैस्ते यवन काम्बोजा बर्बराश्चाकुलीकृताः ।।23
अर्थ :
'वे वीर महापराक्रमी और तेजस्वी थे । ........ अस्त्र छोड़े । उन अस्त्रों की चोट खाकर वे यवन, काम्बोज, और बर्बर जाति के योद्धा व्याकुल हो उठे । ....
इसी प्रकार दूसरा प्रमाण विराध-वध की कथा (अरण्यकाण्ड सर्ग 3) में इस प्रकार है :
पुत्रः किल जवस्याहं माता मम शतहृदा ।
विराध इति मामाहुः पृथिव्यां सर्वराक्षसाः।।5
अर्थ :
मैं 'जव' / यव / यावन्त / यवन् / यवन का पुत्र हूँ मेरी माता शतहृदा है सभी राक्षस मुझे विराध के नाम से बुलाते हैं ।
टिप्पणी :
इसका एक गूढ आध्यात्मिक अर्थ भी है :
'मैं तीव्रगति वाला (मन) हूँ मेरी माता हृदा / 'हृदय' वह है जहाँ से सौ नाड़ियाँ प्रसृत होती हैं और मुझे पृथ्वी के सब राक्षस विराध (आराधना का विपरीत, अपराध) के नाम से बुलाते हैं। राक्षस का अर्थ है विभिन्न ईश्वरविरोधी मनोवृत्तियाँ ।
शतहृदा संभवतः सतलज या शतद्रु नदी का नाम भी हो सकता है।
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देवता यूँ तो 33 कोटि के हैं जिनका वर्णन स्कन्दपुराण और श्रीदेवीभागवत में अत्यन्त स्पष्ट रूप से किया गया है ।
33 कोटि अर्थात् उन्हें ३३ प्रकारों में रखा जा सकता है इसलिए एक ही देवता उनमें से एक या एक से अधिक वर्गों में होता है ।
कोटि का एक अर्थ है शतलक्ष अर्थात् एक सौ लाख ।
वर्णों के विशिष्ट समुच्चय से वे 33 से 33,00,000 हो जाते हैं ।
वैदिक देवता इस प्रकार से मूलतः तो बीजाक्षर रूपी वर्ण होते हैं किंतु प्रत्येक वर्ण के साथ अन्य या उसी वर्ण के संयोग से बननेवाले यौगिक वर्णों के रूप में मंत्राक्षर का स्वरूप ले लेते हैं । इन मंत्रों की ही शुद्धता और उससे जुड़े समुचित कर्मकांड से वे देवता भी मनुष्य के वश में हो जाते हैं क्योंकि वे मंत्रात्मक ही हैं । वश में होने का अर्थ यह नहीं कि उन्हें किसी सेवक की तरह किसी वाञ्छित कार्य में बलपूर्वक संलग्न किया जा सकता है । यज्ञ का अर्थ यही है कि उन्हें संतुष्ट किए जाने और प्रसन्न किए जाने पर ही वे याजक (यज्ञकर्ता) की इच्छित कामना पूरी करते हैं ।
वर्ण को अक्षर भी कहा जाता है क्योंकि वे अविनाशी हैं और सर्ग (सृष्टि) के समय व्यक्त रूप तथा लय (संहार) के समय अनभिव्यक्त / अव्यक्त हो जाते हैं । इस प्रकार पुनः पुनः प्रकट और विलीन होते हुए भी उनका व्यक्त रूप अपरिवर्तित रहता है । इसलिए उन्हें 'प्रकृतियाँ' भी कहा जाता है ।
देवता का मूल स्वरूप है प्राण + चेतना के रूप में कार्यरत विशिष्ट चैतन्य-शक्ति ।
वर्ण जहाँ उनके उच्चारण से स्थूल शक्ति (वाणी) और उच्चारण करनेवाले की चेतना से सूक्ष्म चैतन्य से संयुक्त होकर देवप्रतिमा का रूप लेते हैं और इस प्रकार की प्राण-प्रतिष्ठा होने पर प्रतिमा उस देवता का साक्षात रूप होती है, वहीं मंत्र के पुरश्चरण से वही देवता जागृत होकर उससे संपर्क संभव हो पाता है ।
ये देवता भी मूलतः एक ही परमेश्वर की भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं, जिनसे भिन्न-भिन्न प्रयोजन सिद्ध होते हैं । और सिद्धान्त-रूप में तो न केवल आकाशीय-स्वरूप रखनेवाले, बल्कि स्थूल प्राणिमात्र भी इस प्रकार देवता ही हैं । गीता अध्याय 10 में इन्हें 'विभूति' कहा गया है ।
ये ही ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त चौरासी लाख प्रकार की योनियाँ हैं ।
जैसे n-p-n और p-n-p इस प्रकार के दो मूल घटकों (सेमी-कंडक्टर) से सभी ट्राँज़िस्टर बनाए जाते हैं, वैसे ही वर्ण और उच्चारण से मंत्र के मूल अवयव (components) बनते हैं ।
फिर भी कार्य की दृष्टि से जैसे इन ट्रांज़िस्टर्स के विभिन्न संयोजन भिन्न-भिन्न कार्य संपन्न करने में सहायक होते हैं वैसे ही देवता भी उनके विशिष्ट मंत्रों से मनुष्य की सभी इच्छाओं को पूर्ण कर सकते हैं ।
यह तो हुआ सिद्धान्त ।
इस प्रकार महादेव ’रुद्र’ के रूप में ग्यारह प्रकार से अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं सूर्य ’आदित्य’ के रूप में बारह प्रकार से अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं ... इसी प्रकार सभी अन्य देवता भी ।
इसलिए परमार्थ की दृष्टि से ’ईश्वर’ या परमेश्वर को एक और अनेक से भी विलक्षण माना गया है । उसे शून्य और अशून्य भी कहा गया है । उसे ब्रह्म तथा अब्रह्म भी कहा गया है । यहाँ तक कि परमेश्वर को ’मैं’, ’तुम’, ’यह, ’वह’ आदि विशेषणों से भी रहित कहा गया है । इसलिए वेद परमेश्वर को मानते हैं या नहीं यह प्रश्न ही नहीं उठता । और उन्हें ही शिव, विष्णु, अग्नि, सूर्य या देवी, स्कंद आदि के रूप में भी एकमात्र सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता भी तो कहा ही जाता है लेकिन उन्हें ही सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुआ भी कहा गया है ।
’ऋषि’ भी इसी प्रकार का देवता-विशेष है और भृगु तथा बृहस्पति क्रमशः दैत्याचार्य तथा देवताओं के आचार्य कहे गए हैं ।
अपनी इसी भूमिका के कारण भृगु अर्थात् शुक्राचार्य जहाँ दैत्यों, दानवों, और राक्षसों के आचार्य हैं, वहीं उनमें ’भोग-प्रवृत्ति’को प्रेरित करते हैं, जो अन्ततः उनके विनाश का कारण बनती है । चूँकि वे मूलतः केवल ’अपने’ भोगों, ऐश्वर्य, आधिपत्य के लिए उत्सुक होते हैं और इसलिए ही उनकी सबसे मैत्री और शत्रुता होती रहती है इसलिए इसके सिवा उनकी कोई गति संभव ही नहीं है ।
यहाँ यक्ष, गंधर्व, किन्नर, वानर, नाग, वैनतेय, गरुड़, हंस आदि का उल्लेख करना विषय का अनावश्यक विस्तार होगा ।
भृगु की ही परंपरा में जाबालि ऋषि भी हैं ।
कथा है कि इन भृगु का भगवान् श्रीविष्णु से सदा से वैरभाव रहा है ।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ब्राह्मण ऋषि ब्रह्मज्ञानी होते हैं और वैदिक कर्मकाण्ड के प्रकाण्ड ज्ञाता भी इसलिए उनकी सहायता से राजा, क्या मनुष्य, राक्षस, दैत्य या दानव, सभी ने अपनी कामनाएँ यज्ञों के माध्यम से पूर्ण की हैं । ऋषि सभी के पूर्वज भी हैं, केवल काल-क्रम से उनकी वंशावलि में समय-समय पर हुई उनकी संतानों में से कुछ ऋषि रहे जबकि शेष कुछ और जैसे राक्षस, दैत्य, दानव, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, वानर, नाग, वैनतेय, हंस हो गए । अदिति से देवता (सुरगण) हुए, जबकि दिति से दैत्य (असुरगण) ।
समुद्र-मंथन के समय समुद्र से वारुणि (वरुण देवता का पेय) के उद्भव के समय देवताओं ने उसे स्वीकार कर लिया क्योंकि वरुण से उनकी सख्यता थी, जबकि राक्षसों और दैत्यों ने उसे लेने से इनकार कर दिया ।
इसी प्रकार भृगु और बृहस्पति दोनों के देवता होने पर भी राक्षसों और दैत्यों ने द्वेषवश बृहस्पति को त्याग दिया और भृगु (शुक्राचार्य) को अपने पुरोहित की तरह चुन लिया।
अपनी लौकिक कामनाएँ पूर्ण करने के लिए उन्हें भी वैदिक कर्म-काण्ड की आवश्यकता होती थी और इसके लिए ब्राह्मण पुरोहित ही उन्हें सहायक हो सकता था । इस प्रकार भृगु / शुक्राचार्य असुरों के आचार्य / गुरु हो गए। बृहस्पति जहाँ देवताओं के आचार्य / गुरु थे, वहीँ महर्षि वसिष्ठ मनुष्यों के प्रधान गुरु थे जबकि बहुत से दूसरे ऋषि अत्रि, भरद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, गौतम, याज्ञवल्क्य आदि भी ऐसे ही कुछ अन्य थे । कात्य तथा शाक्य मुनि भी ऐसे ही दो अन्य ऋषि हैं और जाबालि ऋषि उन्हीं के जैसे एक और ऋषि ।
ऋषियों के कुल को गोत्र कहा जाता है क्योंकि ऋषियों का कुल गुरुकुल की परम्परा का पालन करता है जहाँ एक ही गुरुकुल में किसी दूसरे गोत्र में उत्पन्न हुए बालक भी शिष्य की तरह ग्राह्य होते थे और तब उन्हें गुरु के गोत्र में भी माना जाता था ।
इस प्रकार शाक्य-मुनि ब्राह्मण न होने से बुद्ध की परम्परा के माने गए वहीँ जाबालि द्वारा भी सत्यकाम को उपदेश दिया जाना उन्हें ऋषियों की गोत्र-परम्परा से पृथक करता है । और ऐसा उन्हीं की और से किया गया न कि ऋषियों द्वारा ।
कात्य, शाक्य और जाबाल के गोत्र में वे परंपराएँ स्थापित हुईं और पनपीं फली-फूलीं जो कि वैदिक धर्म से भिन्न थीं । और यद्यपि उनसे भी पुनः अनेक शाखाएँ फूटीं।
दिति और अदिति कश्यप ऋषि की पत्नियाँ हैं ।
एक बार इन्हीं भृगु ऋषि के मन में भगवान् श्रीविष्णु के प्रति संदेह उठा कि क्या वे सचमुच क्षमाशील हैं?
पृथ्वी या भूमि को श्रीलक्ष्मी अर्थात् भगवान् श्रीविष्णु की पत्नी कहा जाता है । पृथ्वी को ही क्षमा और सर्वंसहा भी कहा जाता है । इस दृष्टि से भगवान् श्रीविष्णु को भी प्राणिमात्र क्षमाशील समझा जाता है क्योंकि संपूर्ण सृष्टि के वे ही माता-पिता हैं ।
ऋषि भृगु ने भगवान् श्रीविष्णु की क्षमाशीलता की परीक्षा करनी चाही ।
जब भगवान् श्रीविष्णु शेषशय्या पर विश्राम कर रहे थे तो ऋषि भृगु क्रोध में तमतमाते हुए वहाँ जा पहुँचे, और उनके सीने पर लात का प्रहार कर दिया । भगवान् श्रीविष्णु चौंककर उठ बैठे और जब ऋषि को सामने पाया तो उनके चरण स्पर्श कर पूछा :
प्रभो कैसे कृपा की? मेरा सीना तो अत्यंत कठोर है और आपके चरण अत्यन्त मृदु! कहीं आपको चोट तो नहीं आई?
ऋषि का आदर-सत्कार करने के बाद उन्हें विदा किया ।
भृगु ऋषि का भगवान् श्रीविष्णु से और भगवान् शिव से भी इतना वैर कि जब दक्ष ने यज्ञ किया और भगवान् शिव को आमंत्रित नहीं किया और उनकी इच्छा के विरुद्ध भी जब सती उस यज्ञोत्सव में जा पहुँची और पति के अपमान को सह न कर सकने से योगाग्नि में स्वयं को भस्म कर लिया और नन्दीगण (वीरभद्र) ने य्ज्ञ का विध्वंस किया तो इन्हीं भृगु ऋषि ने यज्ञ के विध्वंस को रोकने की चेष्टा की थी ।
जिस यज्ञ का आयोजन सती (पार्वती का पूर्व-जन्म) के पिता दक्ष द्वारा किया गया था वे स्वयं दस प्रजापतियों में से एक हैं । दक्ष का दूसरा अर्थ है निपुण । इस प्रकार ये दस प्रजापति प्रपिता भी कहे जाते हैं
ये वे ही भृगु ऋषि हैं जो परशुराम के रूप में सीता के स्वयंवर से पहले भगवान् श्रीराम द्वारा शिव का धनुष भग्न कर दिए जाने पर क्रोधित हो उठे थे और श्री लक्ष्मण ने उन्हें इस हेतु और अधिक प्रेरित किया।
इन्हीं भृगु ऋषि की तरह एक ऋषि जाबाल (जाबाल-ऋषि) त्रेतायुग में हुए जिन्होंने भगवान् श्रीराम को ऋषि विश्वामित्र के साथ जाने से हतोत्साहित करने की चेष्टा की तो भगवान् श्रीराम ने उन्हें फटकारते हुए कहा कि राजा द्वारा आपके जैसे नास्तिक ’संबुद्ध’ की तो गर्दन काट दी जानी चाहिए (वाल्मीकि रामायण ... गीताप्रेस की व्याख्या में संबुद्ध का अर्थ नास्तिक मतवाले बौद्ध के रूप में वर्णित है।)
इसी रामायण में पुनः राजा दण्ड द्वारा शुक्राचार्य की पुत्री के बलपूर्वक शीलभंग का वर्णन है (उत्तरकाण्ड, सर्ग 80) । ये राजा दण्ड भी, बहुत संभव है कि इक्ष्वाकु के सौ पुत्रों में से जिनमें विकुक्षि, निमि तथा दण्ड को प्रधान माना गया है, एक पुत्र रहे हों, उत्तरकाण्ड सर्ग 55) । जिससे यह समझना सरल हो जाता है कि भृगु अर्थात् शुक्राचार्य का देवों से वैर और दैत्यों के प्रति मैत्रीभाव क्यों है । ये ही शुक्राचार्य राजा बलि (प्रह्लाद का पौत्र, असुरराजा विरोचन का पुत्र) द्वारा किए जा रहे यज्ञ में भगवान् श्रीविष्णु के वामन रूप में दान में तीन पग भूमि लेने के प्रयास को विफल करने की चेष्टा में जलपात्र के जलमार्ग की नली (टोंटी) में घुसकर वामन द्वारा तिनके से बाधा दूर करने के यत्न के कारण अपना एक नेत्र गँवा बैठते हैं ...,
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि पश्चिम की परंपराएँ किस प्रकार वैदिक-धर्म से भिन्न ही नहीं, बल्कि अत्यन्त विपरीत भी हैं ।
ग्रीक संस्कृति की वीनस वही राजा दण्ड की सुपुत्री रही हों तो इसमें आश्चर्य न होगा ।
वैसे वाल्मीकि-रामायण के अनुसार यह स्थान वह दण्डकारण्य है जो वर्तमान में छत्तीसगढ़ के अंतर्गत आता है। स्कन्द-पुराण, रेवाखण्ड में जिस दारुक वन का वर्णन है वह स्थान नर्मदा नदी के तट पर कहीं है।
वैसे यहाँ से अनेक सूत्र (अब्राहम, जाबाल्-ऋषि > गैब्रियल) आदि प्राप्त होते हैं और बाइबिल के संतों के नाम तो पौराणिक वैदिक नामों से ही उद्भूत जान पड़ते हैं । यह सोचना स्वाभाविक है कि वैदिक (वैदिकं / Vatican) का, रोम का सतो-हलिक् (कैथोलिक / Catholic ) का कोई गहरा संबंध है ।
न केवल अंग्रेज़ी, फ़्रेंच, जर्मन, इतालवी, स्वीडिश् आदि का उद्गम संस्कृत में दिखाई देता है बल्कि लैटिन, रूसी आदि का भी । यह संदेह करने का पर्याप्त कारण है कि क्या भाषाशास्त्रियों ने संस्कृत से केवल विद्वेषवश ही लैटिन को संस्कृत के समकक्ष नहीं रखा? जैसे ’आर्य’ और ’द्रविड’ को नस्ल (संस्कृत नृषुलः) कहकर हमारे मन में, सनातन धर्म के अनुयायियों के बीच कृत्रिम विभाजन पैदा किया गया वैसे ही ’आर्यों’ के ’मूलस्थान’ की धारणा आरोपित कर लोकमान्य तिलक जैसे विद्वानों भी भ्रमित हो गए । यह ठीक है कि Arctic / आर्क्टिक् और आर्य शब्दिक रूप से अत्यन्त निकट हैं, किंतु इसी प्रकार से अनेक शब्द आर्य से इतने मिलते जुलते हैं कि आश्चर्य होता है । अंग्रेज़ी का iron, आयरन (लोहा), ग्रीक का Argentum आर्जेन्टम् (चांदी), Aurum ऑरम् (स्वर्ण), यही दर्शाते हैं कि आर्य इस ज्ञान में गहराई तक पैठे हुए थे ।
किन्तु अब्राह्मिक (Abraham / Ibrahim) religions और ब्राह्मण अर्थात् सनातन धर्म को जोड़ती है वह ऋषि अङ्गी, अङ्गिरा (अङ्गिरस) तथा जाबालि के रूप में है जो सर्वाधिक रोचक कड़ी । Angel-Religion, तथा Prophet-Religion के केंद्रीय पात्र लगता है जैसे सीधे ब्राह्मण-ग्रंथों से उठा लिए गए हों और बस उनके नाम किसी हद तक विभिन्न भाषागत प्रभावों से रूपांतरित हो गए हों ।
प्राचीन से प्राचीन बाइबिल में जिस सबसे अधिक रोचक कथा का उल्लेख है वह Jabel / Gable और मोज़ेस के बीच के संबंध का है । Mount Hira Jabal की तरह एक Mount Sinai Egypt के साथ सऊदी अरब में भी पाया जाता है ।
Angel और Arch-Angel अङ्गी, अङ्गिरा (अङ्गिरस) का साम्य तथा जाबालि / Jabal / Gable / Gabriel का साम्य भी इसी प्रकार दृष्टव्य है । Jabal / Gable / Gabriel को आर्ष-अङ्गिरस Arch-Angel के समान महत्त्व प्राप्त है, यद्यपि Jabal / Gable / Gabriel वैदिक दृष्टि से अङ्गी, अङ्गिरा (अङ्गिरस) की तरह महत्वपूर्ण नहीं माने जाते ।
संक्षेप में इस प्रकार Angel अङ्गी, अङ्गिरा (अङ्गिरस), और Prophets (प्रपिता) Religion अस्तित्व में आए ।
यवन-धर्म के अस्तित्व में आने का एक प्रमाण वाल्मीकि रामायण में विश्वामित्र द्वारा बलपूर्वक ऋषि वसिष्ठ से सुरभि / कामधेनु गौ छीनने की कथा बालकाण्ड सर्ग 54 में देखा जा सकता है :
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभिः सासृजत् तदा ।
तस्या हुंभार वोत्सृष्टाः पह्लवाः शतशो नृप ।।18
अर्थ :
'राजकुमार ! उनका (वसिष्ठ का) वह आदेश सुनकर उस गौ ने उस समय वैसा ही किया । उसके हुंकार करते ही सैकड़ों पह्लव जाती के वीर पैदा हो गए।
टिप्पणी : पह्लव वही हैं जो ईरान में 'पहलवी' कहे जाते हैं। ईरान के सम्राट रजा (राजा) आर्यमेहर (आर्यमिहिर) शाह पहलवी कुछ वर्षों पहले ईरानी क्रान्ति के पूर्व भी इसी वंश के थे ।
नाशयन्ति बलं ........पश्यतः ।
स राजा ........ विस्फारितेक्षणः ।।19
पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि ।
विश्वामित्रार्दितान् दृष्ट्वा पह्लवाञ्शतशस्तदा ।।20
भूय एवासृजद् घोराञ्छकान् यवनमिश्रितान् ।
तैरासीत् संवृता भूमिः शकैर्यवनमिश्रितैः ।।21
अर्थ :
'उन्होंने छोटे-बड़े कई तरह के अस्त्रों का प्रयोग करके उन पह्लवों का संहार कर डाला । विश्वामित्र द्वारा उन सैकड़ों पह्लवों को पीड़ित एवं नष्ट हुआ देख उस समय उस शबला गौ ने पुनः यवनमिश्रित शक जाति के भयंकर वीरों को उत्पन्न किया । उन यवनमिश्रित शकों से वहाँ की सारी पृथ्वी भर गयी ।
प्रभावद्भिर्महावीर्यैर्हेमकिंजल्क संनिभैः ।
तीक्ष्णासिपट्टिशधरैर्हेमवर्णाम्बरावृतैः ।।22
निर्दग्धं तद्बलं सर्वं प्रदीप्तैरिव पावकैः ।
ततोऽस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह ।
तैस्ते यवन काम्बोजा बर्बराश्चाकुलीकृताः ।।23
अर्थ :
'वे वीर महापराक्रमी और तेजस्वी थे । ........ अस्त्र छोड़े । उन अस्त्रों की चोट खाकर वे यवन, काम्बोज, और बर्बर जाति के योद्धा व्याकुल हो उठे । ....
इसी प्रकार दूसरा प्रमाण विराध-वध की कथा (अरण्यकाण्ड सर्ग 3) में इस प्रकार है :
पुत्रः किल जवस्याहं माता मम शतहृदा ।
विराध इति मामाहुः पृथिव्यां सर्वराक्षसाः।।5
अर्थ :
मैं 'जव' / यव / यावन्त / यवन् / यवन का पुत्र हूँ मेरी माता शतहृदा है सभी राक्षस मुझे विराध के नाम से बुलाते हैं ।
टिप्पणी :
इसका एक गूढ आध्यात्मिक अर्थ भी है :
'मैं तीव्रगति वाला (मन) हूँ मेरी माता हृदा / 'हृदय' वह है जहाँ से सौ नाड़ियाँ प्रसृत होती हैं और मुझे पृथ्वी के सब राक्षस विराध (आराधना का विपरीत, अपराध) के नाम से बुलाते हैं। राक्षस का अर्थ है विभिन्न ईश्वरविरोधी मनोवृत्तियाँ ।
शतहृदा संभवतः सतलज या शतद्रु नदी का नाम भी हो सकता है।
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