Thursday, 28 February 2019

आचार्यद्वय / भृगु तथा बृहस्पति

आचार्यद्वय
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देवता यूँ तो 33  कोटि के हैं जिनका वर्णन स्कन्दपुराण और श्रीदेवीभागवत में अत्यन्त स्पष्ट रूप से किया गया है ।
33  कोटि अर्थात् उन्हें ३३ प्रकारों में रखा जा सकता है इसलिए एक ही देवता उनमें से एक या एक से अधिक वर्गों में होता है ।
कोटि का एक अर्थ है शतलक्ष अर्थात् एक सौ लाख ।
वर्णों के विशिष्ट समुच्चय से वे 33 से 33,00,000 हो जाते हैं ।
वैदिक देवता इस प्रकार से मूलतः तो बीजाक्षर रूपी वर्ण होते हैं किंतु प्रत्येक वर्ण के साथ अन्य या उसी वर्ण के संयोग से बननेवाले यौगिक वर्णों के रूप में मंत्राक्षर का स्वरूप ले लेते हैं । इन मंत्रों की ही शुद्धता और उससे जुड़े समुचित कर्मकांड से वे देवता भी मनुष्य के वश में हो जाते हैं क्योंकि वे मंत्रात्मक ही हैं । वश में होने का अर्थ यह नहीं कि उन्हें किसी सेवक की तरह किसी वाञ्छित कार्य में बलपूर्वक संलग्न किया जा सकता है । यज्ञ का अर्थ यही है कि उन्हें संतुष्ट किए जाने और प्रसन्न किए जाने पर ही वे याजक (यज्ञकर्ता) की इच्छित कामना पूरी करते हैं ।
वर्ण को अक्षर भी कहा जाता है क्योंकि वे अविनाशी हैं और सर्ग (सृष्टि) के समय व्यक्त रूप तथा लय (संहार) के समय अनभिव्यक्त / अव्यक्त हो जाते हैं । इस प्रकार पुनः पुनः प्रकट और विलीन होते हुए भी उनका व्यक्त रूप अपरिवर्तित रहता है । इसलिए उन्हें 'प्रकृतियाँ' भी कहा जाता है ।       
देवता का मूल स्वरूप है प्राण + चेतना के रूप में कार्यरत विशिष्ट चैतन्य-शक्ति ।
वर्ण जहाँ उनके उच्चारण से स्थूल शक्ति (वाणी) और उच्चारण करनेवाले की चेतना से सूक्ष्म चैतन्य से संयुक्त होकर देवप्रतिमा का रूप लेते हैं और इस प्रकार की प्राण-प्रतिष्ठा होने पर प्रतिमा उस देवता का साक्षात रूप होती है, वहीं मंत्र के पुरश्चरण से वही देवता जागृत होकर उससे संपर्क संभव हो पाता है ।
ये देवता भी मूलतः एक ही परमेश्वर की भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं, जिनसे भिन्न-भिन्न प्रयोजन सिद्ध होते हैं । और सिद्धान्त-रूप में तो न केवल आकाशीय-स्वरूप रखनेवाले, बल्कि स्थूल प्राणिमात्र भी इस प्रकार देवता ही हैं । गीता अध्याय 10 में इन्हें 'विभूति' कहा गया है ।
ये ही ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त चौरासी लाख प्रकार की योनियाँ हैं ।
जैसे n-p-n और p-n-p इस प्रकार के दो मूल घटकों (सेमी-कंडक्टर) से सभी ट्राँज़िस्टर बनाए जाते हैं, वैसे ही वर्ण और उच्चारण से मंत्र के मूल अवयव (components) बनते हैं ।
फिर भी कार्य की दृष्टि से जैसे इन ट्रांज़िस्टर्स के विभिन्न संयोजन भिन्न-भिन्न कार्य संपन्न करने में सहायक होते हैं वैसे ही देवता भी उनके विशिष्ट मंत्रों से मनुष्य की सभी इच्छाओं को पूर्ण कर सकते हैं ।
यह तो हुआ सिद्धान्त ।
इस प्रकार महादेव ’रुद्र’ के रूप में ग्यारह प्रकार से अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं सूर्य ’आदित्य’ के रूप में बारह प्रकार से अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं ... इसी प्रकार सभी अन्य देवता भी ।
इसलिए परमार्थ की दृष्टि से ’ईश्वर’ या परमेश्वर को एक और अनेक से भी विलक्षण माना गया है । उसे शून्य और अशून्य भी कहा गया है । उसे ब्रह्म तथा अब्रह्म भी कहा गया है । यहाँ तक कि परमेश्वर को ’मैं’, ’तुम’, ’यह, ’वह’ आदि विशेषणों से भी रहित कहा गया है । इसलिए वेद परमेश्वर को मानते हैं या नहीं यह प्रश्न ही नहीं उठता । और उन्हें ही शिव, विष्णु, अग्नि, सूर्य या देवी, स्कंद आदि के रूप में भी एकमात्र सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता भी तो कहा ही जाता है लेकिन उन्हें ही सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुआ भी कहा गया है ।
’ऋषि’ भी इसी प्रकार का देवता-विशेष है और भृगु तथा बृहस्पति क्रमशः दैत्याचार्य तथा देवताओं के आचार्य कहे गए हैं ।
अपनी इसी भूमिका के कारण भृगु अर्थात् शुक्राचार्य जहाँ दैत्यों, दानवों, और राक्षसों के आचार्य हैं, वहीं उनमें ’भोग-प्रवृत्ति’को प्रेरित करते हैं, जो अन्ततः उनके विनाश का कारण बनती है । चूँकि वे मूलतः केवल ’अपने’ भोगों, ऐश्वर्य, आधिपत्य के लिए उत्सुक होते हैं और इसलिए ही उनकी सबसे मैत्री और शत्रुता होती रहती है इसलिए इसके सिवा उनकी कोई गति संभव ही नहीं है ।
यहाँ यक्ष, गंधर्व, किन्नर, वानर, नाग, वैनतेय, गरुड़, हंस आदि का उल्लेख करना विषय का अनावश्यक विस्तार होगा ।
भृगु की ही परंपरा में जाबालि ऋषि भी हैं ।
कथा है कि इन भृगु का भगवान् श्रीविष्णु से सदा से वैरभाव रहा है ।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ब्राह्मण ऋषि ब्रह्मज्ञानी होते हैं और वैदिक कर्मकाण्ड के प्रकाण्ड ज्ञाता भी इसलिए उनकी सहायता से राजा, क्या मनुष्य, राक्षस, दैत्य या दानव, सभी ने अपनी कामनाएँ यज्ञों के माध्यम से पूर्ण की हैं । ऋषि सभी के पूर्वज भी हैं, केवल काल-क्रम से उनकी वंशावलि में समय-समय पर हुई उनकी संतानों में से कुछ ऋषि रहे जबकि शेष कुछ और जैसे राक्षस, दैत्य, दानव, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, वानर, नाग, वैनतेय, हंस हो गए । अदिति से देवता (सुरगण) हुए, जबकि दिति से दैत्य (असुरगण) ।
समुद्र-मंथन के समय समुद्र से वारुणि (वरुण देवता का पेय) के उद्भव के समय देवताओं ने उसे स्वीकार कर लिया क्योंकि वरुण से उनकी सख्यता थी, जबकि राक्षसों और दैत्यों ने उसे लेने से इनकार कर दिया ।
इसी प्रकार भृगु और बृहस्पति दोनों के देवता होने पर भी राक्षसों और दैत्यों ने द्वेषवश बृहस्पति को त्याग दिया और भृगु (शुक्राचार्य) को अपने पुरोहित की तरह चुन लिया।
अपनी लौकिक कामनाएँ पूर्ण करने के लिए उन्हें भी वैदिक कर्म-काण्ड की आवश्यकता होती थी और इसके लिए ब्राह्मण पुरोहित ही उन्हें सहायक हो सकता था । इस प्रकार भृगु / शुक्राचार्य असुरों के आचार्य / गुरु हो गए।  बृहस्पति जहाँ देवताओं के आचार्य / गुरु थे, वहीँ महर्षि वसिष्ठ मनुष्यों के प्रधान गुरु थे जबकि बहुत से दूसरे ऋषि अत्रि, भरद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, गौतम, याज्ञवल्क्य आदि भी ऐसे ही कुछ अन्य थे । कात्य तथा शाक्य मुनि भी ऐसे ही दो अन्य ऋषि हैं और जाबालि ऋषि उन्हीं के जैसे एक और ऋषि ।
ऋषियों के कुल को गोत्र कहा जाता है क्योंकि ऋषियों का कुल गुरुकुल की परम्परा का पालन करता है जहाँ एक ही गुरुकुल में किसी दूसरे गोत्र में उत्पन्न हुए बालक भी शिष्य की तरह ग्राह्य होते थे और तब उन्हें गुरु के गोत्र में भी माना जाता था ।
इस प्रकार शाक्य-मुनि ब्राह्मण न होने से बुद्ध  की परम्परा के माने गए वहीँ जाबालि द्वारा भी सत्यकाम को उपदेश दिया जाना उन्हें ऋषियों की गोत्र-परम्परा से पृथक करता है । और ऐसा उन्हीं की और से किया गया न कि ऋषियों द्वारा । 
कात्य, शाक्य और जाबाल के गोत्र में वे परंपराएँ स्थापित हुईं और पनपीं फली-फूलीं जो कि वैदिक धर्म से भिन्न थीं ।  और यद्यपि उनसे भी पुनः अनेक शाखाएँ फूटीं।                  
दिति और अदिति कश्यप ऋषि की पत्नियाँ हैं ।
एक बार इन्हीं भृगु ऋषि के मन में भगवान् श्रीविष्णु के प्रति संदेह उठा कि क्या वे सचमुच क्षमाशील हैं?
पृथ्वी या भूमि को श्रीलक्ष्मी अर्थात् भगवान् श्रीविष्णु की पत्नी कहा जाता है । पृथ्वी को ही क्षमा और सर्वंसहा भी कहा जाता है । इस दृष्टि से भगवान् श्रीविष्णु को भी प्राणिमात्र क्षमाशील समझा जाता है क्योंकि संपूर्ण सृष्टि के वे ही माता-पिता हैं ।
ऋषि भृगु ने भगवान् श्रीविष्णु की क्षमाशीलता की परीक्षा करनी चाही ।
जब भगवान् श्रीविष्णु शेषशय्या पर विश्राम कर रहे थे तो ऋषि भृगु क्रोध में तमतमाते हुए वहाँ जा पहुँचे, और उनके सीने पर लात का प्रहार कर दिया । भगवान् श्रीविष्णु चौंककर उठ बैठे और जब ऋषि को सामने पाया तो उनके चरण स्पर्श कर पूछा :
प्रभो कैसे कृपा की? मेरा सीना तो अत्यंत कठोर है और आपके चरण अत्यन्त मृदु! कहीं आपको चोट तो नहीं आई?
ऋषि का आदर-सत्कार करने के बाद उन्हें विदा किया ।
भृगु ऋषि का भगवान् श्रीविष्णु से और भगवान् शिव से भी इतना वैर कि जब दक्ष ने यज्ञ किया और भगवान् शिव को आमंत्रित नहीं किया और उनकी इच्छा के विरुद्ध भी जब सती उस यज्ञोत्सव में जा पहुँची और पति के अपमान को सह न कर सकने से योगाग्नि में स्वयं को भस्म कर लिया और नन्दीगण (वीरभद्र) ने य्ज्ञ का विध्वंस किया तो इन्हीं भृगु ऋषि ने यज्ञ के विध्वंस को रोकने की चेष्टा की थी ।
जिस यज्ञ का आयोजन सती (पार्वती का पूर्व-जन्म) के पिता दक्ष द्वारा किया गया था वे स्वयं दस प्रजापतियों में से एक हैं । दक्ष का दूसरा अर्थ है निपुण । इस प्रकार ये दस प्रजापति प्रपिता भी कहे जाते हैं    
ये वे ही भृगु ऋषि हैं जो परशुराम के रूप में सीता के स्वयंवर से पहले भगवान् श्रीराम द्वारा शिव का धनुष भग्न कर दिए जाने पर क्रोधित हो उठे थे और श्री लक्ष्मण ने उन्हें इस हेतु और अधिक प्रेरित किया।   
इन्हीं भृगु ऋषि की तरह एक ऋषि जाबाल (जाबाल-ऋषि) त्रेतायुग में हुए जिन्होंने भगवान् श्रीराम को ऋषि विश्वामित्र के साथ जाने से हतोत्साहित करने की चेष्टा की तो भगवान् श्रीराम ने उन्हें फटकारते हुए कहा कि राजा द्वारा आपके जैसे नास्तिक ’संबुद्ध’ की तो  गर्दन काट दी जानी चाहिए (वाल्मीकि रामायण ... गीताप्रेस की व्याख्या में संबुद्ध का अर्थ नास्तिक मतवाले बौद्ध के रूप में वर्णित है।)
इसी रामायण में पुनः राजा दण्ड द्वारा शुक्राचार्य की पुत्री के बलपूर्वक शीलभंग का वर्णन है (उत्तरकाण्ड, सर्ग 80) । ये राजा दण्ड भी, बहुत संभव है कि इक्ष्वाकु के सौ पुत्रों में से जिनमें विकुक्षि, निमि तथा दण्ड को प्रधान माना गया है, एक पुत्र रहे हों, उत्तरकाण्ड सर्ग 55) ।  जिससे यह समझना सरल हो जाता है कि भृगु अर्थात् शुक्राचार्य का देवों से वैर और दैत्यों के प्रति मैत्रीभाव क्यों है । ये ही शुक्राचार्य राजा बलि (प्रह्लाद का पौत्र, असुरराजा विरोचन का पुत्र) द्वारा किए जा रहे यज्ञ में भगवान् श्रीविष्णु के वामन रूप में दान में तीन पग भूमि लेने के प्रयास को विफल करने की चेष्टा में जलपात्र के जलमार्ग की नली (टोंटी) में घुसकर वामन द्वारा तिनके से बाधा दूर करने के यत्न के कारण अपना एक नेत्र गँवा बैठते हैं ...,
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि पश्चिम की परंपराएँ किस प्रकार वैदिक-धर्म से भिन्न ही नहीं, बल्कि अत्यन्त विपरीत भी हैं ।
ग्रीक संस्कृति की वीनस वही राजा दण्ड की सुपुत्री रही हों तो इसमें आश्चर्य न होगा ।
वैसे वाल्मीकि-रामायण के अनुसार यह स्थान वह दण्डकारण्य है जो वर्तमान में छत्तीसगढ़ के अंतर्गत आता है। स्कन्द-पुराण, रेवाखण्ड में जिस दारुक वन का वर्णन है वह स्थान नर्मदा नदी के तट पर कहीं है।
वैसे यहाँ से अनेक सूत्र (अब्राहम, जाबाल्-ऋषि > गैब्रियल) आदि प्राप्त होते हैं और बाइबिल के संतों के नाम तो पौराणिक वैदिक नामों से ही उद्भूत जान पड़ते हैं । यह सोचना स्वाभाविक है कि वैदिक (वैदिकं / Vatican) का, रोम का सतो-हलिक् (कैथोलिक / Catholic ) का कोई गहरा संबंध है ।
न केवल अंग्रेज़ी, फ़्रेंच, जर्मन, इतालवी, स्वीडिश् आदि का उद्गम संस्कृत में दिखाई देता है बल्कि लैटिन, रूसी आदि का भी । यह संदेह करने का पर्याप्त कारण है कि क्या भाषाशास्त्रियों ने संस्कृत से केवल विद्वेषवश ही लैटिन को संस्कृत के समकक्ष नहीं रखा? जैसे ’आर्य’ और ’द्रविड’ को नस्ल (संस्कृत नृषुलः) कहकर हमारे मन में, सनातन धर्म के अनुयायियों के बीच कृत्रिम विभाजन पैदा किया गया वैसे ही ’आर्यों’ के ’मूलस्थान’ की धारणा आरोपित कर लोकमान्य तिलक जैसे विद्वानों भी भ्रमित हो गए ।  यह ठीक है कि Arctic / आर्क्टिक् और आर्य शब्दिक रूप से अत्यन्त निकट हैं, किंतु इसी प्रकार से अनेक शब्द आर्य से इतने मिलते जुलते हैं कि आश्चर्य होता है । अंग्रेज़ी का iron, आयरन (लोहा), ग्रीक का Argentum आर्जेन्टम् (चांदी), Aurum ऑरम् (स्वर्ण), यही दर्शाते हैं कि आर्य इस ज्ञान में गहराई तक पैठे हुए थे ।
किन्तु अब्राह्मिक (Abraham / Ibrahim) religions और ब्राह्मण अर्थात् सनातन धर्म को जोड़ती है वह ऋषि अङ्गी, अङ्गिरा (अङ्गिरस) तथा जाबालि के रूप में है जो सर्वाधिक रोचक कड़ी । Angel-Religion, तथा Prophet-Religion के केंद्रीय पात्र लगता है जैसे सीधे ब्राह्मण-ग्रंथों से उठा लिए गए हों और बस उनके नाम किसी हद तक विभिन्न भाषागत प्रभावों से रूपांतरित हो गए हों ।
प्राचीन से प्राचीन बाइबिल में जिस सबसे अधिक रोचक कथा का उल्लेख है वह Jabel / Gable  और मोज़ेस के बीच के संबंध का है । Mount Hira Jabal की तरह एक Mount Sinai Egypt के साथ सऊदी अरब में भी पाया जाता है ।
Angel और Arch-Angel अङ्गी, अङ्गिरा (अङ्गिरस) का साम्य तथा जाबालि / Jabal / Gable / Gabriel का साम्य भी इसी प्रकार दृष्टव्य है । Jabal / Gable / Gabriel को आर्ष-अङ्गिरस Arch-Angel के समान महत्त्व प्राप्त है, यद्यपि Jabal / Gable / Gabriel वैदिक दृष्टि से अङ्गी, अङ्गिरा (अङ्गिरस) की तरह महत्वपूर्ण नहीं माने जाते ।
संक्षेप में इस प्रकार Angel अङ्गी, अङ्गिरा (अङ्गिरस), और Prophets (प्रपिता) Religion अस्तित्व में आए ।
यवन-धर्म के अस्तित्व में आने का एक प्रमाण वाल्मीकि रामायण में विश्वामित्र द्वारा बलपूर्वक ऋषि वसिष्ठ से सुरभि / कामधेनु गौ छीनने की कथा बालकाण्ड सर्ग 54 में देखा जा सकता है  :
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभिः सासृजत् तदा ।
तस्या हुंभार वोत्सृष्टाः पह्लवाः शतशो नृप ।।18
अर्थ :
'राजकुमार ! उनका (वसिष्ठ का) वह आदेश सुनकर उस गौ ने उस समय वैसा ही किया । उसके हुंकार करते ही सैकड़ों पह्लव  जाती के वीर पैदा हो गए। 
टिप्पणी : पह्लव वही हैं जो ईरान में 'पहलवी' कहे जाते हैं।  ईरान के सम्राट रजा (राजा) आर्यमेहर (आर्यमिहिर) शाह पहलवी कुछ वर्षों पहले ईरानी क्रान्ति के पूर्व भी इसी वंश के थे ।
नाशयन्ति बलं ........पश्यतः ।
स राजा ........ विस्फारितेक्षणः ।।19
पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि ।
विश्वामित्रार्दितान् दृष्ट्वा पह्लवाञ्शतशस्तदा ।।20
भूय एवासृजद् घोराञ्छकान् यवनमिश्रितान् ।
तैरासीत् संवृता भूमिः शकैर्यवनमिश्रितैः ।।21 
अर्थ :
'उन्होंने छोटे-बड़े कई तरह के अस्त्रों का प्रयोग करके उन पह्लवों का संहार कर डाला । विश्वामित्र द्वारा उन सैकड़ों पह्लवों को पीड़ित एवं नष्ट हुआ देख उस समय उस शबला गौ ने पुनः यवनमिश्रित शक जाति के भयंकर वीरों को उत्पन्न किया । उन यवनमिश्रित शकों से वहाँ की सारी पृथ्वी भर गयी
प्रभावद्भिर्महावीर्यैर्हेमकिंजल्क संनिभैः ।
तीक्ष्णासिपट्टिशधरैर्हेमवर्णाम्बरावृतैः ।।22
निर्दग्धं तद्बलं सर्वं प्रदीप्तैरिव पावकैः ।
ततोऽस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह ।
तैस्ते यवन काम्बोजा बर्बराश्चाकुलीकृताः ।।23
अर्थ :
'वे वीर महापराक्रमी और तेजस्वी थे । ........  अस्त्र छोड़े । उन अस्त्रों की चोट खाकर वे यवन, काम्बोज, और बर्बर जाति के योद्धा व्याकुल हो उठे ।  ....
इसी प्रकार दूसरा प्रमाण विराध-वध की कथा (अरण्यकाण्ड सर्ग 3) में इस प्रकार है :
पुत्रः किल जवस्याहं माता मम शतहृदा ।
विराध इति मामाहुः पृथिव्यां सर्वराक्षसाः।।5
अर्थ :
मैं 'जव' / यव / यावन्त / यवन् / यवन का पुत्र  हूँ मेरी माता शतहृदा है सभी राक्षस मुझे विराध के नाम से बुलाते हैं ।
टिप्पणी :
इसका एक गूढ आध्यात्मिक अर्थ भी है :
'मैं तीव्रगति वाला (मन) हूँ मेरी माता हृदा / 'हृदय' वह है जहाँ से सौ नाड़ियाँ प्रसृत होती हैं और मुझे पृथ्वी के सब राक्षस विराध (आराधना का विपरीत, अपराध) के नाम से बुलाते हैं।  राक्षस का अर्थ है विभिन्न ईश्वरविरोधी मनोवृत्तियाँ ।
शतहृदा संभवतः सतलज या शतद्रु नदी का नाम भी हो सकता है। 
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Wednesday, 27 February 2019

Yet Another look at 'The Boredom'.

Boredom : A Blessing in disguise 
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What is Boredom?
Boredom is the virtual God. Boredom as a fact; is energy, seeking release.
The energy is either in the form of the potential energy or the kinetic energy.
Even at the seed level a part and essence of energy is there active in the knowledge form.
And, at the manifest level it seeks terminals, ways through which, to get engaged in action.
The energy if thwarted, becomes restive, finds its way forcefully, revolts too and turns destructive.
For, energy could not be contained or controlled.
If the energy is given a way for free release, it could then be constructive as well.
Usually we are habitual in restricting this energy by using up in the way that may give us a reward. We end up seeking pleasure or fulfilling some purpose that looks profitable to us.
When we have enough time at hand and no work or objective to achieve through our action / activity, we feel bored. We think, there should always be something that keeps us engaged in some meaningful or even meaningless activity. We would like to play video or mobile games, and get so addicted that the games keep us damn busy and we don't even see that what precious time we have lost in the process. We always seek excitement and thrill and keep the mind ever so restive that it becomes our second nature. We are even unable to go to sleep and relax after a long, tired session of series of activities.
We just become unable to have a normal, sound sleep and sleeplessness becomes such a big problem that ruins our health as well. We go to sleep only after midnight, possibly with the help of some sedative or tranquilizer, and afterwards, when there is the time to wake-up, we get somehow out of the bed and a coffee or two injects in us energy to start the new day.
If we can realize this whole thing, and try to see what is basically wrong with us, we could find out that the energy that we face as 'boredom' needs channels to express itself. Energy is verily the life, and conversely life is energy only. This energy when obstructed and finds no way out, is felt as  boredom. And this is a hint that either we release this energy in some constructive activity or let it destroy our own life. The energy is always playful and though causes pleasure or pain, can't stay indolent, inactive. The play of energy could be either focused around a purpose or there could be only sporting of the kind but in no way, any specific purpose at all. If you see the puppies of dogs, cats, monkeys, squirrels, even birds, you will see they are born players. The play is the joy that finds its way in activity. Finding the way is itself the only purpose. No other purpose is needed nor thought of.
It is only humans who attach a purpose to all activities and gradually the element of joy gets diminished and a momentary joy is felt only when a purpose is fulfilled, which we celebrate too.
This celebration is but an artificial and a fake joy. By the time we are grown up, we have only aims, ambitions, goals and no joy in life. Still we can rediscover this joy again and see that Boredom needs to be addressed in a right way. Boredom is a challenge that invokes the latent talent within us. If we are stupid, we won't even realize this simple fact. If we are really intelligent, we would see carefully the meaning and the significance of Boredom in our life.
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धर्मग्रन्थ के तात्पर्य

धर्मग्रन्थ के तात्पर्य
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मूल, भाष्य, व्याख्या, अर्थ, टीका और टिप्पणी
किसी भी धर्मग्रन्थ की भाषा से अवगत होना उस धर्म को ठीक से समझने-जानने के लिए सबसे पहली, प्रथम अपरिहार्य आवश्यकता है । चाहे वह धर्म / धर्मग्रन्थ ईश्वरवादियों का हो, एकेश्वरवादियों का हो, बहुदेवतावाद को माननेवालों का हो, अनीश्वरवादियों का हो, या नास्तिकों का हो ।
ईश्वरवादी का तात्पर्य है उस चैतन्य शक्तिमान् सार्वत्रिक सत्ता को स्वीकार करनेवाले जो कारण से कार्य को और कार्य से कारण को, ईश्वर को और उसके कार्य को एक-दूसरे से अभिन्न मानते हैं, किन्तु व्यवहार के स्तर पर उसे आराध्य की तरह औपाधिक और औपचारिक रूप से अपना इष्ट भी मानते हैं । इसलिए भिन्न भिन्न ईश्वरवादियों के बीच मूलतः कोई मतभेद नहीं होता । वे तमाम मतभेदों को बुद्धिगत मान्यताओं के बीच की भिन्नता समझकर अपने अपने ढंग से इष्ट की उपासना / पूजा करते हैं । एकेश्वरवादियों, बहुदेवतावाद को माननेवालों, अनीश्वरवादियों, या नास्तिकों से भी उनका कोई मतभेद नहीं होता, क्योंकि उन्हें स्पष्ट है कि किसी भी मनुष्य की बुद्धि किसी भी दूसरे मनुष्य की बुद्धि से भिन्न प्रकार से कार्य करती है और इसलिए सभी बुद्धियों का जिस स्रोत से आगमन होता है, वह स्रोत इन सभी मतभेदों और विरोधाभासों से रहित है । वही स्रोत तो प्रत्येक मनुष्य की बुद्धि को परिचालित करता है और एक ही मनुष्य में भिन्न भिन्न समय पर भिन्न भिन्न प्रकार की बुद्धियाँ पैदा होती रहती हैं जिनमें से कुछ शुभ और कल्याणप्रद तो कुछ अशुभ और विनाशकारी होती हैं । साथ ही प्रत्येक मनुष्य का विवेक ही सदा उसे चेतावनी देता है कि कौन सी बुद्धि कैसी है । लेकिन बड़े से बड़ा बुद्धिमान भी प्रायः दुर्बुद्धि से ग्रस्त होकर अपना और संसार का अहित करता रहता है ।     
कोई भी धर्मग्रन्थ उस धर्म-विशेष के संस्थापक की बुद्धि / विवेक के अनुसार उसके अनुभवों की तथा उसे 'सत्य का जो साक्षात्कार हुआ, जैसे हुआ',- उसकी उसके शब्दों में की गयी प्रस्तुति होता है। किसी भी दूसरे व्यक्ति के लिए उस धर्मग्रन्थ का ठीक-ठीक मर्म समझ पाना तब तक असंभव न भी होता हो, तो भी कठिन तो होता ही है जब तक कि वह धर्मग्रन्थ आदेशात्मक शब्दों में न कहा / लिखा गया हो ।
विधि -Thou shalt do.
निषेध - Though shalt not do.
और उस भाषा को जाननेवालों के लिए उस धर्मग्रन्थ की शिक्षाओं का पालन तदनुसार कम या अधिक कठिन हो सकता है । किन्तु जब उस भाषा को न जाननेवालों को उन शिक्षाओं को समझना होता है तो मूल ग्रन्थ के  सर्वाधिक सही भाष्य, व्याख्या, अर्थ, टीका और टिप्पणी का सहारा लेना ज़रूरी हो जाता है । और जब स्वयं उस भाषा को जाननेवाले तक उस ग्रन्थ की शिक्षाओं के तात्पर्य का अलग अलग अर्थ ग्रहण करते हैं, तो भाष्य, व्याख्या, अर्थ, टीका और टिप्पणी के माध्यम से उस ग्रन्थ की शिक्षाओं को ठीक से समझ पाना तो और भी कठिन हो सकता है ।
किसी भी धर्मग्रन्थ में केवल "विधि -Thou shalt do." और "निषेध - Though shalt not do." ही होते हों तो भी उसे व्यवहार में लाना शायद संभव है लेकिन जीवन इतने तक ही सीमित नहीं होता । क्योंकि "विधि - Thou shalt do." और "निषेध - Though shalt not do." को जानने के बाद भी उस शिक्षा का पालन किस प्रकार से किया जाना चाहिए यह प्रश्न तो पैदा होता ही रहेगा । जिसे "विधि - Thou shalt do." के दायरे में करने तक सीमित समझा जाता है, वह भी परिस्थितियों की भिन्नता के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार से हो सकता है या उसका होना बस असंभव ही हो जाता है । इसी प्रकार जिसे "निषेध - Though shalt not do." के दायरे में न करने तक सीमित समझा जाता है, वह भी परिस्थितियों की भिन्नता के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार से हो सकता है या उसका होना बस असंभव ही हो जाता है ।            
संक्षेप में : कोई भी धर्म हो या कोई भी धर्मग्रन्थ हो, उसकी शिक्षाओं का व्यवहार में पालन करना हमेशा एक ऐसी चुनौती होता है जिसका उत्तर कभी-कभी तो हमारे पास होता है पर अक्सर नहीं होता ।
जब धर्म का संस्थापक अपनी किताब छोड़कर विदा हो जाता है तो उसकी समाधि बनते बनते उस धर्म के अनेक सूत्रकार, भाष्यकार, शास्त्रकार, टीकाकार और अर्थ-प्रतिपादक प्रकट हो उठते हैं। साथ ही उठ खड़े होते हैं उसके आलोचक और स्वघोषित मर्मज्ञ । आलोचक और टिप्पणीकार तो कोई भी हो सकता है । 'प्रामाणिक प्रतिनिधि' (authorized proponent) कौन हो, इस बारे में अनिश्चय से देर-अबेर अनेक सम्प्रदाय (sect) अस्तित्व में आ जाते हैं, हर सम्प्रदाय का मठ बन जाता है और फिर धर्म राजनीति का अखाड़ा बन जाता है । इस प्रकार का धर्म मनुष्य पर, वास्तव में धर्म के नाम से अपनी पहचान बनाकर भी ठेठ अधर्म ही होता है।  
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Tuesday, 26 February 2019

अभिव्यक्ति और अभिव्याप्ति

व्यक्ति और व्याप्ति
The Individual and the Collective.
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सर्वप्रथम तो यहाँ पुनः एक बार कहना चाहूँगा कि मेरा यह ब्लॉग किसी भी मत के प्रवर्तन के लिए, या समर्थन  अथवा विक्रोध में नहीं है । इसका एकमात्र प्रयोजन है : मुझे जो सत्य प्रतीत होता है उसे मेरे शब्दों में कहीं लिख रखना और चूँकि ब्लॉग मेरे लिए सर्वाधिक सुविधाजनक है इसलिए इसका प्रयोग कर रहा हूँ । यह भी बिलकुल स्वाभाविक और अपेक्षित ही है कि मेरे शब्दों से कोई सहमत या असहमत हो । सबके प्रति सम्मानपूर्वक कहना चाहूँगा :
"हाँ, मैं सही या गलत हो सकता हूँ किन्तु इस बारे में किसी से कोई बहस नहीं कर सकता ।"
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अपने अध्ययन से मैंने अनुभव किया है कि वेद यद्यपि सनातन धर्म की सारतम और सर्वोत्तम प्रस्तुति, अभिव्यक्ति और अभिव्याप्ति भी है किन्तु वेद और वेद-धर्म की अपनी मर्यादाएँ हैं जिनका उल्लंघन वे नहीं करते । उदाहरण के लिए भगवान् शिव-प्रणीत धर्म की कुछ धाराएँ वैदिक-धर्म के विपरीत जाती प्रतीत होती हैं और स्वयं वेद भी स्वीकार करते हैं कि भगवान् शिव की सम्पूर्ण महिमा का वर्णन कर पाना उनके सामर्थ्य से बाहर है । किन्तु यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि जिस सनातन धर्म का आधार वेद है, उसी वेद का सनातन आधार राम-कथा है । इसे आप यूँ भी कह सकते हैं कि पुराण-कथा भी उसी प्रकार से वेद का सनातन आधार है।
भगवान् शिव अर्थात् परमेश्वर परब्रह्म ही व्यक्ति और व्याप्ति की तरह अपने समस्त स्वरूप में सर्वत्र और सदैव अभिव्यक्त और अनभिव्यक्त हैं ।
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वाल्मीकि रामायण तथा वेद-पुराणों में जिसे इन्द्र कहा गया है वह उसी अभिव्यक्ति और अभिव्याप्ति का एक रूप है।  राम-कथा तथा पुराणों में जिन 'चरित्रों' का वर्णन है वे सब ऐसे ही हैं ।
उदाहरण के लिए अहल्या और ऋषि गौतम की कथा । अहल्या का अर्थ है वह भूमि जिस पर हल नहीं चलाया गया है, -कुँआरी धरती ।  गौतम का अर्थ है उस भूमि का स्वामी ।  यह मनुष्य-सभ्यता का वह रूप है जब कृषि का आविष्कार नहीं हुआ था, अर्थात् मनुष्य जब खेती नहीं करता था । इन्द्र को परम पराक्रमी स्वीकार किया जाता है।  वही मनुष्य इन्द्र के इस देवताओं के राजा के पद पर आसीन हो सकता है जिसने 100 अश्वमेध यज्ञ कर लिए हों।  यह जानना महत्वपूर्ण है कि यद्यपि कर्ममात्र ही यज्ञ है और यज्ञमात्र कर्मरूपी है और इसलिए जैसे कर्म सकाम और निष्काम तथा सात्विक, राजसिक एवं तामसिक होता है; बिलकुल उसी तरह यज्ञ भी सकाम और निष्काम तथा सात्विक, राजसिक एवं तामसिक होता है।
अभिव्यक्ति और अभिव्याप्ति के इस रंगमंच पर इन्द्र, ऋषि गौतम तथा अहल्या केवल नाटक के पात्र हैं । वस्तुतः तो सारा अस्तित्व ही राममय अर्थात् शिवमय, शिवस्वरूप ही है।
इन्द्र के द्वारा अहल्या (पृथ्वी) को अपवित्र किया जाना क्यों आवश्यक था ? क्योंकि धरती पर राक्षस-धर्म के साथ साथ ऋषि-धर्म भी अभिव्यक्त और अभिव्याप्त है । जब तक कृषि प्रारंभ नहीं हुई थी तब से ही ऋषि-धर्म और राक्षस-धर्म के बीच टकराव होता रहा है । और ऋषि ही यज्ञ के माध्यम से देवताओं को प्रसन्न करने और     मनुष्य (इन्द्र) की (शुभ-अशुभ) कामनाओं को पूर्ण करने में सहायक थे । यज्ञ का एक रूप है वेदोक्त विधान से देवताओं से संपर्क करना और उनकी शक्ति से लौकिक कार्य सफल करना । इसलिए इन्द्र ही वेदों का प्रधान देवता है । इन्द्र से भी अधिक महत्वपूर्ण है अग्नि क्योंकि अग्नि जहाँ प्रत्यक्ष देवता है जिसका प्रतिपादन वह स्वयं ही अपने मुख से और प्रभाव से प्रतिपादित करता है, वहीँ इन्द्र गुप्त रहकर ही अपने कार्य करता है ।लौकिक रूप में राजा को ही इन्द्रतुल्य समझा जाता है। ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र ही अग्नि की स्तुति है। 
लौकिक रूप से ही मनुष्य द्वारा कृषि-कार्य होने पर ही मनुष्य / इन्द्र यज्ञों का अनुष्ठान कर सकता है । इसके लिए गाय का घृत सर्वाधिक आवश्यक साधन है क्योंकि तभी अग्निदेवता को उनकी प्रिय आहुति प्रदान की जाती है । आहुति के दो तात्पर्य हैं : आह्वान तथा हवन (हवामहे) ; गाय वैसे भी मनुष्य अन्य पशुओं की तरह अत्यंत उपयोगी है ही किन्तु घृत की उत्पत्ति का साधन होने से स्वयं ही लोकदेवता भी है जो मनुष्य के लिए सर्वथा अवध्य ही है और उसका वध भूल से भी हो जाना ब्रह्महत्या जैसा ही घोर पाप है । उसी गाय की नर-संतति को मनुष्य ने कृषि-कार्य के लिए शस्त्रित (castrate) किया और वह भी एक प्रकार का पाप ही है जिसके प्रायश्चित के लिए वृषोत्सर्ग नामक विधान भी वेद में है ही।  वृषोत्सर्ग का अर्थ नर-वृषभ को चिह्नित कर स्वतंत्र कर दिया जाना, छोड़ दिया जाना ताकि श्रेष्ठ गौवंश की उत्पत्ति, संवर्धन और संरक्षण होता  रहे । गाय तथा बैलों के साथ ही भेड़ -बकरियों को पालना कृषि का एक सहकारी अंग है । उल्लेखनीय है कि अंग्रेज़ी शब्द cow तथा goat गौ के ही सज्ञाति / cognate हैं ।
वेद में कथा है कि इन्द्र द्वारा भूमि (अहल्या) का शीलभंग किया गया तो गौतम के शाप से उसके अंडकोष विलग्न होकर गिर गए।  तब देवताओं ने इन्द्र के लिए भेड़ (मेष) के अंडकोष लाकर उन्हें प्रत्यारोपित किया ।
इन्द्र मघवा, मेघवान् है और वृष्टि (वृषभ) तथा मेघ / मेह / मेष का कारक देवता भी है । भगवान् श्रीकृष्ण का जन्म भी रोहिणी नक्षत्र में हुआ था तथा वे वृष्णि-वंश (वार्ष्णेय) में उत्पन्न हुए थे । गाय तथा गोपों से उनका संबंध तो सभी अच्छी तरह से जानते ही हैं । वे ही भगवान् श्रीकृष्ण, इन्द्र के अहंकार को नष्ट करने के लिए अपनी कनीनिका (little finger) पर गोवर्धन पर्वत को उठाकर कृषि और गौरक्ष्य को इन्द्र के इस प्रयास से बचाते हैं ।
इन्हें प्रतीक या कल्पना कहा जा सकता है किन्तु यह ज़रूरी है कि इन कथाओं का गूढ़ अर्थ न भुला दिया जाए ।  यह इसलिए भी आवश्यक है जिससे कि वैदिक और वेद से जुड़े ग्रंथों की व्याख्या पर्याप्त सतर्कता व सावधानी से की जाए । हाँ, यदि कोई पहले से वेद इत्यादि पर संदेह करता है तो उसके लिए वेद वैसे भी निषिद्ध ही हैं और वेद उसके लिए बाध्यता तो कदापि नहीं है ।
इन्द्र जैसा ही एक पौराणिक चरित्र है राजा इल का । इल और इला परस्पर घनिष्ठतः संबद्ध हैं । वेद में यद्यपि ज्योतिषीय खगोलशास्त्र (Astronomy) का सूक्ष्म वर्णन और विवेचन है तथा 'स्तृ' धातु से उत्पन्न तारागणों (star) के भी आधिदैविक तथा आध्यात्मिक पक्ष को महत्त्व देकर देवता-तत्व के उनके स्वरूप का चित्रण है, किन्तु स्थूल भौतिक दृष्टि से भी उसकी सत्यता नभ में प्रत्यक्ष रूप से देखी जा सकती है । (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड सर्ग 88) में) इला और बुध का एक-दूसरे को देखना तथा बुध का इला और उसकी सखियों को किंपुरुषी नाम देकर पर्वत पर रहने के लिए आदेश देना इसी तथ्य का रोचक वर्णन है । इसके पूर्व के सर्ग में श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण को राजा इल की कथा सुनाते हैं :
"श्रूयते हि पुरा सौम्य कर्दमस्य प्रजापतेः ।
पुत्रो बाह्लीश्वरः श्रीमानिलो नाम सुधार्मिकः।।3
अर्थ :
'सौम्य ! सुना जाता है कि पूर्वकाल में प्रजापति कर्दम (ऋषि) के पुत्र श्रीमान् 'इल' बाह्लिक देश (इलागत / बल्तिस्तान  -- वर्त्तमान - Gilgit-Baltistan तथा 'कारु-इल' कारगिल ) के राजा थे । वे बड़े धर्मात्मा नरेश थे।
स राजा पृथिवीं सर्वां वशे कृत्वा महायशाः ।
राज्यं चैव नरव्याघ्र पुत्रवत् अपालयत् ।।4
अर्थ :
'पुरुषसिंह ! वे महायशस्वी भूपाल सारी पृथिवी को वश में करके अपने राज्य की प्रजा का पुत्र की भाँति पालन करते थे ।
टिप्पणी : यहाँ "सारी पृथिवी को वश में करके" का तात्पर्य है कि उन्होंने भौतिक भूलोक अर्थात् भू-तत्व को वश में कर लिया था और अंतरिक्ष अर्थात् स्थूल भौतिक और सूक्ष्म आधिभौतिक आकाश में विचर रहे थे । इसकी पुष्टि बाद के श्लोकों से होती है ।
सुरैश्च परमोदारैर्दैतेयश्च महाधनैः ।
नाग-राक्षस-गन्धर्वैर्यक्षैश्च सुमहात्मभिः ।।5
पूज्यते नित्यशः सौम्य भयार्तै रघुनन्दन ।
अबिभ्यंश्च त्रयो लोकाः सरोषस्य महात्मनः ।।6
अर्थ :
'सौम्य ! रघुनन्दन ! परम उदार देवता, महाधनी दैत्य तथा नाग, राक्षस, गन्धर्व और महामनस्वी यक्ष, -- ये सब भयभीत होकर सदा राजा इल की स्तुति-पूजा करते थे तथा उन महामना नरेश के रुष्ट हो जाने पर तीनों लोकों के प्राणी भय से थर्रा उठते थे ।
टिप्पणी : जैसे रावण ने पृथिवीलोक को जीत कर इन्द्र तथा देवताओं, यहां तक कि यमराज पर भी विजय पा ली थी, कुछ वैसा ही बल और सामर्थ्य राजा इल में भी था किन्तु वह 'सुधार्मिक' था; न कि निरंतर पापकर्म में संलग्न, रावण जैसा दुर्बुद्धि या हठवादी । उपरोक्त श्लोक इस सत्य को भी रेखांकित करते हैं, -इसके भी द्योतक (key-words) हैं कि राजा इल ही वह ऐतिहासिक राजा था जिसे ईश्वर की तरह पूरे विश्व में स्वीकार किया जाता था।
इस कथा का विस्तार अगली पोस्ट्स में होगा किन्तु यह स्मरण रखना होगा कि किस प्रकार राजा दण्ड के द्वारा भृगुकन्या पर बलात्कार किए जाने के बाद पृथ्वी के उस हिस्से पर निरंतर सात दिनों तक धुलिवर्षा होती रही थी जहाँ ऋषि भृगु ने अपनी पुत्री से उसके पुनः पवित्र होने तक पास के सुन्दर सरोवर के समीप रहने और  समय की प्रतीक्षा करते रहने के लिए कहा था ।
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Monday, 25 February 2019

मुहूर्त दो घड़ी का !

श्रीराम-जन्मभूमि
इन्द्र का यज्ञ और निमि का यज्ञ !
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वाल्मीकि-रामायण : सर्ग 55
(पिछली पोस्ट से निरंतर)
स राजा वीर्यसम्पन्नः पुरं देवपुरोपमम् ।
निवेशयामास तदा अभ्याशे गौतमस्य तु ।।5
अर्थ :
'उन पराक्रमसम्पन्न नरेश (निमि) ने उन दिनों गौतम-आश्रम के निकट देवपुरी के समान एक नगर बसाया ।
पुरस्य सुकृतं नाम वैजयन्तमिति श्रुतम् ।
निवेशं यत्र राजर्षिर्निमिश्चक्रे महायशाः ।।6
'महायशस्वी राजर्षि निमि ने जिस नगर में अपना निवासस्थान बनाया, उसे सुन्दर नाम दिया गया वैजयन्त । इसी नाम से उस नगर की प्रसिद्धि हुई । (देवराज इन्द्र के प्रासाद का नाम वैजयन्त है, उसी की समता से निमि के नगर का भी यही नाम रखा गया था ।)
तस्य बुद्धिः समुत्पन्ना निवेश्य सुमहापुरम् ।
यजेयं  दीर्घसत्रेण पितुः प्रह्लादयन् मनः ।।7
अर्थ :
'उस महान नगर को बसाकर राजा के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैं पिता के हृदय को आह्लाद प्रदान करने के लिए एक ऐसे यज्ञ का अनुष्ठान करूँ, जो दीर्घकाल तक चालू रहनेवाला हो ।
ततः पितरमामन्त्र्य इक्ष्वाकुं हि मनोः सुतम् ।
वसिष्ठं वरयामास पूर्वं ब्रह्मर्षिसत्तमम् ।।8
अनन्तरं स राजर्षिर्निमिरिक्ष्वाकुनन्दनः ।
अत्रिमङ्गिरसं चैव भृगुं चैव तपोनिधिम् ।।9
अर्थ :
'तदनन्तर इक्ष्वाकुनन्दन राजर्षि निमि ने अपने पिता मनुपुत्र इक्ष्वाकु से पूछकर अपना यज्ञ कराने के लिये सबसे पहले ब्रह्मर्षिशिरोमणि वसिष्ठजी का वरण किया । उसके बाद अत्रि, अङ्गिरा, तथा तपोनिधि भृगु को भी आमन्त्रित किया।।           
तमुवाच वसिष्ठस्तु निमिं राजर्षिसत्तमम् ।
वृतोऽहं पूर्वमिन्द्रेण अन्तरं प्रतिपालय ।।10
अर्थ :
'उस समय ब्रह्मर्षि वसिष्ठ ने राजर्षियों में श्रेष्ठ निमि से कहा -- 'देवराज इन्द्र ने एक यज्ञ के लिये पहले से ही मेरा वरण कर लिया है; अतः वह यज्ञ जब तक समाप्त न हो जाए तब तक तुम मेरे आगमन की प्रतीक्षा करो' । अनन्तरं महाविप्रो गौतमः प्रत्यपूरयत् ।
वसिष्ठोऽपि महातेजा इन्द्रयज्ञमथाकरोत् ।।11
अर्थ :
'वसिष्ठजी के चले जाने के बाद महान् ब्राह्मण महर्षि गौतम ने आकर उनके काम को पूरा कर दिया । उधर महातेजस्वी वसिष्ठ भी इन्द्र का यज्ञ पूरा कराने लगे ।
निमिस्तु राजा विप्रांस्तान् समानीय नराधिपः ।
अयजिद्धमवत्पार्श्वे स्वपुरस्य समीपतः ।
पञ्चवर्षसहस्राणि राजा दीक्षामथाकरोत्।।12
(उपरोक्त श्लोक 3 पंक्तियों का है ।)
अर्थ :
'नरेश्वर राजा निमि ने उन ब्राह्मणों को बुलाकर हिमालय के पास अपने नगर के निकट ही , यज्ञ आरम्भ कर दिया, राजा निमि ने पाँच हजार वर्षों तक के लिए यज्ञ की दीक्षा ली ।
इन्द्रयज्ञावसाने तु वसिष्ठो भगवानृषिः ।
सकाशमागतो राज्ञो हौत्रं कर्तुमनिन्दितः ।।13
तदन्तरमथापश्यद् गौतमेनाभिपूरितः ।
अर्थ :
'उधर इन्द्र-यज्ञ की समाप्ति होने पर अनिन्द्य भगवान् वसिष्ठ ऋषि राजा निमि के पास होतृकर्म (यज्ञ) करने के लिए आये। वहाँ आकर उन्होंने देखा कि जो समय प्रतीक्षा के लिये दिया था, उसे गौतम ने आकर पूरा कर दिया ।
कोपेन महताविष्टो वसिष्ठो ब्रह्मणः सुतः ।।14
स राज्ञो दर्शनाकाङ्क्षी मुहूर्तं समुपाविशत् ।
तस्मिन्नहनि राजर्षिर्निद्रापहृतो भृशम्।।15
अर्थ :
यह देख ब्रह्मकुमार वसिष्ठ महान् क्रोध से भर गये और राजा से मिलने के लिए (एक) मुहूर्त भर अर्थात् दो घड़ी (घटिका, जो 24 मिनट की होती है) वहाँ बैठे रहे।  परंतु उस दिन राजर्षि निमि अत्यन्त निद्रा के वशीभूत हो सो गये थे ।
(निमि तथा निद्रा काल के दो माप (measure) हैं।  इसी प्रकार दिन, घड़ी, मुहूर्त तथा वर्ष भी काल के माप (measure) हैं । किन्तु ये माप भी पुनः काल के दो अलग अलग आयामों में होते हैं । दिन, घड़ी, मुहूर्त तथा वर्ष काल के ऐतिहासिक, जागृत दशा के समय में घटित होते हैं । निद्रा में काल का यह पैमाना कार्य नहीं करता वहाँ कोई दूसरा पैमाना कार्य करता है । इसी प्रकार देवलोक तथा मृत्युलोक में भी काल का पैमाना अलग-अलग होता है ।)
ततो मन्युर्वसिष्ठस्य प्रादुरासीन्महात्मनः ।
अदर्शनेन राजर्षेर्व्याहर्तुमुपचक्रमे।। 16
अर्थ :
'राजा मिले नहीं, इस कारण महात्मा वसिष्ठ मुनि को बड़ा क्रोध हुआ । वे राजर्षि को लक्ष्य करके बोलने लगे --
यस्मात् त्वमन्य वृतवान् मामवज्ञाय पार्थिव ।
चेतनेन विनाभूतो देहस्ते पार्थिवैष्यति ।।17
अर्थ :
'भूपाल निमे ! तुमने मेरी अवहेलना करके अन्य पुरोहित (गौतम ऋषि) का वरण कर लिया है, इसलिये तुम्हारा यह शरीर अचेतन होकर गिर जायगा'
ततः प्रबुद्धो राजा तु श्रुत्वा शापमुदाहृतम् ।
ब्रह्मयोनिमथोवाच स राजा क्रोधमूर्च्छितः ।।18
अर्थ :
'तदनन्तर राजा की नींद खुली । वे उनके दिये हुए शाप की बात सुनकर क्रोध से मूर्च्छित हो गये और ब्रह्मयोनि वसिष्ठ से बोले --
अजानतः शयानस्य क्रोधेन कलुषीकृतः ।
उक्तवान् मम शापाग्निं यमदण्डमिवापरम्।।19
अर्थ :
'मुझे आपके आगमन की बात मालूम नहीं थी इसलिए सो रहा था । परंतु आपने क्रोध से कलुषित होकर मेरे ऊपर दूसरे यमदण्ड की भाँति शापाग्नि का प्रहार किया है ।
तस्मात् तवापि ब्रह्मर्षे चेतनेन विनाकृतः ।
देहः स सुचिरप्रख्यो भविष्यति न संशयः ।।20
अर्थ :
"अतः ब्रह्मर्षे ! चिरन्तन शोभा से युक्त जो आपका शरीर है, वह भी अचेतन होकर गिर जायगा --इसमें संशय नहीं है ।
इति रोषवशादुभौ तदानी -
मन्योन्यं शपितौ नृपद्विजेन्द्रौ ।
सहसैव बभूवतुर्विदेहौ
तत्तुल्याधिगतप्रभाववन्तौ।।21
अर्थ :
'इस प्रकार उस समय रोष के वशीभूत हुए वे दोनों नृपेंद्र और द्विजेन्द्र परस्पर शाप दे सहसा विदेह हो गये । उन दोनों के प्रभाव ब्रह्माजी के समान थे ।
(सर्ग 55 पूर्ण हुआ)
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वर्त्तमान में अयोध्या में भगवान् श्रीराम की जन्मस्थली पर मन्दिर का निर्माण बहुत ज्वलंत प्रश्न है ।
संस्कृत में 'निम' प्रत्यय 'अर्ध' के अर्थ में प्रयुक्त होता है । (हिंदी - उर्दू में नीम-हक़ीम पर ध्यान दें !)
राजा निमि इसके अपवाद न थे । वे कोई महान् यज्ञ करने जा रहे थे । जैसे हमारा शासन अयोध्या में राम-जन्मभूमि पर मन्दिर-निर्माण रूपी यज्ञ करने के लिए उत्कण्ठित दिखाई देता है । इन्द्र का यज्ञ किसी दूसरे (देवलोक) के तल पर होनेवाली घटना है । ऋषि वसिष्ठ के लिये देवलोक या पृथ्वीलोक पर 'सशरीर' आना-जाना कोई कठिन कार्य नहीं है । ऋषि गौतम के लिए भी शायद ऐसा ही है । किन्तु गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या और इन्द्र की कथा भी यहाँ याद आती है ।
वाल्मीकि रामायण में भी यह कथा आती है, जहाँ अहल्या कौतूहलवश गौतम के वेष में उनकी अनुपस्थिति में उनके आश्रम में आये हुए इन्द्र के प्रति आकर्षित होती है और दोनों में समागम होता है । ऋषि गौतम अहल्या को शाप देकर कहते हैं  :
"दुर्बुद्धे ! अब तुम भगवान् श्रीराम का अवतार होने तक शिला (की तरह जड) होकर रहो । उनके चरणों का स्पर्श होने पर तुम पुनः पहले जैसी निष्कलंक और पवित्र हो जाओगी।"
फिर इन्द्र देवताओं से जाकर कहते हैं :
"तुम्हारा काम (भगवान् श्रीराम का अवतार होने के लिए जो आवश्यक था ) मैंने कर दिया है।"
 (... इसके बाद की कथा ऋग्वेद में भी पाई जाती है।)
अभी ब्रह्मर्षि वसिष्ठ शायद इन्द्र के किसी यज्ञ के अनुष्ठान में गए हुए हैं, और न भी गए हों तो भी उन्हें आमंत्रण करने तक का भान हमारे समय के राजा निमि को नहीं है । हमारे समय के निमि को तो इस बारे में भी सुनिश्चय नहीं है कि क्या भगवान् श्रीराम का जन्म भी कभी हुआ था ?
इस सर्ग के गूढ़ार्थ अनेक और कई तरह के हैं इसलिए इनका मर्म तो महर्षि वाल्मीकि ही जानते हैं।
हम जैसे पामर तो बस अनुमान और विवाद करते रहते हैं।
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सुना है कल दिनांक 26 फ़रवरी 2019 से पुनः इस मामले में सुनवाई होनेवाली है ।
जय श्रीराम !
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Sunday, 24 February 2019

राजा निमि तथा वसिष्ठ

काल-आख्यान
इक्ष्वाकुवंश की पुरा-कथा
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पुरा अर्थात् पुराणोक्त कथा वह है जो काल के ऐतिहासिक आयाम से भिन्न उस दूसरे आयाम में घटित होती है जो यद्यपि नित्य और सनातन है किन्तु ऐतिहासिक रूप से भी कथा के रूप में कही-सुनी जा सकती है।  वस्तुतः जिसे 'प्राचीन' इतिहास कहा जाता है वह किसी कुल का इतिहासमात्र होता है और ऐसे अनेक कुलों का सम्मिलित / समग्र इतिहास किसी सभ्यता का इतिहास होता है जिसका अंतिम सिरा हमारा यह क्षण और समय होता है। इस प्रकार काल का ऐतिहासिक आयाम उस वृहत समय का एक आयाम है जो सभ्यता तक सीमित है । काल का पुराणोक्त आयाम वह है जिसमें किसी अन्य सभ्यता के बारे में वर्णन किया जाता है और वह जब अस्तित्व में होती है उसे 'कल्प' कहा जाता है । इस आयाम में अनेक भिन्न भिन्न सभ्यताओं का उल्लेख होता है जो 'हमारे समय में' हमें उपलब्ध नहीं होती ।
इसे और स्पष्ट करने के लिए काल के उस आयाम की 'पहचान' [निमि  / निमेष, वसिष्ठ, जयंत, वैजयंत, अत्रि, अङ्गिरा, भृगु, वरुण, उर्वशी, पुरूरवा, मित्र, बुध, इन्द्र, सूर्य (विवस्वान्) अगस्त्य, कुम्भ, तेज, मित्रावरुण, वायु, ओज, मिथि / जनक (सर्ग 57 श्लोक 20), मिथिला / मैथिल / मैथिलि, नहुष, नहुषपुत्र ययाति, शुक्राचार्य (भृगुपुत्र), आयु (पुरूरवा का उर्वशी से उत्पन्न पुत्र) ययाति की पत्नियाँ शर्मिष्ठा तथा देवयानी, पूरु (शर्मिष्ठा का पुत्र), यदु (देवयानी का पुत्र), शर्मिष्ठा दैत्यकुल की कन्या और वृषपर्वा की पुत्री थी / है, देवयानी शुक्राचार्य की पुत्री है] के माध्यम से की जाती है। सर्ग 58 में उपरोक्त जिन चरित्रों का वर्णन है उनका काल ऐतिहासिक के रूप भी यद्यपि सत्य है किन्तु ऐतिहासिक तक सीमित नहीं बल्कि इतिहास की धारा की आधारभूमि है ।
इस प्रकार उपरोक्त चरित्रों के वर्णन को ठीक से समझने के लिए यह आवश्यक है कि उपरोक्त चरित्रों का उल्लेख किस सन्दर्भ में है; - काल के ऐतिहासिक सन्दर्भ में, या पौराणिक / पुरा-सन्दर्भ में।
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राजा निमि, इक्ष्वाकु वंश में राजा इक्ष्वाकु के बारहवें पुत्र थे।
वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड,  सर्ग 55 के प्रारंभिक श्लोक इस प्रकार हैं :
एष ते नृगशापस्य विस्तरोऽभिहितो मया ।
यद्यस्ति श्रवणे श्रद्धा शृणुष्वेहापरां कथाम् ।।1
अर्थ :
(श्रीराम ने कहा --) 'लक्ष्मण ! इस तरह मैंने तुम्हें राजा नृग के शाप का प्रसंग (पिछले 54 वें सर्ग में) विस्तारपूर्वक बताया है।  यदि सुनने की इच्छा हो तो दूसरी कथा भी सुनो।
एवमुक्तस्तु रामेण सौमित्रिः पुनरब्रवीत्।
तृप्तिराश्चर्य भूतानां कथानां नास्ति मे नृप।।2
अर्थ :
श्रीराम के ऐसा कहने पर सुमित्राकुमार श्रीलक्ष्मण बोले -
"नरेश्वर! इन आश्चर्यजनक कथाओं के सुनने से मुझे कभी तृप्ति नहीं होती है ।
लक्ष्मणेनैवमुक्तस्तु राम इक्ष्वाकुनन्दन ।
कथां परमधर्मिष्ठां व्याहर्तुमुपचक्रमे ।।3
अर्थ :
लक्ष्मण के इस प्रकार कहने पर इक्ष्वाकुनन्दन श्रीराम ने पुनः उत्तम धर्म से युक्त कथा कहनी प्रारंभ की ।
आसीद् राजा निमिर्नाम इक्ष्वाकूणां महात्मनाम् ।
पुत्रो द्वादशमो वीर्ये धर्मे च परिनिष्ठितः।।4
"सुमित्रानन्दन ! महात्मा इक्ष्वाकु-पुत्रों में निमि नामक एक राजा हो गए हैं, जो इक्ष्वाकु के बारहवें पुत्र थे । वे पराक्रम और धर्म में पूर्णतः स्थिर रहनेवाले थे ।"
टिप्पणी :
1. श्रीमद्भागवत (नवम स्कंध 6 /4) में, विष्णुपुराण (4 /2 /11) में तथा महाभारत (अनुशासनपर्व 2/5) में इक्ष्वाकु के सौ पुत्र बताये गये हैं।  इनमें प्रधान थे -- विकुक्षि, निमि और दण्ड । इस दृष्टि से निमि द्वितीय पुत्र सिद्ध होते हैं; परंतु यहाँ मूल में इनको बारहवाँ (द्वादशमः) कहा गया है । संभव है कि गुण-विशेष के कारण ये तीन प्रधान कहे गए हों और अवस्था-क्रम से बारहवें ही हों ।
(यहाँ गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित वाल्मीकि-रामायण - द्वितीय भाग पृष्ठ 735 से उद्धृत)
2. यहाँ पर गीता अध्याय ४ श्लोक प्रथम का सन्दर्भ देना प्रासंगिक होगा --
श्रीभगवानुवाच :
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।
अर्थ :
इस अविनाशी योग को मैंने पूर्व में (पुरातन काल में) विवस्वान् (सूर्य) से कहा था, विवस्वान् (सूर्य)  ने मनु से कहा था और इसे ही बाद में मनु ने इक्ष्वाकु से कहा था ।
3. इस प्रकार राजा निमि ने जिनका जन्म इक्ष्वाकुकुल में हुआ था, कुछ काल तक के लिए, वसिष्ठ के शाप से विदेह (अशरीरी) अस्तित्व पाया था, और राजा निमि के शाप से महर्षि वसिष्ठ ने भी इसी प्रकार कुछ काल तक के लिए विदेह (अशरीरी) अस्तित्व पाया था।  (परस्परं शापयन्तौ।)
इस प्रकार ऋषि कुम्भज (अगस्त्य) तथा वसिष्ठ भी पूर्व में कुछ काल तक अशरीरी रहे। 'आयु' 'ययाति' 'पूरूरवा' आदि भी इसी प्रकार कालवाचक अशरीरी सत्ताएँ (entities) हैं, जो मनुष्यमात्र के जीवन में उसके माध्यम से जीवन जीती हैं। उर्वशी (अप्सरा) और मित्र, वरुण आदि देवता भी किसी तल पर शरीरी तो दूसरे किसी तल पर अशरीरी रूप से अस्तित्व में होते हैं। उल्लेखनीय है कि अंत में राजा निमि को अपने लिए मनुष्य के नेत्रों में सदा के लिए रहने का स्थान प्राप्त हुआ, जहाँ वे काल से अछूते रहकर देवता की तरह अजर-अमर हैं ।  
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Saturday, 23 February 2019

योग, ज्ञान और अग्नि

योगाग्नि : ज्ञानयोग 
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वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।
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अर्थ : समस्त वर्णों को तथा उनके समस्त अर्थों के संघों को, रसों तथा वेदवाक्यों को भी मङ्गलमय स्वरूप प्रदान करनेवाले भगवान् श्रीगणेश तथा माता सरस्वती की मैं वन्दना करता हूँ।
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अस्तित्व के बारे में मूढ से भी मूढ भी जानता है कि मैं ज्ञाता (हूँ) और अन्य सब कुछ ज्ञेय है।
इस प्रकार 'मैं' का ज्ञान (ज्ञाता) ज्ञेय से आवरित है । ज्ञाता के अभाव में यह भी नहीं कहा जा सकता, कि ज्ञेय का ज्ञाता से स्वतंत्र अस्तित्व है भी या नहीं।  वह प्रश्न ही नहीं उठता ।
इस प्रकार ज्ञाता बोधमात्र है । किन्तु यही बोध तब ज्ञान का रूप ले लेता है जब इसे 'वर्ण' प्राप्त होता है ।
वर्ण का तात्पर्य है कोई रंग-रूप, आकृति (shade and form).
वर्ण शब्द 'वृ' धातु का विस्तार है जिसका उपयोग वृणोति (चुनने / elect), वृणीते (छाँटने / select), तथा वारण / वारयति, -निवारण करने (reject) करने के अर्थ में अलग-अलग स्थानों पर होता है।
वरं का अर्थ होता है श्रेष्ठ, अवरं का अर्थ होता है 'दूसरा' / और ।
जैसे वर्ण का अर्थ होता है, वैसे ही अर्थ का भी वर्ण होता है ।  इसलिए वर्ण का ज्ञान होते ही वर्णों के समूह (संघ) का तथा अर्थों के भी संघों का ज्ञान होता है ।
इन सभी वर्णों तथा उनके अर्थों (तात्पर्यों) में से कुछ मङ्गलकारी / शुभ होते हैं तो कुछ अमङ्गल / अशुभ भी हो सकते हैं। इसी प्रकार इन असंख्य तात्पर्यों में से कुछ रसपूर्ण, कुछ रसहीन तथा कुछ नीरस (विरस) [साधु चरित सुभ चरित कपासू । निरस बिसद गुनमय फल जासू।।] भी हो सकते हैं। क्योंकि निरस होने पर भी वे गुणमय तो होते ही हैं। और वेदवाणी भी इसी प्रकार किसी के लिए सार्थक या निरर्थक, सरस, रसरहित या विरस, हो सकती है।
ज्ञान वर्ण के रूप में अग्नि है और अग्नि अर्थ के रूप में ज्ञान (बोध) है।
अग्नि स्वज्योति है किन्तु उस स्थूल ज्योति का बोध जिसे होता है वह स्वयं सूक्ष्मतर चेतनज्योति है, -जिसे अग्नि का एवं अपने-आपका भी ज्ञान अवश्य ही होता है। अग्नि के इस प्रकार के परोक्ष ज्ञान को ही प्रकृति तथा प्रत्यक्ष ज्ञान को पुरुष कहा जाता है । इस प्रकार से पुरुष, अस्तित्व का वर्गीकरण जड तथा चेतन इन दो वर्णों में करता है । यह तो कोई चेतन, अर्थात् 'पुरुष' ही होता है जो समस्त ज्ञेय को प्रकृति कहता है, किन्तु जिसे वह 'जड' कहता है वह चेतन है या चेतनारहित इसका कोई सुनिश्चित प्रमाण उसके पास नहीं होता । वर्ण का ही एक प्रकार / लक्षण है 'लिंग', और इस प्रकार चेतन पुरुष भी लिंग-विशेष के अनुसार पुनः पुंलिंग या स्त्रीलिंग होता है।इस प्रकार इस चेतन पुरुष की भी पुनः दो 'प्रकृतियाँ' / विशेषताएँ 'नर' तथा 'नारी' हो जाती हैं।
जब यह चेतन पुरुष जीवन के विविध अनुभवों और उनके ज्ञान (वर्ण) को बुद्धि / स्मृति में ग्रहण करता है, तो ज्ञान की बुद्धि / स्मृति रूपी इस अग्नि में क्रमशः परिपक्व होने लगता है।  इस अग्नि में उसके स्वरूप की सारी अशुद्धियाँ जलकर भस्म हो जाती हैं और केवल शुद्ध ज्ञान ही ज्योतिर्मय स्वरूप में शेष रहता है ।  'नर' की प्रकृति / प्रवृत्ति 'नारी' की प्रकृति / प्रवृत्ति से इस रूप में बहुत भिन्न होती है कि 'नर' की बुद्धि तर्ककुशल होती है, जबकि 'नारी' की बुद्धि भावनाकुशल होती है । इसलिए 'नर' तर्क से 'ईश्वर' नामक जिस परम सत्ता का 'अनुमान' करता है, उसका ही 'निश्चय' 'नारी' भावना से कर लेती है।
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।
(गीता अध्याय ३, श्लोक ११)
इस प्रकार 'नर' जहाँ ईश्वर / 'देवता' को तर्क से जानता है, वहीँ 'नारी' ईश्वर / 'देवता' को भावना से अनुभव करती है, और दोनों ही इस प्रकार अपने-अपने तरीके से उस परम श्रेय की प्राप्ति कर लेते हैं ।
भगवान् शंकर जहाँ 'नर' का आदर्श उदाहरण हैं, वहीँ भगवती पार्वती 'नारी' का ।
इसलिए भगवान् शंकर 'ईश्वर' के स्वरूप का चिंतन करते हुए अपने ही हृदय में उसे अन्तर्यामी की तरह जान लेते हैं, तो भगवती पार्वती केवल उससे परम-प्रीति होने मात्र से ही उसे अन्तर्यामी की तरह जान लेती हैं ।
गोस्वामी तुलसीदास का श्रीरामचरितमानस इसी आख्यान से शुरू होता है ।
वन में विचरते श्रीराम को आँसू बहाते हुए सीता की खोज में भटकते देख, सती (तब पार्वती दक्षपुत्री थी और उसका सती नाम था) को संदेह होता है कि उसके पति (शंकर) इस राजपुत्र को ईश्वर समझकर प्रणाम क्यों कर रहे हैं, जबकि यह तो कोई साधारण सा मनुष्य प्रतीत होता है । तब भगवान् शंकर उसके संदेह को (उसके कहे बिना ही) जान जाते हैं और उससे कहते हैं :
"मैं कुछ पल इस बरगद-तले विश्राम करता हूँ तब तक तुम स्वयं ही इसकी परीक्षा क्यों नहीं कर लेती कि तुम्हें साधारण सा प्रतीत होनेवाला यह मनुष्य ईश्वर है या नहीं।"
जब सती भगवान् श्रीराम के ईश्वर होने या न होने के अपने संदेह की निवृत्ति के लिए उनके सामने से सीता का रूप धारण कर गुज़रती हैं तो भगवान् श्रीराम उन्हें प्रणाम कर पूछते हैं :
"तुम भगवान् शंकर के बिना अकेली ही इस वन में कहाँ भटक रही हो? भगवान् शंकर कहाँ हैं ?"
[उल्लेखनीय है कि 'श्रीरमण महर्षि से बातचीत' / Talks with Sri Raman Maharshi पुस्तक में भी यह कथा है।] 
इस पर सती को स्पष्ट हो जाता है कि श्रीराम साक्षात ईश्वर परब्रह्म हैं, और वह भय से व्याकुल होकर तुरंत वहाँ जाने लगती हैं जहाँ भगवान् शंकर बरगदतले उनकी प्रतीक्षा कर रहे होते हैं । सती से पूछते हैं :
"तुमने किस प्रकार से परीक्षा की ?"
इस पर सती सकुचा जाती हैं और कुछ नहीं कहतीं।
तब भगवान् शंकर ध्यान लगाकर पूरे प्रसंग को जान जाते हैं और देख लेते हैं कि सती ने किस प्रकार सीता का वेश धारणकर भगवान् श्रीराम की परीक्षा ली थी।  
तब भगवान् शंकर को अत्यंत पीड़ा होती है और उन्हें लगता है कि अब वे सती को पत्नी की तरह नहीं देख सकते क्योंकि वह अब उनके लिए सीता की तरह आराध्या हैं न कि पत्नी की तरह प्रिय । और उनसे पति की तरह का व्यवहार करना ईश्वर-भक्ति के विरुद्ध उनके लिए अवश्य ही अकल्पनीय घोर पाप और अपराध होगा ।
तब दोनों कैलास लौट जाते हैं और भगवान् शंकर 87000 वर्षों तक के लिए 'स्वरूप को संभालकर' समाधि में डूब जाते हैं।  जब वे उस समाधि से उठते हैं तो दक्ष के यज्ञ का समाचार उन्हें प्राप्त होता है और सती उनसे वहाँ जाने की अनुमति माँगती है । पहले तो भगवान् शंकर उसे वहाँ न जाने के लिए समझाते हैं किन्तु फिर अंततः नन्दीश्वर आदि गणों को उनके साथ भेजकर उन्हें जाने देते हैं ।
भगवान् शंकर को यज्ञ में आमंत्रित न किए जाने और यज्ञ में भगवान् शंकर के लिए हवन का भाग न दिए जाने पर सती योगाग्नि प्रज्वलित कर उसमें स्वयं को भस्म कर लेती हैं ।
अग्नि ज्ञान है और ज्ञान अग्नि, अग्नि भावना है और भावना अग्नि ।
योग अग्नि है और अग्नि योग।
ज्ञान / भावना का अग्नि से योग है योगाग्नि ।
लेकिन पूरी कथा तो बालकाण्ड में ही पढ़ना चाहिए। 
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Wednesday, 20 February 2019

नैमिषारण्य

चतुर्युगी नारायण की कथा
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अपने राज्य का सुचारु संचालन और प्रजा की संतुष्टि के प्रति आश्वस्त होने के बाद राजा नृग आखेट के लिए कुछ सैनिकों के साथ वन में चले जाया करते थे, जहाँ वे वन की विषम परिस्थितियों में क्रूर और हिंसक जानवरों का शिकार करते थे । हाँ, वे उनके साथ कभी कभी उन मृगों का शिकार भी अवश्य करते थे जो अपने मृग-समुदाय के बहुत शक्तिशाली नायक होते थे । उद्देश्य एकमात्र यह होता था कि अंततः उन्हें अत्यंत थकाकर हरा दिया जाए। उसके थक जाने पर वे उसे बस छोड़ देते थे और लौट आते थे, उसका वध कदापि नहीं करते थे, न उनके किसी सैनिक को ऐसा करने की आज्ञा थी ।
इसी क्रम में वे एक बार एक अतिशय चपल मृग का पीछा करते हुए अपेक्षाकृत गहन वन में भटक गए। उन्हें प्यास भी लग रही थी । वे प्यास के कारण व्याकुल होकर दूर दूर तक यह देख रहे थे कि क्या कहीं पानी मिल सकेगा ?
उन्हें थोड़ी ही दूर पर किसी आश्रम के चिह्न दिखाई पड़े और वे उस दिशा में चल पड़े ।
समीप जाने पर उन्हें कुछ कुटियाएँ दिखलाई दीं, और वे उनमें से एक के द्वार पर जा खड़े हुए ।
इसी समय उस कुटिया से दो-तीन बालक बाहर आए तो राजा ने उनसे उनके बारे में पूछा।
तब राजा को बताया गया कि यह ऋषि गरुत्म का आश्रम है ।
चूँकि ऋषि गरुत्म उस समय कहीं गए हुए थे इसलिए राजा ने अपना घोड़ा समीप के वृक्ष से बाँध दिया, और उनकी प्रतीक्षा करता हुआ बाहर बैठा रहा । उन बालकों ने राजा और उसके घोड़े को पीने के लिए जल दिया,  राजा को फल इत्यादि खाने के लिए दिए और राजा स्वस्थचित्त होकर बैठ गए।
तभी आकाश में तेज गति से उड़ता हुआ एक विकराल गरुड़ वहाँ आ पहुँचा, और उसका आकार धीरे-धीरे छोटा होते होते अंततः वह मुनि के रूप में राजा के समक्ष आ खड़ा हुआ ।
राजा नृग ने उन्हें अपना परिचय देते हुए सादर चरणस्पर्श और प्रणाम किया।
तब वे मुनि जो स्वयं गरुत्मान् ऋषि ही थे, राजा से बोले :
"राजन्य ! मेरे इस अरण्य में तुम जैसा कोई धर्मशील मनुष्य ही प्रवेश कर पाता है । तुम आखेट करते हुए भी केवल क्रीड़ा के लिए ही निरपराध प्राणियों का पीछा करते हो, उन्हें मारते नहीं और उन्हें चोट पहुँचाए या वध किए बिना ही छोड़ देते हो । तुम जैसे पुण्यात्मा ही मेरे इस वन में प्रवेश कर पाते हैं । और जो भी यहाँ प्रवेश करता है, उसकी पात्रता होती है कि मैं उससे भगवान् चतुर्युगी नारायण के स्वरूप का वर्णन करूँ ! इसीलिए मैं यहाँ इस आश्रम नित्य और सनातन रूप से वास करता हूँ !
भगवान् चतुर्युगी नारायण ही नर के रूप में नित्य अवतरित होते हैं और निमिषमात्र में चारों युगों की सृष्टि कर लेते हैं। वे ही चारों युगों के रूप में काल का सृजन करते हैं जबकि स्वयं वे काल से अस्पर्शित हैं, जबकि  काल उनके तत्व से नितान्त अनभिज्ञ रहता है । काल के साथ ही आकाश आदि पञ्चतत्व प्रकट (और लुप्त) होते रहते हैं। यह क्रम भगवान् चतुर्युगी नारायण के नेत्रों के निमिषमात्र के उन्मेष-निमेष के समय में बारम्बार होता रहता है ।
चारों युग नर (मनुष्य) के लिए अत्यंत विस्तारपूर्ण प्रतीत होते हैं और वह उन पर कोई क्रम कल्पित और आरोपित कर वैसा अनुभव करने लगता है, जबकि चारों 'युग' युगपत् अर्थात् परस्पर साथ ही और सबके एक ही समय में होते हैं, और भगवान् चतुर्युगी नारायण के निमिषमात्र उन्मेष-निमेष के समय में होते हैं । मनुष्य में भी ऐसा होता है, किन्तु प्रत्येक मनुष्य-विशेष की स्थिति में, कोई एक युग किसी समय सर्वोपरि महत्त्व का, प्रधान, -और शेष तीन गौण होते हैं। ऐसा ही पूरे मनुष्य-जगत के लिए भी होता है कि मर्त्यलोक में रहनेवाला पूरा मनुष्य-समुदाय अपने लिए किसी युग में अवस्थित होता है किन्तु फिर भी तप या पुण्य के प्रभाव से वह अन्य युगों में बार बार ऐसे ही आता-जाता रह सकता है, जैसे मैं इस अरण्य में आता-जाता और रहता हूँ ।   
सत्-युग में मनुष्य की वाणी ही उसका साक्षात धर्म होती है।
त्रेतायुग में वाणीरूपी धर्म गौण हो जाता है और मन्त्ररूपी धर्म प्रबल और प्रधान होता है।
द्वापरयुग में मन्त्ररूपी धर्म भी गौण हो जाता है, और तन्त्ररूपी धर्म प्रबल और प्रधान होता है।
कलियुग में तन्त्ररूपी धर्म भी गौण हो जाता है और यन्त्ररूपी धर्म प्रबल और प्रधान होता है।
जैसे वेद वाणीरूपी साक्षात धर्म है, स्तवन इत्यादि कर्मकांड मन्त्ररूपी धर्म है, और लौकिक फलों का हेतु तन्त्ररूपी धर्म है, वैसे ही यन्त्ररूपी धर्म तो साक्षात यातना और यंत्रणा ही होता है। 
तुम्हारे पुण्य के प्रभाव से इस उपदेश का फल तुम्हें प्राप्त हुआ । अब तुम पश्चिम के मार्ग से जाओ जो तुम्हें तुम्हारे राज्य की ओर ले जाएगा।"
राजा नृग ने उनकी आज्ञा पाकर घोड़े को वृक्ष से खोला और पश्चिम के मार्ग से जाने लगे।
अभी वे कुछ दूर तक पहुँचे ही थे कि उन्हें आकाश में उनके सिर के बहुत ऊपर से उड़कर जाता हुआ वही गरुड़ दिखाई दिया, जो उन्हें उस आश्रम में दिखाई दिया था।
कौतूहलवश राजा ने पीछे की ओर दृष्टि दौड़ाई तो वहाँ न कहीं कोई घोर अरण्य था, न आश्रम, न वे बालक।
राजा नृग तब तक सुरक्षित रूप से अपने राज्य में प्रविष्ट हो चुके थे।
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(कल्पित)      
         
   
                   

Tuesday, 19 February 2019

राजा नृग की कथा - वाल्मीकि रामायण

वाल्मीकि रामायण,
उत्तरकाण्ड -सर्ग 53
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चत्वारो दिवसाः सौम्य कार्यं पौरजनस्य च ।
अकुर्वाणस्य सौमित्रे तन्मे मर्माणि कृन्तति ।।4
अर्थ :
सौम्य ! सुमित्राकुमार लक्ष्मण ! मुझे पुरवासियों का काम किये बिना चार दिन बीत चुके हैं, यह बात मेरे मर्मस्थल को विदीर्ण कर रही है ।
आहूयन्तां प्रकृतयः पुरोधा मन्त्रिणस्तथा ।
कार्यार्थिनश्च पुरुषाः स्त्रियो वा पुरुषर्षभ ।।5
अर्थ :
पुरुषप्रवर ! तुम प्रजा, पुरोहित और मन्त्रियों को बुलाओ । जिन पुरुषों अथवा स्त्रियों को कोई काम हो, उनको उपस्थित करो।
[टिप्पणी :
1 सुमित्रापुत्र (सौमित्र) दो हैं; -लक्ष्मण और शत्रुघ्न । अन्य संकेत है -उनमें से एक सोम का पुत्र है, दूसरा मित्र का, या दोनों ही सोम तथा साथ ही मित्र के पुत्र भी हैं । जैसे अंजनिपुत्र केसरीनन्दन तथा वायुपुत्र भी हैं ।
2. अगले ही अर्थात् 54वें सर्ग में कहा गया  है :
तानुवाच नृगो राजा सर्वाश्च प्रकृतीस्तथा ।
दुःखेन सुसमाविष्टः श्रूयतां में समाहीताः।।6
जहाँ 'प्रकृति' का तात्पर्य है प्राकृत देवता अर्थात् वैदिक देवता इंद्र, सोम, वरुण, अग्नि, यम, सूर्य, चन्द्र आदि ]
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पौरकार्याणि यो राजा न करोति दिने दिने ।
संवृते नरके घोरे पतितो नात्र संशयः।।6
श्रूयते हि पुरा राजा नृगो नाम महायशाः ।
बभूव पृथिवीपालो ब्रह्मण्यः सत्यवाक् शुचिः।।7
अर्थ :
सुना जाता है कि पहले इस पृथिवी पर नृगनाम से प्रसिद्ध एक महायशस्वी राजा राज्य करते थे । वे भूपाल, बड़े ब्राह्मणभक्त सत्यवादी तथा आचार-विचार से पवित्र थे ।
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इस सर्ग में फिर विस्तार से बतलाया गया है कि किस प्रकार प्रजा के प्रति कर्तव्य में प्रमादवश हुई उनकी त्रुटि के कारण शापवश गिरगिट की योनि में फिर उनका जन्म हुआ और यद्यपि वह समय उन्होंने अत्यंत आरामपूर्वक व्यतीत किया।
नृग का तात्पर्य है नृप । किन्तु नृग प्रजा के बीच से, प्रजातन्त्र के विधान से बना राजा है । महर्षि वाल्मीकि ने यह सर्ग शायद संकेत के लिए लिखा होगा, ऐसा लगता है ।
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अगले सर्ग 55 वें में राजा निमि की और वसिष्ठ की कथा है, जिसका विस्तार 56 वें सर्ग में भी है, जहाँ यह जानना रोचक है कि किस प्रकार वे दोनों नृपेंद्र और द्विजेन्द्र परस्पर शाप देकर सहसा विदेह हो गए और बाद में नूतन शरीरों में कैसे उनका जन्म हुआ ।
वेद में इस प्रकार की सृष्टि को 'द्व्यामुष्यायण' कहा जाता है जहाँ किसी मनुष्य में उसके लौकिक पिता के वंशानुगत अंश के साथ देवताविशेष का अंश जुड़ा होता है। जैसे कोई व्यक्ति जो किसी भी वंश में उत्पन्न हुआ हो, किन्तु किसी दूसरे वंश में उत्पन्न व्यक्ति का दत्तक पुत्र हो या किसी आचार्य / गुरु का शिष्य होने से उसके लिए भी उसके पुत्र के समान जाना जाता हो । जैसे सत्यकाम जाबाल।
कठोपनिषद में अध्याय 1, वल्ली 1, श्लोक 11 में यमराज नचिकेता के पिता के लिए 'औद्दालकि' तथा 'आरुणि' दो संबोधन देते हैं । जिसका शब्दार्थ हुआ उद्दालक तथा अरुण का पुत्र। 
आचार्य शङ्कर अपने भाष्य में कहते हैं :
"यहाँ उद्दालक को ही 'औद्दालकि' कहा है तथा अरुण का पुत्र होने से वह आरुणि है।  अथवा यह भी हो सकता है कि वह 'द्व्यामुष्यायण' हो ।"
(कठोपनिषद्  शांकरभाष्य गीताप्रेस गोरखपुर 578)       
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Monday, 18 February 2019

FOMO and JOMO

वेद और वेदधर्म 
गीता अध्याय 15, श्लोक 15 में वर्णन है :
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।।
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अर्थ : 
'मैं' (आत्मा / अहम्) नामक सत्ता जो सभी भूतों (जीवमात्र) के हृदय में सदैव विद्यमान है, उसी 'मैं' (अहम्) नामक सत्ता से ही उन सभी भूतमात्र में स्मृति तथा ज्ञान, और उनका (स्मृति तथा ज्ञान का) लोप होता है । जिसे वेदान्तशास्त्र के द्वारा 'मैं' (अहम्) कहा जाता है, और जो कुछ भी जान लिए जाने-योग्य है वेदों के माध्यम से  जिसे जाना जाता है वह जानना तथा जाननेवाला भी यही  'मैं' (आत्मा / अहम्) ही है ।
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सामान्य अर्थ में 'मैं' -सर्वनाम (pronoun) शब्द से जिसे इंगित किया जाता है, -और जिसके लिए संस्कृत में 'अहम्' (जिसका cognate / सज्ञाति I AM है) का प्रयोग किया जाता है, वह 'अहम्' मूलतः 'अस्मद्' प्रत्यय का उत्तम पुरुष एकवचन है, और तीनों लिंगों में उसका वही समान तात्पर्य है, जिसे निरपेक्ष और निरपवाद रूप से सभी के द्वारा अपने-आपको इंगित करने के लिए किया जाता है ।
'अहम्' के इस तत्व को, अर्थात् इसकी सनातन और निरंतर अबाध सत्ता (अस्तित्व) को, तर्क या अनुभव से असत्य नहीं सिद्ध किया जा सकता । क्योंकि यह सदा प्रत्यक्ष और अपरोक्ष है। फिर भी इसके गूढ़ तात्पर्य से प्रायः हर कोई अनभिज्ञ होता है और इसके व्यवहारपरक उपयोग तक ही सीमित इसकी मान्यता होती है।
हर कोई अनायास अपने अर्थात् 'मैं' के अस्तित्व को जानता है और उसकी यह जानकारी सदा उसके शरीर, विचार, संस्कार, और विचारजनित मान्यताओं से इस 'मैं' को निरंतर परिभाषित करते हुए इस 'मैं' के बारे में होती है। इस प्रकार यह 'मैं' किसी दूसरे के परिप्रेक्ष्य में ही होता है, जबकि स्वयं अपना अस्तित्व इस 'मैं' के अभाव में भी सुनिश्चित और अकाट्य तथ्य है ।
वेदान्त उपरोक्त रीति से 'अहम्' के इस तत्व की विवेचना (विवेकपूर्वक समीक्षा) करता है और स्पष्ट करता है कि यह तत्व 'मैं' व्यावहारिक रूप से भी अवश्य ही उपयोगी है किन्तु उसका वास्तविक तात्पर्य कोई नहीं जानता, क्योंकि कोई ऐसा अन्य है ही नहीं जो इस 'अहम्' / आत्मा से भिन्न और स्वतंत्र होता हो ।  'मैं' शब्द का वाच्यार्थ है : 'I',  'मैं' शब्द का लक्ष्यार्थ है : वे सारे लक्षण जिससे इसकी 'पहचान' की जाती है, किन्तु मैं का वास्तविक तात्पर्य उन समस्त लक्षणों के जोड़ से भी नितान्त भिन्न प्रकार की सत्यता है।
'मैं' शब्द से जब अपने शरीर, स्वभाव, संपत्ति, चरित्र, गुणों आदि का वर्णन किया जाता है तो ये समस्त लक्षण / 'उपाधियाँ' उस अहम्-सत्ता के बारे में कदापि कुछ भी नहीं कहती जिस सत्य के ये समस्त बाह्य लक्षण मात्र हैं।
अहम्-सत्ता अविकारी (immutable), अटल (immovable), अचल (steady), अ-क्षर (indestructible) सत्य है, जबकि लक्षण / उपाधियाँ सतत विकारशील (changing), अस्थायी (temporary), चलायमान (fleeting) और नाशवान (perishing) प्रकृति (nature) के हैं।
इस प्रकार मनुष्य की बुद्धि में 'मैं' / अहम्-सत्ता के आभासी और यथार्थ स्वरूप के बारे में अस्पष्टता पैदा हो जाती है, और बुद्धि उस आभासी 'मैं' को अपना आधार मान लेती है जो निरंतर बनता-मिटता रहता है।  इसकी ओर उसका ध्यान तब तक नहीं जा पाता, जब तक कि बुद्धि में इस सारे जगत्प्रपंच के अर्थ और प्रयोजन, ज़रूरत और महत्त्व के बारे में प्रश्न नहीं उठता । ऐसे प्रश्न के उठने का एक संभव कारण यह हो सकता है कि उसे यह सारा अस्तित्व दुःखप्रद लगने लगे, जिसमें यद्यपि छोटे-छोटे सुखद प्रतीत होनेवाले अनुभव भी होते हैं किन्तु अंततः सब निरर्थक और समाप्त हो जाता है, या क्या इस निरंतर विकारशील आभासी अस्तित्व का कोई स्थिर सुनिश्चित नित्य आधार अवश्य है, -ऐसी कल्पना बुद्धि में उठे और वह उसे जानने की दिशा में चल पड़े।
इस प्रकार वेदान्तशास्त्र जो बहुत कठिन और उबाऊ भी प्रतीत होता है, व्यवहार में उस दिशा में आगे जाने के तरीके के विषय में, संक्षेप में यह कहता है कि 'वेद' और 'वेद को जानना' / 'वेद को जाननेवाला' एक और एकमेव वास्तविकता (identical and unique Reality) हैं।  दूसरे ढंग से कहें तो वेद को जाननेवाला स्वयं ही ज्ञानस्वरूप होता है जहाँ ज्ञाता और ज्ञेय परस्पर अभिन्न और अनन्य (अभेद) होते हैं। जहाँ जाना गया विषय और उसे जाननेवाला विषयी केवल बोधमात्र होते हैं । यह बोध कोई अनुभव विशेष नहीं है क्योंकि अनुभवमात्र, अनुभव नामक घटना और उसे जाननेवाला इस प्रकार के दो अवयवों का जोड़ होता है और अनुभव का ज्ञान केवल एक (शाब्दिक या भावनात्मक) मानसिक चित्र।
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प्रसंगवश यह देखना रोचक होगा कि संस्कृत 'विद्' धातु के चार अर्थ हो सकते हैं :
जानना,  होना, पाना तथा कहना।
'विद्' - वेत्ति - जानता है,
'विद्' - विद्यते - है, विद्यमान है
'विद्' - विन्दति / विन्दते, - प्राप्त करता है,
'विद्' - वेदयते - आवेदयते / निवेदयते - कहा जाता है।
इसी  'विद्' के cognate / सज्ञाति हैं vide (Latin) - देखिए, video.
'विद्' - विन्दति / विन्दते का जर्मन cognate / सज्ञाति है 'finden' जो अंग्रेज़ी में 'find' का रूप लेता है।
इसी प्रकार 'विद्' - vide से बनता है 'fide' 'confide', confident, Fidel, feudal, faith,
अरबी / फ़ारसी भाषा में फ़िदा / फिदायीन इसी के अन्य रूप हैं।
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1986 में एक अंग्रेज़ी पुस्तक :
"The Fears and the Phobia"
पढ़ी थी .
भीः - भीरु से 'fear' की तथा 'भाव-भीत' से 'Phobia' की समानता देखि जा सकती है ।
उपरोक्त पुस्तक "The Fears and the Phobia" में भिन्न भिन्न प्रकार के जिन भयों / डरों से कोई ग्रस्त होता है उनका नाम तथा लक्षण तो बतलाये गए थे लेकिन इस ओर कोई संकेत तक नहीं था कि 'डर' स्वरूपतः क्या है।
याद आता है बचपन में मुझे अँधेरे का डर लगता था। तब पिताजी टॉर्च लेकर मेरे साथ उस जगह जाते थे और उस जगह पर रौशनी डालकर मुझसे पूछते थे :
"तुम्हें किसका डर लगता है? साँप का? बिल्ली का ? भूत का ? चोर का ? -देखो यहाँ कुछ नहीं है।"
तब मेरे पास उनकी बात का जवाब नहीं होता था लेकिन डर ख़त्म नहीं होता था ।
अभी कल ही मेनका गाँधी की नई पुस्तक "The Dragon Under My Bed" की समीक्षा पढ़ी।
जिसमें
FOMO (Fear of Missing out) और
JOMO (Joy of Missing out) 
का वर्णन किया गया है ।
भीड़ से डर और अकेलेपन से डर, यद्यपि ये दोनों डर दो अलग अलग बातों के डर हैं ऐसा लगता है लेकिन मूल डर अपनी पहचान को खोने का डर जो दोनों ही स्थितियों में मूलतः हुआ करता है। किन्तु यह डर भी वस्तुतः इसीलिए पैदा होता है कि अपनी पहचान के माध्यम से ही तो हमारा अपना होना परिभाषित होता है। यद्यपि भिन्न भिन्न स्थितियों में यह पहचान भी पल पल बदलती रहती है, अपना 'होना' जिसमें यह सब होता है, कभी बदल ही नहीं सकता।  और मज़े की बात यह भी है कि उस 'होने' की कोई पहचान नहीं बन सकती। यदि यह पता चल सके कि तमाम पहचान मिट जाने पर भी अपना होना न तो मिट सकता है, न ख़त्म हो सकता है, तो एक आश्चर्यजनक ख़ुशी अनायास हाथ लगती है। 
शायद इसे ही -
 "The Dragon Under My Bed"
पुस्तक में  -
JOMO (Joy of Missing out) कहा गया है।
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Sunday, 17 February 2019

धर्म : वास्तविक, लाक्षणिक, चारित्रिक और व्यावहारिक

दुखती रगें
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समाज के तल पर हमेशा ही कोई न कोई समस्या समाज के किसी धड़े / तबके को या व्यक्ति को हुआ करती है। समस्या को एक नाम दे दिया जाता है और उस पर राजनीतिक, बौद्धिक या साहित्यिक चिंतन कर अपने आपके लिए समाज में कोई प्रतिष्ठित स्थान पा लिया जाता है, यद्यपि हर कोई उस शब्द-विशेष से अर्थात् समस्या के उस नाम को पढ़कर / सुनकर उसकी कोई मानसिक इमेज बना लेता है। हर कोई इसके बाद इस बारे में आक्रोश, उत्तेजना, तथा चिंता सहित अपनी राय रखता है जबकि बहुत से 'प्रतिष्ठित' कहे जानेवाले लोग ही अक्सर इस मौके का लाभ उठाकर अपने प्रभाव-क्षेत्र को बढ़ाने में इसका इस्तेमाल करते हैं। इन 'प्रतिष्ठित' कहे जानेवाले लोगों को संक्षेप में 'नेता' के नाम से जाना जाता है। हर व्यक्ति ऐसी किसी भी समस्या के केवल उसी पहलू से अपने आपको जुड़ा अनुभव करता है जिससे उसके प्रत्यक्ष या परोक्ष लाभ-हानि, और संबंध आदि होते हैं ।
case-study के रूप में हम ऐसी ही एक समस्या 'आतंकवाद' का उदाहरण लें। हो सकता है कि यह समस्या इस समय आतंकवाद की ऐसी किसी घटना के कारण प्रासंगिक हुई हो, लेकिन पिछले न जाने कितने समय से निरंतर और बार बार कुछ समय के अंतराल से इसका दोहराया जाते रहना इसी का संकेत है कि भले ही हम इसे 'परिभाषित' तक न कर पाए हों, हमारा पूरा जीवन इसके असर की छाया में बीतता रहता है। अनेक कारणों से हम समस्या को उसके वास्तविक स्वरूप तक अनावरित नहीं करते और समस्या भीतर ही भीतर किसी छिपे रोग की तरह हमारे समाज को खोखला (degenerate) करती रहती है। तथाकथित बुद्धिजीवी, विद्वान्, विचारक और सामाजिक नेता भी समस्या को अपने-अपने चश्मे से देखते हैं जिसमें मूलतः उनके निहित स्वार्थ और डर ही ऐसा करने के लिए उन्हें बाध्य करते हैं। वैसे तो लगभग हर मनुष्य ही आतंक की घटना से कम या अधिक प्रभावित होता है, लेकिन ऐसे चश्मे से इस समस्या को देखने-समझने का दावा करनेवाले और अपने-आपको समाज का शुभचिंतक कहनेवाले इस प्रकार समस्या का अपना संस्करण (version) प्रस्तुत कर अपने राजनीतिक स्वार्थ की रोटियाँ ही सेंकने में लगे रहते हैं।  अभी तो हमने 'आतंकवाद'' शब्द को ही लिया है और कोई भी 'आतंकवादी' घटना दूर से भले ही हिंसा के किसी प्रकार की तरह दिखाई देती हो, उसके मूल में निहित प्रेरक कारणों पर  हमारी दृष्टि ही नहीं जा पाती, और हम उसका सतही मूल्यांकन कर तात्कालिक रूप से आक्रोश और गुस्से से भर जाते हैं और जल्दी ही, ऐसी किसी दूसरी घटना के होने तक हमारा जीवन यूँ ही  चलता रहता है।  फिर हम इंटरटेनमेंट और रोजमर्रा के प्रश्नों में उलझकर इसे ऐसे भूल जाते हैं जैसे यह कभी हुआ ही नहीं था।  जो इस घटना से सीधे प्रभावित और 'शिकार' होते हैं वे अपना जीवन यातना में बिताते रहते हैं, किसी के जीवन का एकमात्र सहारा ही उससे छिन जाता है, कोई ज़िंदगी भर के लिए अपाहिज हो जाता है और 'सरकार' कोई मुआवज़ा देकर उसे और उसके परिवार को लॉलीपॉप थमाकर अपनी सहानुभूति और संवेदना व्यक्त कर कर्तव्यमुक्त हो जाती है। यह तो हुई उन लोगों की बात जो 'आतंकवाद' का शिकार हो जाते हैं। इसी प्रकार वे जवान भी, जो  अपना सर्वस्व देश पर न्यौछावर करते हुए देश की प्रतिष्ठा और स्वाभिमान की रक्षा करते हैं, अंततः नियति को स्वीकार कर लेते हैं।
प्रथमदृष्टया लगता है कि अमुक स्थान पर अमुक शख्स ने इस 'फ़िदायीन' वारदात को अंजाम दिया, और इसमें वह भी मारा गया, या जान बचाकर भाग निकला।
यद्यपि 'आतंकवाद' जो ऐसी किसी भी घटना का कारण होता है, ऐसी कोई ठोस / मूर्त चीज़ नहीं होता जिसे पकड़ा जा सके, मिटा या मार डाला जा सके, जिसे कोई सुनिश्चित रूप-रंग आकार और लक्षण से पहचाना या परिभाषित किया जा सके, हममें से हर कोई इस सच्चाई पर शायद ही कभी ध्यान देता हो और इसलिए इसे हम कैसा भी नाम दें राक्षस या पिशाच कहें, यह हमारी पकड़ में नहीं आ पाता ।
लगभग हर कोई इस बारे में ध्यान दिए बिना ही कि 'आतंकवाद' का सारतत्व, मूल चरित्र क्या है, और यह कैसे किसी के लिए इतनी बड़ी प्रेरणा बन जाता है, येन केन प्रकारेण इस 'समस्या' का जल्द से जल्द तात्कालिक हल / समाधान तुरत-फुरत पाना चाहता है।  इसमें 'भय' का तत्व तो सर्वोपरि होता ही है और वह भय ही हमें इस समस्या के मूल तक जाने से रोकता है, -यह भी हमें समझ में नहीं आ पाता। यह 'भय' ही हमें यह भी नहीं समझने देता कि 'संगठित धर्म' [organised religion] ही किसी भी प्रकार के आतंकवाद के पैदा होने, फैलने-फूलने की सर्वाधिक बड़ी प्रेरणा होता है। यह कहना आसान है कि फलां 'धर्म' ही आतंकवाद की जड़ है, लेकिन इसके बाद भी उस 'धर्म' के अनुयायियों का डर इतना अधिक होता है कि हम उसका 'नाम' तक लेने का साहस नहीं कर पाते। सवाल यह भी है कि क्या किसी 'धर्म' पर 'आतंकवाद' से जुड़ा होने का आरोप लगाने के बाद क्या हम उनसे यह उम्मीद कर सकते हैं कि वे शांतिपूर्वक धैर्य से हमारी समझ पर सोचेंगे और अपने 'धर्म' की समीक्षा करेंगे ? 'धर्म' के बारे में उनकी जो धारणा / समझ है और जिसके पालन को वे अपना एकमात्र पावन कर्तव्य समझते हैं, वे तो उसी के तारतम्य में अपना व्यवहार करेंगे। वे यह सुनने तक को भी तैयार न होंगे कि 'धर्म' में उन्माद और प्रमाद के लिए, हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। और केवल इस्लाम ही 'संगठित धर्म' है ऐसा कहना अधूरा सच होगा । 'संगठित धर्म' मूलतः भय और बाध्यता पर आधारित होता है और हिन्दू, ईसाई, कैथोलिक या पारसी यहूदी 'धर्म' इसके अपवाद हों यह ज़रूरी नहीं।  इस प्रकार का 'संगठित धर्म' ही दूसरों में भय और संदेह पैदा करता है और इन सभी 'धर्मों' के अनुयायी अपने अपने संगठनों में, दूसरे धर्मों के परिप्रेक्ष्य में 'लामबंद' हो जाते हैं।
तब, 'धर्म', जो सभी मनुष्यों के लिए कल्याण का आधार और ज़रूरत हो सकता है, भिन्न-भिन्न 'धार्मिक' संप्रदायों के बीच मतभेद और परस्पर अविश्वास और वैमनस्य तथा युद्ध का कारण बन जाता है। इसलिए जब तक 'धर्म' अपने-आपमें क्या है और क्या नहीं है, इसे कोई स्वयं ही न समझना चाहे, तब तक किसी की 'धार्मिक भावनाओं' पर कुछ कहना भी उनके लिए इतना असह्य हो सकता है कि उससे यह विरोध और शत्रुता और भी अधिक बढ़ने लगते हैं।
इस प्रकार यह समझ लेने पर कि 'धर्म' में उन्माद और प्रमाद तथा उससे जुडी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता, हम शायद 'आतंकवाद' की जड़ों तक जा सकते हैं। व्यक्ति के रूप में कोई 'संगठित धर्म' अर्थात् किसी भी प्रकार के धर्म से जुड़े संगठन से स्वयं को स्वतंत्र कर सकता है किन्तु यह तो उसे ही तय करना होता है कि 'धर्म' किसी भी प्रकार का संगठित रूप लेते ही अपनी शुद्धता को खो देता है।  क्योंकि मूलतः तो धर्म नितांत वैयक्तिक मामला है न कि सार्वजनिक।  
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Friday, 15 February 2019

मनुष्य की नियति

सतत संघर्ष  
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जैसे आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी का उद्भव होता है और वे परस्पर एक से दूसरे में सतत परिवर्तित होते रहते हैं, लगभग वैसे ही 'कल्पना' से 'विचार', 'विचार' से 'भ्रम', 'भ्रम' से 'परंपरा', 'परंपरा' से 'इतिहास' और 'इतिहास' से 'कल्पना' का उद्भव होता है, और  'कल्पना', 'विचार', 'भ्रम', 'परंपरा' और 'इतिहास' क्रमशः एक से दूसरे में सतत परिवर्तित होते रहते हैं।
हर जीवित, जीता-जागता मनुष्य अनायास और अनजाने ही इस प्रपञ्च का शिकार हो जाता है और मनुष्यों के विभिन्न समुदाय / समूह इस प्रपञ्च के किसी एक अवयव से अपने-आपको जोड़कर अनेक कृत्रिम विभाजन पैदा कर लेते हैं जिसके परिणाम सभी को प्रभावित करते हैं। मनुष्य इसे अपना 'धर्म' या 'संस्कृति, 'सभ्यता', 'राष्ट्र', 'पहचान' या जातीय / नस्ली / भाषाई अस्मिता कहें ऐसा कोई 'नाम' देकर स्वयं को गौरवान्वित कर लेता है। सारतः यह शुद्ध राजनीति होता है जिसमें अनेक समूह परस्पर सतत युद्धरत होते हैं। जहाँ लोभ, भय, आदर्श, आत्मोत्सर्ग / बलिदान की भावना,  'नाम' आदर्श / प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाते हैं, और 'विचार' को ideology या philosophy कहा जाता है। इस प्रकार 'राजनीति' कबीलाई अस्तित्व का प्राण होती है । कबीले सर्वत्र और सदा बने रहते हैं और मनुष्य कितना भी अधिक बौद्धिक और भौतिक विकास कर ले, कितना भी अधिक समृद्ध और ऐश्वर्यसम्पन्न हो जाए, इस प्रकार के किसी न किसी कबीले का ही एक सदस्य भर होकर रह जाता है।
अपने-आपसे यह अंतहीन युद्ध ही मनुष्य या मनुष्य-मात्र की भी नियति है।
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किन्तु ध्यान दिए जाने लायक यह तथ्य मनुष्य की आँखों से प्रायः ओझल हो जाता है कि यह सारा प्रपञ्च जहाँ से प्रकट होता है वह स्रोत ही इस समूचे नाटक का मूक दृष्टा है और इस नाटक में कभी कोई हस्तक्षेप नहीं करता।
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क्या स्मृति एक समस्या है?

स्मृति, कल्पना और तादात्म्य 
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क्या स्मृति एक समस्या है?
स्मृति को तीन रूपों में समझा जा सकता है :
शरीर की प्रकृति-प्रदत्त स्मृति, इन्द्रिय-अनुभवों की स्मृति तथा अनुभवों के मानसिक आकलन से बननेवाली काल्पनिक स्मृति । मनुष्य में इनके साथ एक और विशेष प्रकार की स्मृति पाई जाती है जिसका प्रारंभ अनुभवों तथा स्थितियों के शब्दीकरण से होता है। प्रकृति-प्रदत्त स्मृति वह जैव-प्रक्रिया है जिसकी जानकारी मस्तिष्क में सुप्त रूप से संचित होती है और शरीर की आवश्यकता के अनुसार समय-समय पर सक्रिय होती रहती है। जैसे भूख-प्यास की स्मृति, आत्म-रक्षा की प्रवृत्ति, भय और भय से छुटकारा / राहत होने की स्मृति । इस प्रकार की स्मृति वास्तव में प्रकृति का वरदान ही है, न कि समस्या।
इन्द्रिय-अनुभवों की स्मृति जीवन के विकास और वृद्धि में सहायक होती है । और यह भी प्रायः सभी प्राणियों में प्रकृति से ही होती है । इन्हीं अनुभवों से शिशु सीखता है कि कोई वस्तु छूने, गंध, स्वाद, रंग-रूप और आकृति तथा स्पर्श में किसी दूसरी वस्तु से किस प्रकार भिन्न लक्षण की हो सकती है । और यह स्मृति अनुभव की स्मृति के रूप में बिना उसका नामकरण किए मस्तिष्क में संचित हो जाती है । हाँ, बाद में विभिन्न ध्वनियों और शब्दों से इन्हीं वस्तुओं के लिए कोई निश्चित संकेत तय कर लिए जाते हैं जो उन वस्तुओं की शाब्दिक स्मृति का आधार होते हैं । ऐसा कहा जा सकता है कि कल्पना-शक्ति का प्रारंभ और विकास इन्द्रिय-अनुभवों के साथ साथ ही होने लगता है । कल्पना-शक्ति का और अधिक प्रयोग और विकास तो शब्दीकरण के अस्तित्व में आने के बाद ही होता है । कल्पना-शक्ति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रयोग और उपयोग (सदुपयोग या दुरुपयोग भी) तो तभी हो जाता है जब 'समय'( नामक सत्ता) की कल्पना-जनित मान्यता किसी अमूर्त तत्व की तरह अनायास स्वीकार हो जाती है । क्योंकि मूलतः तो 'समय' नामक यह वस्तु प्रत्यक्ष इन्द्रिय-अनुभव न होकर वैचारिक निष्कर्ष मात्र हो सकती है । इस प्रकार इस निष्कर्ष का आधार प्रत्यक्ष अनुभव न होकर कल्पना ही तो होता है । 'स्थान' जिस प्रकार प्रत्यक्षतः इन्द्रिय-अनुभव की तरह जाना जाता है 'समय' को उस प्रकार प्रत्यक्षतः नहीं जाना जाता।  इसीलिए विभिन्न इन्द्रियगम्य वस्तुओं के 'विस्तार' की तरह 'स्थान' के 'विस्तार' के बारे में यद्यपि कोई अनिश्चय नहीं होता, लेकिन  'समय' नामक कल्पना का विस्तार कितना है यह समझ पाना कठिन होता है । फिर भी 'समय' की एक कामचलाऊ याददाश्त मस्तिष्क बना ही लेता है और यह 'तुलनात्मक' होती है अर्थात् 'समय' के दो अन्तरालों की परस्पर तुलना (के अनुभव) से । विचित्र बात यह है कि 'समय' की यह अनुमानजनित कल्पना अनुभवों के क्रम में अनायास कार्य करने लगती है । और निश्चित ही इस प्रकार से प्राप्त / सीखे गए अनुमान यद्यपि किसी तरह के 'वैचारिक-निष्कर्ष' कदापि नहीं होते, फिर भी उन्हें व्यावहारिक रूप से बार-बार प्रयोग किए जाने से वे सत्य प्रतीत होने लगते हैं ।
यहाँ तक भी 'समय' समस्या से अधिक उपयोग की एक वस्तु ही अधिक होता है, -भले ही मूर्त हो या अमूर्त, साकार और मापनीय (measurable) हो या निराकार और अमापनीय (immeasurable) हो ।
इससे यह तथ्य तो स्पष्ट है कि व्यावहारिक रूप से 'समय' में 'विस्तार' होता है, और जैसे स्थान का विस्तार 'व्यापक' होता है वैसे ही एक 'व्यापकता' 'समय' के विस्तार पर भी आरोपित की जा सकती है । इसका यह मतलब नहीं, कि ऐसी कोई 'व्यापकता' 'समय' में वास्तव में होती ही हो । क्योंकि सर्वाधिक मुश्किल है इसे 'वैज्ञानिक' या गणितीय आधार पर सिद्ध करना, और मुझे नहीं लगता कि विज्ञान या गणित कभी इसे सिद्ध कर सकेगा।
समस्या यहीं से शुरू होती है। वह है वैचारिक-स्मृति जिसका उपयोग विज्ञान और गणित में असंदिग्ध रूप से है ही, जिससे इंकार नहीं । 'विचार' के ही आधार पर विज्ञान और गणित की मूलभूत संकल्पनाएँ जन्म लेती हैं और उन संकल्पनाओं के आधार पर ही व्यवहार में सत्य प्रतीत होनेवाले 'नियम' अकाट्य की तरह स्वीकृत कर लिए जाते हैं । इस तथ्य पर ध्यान देना हमें असुविधाजनक लगेगा कि 'शून्य' (0) और 'एक' (1) संख्या की तरह केवल मान्यता है जिसे हमने अभ्यासवश सत्य की तरह स्वीकार कर लिया है । कोई वस्तु 'शून्य' (0) है, तो इसका अभिप्राय यह भी हो सकता है कि वह वस्तु अविद्यमान है, 'शून्य' (0) उस के अभाव का सूचक भी हो सकता है । अब जब हम 1, 2, 3 ... आदि कहते हैं, तो यहाँ संख्या किसी वस्तु का गुणविशेष भी हो सकता है और एक जैसी एक अथवा एकाधिक वस्तुओं का सूचक भी हो सकता है । इसलिए व्याकरण की दृष्टि से 'संख्या' गुणवाचक विशेषण हुआ न कि आत्यंतिक सत्य (intrinsic fact) । क्योंकि आत्यंतिक सत्य तो वस्तु (विशेष्य) है, और वह विशेषण से स्वतंत्र है।
किन्तु जहाँ से और जहाँ तक बुद्धि का यत्न हो सकता है, ऐसा भ्रम बुद्धि में हो जाता है।  इसलिए 'समय' (के विस्तार) की व्यापकता (या व्यापकता के विस्तार) को तथाकथित 'वैज्ञानिक' या / और गणितीय आधार पर 'मापा' भी जा सकता है, किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि  'समय' एक मापनीय राशि  / measurable quantity है।
इसीलिए 'स्मृति' समस्या हो जाती है । 'विचार' 'अतीत' को परिभाषित करता है, पुनरावृत्तिपरक घटनाओं में कल्पित क्रम (pattern) स्थापित कर उन्हें सत्यता दी जाती है, 'स्वयं' का भी इसी प्रकार वास्तविक स्वयं से भिन्न प्रकार से, भिन्न रूप में आकलन किया जाता है और 'अतीत' से 'स्वयं' का तादात्म्य कर लिया जाता है । इस पूरे क्रम में यदि कुछ, कोई वस्तु अकाट्य सत्य  अर्थात् 'अविकारी' / immutable है; - तो वह एकमात्र वस्तु है : 'स्वयं' । निपट स्वयं जो विशेष्य है न कि विशेषण । शायद इसीलिए 'स्वयं' अनिर्वचनीय है, -वर्णन से परे ।  
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Thursday, 14 February 2019

क्या सत्य एक पथहीन भूमि है?

अश्विनौ / Equine / Equinox ?
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किसी युगप्रवर्तक महापुरुष ने शताब्दी भर पहले उद्घोष किया था :
"Truth is a pathless land."
जिसे सुनकर तमाम बुद्धिजीवि मंत्रमुग्ध हुए और उनकी बुद्धियों के घोड़ों को एक प्रशस्त सुरक्षित अभयारण्य (Reserved Forest) मिला जहाँ बिना किसी सिंह या व्याघ्र के डर के वे निःशंक निर्भय विचरण कर सकें।
सूर्य की पत्नी संज्ञा जब सूर्य के असहनीय तेज से त्रस्त और व्याकुल हो उठी थी तो उसने (अपनी सौत) छाया की रचना कर उससे कहा था :
"मैं पिता के घर जा रही हूँ, तुम मेरे स्थान पर सूर्य के साथ उनकी पत्नी बनकर रहना, मेरी संतानों की देखभाल करना, पर उन पर यह रहस्य प्रकट न होने देना कि तुम संज्ञा नहीं; -छाया हो।"
"ठीक है. किन्तु मेरा ऐसा करना जब मेरे लिए प्राणों पर ही आ बने तो मैं क्या करूँ?"
-छाया ने प्रश्न किया।
"तब तुम उनसे यह सब कह सकती हो।"
संज्ञा तब पिता विश्वकर्मा के घर चली आई।
पिता ने जब देखा कि वह अकेली आई है तो उससे पूछा :
"सूर्यदेव कहाँ हैं, तुम अकेली कैसे आई?"
तब संज्ञा बोली :
"मैं उनके तेज को सहन नहीं कर पा रही थी, इसलिए यहाँ आ गई।"
तब उसके पिता ने उससे कहा :
"नारी का स्थायी वास तो उसके पति का घर ही होता है। तुम पुनः वहीँ जाओ।"
तब संज्ञा वहाँ से चली आई लेकिन सूर्य के घर जाने की बजाय घोर अरण्य में चली गई और घोड़ी का रूप धारण कर वहां चरने लगी।
संज्ञा से सूर्य को पुत्र के रूप में यमराज पहले से ही प्राप्त थे।
छाया से उन्हें सावर्णी मनु (अव-मनु, अ-मनु,  Emmanuel), शनिश्चर देवता तथा तापी नदी सन्तानरूप में प्राप्त हुए।
संज्ञा के पुत्र  यमराज क्रोधी स्वभाव के थे। छाया अपनी संतानों को तो बहुत प्यार से रखती थी लेकिन संज्ञा के पुत्रों की उपेक्षा कर देती थी।  इस प्रकार का पक्षपातपूर्ण बर्ताव देख यमराज को क्रोध आ गया।  उन्होंने क्रोध में भरकर छाया को मारने के लिए पैर उठाया। इस पर छाया ने यमराज को शाप दे दिया।
तब यमराज ने अपने पिता से सब वृत्तान्त बताकर कहा :
"पिताजी !  प्रतीत होता है यह हमारी यथार्थ माता नहीं।  माता अपने पुत्र को शाप कभी नहीं देती। "
तब सूर्यदेव ने उसे धमकाकर डाँटते हुए पूछा :
"सच सच बताओ कि क्या यह सत्य है?"
तब छाया ने उनसे अपने बारे में सब कुछ कह दिया।
अब सूर्यदेव को संज्ञा की चिंता हुई वे अपनी ससुराल विश्वकर्मा के यहां गए, और संज्ञा के संबंध में जिज्ञासा की । विश्वकर्मा ने कहा :
"हाँ, वह आई तो थी किन्तु मैंने फिर उसे तुम्हारे ही पास भेज दिया था।"
सूर्यनारायण ने कहा :
"अच्छी बात है, मैं उसे खोजता हूँ।"
यह कहकर वे संज्ञा को खोजने गए।  देखा कि वह घोर अरण्य में घोड़ी बनी घूम रही है, तब सूर्यनारायण ने भी घोड़े का रूप धारण कर लिया। वहीँ (अरण्य में) अश्विनीकुमारों (अश्विनौ / Equinox) का जन्म हुआ।  तब सूर्यनारायण संज्ञा को लेकर विश्वकर्मा के समीप गए।
विश्वकर्मा ने एक आदित्य (अदिति की सन्तानरूपी भगवान् सूर्य) के बारह रूप बना दिए (अर्थात् तब से  भगवान् सूर्य की एक पूरी प्रदक्षिणा करने के लिए भूमि को बारह मास लगने लगे ।) और विश्वकर्मा ने भगवान् सूर्यनारायण के तेज को भी इतना कम कर दिया जिसे संज्ञा (पृथ्वी) सुखपूर्वक सह सके।
[स्कन्दपुराण, रेवा-खण्ड अध्याय 42] 
तब से भूमि पर सत्य के लिए असंख्य पथ बनते-मिटते रहे और पृथ्वी सत्य की प्राप्ति के लिए पथहीन कभी नहीं रही, लेकिन यह भी सच है कि हर किसी सत्यान्वेषक को अपना पथ स्वयं ही खोजना / बनाना होता है।
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Monday, 11 February 2019

The Vital (प्राणयोग)

जीवनी-शक्ति (Life-force)
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मुण्डकोपनिषत् तथा प्रश्नोपनिषत्, शक्तिपात :
मुण्डकोपनिषत्,
द्वितीय मुण्डक,
-प्रथम खण्ड के अनुसार :
तदेतत्सत्यं यथा सुदीप्तात्पावकाद्विस्फुलिङ्गाः प्रभवन्ते सरूपाः।
तथाक्षराद्विविधाः सोम्य भावाः प्रजायन्ते तत्र चैवापियन्ति।।१
अर्थ :
हे सोम्य (प्रिय)! जैसे अच्छी तरह से प्रदीप्त अग्नि से उसके जैसे रूपवाली अनेक चिंगारियाँ उठती हैं, उसी तरह अक्षर (परब्रह्म) से उसके जैसे रूपवाली अनेक प्रजाएँ प्रकट होती हैं।    
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दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः सबाह्याभ्यन्तरो ह्यजः।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात्परतो परः।।२
अर्थ :
वह दिव्य अमूर्त पुरुष जो बाह्याभ्यन्तरसहित जन्मरहित है, प्राण तथा मन से भी अस्पर्शित है, शुभ्र (तेजस्वी) और अक्षरस्वरूप होने से परब्रह्म है।
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एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी।।३
अर्थ :
इसी परात्पर पुरुष से प्राण मन और सभी इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं तथा आकाश, वायु, तेज, जल एवं समस्त व्यक्त सृष्टि को धारण करनेवाली पृथिवी भी इसी से उत्पन्न होते हैं ।
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अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्रसूर्यौ दिशः श्रोत्रे वाग्विवृताश्च वेदाः।
वायुः प्राणो हृदयं विश्वमस्य पद्भ्यां पृथिवी ह्येष सर्वभूतान्तरात्मा।।४
अर्थ :
अग्नि इसी परात्पर पुरुष परमेश्वर का मूर्धा (शीर्ष) है, चन्द्र तथा सूर्य दोनों नेत्र, दिशाएँ दोनों कान, और वेद मुख से निकली वाणी हैं। वायु इसके प्राण और यह विश्व हृदय है, पृथिवी इसके दोनों चरण हैं।
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तृतीय मुण्डक,
- प्रथम खण्ड के अनुसार :
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।।१
अर्थ :
मानों जैसे पीपल के एक ही वृक्ष पर परस्पर भिन्न प्रतीत होनेवाले दो पक्षी होते हों इस प्रकार से अस्तित्व में (जीव / जीवात्मा तथा ईश्वर / परमात्मा) दोनों दिखाई देते हैं।  (क्योंकि जीव तो इस अस्तित्व को संचालित नहीं करता और वह अपने ही तथा संसार के भी उस कारण के बारे में केवल अनुमान भर कर सकता है जो संसार का नियंता है, संसार जड दृश्य / विषय होने से उसका वह कारण नहीं हो सकता और जीव विषयी होने से यद्यपि सीमित चेतन अवश्य है किन्तु संसार और स्वयं के जीवन को कौन सी सत्ता नियंत्रित और परिचालित करती है, इसे भी नहीं जानता।  अतः वह चेतन कारण जो विषय तथा विषयी का मूल है 'परमात्मा' / ईश्वर है यह तथ्य अकाट्य सत्य सिद्ध होता है।  )
उन दोनों में से जीवरूपी पक्षी तो स्वादवश उस संसाररूपी वृक्ष के फलों को खाता है, जबकि वह अविकारी 'परमात्मा' / ईश्वर केवल देखता है।
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समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः।
जुष्टं सदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः।।२
अर्थ :
उस समान (एक ही) वृक्ष पर बैठा वह पक्षी (जीव) जो स्वाद से मोहित होकर सुख-दुःख रूपी फलों का उपभोग (शोक) करता हुआ जब दूसरे पक्षी 'परमात्मा' / ईश्वर को देख लेता है तो उस जैसा हो जाता है, उसकी महिमा से एक होकर शोक से रहित हो जाता है।
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यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्।
तदा विद्वानपुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्युपैति।।३
अर्थ :
वह जब उस ज्योतिर्मय पुरुष 'परमात्मा' / ईश्वर को जो कि ब्रह्म का भी एकमात्र कारणरहित कारण है, तब उसे देखता हुआ विद्वान पुण्य तथा पाप से दूर होकर उस जैसा निरञ्जन हो जाता है।
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प्राणो ह्येष यः सर्वभूतैर्विभाति विजानन्विद्वान्भवते नातिवादी।
आत्मक्रीडः आत्मरतिः क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः।।४    
अर्थ :
प्राण ही वह कारण है जो सभी भूतों के अस्तित्व में आने का एकमात्र आधार है और जिससे सभी भूत और लोक देखे जाते हैं, ऐसा जानता हुआ वह अपनी आत्मा ही में रमता हुआ तथा सुखी होता हुआ कर्मरत होकर भी ब्रह्मवेत्ताओं में वरिष्ठ कहा जाता है।
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इस प्रकार प्राण ही देह के भीतर तथा बाहर वायु हैं।
जैसे एक ही वायु अनेक प्रकार से अनेक गतियों से युक्त होकर भिन्न भिन्न कार्य करती है, उसी प्रकार एक ही प्राण अनेक प्रकार से अनेक गतियों से युक्त होकर भिन्न भिन्न कार्य देह के अंतर्गत करते हैं। प्राण का स्वभाव है गतिशीलता इसलिए यद्यपि देह के अंतर्गत कोई ऐसा सुनिश्चित स्थान नहीं है जहाँ प्राण 'रहते' हों, वे पूरे शरीर में व्याप्त होते हुए विभिन्न कार्य करते हैं किन्तु जैसे विद्युत् के संचार में एक सिरा (terminal) होता है जहाँ से बिजली पूरे घर में संचरित होती है और उससे अनेक भिन्न भिन्न कार्य होते हैं, वैसे ही शरीर के अंतर्गत हृदय ही वह मांस-पिण्ड है जहाँ से प्राणों का संचार पूरे शरीर में होता है।
हृदय ही वह स्थान है जहाँ से भौतिक-प्राण तथा वृत्तिरूपी मन का उद्गम होता है।
यह प्राण कार्य की विशेषता के अनुसार उदान, समान, व्यान तथा अपान कहे जाते हैं।       
तथा प्रश्नोपनिषत्,
प्रः नु प्रश्नो एव प्राणः।
प्रश्नोपनिषत् प्राणयोग निदर्शन है।
प्रथम प्रश्न :
अथ कबन्धी कात्यायन उपेत्य पप्रच्छ।
भगवन् कुतो ह वा इमाः प्रजाः प्रजायन्त इति।।३
अर्थ :
ऋषि पिप्पलाद की आज्ञा पाकर वे लोग श्रद्धापूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वहीँ तपश्चर्या करने लगे। महर्षि की देख-रेख में संयमपूर्वक रहकर एक वर्ष तक उन्होंने त्यागमय जीवन बिताया।  उसके बाद वे सब पुनः पिप्पलाद ऋषि के पास गए तथा उनमें से सर्वप्रथम कत्य ऋषि के प्रपौत्र कबन्धी ने श्रद्धा और विनयपूर्वक पूछा :
"भगवन् ! जिससे ये सम्पूर्ण चराचर जीव नाना रूपों में उत्पन्न होते हैं, जो उनका सुनिश्चित परम कारण है, वह कौन है ?"
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तस्मै स होवाच प्रजाकामो वै प्रजापतिः।  स तपोऽतप्यत स तपस्तप्त्वा स मिथुनमुत्पादयते। रयिं च प्राणं चेत्येतौ में बहुधा प्रजाः करिष्यत इति।।४
अर्थ : 
उस कबन्धी ऋषि से ऋषि पिप्पलाद ने कहा :
"उस परम सत्ता ने तप का अनुष्ठान किया।  इस तप के अनुष्ठान से तप करने से उनसे रयि एवं प्राण यह युगल उत्पन्न होता है।  ये दोनों रयि (चेतना- ज्ञानशक्ति) तथा प्राण (ऊर्जा / क्रियाशक्ति) मेरे लिए अनेक प्रकार की प्रजाओं की सृष्टि करें।"
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आदित्यो ह वै प्राणो प्राणो रयिरेव चन्द्रमा रयिर्वा एतत् सर्वं यन्मूर्तं चामूर्तं च तस्मान्मूर्तिरेव रयिः।।5
अर्थ :
निश्चय ही आदित्य (सूर्यमण्डल) ही प्राण है और चन्द्रमा ही रयि है अथवा यह समस्त जो मूर्त तथा अमूर्त भी है वही रयि है, अतएव मूर्ति (आकृति) ही रयि है।
[क्योंकि नाम प्रतिमा से पृथक नहीं होता और प्रतिमा नाम से अभिन्न होती है। अतः यह सब नाम-रूपमय रयि अर्थात् चेतना या बोधस्वरूप ही है।]
इस प्रकार चेतना और प्राण का स्वरूपतः एकत्व (अनन्यता) को जानने के बाद देह में संचरित होकर देह के विभिन्न कार्य करनेवाले प्राण जिन्हें क्रमशः प्राण, व्यान, समान, उदान तथा अपान कहा जाता है, एक ही ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति के कार्य हैं। प्राणरूप से यही देह तथा देह से भिन्न प्रतीत होनेवाले जगत में भी इसी प्रकार व्यष्टि से समष्टि सभी स्तरों पर कार्य करते हैं। किन्तु किसी भी देह से संबद्ध होने पर उस शरीर के स्वामित्व की भावना के उत्पन्न होते ही उस शरीर तक ही सीमित व्यक्ति के रूप में चित्त तथा प्राण जीव की उपाधि प्राप्त करते हैं और तब जीव की पुनः अपने स्रोत से मिलने की व्याकुलता ही उसे उस तत्व के अनुसंधान की ओर ले जाती है।
उपसंहार :
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श्रीरमण विरचित 'उपदेश-सार' के दो श्लोक पुनः यहाँ दृष्टव्य हैं :
वायुरोधनाल्लीयते मनः।
जालपक्षिवद्रोधसाधनम्।।११
अर्थ :
जिस प्रकार जाल लगाकर किसी पक्षी को पकड़ लिया जाता है उसी प्रकार प्राणायाम की सहायता से चित्त का निरोध किया जा सकता है और तब चित्त (अस्थायी रूप से) लय को प्राप्त होता है।  यह भी मनःसंयम का एक उपाय है।
[टिप्पणी : विभिन्न प्रकार की समाधियाँ मन के भिन्न भिन्न प्रकार से लय होने से घटित होती हैं। और यही शक्तिपात के द्वारा भी किया जाना / होना संभव है, किन्तु उसके अपने लाभ-हानि आदि अनेक प्रभाव हो सकते हैं।]
चित्तवायव श्चितक्रियायुता।
शाखायोर्द्वयी शक्तिमूलका।।१२
अर्थ :
चित्त एवं श्वास (अर्थात् वायुरूपी प्राण) क्रमशः ज्ञानशक्ति (बोध) मूलक और क्रियामूलक, किन्तु वस्तुतः एक ही शक्ति की दो शाखाएँ  होते हैं।
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[टिप्पणी : उपदेश-सार सम्पूर्ण ग्रंथ को मेरी profile में दिए गए मेरे
ramanavinay blog
पर जाकर देख सकते हैं।]
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Sunday, 10 February 2019

कृष्णार्जुनीयम्

जनक-अष्टावक्र संवाद 
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कृष्णार्जुनीय-गीतायाम्
अर्जुन उवाच :
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते।।15
वक्तुमर्हस्य शेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं  व्याप्य तिष्ठसि।।16
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।17
श्री भगवान् उवाच :
पवनः पावतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी।।31
(गीता -अध्याय 10)
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ।।4
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।5 
यं यं वापि  स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।6
(गीता -अध्याय 8)
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अष्टावक्र-गीतायाम् :
जनक उवाच :
कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति।
वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद्ब्रूहि मम प्रभो।।
प्रथमोऽध्यायः
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अष्टावक्र उवाच :
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान्विषवत्त्यज।
क्षमार्जवदयातोषसत्यं पीयूषवद्भज।।1 
पवनः पावतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी।।31
(गीता -अध्याय 10)
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ।।4
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
[अन्तकाले च रामैवं स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
अन्तकाले च रामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।]
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।5
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गोप्रतारतीर्थ की महिमा और श्रीराम के परमधामगमन की कथा* 
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.....
श्रीरामचन्द्रजी ने अपने चरणों से सरयूजी के जल का स्पर्श किया। 
तदनन्तर ब्रह्माजी देवताओं के साथ श्रीरामचन्द्रजी की स्तुति करने लगे -
देव! आप समस्त लोकों के पति हैं, आपके स्वरुप को कोई नहीं जानता।  विशाललोचन ! आप अचिन्त्य एवं अविनाशी ब्रह्मरूप हैं।  महावीर्य ! आप अपने जिस दिव्य स्वरूप को ग्रहण करना चाहें ग्रहण करें। ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर भगवान् श्रीराम ने  अपने भाइयोंसहित दिव्य वैष्णवतेज में सशरीर प्रवेश किया। तत्पश्चात् सुरश्रेष्ठ भगवान् विष्णु का सब देवताओं ने पूजन किया।  देवताओं का मनोरथ पूर्ण हुआ था; इसलिए वे सब बहुत प्रसन्न थे।  उस समय महातेजस्वी भगवान् विष्णु ने पितामह ब्रह्मा से कहा :
"सुव्रत ! इस जनसमुदाय को तुम्हें उत्तम लोक देना चाहिए। "
भगवान् का यह आदेश पाकर सर्वलोकेश्वर ब्रह्मा ने कहा :
"वे समस्त मानव सान्तानिक लोक में निवास करेंगे।  स्वर्गद्वार तीर्थ में श्रीरामचन्द्रजी का चिंतन करते हुए जो प्राणत्याग करता है वह परम उत्तम सान्तानिक  लोक को प्राप्त होता है।  सान्तानिक लोक मेरे लोक से भी ऊपर है।  वानर आदि में से जो जिस देवता के अंश थे, वे उसी में मिलेंगे। सूर्यपुत्र सुग्रीव सूर्यमण्डल में चले जायेंगे।  ऋषि, नाग और यक्ष सभी अपने-अपने कारण को प्राप्त होंगे।"
(*गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक संख्या 279 स्कन्दपुराण -- वैष्णवखण्ड--श्रीअयोध्यामाहात्म्य से साभार उद्धृत )
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टिप्पणी :
गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने यद्यपि सांख्य और ज्ञानयोग की शिक्षा दी है किन्तु यह भी कहा है कि शस्त्रधारियों में श्रीराम वे ही हैं।
दूसरी ओर मुक्ति की इच्छा जिसे है उसे चाहिए कि अंतकाल में मेरा / राम का स्मरण करे। जो अंतकाल में जिस जिस भाव का स्मरण करते हुए प्राण त्यागता है, वह उसी उसी भाव को प्राप्त होता है। राम का स्मरण केवल नामोच्चार मात्र से भी हो जाता है क्योंकि यह वही नाम है जिसका जप उमासहित स्वयं भगवान् शिव भी सदैव करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं :
जान आदिकबि नामप्रतापू।  भयउ सुद्ध करि उलटा जापू।
(बालकाण्ड दोहा १८ - १९)
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Friday, 8 February 2019

The Sacred / शतक्रतु / शक्र / इन्द्र

शतक्रतु  / शक्र / इन्द्र
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इन्द्र आधिदैविक अर्थात् देवलोक का शासक है। ऋग्वेद का प्रारंभ अग्नि की स्तुति से होता है, जहाँ अग्निदेव को प्रत्यक्ष साक्षात् व्यक्त ब्रह्म के रूप में आधिभौतिक जगत का अधिष्ठान तथा उस जगत का स्वसंवेद्य अधिष्ठाता स्वीकार किया गया है। 'दिव्' धातु का प्रयोग 'चमकने'  / प्रकाशित होने के अर्थ में दीव्यति (लट्-लकार) में होता है।  इसी से बना 'देवता' उस चेतना-विशेष का द्योतक है जो द्यु-लोक (Celestial-Sphere) में तारा, नक्षत्र, ग्रहों, उल्कापिंडों आदि की तरह 'देवता' की उपाधि से जाना जाता है। इस प्रकार 'दिव्' एवं 'द्यु' दोनों धातुएँ प्रकाश के उत्सर्जन की सूचक हैं। 'कृ' धातु का उपयोग  'करने' के अर्थ में होता है और कर्म तथा यज्ञ समानार्थी हैं।  यज्ञ को ही इसलिए क्रतु कहा जाता है और इस प्रकार इंद्र को शतक्रतु क्योंकि उसे इन्द्रपद की प्राप्ति एक सौ अश्वमेध यज्ञों के अनुष्ठानों के पूर्ण किए जाने पर प्राप्त होती है। इसलिए जो भी इन्द्र जिस समय होता है वह हमेशा अपनी सत्ता को खोने की संभावना दिखाई देने पर चिंतित हो जाता है और अश्वमेध करनेवाले (प्रायः राजा अर्थात् क्षत्रिय-कुल में उत्पन्न हुए किसी मनुष्य) से उसके अश्वमेध यज्ञ के 99 अनुष्ठान संपन्न होने पर सौवें यज्ञ के अश्व को चुरा लेता है। इसीलिए इन्द्र का एक नाम हरिताश्व भी होता है। दूसरी ओर इन्द्र के रथ में जुते घोड़े भी हरे रंग के होने से उसे हरिताश्व कहा जाता है।
ततः परं तेन मखाय यज्वना तुरङ्गमुत्सृष्ट्यमनर्गलं पुनः।
धनुर्भृतामग्रत एव रक्षिणां जहार शक्र किल गूढविग्रहः।।
(रघुवंशम् 3 / 39)
अर्थ :
उसके बाद उस अश्वमेध यज्ञ के करनेवाले राजा दिलीप के, फिर से यज्ञ के लिए छोड़े गए अप्रतिहत घोड़े को इन्द्र ने छिपकर धनुर्धारी रक्षकों (तथा राजकुमार रघु) के सामने ही हरण कर लिया (चुरा लिया) ।
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इन्द्र के पद को पाकर भी सत्ता खोने का डर समाप्त हो जाए, यह ज़रूरी नहीं।
इन्द्र का पद पाने के लिए मनुष्य को एक सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान पूर्ण करना होता है।
वैसे तो प्रत्येक कर्म ही यज्ञ होता है किन्तु वह पुनः सात्विक राजसिक तथा तामसिक हो सकता है।
अश्वमेध यज्ञ राजसिक प्रकार का होता है।
अभिसन्धाय तु फलं दंभार्थमपि चैव यत्य।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ।।
(गीता अध्याय 17 श्लोक 12)
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यह देखना रोचक होगा कि अंग्रेज़ी के अनेक शब्द शक्र से उद्भूत (सज्ञात / cognate) कहे जा सकते हैं :
Sacred (पवित्र), Sacrifice (शक्रप्रियस्) Secret (रहस्य), Secretary (सचिव), Secrecy (गुप्तता) , Crecy (as in 'Democracy'(गणतन्त्र), 'autocracy' (स्वतन्त्र / स्वशासक / स्वसत्तात्मक / अधिनायकवाद ) 'bureaucracy' (अफसरशाही) , Theocracy (धर्म-शासन), Aristocracy (आर्यिष्ट - श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा संचालित होनेवाली शासन-व्यवस्था ) 
secretion / secrete (स्राव) आदि।
इन्द्र वैसे भी मघवा / मेघवान है जो वर्षा का देवता है।
और वर्षा के अभाव में हरियाली तो क्या जीना तक बहुत कठिन हो जाता है
इसीलिए वेद में इन्द्र की बहुत स्तुति की जाती है।
यह दृष्टव्य है कि यम को 'कृतान्त' कहा जाता है।
और यम, इन्द्र, अग्नि, सोम, वरुण, सूर्य, वायु आदि आधिदैविक उपाधि के रूप में 'देवता' हैं और वे ही आधिभौतिक रूप में 'अदिति' के पुत्र हैं।
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Wednesday, 6 February 2019

The Meteorites ....

शक्तिपात / shaktipaata / Reiki. 
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Watching the meteorites fall upon the earth is a fascinating enthralling experience.
But occasionally a big one may fall upon the head, so one should be watchful.
Some meteorites might glorify in the experience that they are a splendor, and are being admired and even worshiped too in great awe and wonder. Nevertheless, they just forget its a great fall from the Celestial heights.
This is not metaphoric but a hard reality too.
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Applying Reiki / shaktipaata forcefully on some-one who you don't know, ultimately harms you and that person too ....,
I believe the practitioners of these प्राणिक / praaNika techniques (प्राणयोग) know this first ethics of Reiki very well.  
Vain display of such occult powers is detrimental to spiritual growth and results in the loss of  तपस् / 'tapas' / austerity only..
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Sunday, 3 February 2019

The Adventure.

The Emergent and The Accidental.
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Venture, Nature, Culture and Texture.
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उद्भव / The Emergence और प्रादुर्भाव / The Accidental.
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संस्कृत में नृ (नृत्य) धातु से व्युत्पन्न विभिन्न शब्द इस प्रकार हैं :
नृप, नरेश, नारा (जल), नर, नारद, नारायण, नारी,
इनमें से नृप एवं नरेश का मूल अर्थ है वह परम सत्ता जो अपने ही लिए अपनी अभिव्यक्ति जड-चेतन के रूप में करती है। नृप उसका फैलाव / विस्तार है तो नरेश (ईश्वर) उसका प्रेरक स्वामी। इस प्रकार जगत तथा जगदीश उसी एकमेव परम सत्ता की दो अभिव्यक्तियाँ (नृत्य) हैं।
नारा का अर्थ है बहाव / प्लव / flow.
इसी नृ के सज्ञाति शब्द हैं :
natal, nature, natural, nuptial, nephew, niece, news, nepotism / nepotistic, nation, Nazi,
यही शब्द तमिल भाषा में 'नाड' / 'नाडु' की तरह स्थान / देश के अर्थ में ग्रहण किया जाता है। 
व् / वं वान्ति / वमन / वामन का जनक वर्ण है जिसके सज्ञाति शब्द हैं :
venture, vantage, advantage (आदि वान्ति-ज), adventure.
'क्ल्' वर्ण से व्युत्पन्न विभिन्न धातुरूप इस प्रकार हैं :
क्लिद् - क्लिद्यति (आर्डर होना, गीला होना, स्वेद उत्पन्न होना), क्लेदयति,
क्लम् - क्लाम्यति (थकना), क्लमयति / क्लम्यते,
क्लिश् - क्लिश्नाति,  पीड़ा देना / होना, क्लेशयति, क्लिश्यते।
इसके अंग्रेजी समतुल्य हैं :
clime, climb, climate, clement, clemency, clone, clash, claim, cleric, clergy, cleave, clear, ...
और भी अनेक शब्द सीधे शब्द-कोष की सहायता से तुलना के द्वारा जाने जा सकते हैं।
इसी प्रकार कल् धातु से बने कल्प, कल्य, कलत्र (परिवार, कुल) का अर्थ हुआ संस्कृति, कुलचार, कुलाचार जिसकी छवि अंग्रेज़ी 'culture' में अनायास देखी जा सकती है।
संस्कृत में ही एक और धातु है 'तक्ष्' -  'तनूकणे', तक्षति तक्ष्णोति, -जिसका प्रयोग घड़ने, बनाने, काटने (तक्षक), रूपायित करने के अर्थ में होता है।  गौण अर्थ में इसका प्रयोग 'लिपि' / 'लिखने' के अर्थ में भी होता है।
अंग्रेज़ी (या उस भाषा में जिससे अंग्रेज़ी को वर्तमान स्वरूप मिला है) में यही :
tech / text बना है। इससे ही बना है 'texture'.
धर्म तथा धृति शब्द 'धृ' धातु से से बने हैं, जो 'धारण करने', 'संरक्षित रखने' के अर्थ में प्रयुक्त होता है।
जबकि 'धातु' शब्द 'धा' क्रिया का संज्ञारूप है, जिसका अर्थ है :  'मूल स्वरूप से अभिन्न होना'।
इस प्रकार धर्म के दो रूप प्राप्त होते हैं :
पहला वह; - जो स्वभाव है।
दूसरा वह; - जो बाद में धारण किया गया है।
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The Existential is What 'Is' which is ever so timelessly.
In Sanskrit the same is denoted by the word 'सत्', while the word 'exist' is from the root-verb 'अस्' - 'अस्ति' .  Again the same could be derived from Sanskrit in yet another way : ईक्ष् / अव-ईक्ष्  as is found in a great number of words that are formed with the prefix 'ex' as in exact - ईक्ष्-अस्त , exaggerate - ईक्ष्-अग्रे-गति, exalt - ईक्ष्-अल्-तः, exceed - ex-cede -ईक्ष्-छिद्, expatriate and so on.
सत् / 'sat', is dharma in the sense that it is imperishable, immutable अविकारी while सनातन is also dharma in the sense that it is 'flow'.
सत् / 'sat'  is the Unchangeable and immutable aspect of  dharma, while सनातन / sanAtana is the flow of the same principle that is perceived as transient phenomenon.
The Emergent : When an organism becomes so mature and evolved that 'Life' in it manifests as 'consciousness' there is the emergence of a 'me' sense in the organism with the accompanying consequential 'it'sense.
Just as we 'feel' our thumb by touching it by the forefinger and our attention is centered on the thumb, and again as we 'feel' our forefinger by touching it by the thumb and our attention is focused on the forefinger; and the same 'consciousness' is at play while performing the role in two ways, the 'me' sense and the 'it' sense are but two modes of the same consciousness that we ARE.
But once the duality is manifest, this 'consciousness' is at once identified with the body as 'myself' or 'self' and the perceived object is taken as 'it'.
This is dharma in two aspects in regard to consciousness.
In scriptures; these two aspects in an organism are called सत् / 'sat' and चित् / 'cit' respectively. The same consciousness  again expressed as the 'individual' / व्यष्टि and the 'whole' / समष्टि as well.
Again, though सत् / 'sat' is the common factor of 'me' and 'it', and the  'चित्' / 'cit' becomes 'चित्त' / mind or mental mode, and 'it' the known object thus perceived in the 'consciousness'.
This is the Essential Dharma ; -irrespective of 'nature' which is the tendency superimposed upon this Essential Dharma.
The Essential Dharma is what it is, as just IS.
And what we know as nature is but The Superficial Dharma only.
In this basically undivided / whole 'consciousness', the 'mind' appears / emerges and assumes existence in the form of 'me' and 'it'.
This mind is the emerging 'consciousness' while the me sense and the it sense are the accidental.
Discovering what is the innate Essential Dharma is the adventure that needs elaborate eagerness, earnestness and sincerity.
[Remark : The word 'innate' itself could be seen as the cognate / cogent of the Sanskrit word :
अनु-नति -- taking one inwards. This again is from the root-word  नृ / 'nri' / 'nat' as we saw in the beginning.]
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