Thursday, 30 September 2021

स्वनिम और रूपिम

Phonetic and Figurative.

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जानेमन, जानेमन, 

जानेमन किसी का नाम नहीं, 

फिर भी, होंठों पे मेरे,

सुबह कभी, शाम कभी!

शायद इस गीत को फ़िल्म में अमोल पालेकर पर फ़िल्माया गया है। स्पष्ट है कि 'जानेमन' शब्द किसी का नाम नहीं, किसी के प्रति संबोधन के लिए प्रयोग किया जानेवाला शब्द या इस शब्द से इंगित कोई मनुष्य है।

इसी प्रकार "मैं" (I) किसी का नाम नहीं है, फिर भी हर कोई इस शब्द के प्रयोग से अपने आप (self) को इंगित करता है। व्याकरण की दृष्टि से यह शब्द इस प्रकार से स्व-वाचक अर्थात् आत्म-वाचक सर्वनाम (pronoun) है। व्याकरण में, सर्वनाम, सभी को अप्रत्यक्षतः (indirectly)  इंगित करने के लिए प्रयुक्त किया जानेवाला कोई शब्द होता है जिसे संज्ञा (noun) के स्थान पर उसके विकल्प के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। इस प्रकार तीन पुरुषों (persons : first person, second person and third person) में सर्वनाम क्रमशः "मैंं", "तुम" और "वह" के रूप में एकवचन (singular person) की तरह से प्रयुक्त होता है। 

क्या अपने आपके लिए इस प्रकार से "मैं" शब्द को प्रयोग किया जाना आवश्यक है? स्पष्ट है कि यह सभी के लिए यद्यपि स्वयं के अर्थ का द्योतक है, किन्तु क्या वास्तव में किसी का अपना कोई नाम होता है? हाँ, दूसरों के द्वारा सन्दर्भ और उपयोग की दृष्टि से हर किसी का कोई नाम अवश्य हो सकता है और उस नाम से सभी उसको पहचानने लगते हैं, और वह भी स्वयं को इस नाम से पहचानने लगता है।

किन्तु क्या ऐसा कोई विशिष्ट नाम न होने पर हम अपने आपको नहीं जानते? किन्तु यह तो प्रचलित प्रयोग के ही कारण है कि किसी व्यक्ति का उल्लेख उसके नाम के माध्यम से किया जाता है और इस प्रकार उसे "तुम'' या ''वह'' कहा जाता है। किन्तु जब कोई स्वयं का उल्लेख करता है तो वह उस नाम का प्रयोग नहीं करता जिससे दूसरे सभी उसका उल्लेख करते हैं, बल्कि अपना  उल्लेख करने के लिए वह "मैं" शब्द का प्रयोग करता है। किन्तु व्यवहार में यह मान लिया जाता है कि ऐसा उल्लेख उसके द्वारा उस व्यक्ति को इंगित करने के लिए किया जा रहा है, जिसे अन्य सभी उसके लिए प्रयुक्त करते हैं। शायद यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि यदि कोई स्वयं का उल्लेख अपने लिए प्रचलित उस नाम से करे, जिससे सब उसे इंगित करते हैं तो इससे भ्रम पैदा होगा। 

अब यदि यह देखा जाए कि जब कोई किसी को अपने आपका परिचय देता है, तो क्या ऐसा वह "मैंं" तथा उसके प्रचलित उस नाम के द्वारा ही नहीं करता जो पुनः "मैं" की तरह ही एक शब्द और एक अमूर्त धारणा (abstract notion) होता है? 

साथ ही, यह भी सत्य है कि नाम तथा "मैं" सर्वनाम, ये दोनों ही अमूर्त धारणाएँ हैं जिनका व्यावहारिक उपयोग भी है किन्तु वे उस वस्तु / व्यक्ति का अस्तित्वगत सत्य नहीं है। अस्तित्वगत सत्य तो सदैव प्रत्यक्ष ही होता है, उसे इंगित किया जाना न तो संभव है और न उसकी आवश्यकता ही है ।

अस्तित्वगत सत्य व्यक्तिपरक कैसे हो सकता है? चूँकि अस्तित्व ही व्यक्तिपरक नहीं है, इसलिए अस्तित्वगत सत्य भी व्यक्ति-परक नहीं हो सकता। अस्तित्व और अस्तित्वगत सत्य दोनों ही समष्टि सत्य हैं। 

व्यक्तिपरक सत्य स्वनिम (phonetic, verbal) और रूपिम (descriptive, figurative) होता है जबकि अस्तित्व और अस्तित्वगत सत्य समष्टि सत्य है। इसलिए व्यक्ति समष्टि का अंश और समष्टि व्यक्ति की पूर्णता (Totality) है। 

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Tuesday, 28 September 2021

प्रत्यय और वृत्ति

मां तु वेद न कश्चन ।।

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यह काल्पनिक है या कि सत्य, मैं नहीं कह सकता, लेकिन जब मैं आँखें बन्द किए हुए कुर्सी पर बैठा हुआ था तब, जिसे ध्यान कह सकते हैं, वैसी किसी स्वप्न जैसी मनोदशा में यह मुझे प्राप्त हुआ था। और यह भी सच है कि तब मेरे मन में ध्यान करने का कोई संकल्प, प्रयास करने जैसा भी कुछ नहीं था। 

मैं किसी अन्धकारपूर्ण सुरंग में ऊपर ही ऊपर उठता चला जा रहा था और जैसे जैसे आगे बढ़ रहा था, मुझे ऊपर से आ रहा प्रकाश और भी अधिक तीव्र अनुभव होता जा रहा था। जब मैं उस प्रकाश के स्रोत तक, या उसके समीप तक पहुँचा तो इतना ही जानता था, कि उस तेज को सह न पाने से मेरी आँखें अपने आप ही मुँदने लगी थीं। किन्तु चूँकि चाहते हुए भी मैं नीचे उतर कर लौट नहीं सकता था इसलिए आँखें बन्द किए हुए ही ऊपर उठता रहा। यद्यपि तब मुझे अपने शरीर का, और संसार का भी भान नहीं रहा किन्तु, -- जैसा कि संसार के, और अपने आप के भान के समय हर मनुष्य में होता ही है, अपने अस्तित्व पर कोई सन्देह भी नहीं था --अर्थात् यह अन्तःस्फूर्त निश्चय, कि "मैं हूँ", यह अन्तःस्फूर्त बोध, कि मेरा अस्तित्व है । क्योंकि तर्क की दृष्टि से भी यदि इस बोध पर सन्देह किया जाए तो भी ऐसे सन्देह करने वाले संशयकर्ता के अस्तित्व से इनकार करना असंभव है ही।

जब मैं ऊपर उठता रहा तो एक समय लगा कि अब मैं रुक गया हूँ। इससे पहले कि मेरे मन में कोई विचार आता,  मुझे एक आवाज़ सुनाई दी : 

"तुम बिलकुल सही जगह पर आ चुके हो। मैं तुम्हें दिखलाई नहीं दे सकता क्योंकि मैं दृश्य नहीं, दृष्टामात्र हूँ और समस्त दृश्यमात्र मेरा ही प्रकाश है। फिर भी तुम मुझे जान सकते हो। मुझे जानने के लिए तुम्हें पातञ्जल योग-सूत्र के समाधिपाद के सूत्र १९ को स्मरण करना होगा। इसका अर्थ तो तुम्हें पता ही है! 

यह सूत्र मुझे तत्काल ही याद आ गया :

भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् ।।१९।।

किन्तु इसे साधनपाद के १६, १७, १८, १९ और २० वें सूत्र के सन्दर्भ में समझो । तुम्हें स्मरण होगा फिर भी मैं इनका उल्लेख कर देता हूँ :

हेयं दुःखमनागतम् ।।१६।।

दृष्टृदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः ।।१७।।

प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम् ।। ।।१८।।

विशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि ।।१९।।

दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः ।।२०।।

(यहाँ मुझे याद आया कि 'दृशि' का प्रयोग भ्वादिगणीय अनिट् धातु के अर्थ में है या 'दृङ्' धातु के अर्थ में संज्ञा की तरह दृक् के अर्थ में है।)

पुनः समाधिपाद के इन प्रारम्भिक १६ सूत्रों को स्मरण करो :

अथ योगानुशासनम् ।।१।।

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।।२।।

तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ।।३।।

वृत्तिसारूप्यमितरत्र ।।४।।

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः ।। ५।।

प्रमाण-विपर्यय-विकल्प-निद्रा-स्मृतयः ।।६।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ।।७।।

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् ।।८।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ।।९।।

अभावप्रत्यालम्बनावृत्तिर्निद्रा ।।१०।।

इसे सुनते सुनते मैं (तन्द्रा से) निद्रा में प्रविष्ट हो गया, और चूँकि निद्रा, --जिसे कि वृत्ति ही कहा गया है, जो स्वयं ही आती और जाती है, इसलिए कुछ समय पश्चात् उसी स्थिति में डूबा रहा।  किसी आहट से निद्रा भंग हुई किन्तु मैं उसी शान्त मनःस्थिति में कुर्सी पर बैठा रहा और उस अवस्था को स्मरण करने लगा कि क्या वह स्वप्न था या मेरे ही अन्तर्मन में घटित प्रसंगमात्र था! तभी पुनः मुझे वह आवाज सुनाई दी और शरीर तथा संसार का भान भी पुनः विलुप्त हो गया। 

अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः ।।११।।

इस प्रकार उस आवाज से मेरा ध्यान इस अगले सूत्र पर आया।

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ।।१२।।

(अभ्यास और वैराग्य, क्रमशः उन दो प्रकार के साधकों के द्वारा प्रयुक्त किए जानेवाले साधन हैं, जिनकी स्वाभाविक क्रमशः कर्मयोग तथा साँख्यज्ञान के प्रति विशेष निष्ठा होती है। गीता के अध्याय ३ के निम्न श्लोक में इसका ही उल्लेख किया गया है। :

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।।३।।

'पुरा' अर्थात् इससे पहले कहे गए, गीता के अध्याय २ में, जहाँ साङ्ख्य के साधन का उल्लेख है। कहना अनुचित न होगा कि गीता की शिक्षा अध्याय २ में ही पूरी हो जाती है किन्तु कर्म के साधन का प्रयोग करनेवाले मुमुक्षुओं के लिए भगवान् श्रीकृष्ण ने अध्याय ३ से अध्याय १८ तक विस्तार से कर्मयोग के साधन को कहा है।)

तत्रस्थितौ यत्नोऽऽभ्यासः ।।१३।।

स तु दीर्घकाल-नैरन्तर्य-सत्कारासेवितो दृढभूमिः ।।१४।।

दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ।।१५।।

तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् ।।१६।।

सुनते सुनते विभोर हो गया था ।

पता नहीं कितने समय उस मुग्ध दशा में निमग्न रहा, क्योंकि वह दशा समय से रहित, काल-निरपेक्ष है। इसलिए समय की प्रतीति तक मिट गई थी। समय प्रतीति ही है और प्रतीति ही समय है। समय इस प्रकार वृत्ति है और चित्तवृत्ति के निरोध में समय का भी विलय हो जाता है। 

याद आया शिव-अथर्वशीर्ष :

अक्षरात्संजायते कालो कालाद्व्यापकः उच्यते...

आज का विज्ञान आगम और प्रमाण के मध्य पेन्डुलम सा झूल रहा है!

फिर मैंने सुना :

"यही ज्ञान पूर्व में मैंने आदित्य को दिया था, और जिस प्रकार से महर्षि भगवान् व्यास ने इसे भगवान् श्रीगणेश से कहा था, और उन्होंने इसे जैसा लिपिबद्ध किया था, वैसे ही इस कलियुग में इस ज्ञान का उपदेश महर्षि जाबाल को प्रदान किया था ।

जाबाल-ऋषि (जिबरील / गैब्रिएल) के माध्यम से क्रमशः यह्वः (यहोवा) के मार्ग से यवनों (यहूदियों) को, कापालिकों और कठोलिकों को भी वही उपदेश दिया गया किन्तु कलि के प्रभाव से यह विकार को प्राप्त होकर अत्यन्त परिवर्तित रूप से आज के समय में व्यक्त हुआ है । इसलिए इस समय में धर्म की ग्लानि और अधर्म का उत्थान हो रहा है :

जन्मकर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।।९।।

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अध्याय ४

श्री भगवान् उवाच --

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।२।।

स मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।३।।

अर्जुन उवाच --

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ।।४।।

श्री भगवान् उवाच --

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।।५।।

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ।।६।।

(भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम्)

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।७।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।८।।

जन्मकर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।।९।।

अध्याय ७

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ।।१९।।

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता: ।

तं तं नियमास्थाय प्रकृत्याः नियताः स्वया  ।।२०।।

(यह्व-धर्म, इल-धर्म, कापालिक और कठोलिक-धर्म)

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।

तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ।।२१।।

(faith and religions of faith)

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्या राधनमीहते ।

लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हितान् ।।२२।।

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।

देवान्वदेयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ।।२३।।

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।

परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।।२४।।

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमाया समावृतः ।

मूढोऽयं नाभिजानाति लोको ममाजमव्ययम् ।।२५

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।

भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ।।२६।।

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Monday, 27 September 2021

The Conflict.

 .... And the Consequences.

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~~ शिवाथर्वशीर्षम् ~~

एषो ह देवः प्रदिशो नु सर्वाः पूर्वो ह जातः स उ गर्भे अन्तः।

स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः।

एको रुद्रो न द्वितीयाय तस्मै य इमाँल्लोकानीशत ईशनीभिः।

प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोप्ता। 

यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको येनेदं सर्वं विचरति सर्वम्। 

तमीशानं वरदं देवमीड्यं निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति।

क्षमां हित्वा हेतुजालस्य मूलं बुद्ध्या सञ्चितं स्थापयित्वा तु रुद्रे रुद्रमेकत्वमाहुः। 

....... ।।५।।

एषः ह देवः प्रदिशः नु सर्वाः पूर्वः ह जातः सः उ गर्भे अन्तः सः एव जातः सः जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनाः तिष्ठति सर्वतोमुखः ।एकः रुद्रः न द्वितीयाय तस्मै यः इमान् लोकान् ईशते ईशनीभिः। प्रत्यङ्जनाः तिष्ठति सञ्चुकोच अन्तकाले संसृज्य विश्वाः भुवनानि गोप्ता। यः योनिं योनिं अधितिष्ठति एकः येन इदं सर्वं विचरति सर्वम्। तं ईशानं वरदं देवं ईड्यं निचाय्य इमाम् शान्तिं अत्यन्तं एति । क्षमां हित्वा हेतुजालस्य मूलं बुद्ध्या सञ्चितं स्थापयित्वा तु रुद्रे रुद्रं-एकत्वं आहुः ।

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This sacred text points out that how ending of the conflict is already there, in the very emergence of the conflict itself.

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Wednesday, 15 September 2021

नृवंश / पृथ्वी-माहात्म्यम्

वाल्मीकि रामायण, 

बालकाण्ड,

सर्ग ५३, ५४, ५५

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कामधेनुं वसिष्ठोऽपि यदा न त्यजते मुनिः । 

तदास्य शबलां राम विश्वामित्रोऽन्वकर्षत ।। १ ।।

'श्रीराम!  जब वसिष्ठ मुनि किसी तरह भी उस कामधेनु गौ को देने के लिए तैयार न हुए, तब राजा विश्वामित्र उस चितकबरे रंग की धेनु को बलपूर्वक घसीट ले चले ।। १ ।।

नीयमाना तु शबला राम राजा महात्मना ।

दुःखिता चिन्तयामास रुदन्ती शोककर्षिता ।। २ ।।

'रघुनन्दन!  महामनस्वी राजा विश्वामित्र के द्वारा  इस प्रकार ले जाई जाती हुई वह गौ शोकाकुल हो मन ही मन रो पड़ी, और अत्यन्त दुःखित हो विचार करने लगी -- ।। २ ।।

परित्यक्ता वसिष्ठेन किमहं सुमहात्मना ।

याहं राजभृतैर्दीना ह्रियेय भृशदुःखिता ।। ३ ।।

"अहो!  क्या महात्मा वसिष्ठ ने मुझे त्याग दिया है, जो ये राजा के सिपाही मुझ दीन और अत्यन्त दुःखिया गौ को इस तरह से बलपूर्वक लिये जा रहे हैं?' ।। ३ ।।

किं मयापकृतं तस्य महर्षेर्भावितात्मनः ।

यन्मामनागसं दृष्ट्वा भक्तां त्यजति धार्मिकः ।।  ४ ।।

"पवित्र अन्तःकरणवाले उन महर्षि का मैंने क्या अपराध किया है कि वे धर्मात्मा मुनि मझे निरपराध और अपना भक्त जानकर भी त्याग रहे हैं?' ।। ४ ।।

इति संचिन्तयित्वा तु निःश्वस्य च पुनः पुनः ।

जगाम वेगेन तदा वसिष्ठं  परमौजसम्  ।। ५ ।।

निर्धूय तांस्तदा भृत्याञ्शतशः शत्रुसूदन ।

'शत्रुसूदन! यह सोचकर वह गौ बारम्बार लंबी साँस लेने लगी और राजा के उन सैकड़ों सेवकों को झटककर उस समय महातेजस्वी वसिष्ठ मुनि के पास बड़े वेग से जा पहुँची।। 

जगामानिलवेगेन पादमूलं महात्मनः ।। ६ ।।

शबला सा रुदन्ती च क्रोशन्ती चेदमब्रवीत् ।

वसिष्ठस्याग्रतः स्थित्वा रुदन्ती मेघनिःस्वना ।। ७ ।।

'यह शबला गौ वायु के समान वेगपूर्वक उन महात्मा के चरणों के समीप गयी और उनके सामने खड़ी हो मेघ के समान गम्भीर स्वर से रोती-चीत्कार करती हुई, उनसे इस प्रकार बोली  ------- ।। ६-७ ।।

भगवन् किं परित्यक्ता त्वयाहं ब्रह्मणः सुतः ।

यस्माद् राजभटा मां हि नयन्ते त्वत्सकाशतः ।। ८ ।।

"भगवन्! ब्रह्मकुमार! क्या आपने मुझे त्याग दिया, जो ये राजा के सैनिक मुझे आपके पास से दूर लिये जा रहे हैं? ।।  ८ ।।

एवमुक्तस्तु ब्रह्मर्षिरिदं वचनमब्रवीत् ।

शोकसंतप्तहृदयां स्वसारमिव दुःखिताम् ।। ८ ।।

'उसके ऐसा कहने पर ब्रह्मर्षि वसिष्ठ शोक से संतप्त हृदयवाली दुःखिया बहिन के समान उस गौ से इस प्रकार बोले -- ।। ९ ।।

न त्वां त्यजामि शबले नाऽपि मेऽपकृतं त्वया ।

एष त्वां नये राजा बलान्मत्तो महाबलः ।। ९ ।।

"शबले!  मैं तुम्हारा त्याग नहीं करता । तुमने मेरा कोई अपराध नहीं किया है । ये महाबली राजा अपने बल से मतवाले होकर तुमको मुझसे छीनकर ले जा रहे हैं ।। १० ।।

नहि तुल्यं बलं मह्यं राजा त्वद्य विशेषतः ।

बली राजा क्षत्रियश्च पृथिव्याः पतिरेव च ।। ११ ।।

'मेरा बल इनके समान नहीं है । विशेषतः आजकल ये राजा के पद पर प्रतिष्ठित हैं । राजा, क्षत्रिय तथा इस पृथ्वी के पालक होने के कारण ये बलवान् हैं ।। ११ ।।

इयमक्षौहिणी पूर्णा गजवाजिरथाकुला ।

हस्तिध्वजसमाकीर्णा तेनासौ बलवत्तरः ।। १२ ।।

"इनके पास हाथी, घोड़े और रथों से भरी हुई यह अक्षौहिणी सेना है, जिसमें हाथियों के हौदों पर लगे हुए ध्वज सब ओर फहरा रहे हैं। इस सेना के कारण भी ये मुझसे प्रबल हैं ।। १२ ।।

एवमुक्ता वसिष्ठेन प्रत्युवाच विनीतवत्  ।

वचनं वचनज्ञा सा ब्रह्मर्षिमतुलप्रभम् ।। १३।।

'वसिष्ठजी के ऐसा कहने पर बातचीत के मर्म को समझनेवाली उस कामधेनु ने उन अनुपम तेजस्वी ब्रह्मर्षि से यह विनययुक्त बात कही -- ।। १३ ।।

न बलं क्षत्रियस्याहुर्ब्राह्मणा बलवत्तराः ।

ब्रह्मन् ब्रह्मबलं दिव्यं क्षात्राच्च बलवत्तरम् ।। १४ ।।

"ब्रह्मन्! क्षत्रिय का बल कोई बल नहीं है। ब्राह्मण ही क्षत्रिय आदि से अधिक बलवान् होते हैं । ब्राह्मण का बल दिव्य है । वह क्षत्रिय-बल से अधिक प्रबल होता है ।। १४ ।।

अप्रमेय बलं तुभ्यं न त्वया बलवत्तरः ।

विश्वामित्रो महावीर्यस्तेजस्तव दुरासदम् ।। १५ ।।

"आपका बल अप्रमेय है । महापराक्रमी विश्वामित्र आपसे अधिक बलवान नहीं हैं । आपका तेज दुर्धर्ष है ।। १५ ।।

नियुङ्क्ष्व मां महातेजस्त्वं ब्रह्मबलसम्भृताम् ।

तस्य दर्पं बलं यत्नं नाशयामि दुरात्मनः ।। १६ ।।

"महातेजस्वी महर्षे ! मैं आपके ब्रह्मबल से परिपुष्ट हुई हूँ । अतः आप केवल मुझे आज्ञा दे दीजिए । मैं इस दुरात्मा राजा के बल, प्रयत्न और अभिमान को अभी चूर्ण किए देती हूँ ।' ।। १६ ।।

इत्युक्तस्तु तथा राम वसिष्ठस्तु महायशाः ।

सृजस्वेति तदोवाच बलं परबलार्दनम् ।। १७ ।।

'श्रीराम! कामधेनु के ऐसा कहने पर महायशस्वी वसिष्ठ ने उससे कहा ---

'इस शत्रु-सेना को नष्ट करनेवाले सैनिकों की सृष्टि करो'

।। १७ ।।

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभिः सासृजत् तदा ।

तपस्या हुंभारवोत्सृष्टाः पह्लवाः शतशः नृप ।। १८ ।।

'राजकुमार!  उनका यह आदेश सुनकर उस गौ ने उस समय वैसा ही किया । उसके हुंकार करते ही सैकड़ों पह्लव जाति के वीर पैदा हो गए ।। १८ ।।

नाशयन्ति बलं सर्वं विश्वामित्यस्य पश्यतः ।

स राजा परमक्रुद्धः क्रोधविस्फारितेक्षणः ।। १९ ।।

'वे सब, विश्वामित्र के देखते-देखते उनकी सारी सेना का नाश करने लगे । इससे राजा विश्वामित्र को बड़ा क्रोध हुआ । वे रोष से आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे ।। १९ ।।

पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि ।

विश्वामित्रार्दितान् दृष्ट्वा पह्लवाञ्शतशस्तदा ।। २० ।।

भूय एवासृजद् घोराञ्छकान् यवनमिश्रितान् ।

तैरासीत् संवृता भूमिः शकैर्यवनमिश्रितैः ।। २१ ।।

'उन्होंने छोटे-बड़े कई तरह के अस्त्रों का प्रयोग करके उन पह्लवों का संहार कर डाला । विश्वामित्र द्वारा उन सैकड़ों पह्लवों को पीड़ित और नष्ट हुआ देख उस समय उस शबला गौ ने पुनः यवन-मिश्रित शक जाति के भयंकर वीरों को उत्पन्न किया । उन यवन-मिश्रित शकों से वहाँ की सारी पृथ्वी भर गई ।

।। २०-२१ ।।

प्रभावद्भिर्महावीर्यैर्हिमकिंजल्कसंनिभैः ।

तीक्ष्णासिपट्टिशधरैर्हेमवर्णाम्बरावृतैः ।। २२ ।।

निर्दग्धं तद्बलं सर्वं प्रदीप्तैरिव पावकैः ।

ततोऽस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह ।

तैस्ते यवनकाम्बोजा बर्बरश्चाकुलीकृताः ।। २३ ।।

'वे वीर महापराक्रमी और तेजस्वी थे । उनके शरीर की कान्ति सुवर्ण तथा केसर के समान थी । वे सुनहरे वस्त्रों से अपने शरीर को ढँके हुए थे । उन्होंने हाथों में तीखे खङ्ग और पट्टिश ले रखे थे । प्रज्वलित अग्नि के समान उद्भासित होनेवाले उन वीरों ने विश्वामित्र की सारी सेना को भस्म करना आरम्भ किया । तब महातेजस्वी विश्वामित्र ने उन पर बहुत से अस्त्र छोड़े  । उन अस्त्रों की चोट खाकर वे यवन, काम्बोज और बर्बर जाति के योद्धा व्याकुल हो उठे' ।। २२-२३ ।।

सर्ग ५४ संपूर्ण हुआ ।

सर्ग ५५ 

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ततस्तानाकुलान् दृष्ट्वा विश्वामित्रास्त्रमोहितान् ।

वसिष्ठश्चोदयामास कामधुक् सृजयोगतः ।। १ ।।

'विश्वामित्र के अस्त्रों से घायल होकर, उन्हें व्याकुल हुआ देख, वसिष्ठजी ने फिर आज्ञा दी -- 'कामधेनो! अब योगबल से दूसरे सैनिकों की सृष्टि करो' ।। १ ।।

तस्या हुंकारतो जाताः काम्बोजा रविसंनिभाः ।

ऊधसश्चाथ सम्भूता बर्बराः शस्त्रपाणयः ।। २ ।।

'तब उस गौ ने पुनः हुंकार किया । उसके हुंकार से सूर्य के समान तेजस्वी काम्बोज उत्पन्न हुए। थन से शस्त्रधारी बर्बर प्रकट हुए ।। २ ।।

योनिदेशाच्च यवनाः शक्रद्देशाच्छकाः स्मृताः ।

रोमकूपेषु म्लेच्छाश्च हारीताः सकिरातकाः ।। ३ ।।

कामधेनु के योनिदेश से यवन, शकृ (गोबर) से शक, उत्पन्न हो गए। रोमकूपों से म्लेच्छों, हारीत तथा किरात जातियों का उद्भव हुआ।। ३।।

तैस्तन्निषूदितं सर्वं विश्वामित्रस्य तत्क्षणात् ।

सपदातिगजं साश्वं सरथं रघुनन्दन ।। ४ ।।

'रघुनन्दन! उन सब वीरों ने पैदल, हाथी, घोड़े और रथसहित विश्वामित्र की सारी सेना का तत्काल संहार कर डाला ।। ४ ।।

दृष्ट्वा निषूदितं सैन्यं वसिष्ठेन महात्मना ।

विश्वामित्रसुतानां तु शतं नानाविधायुधम् ।। ५ ।।

अभ्यधावत् सुसंक्रुद्धं वसिष्ठं जपता वरम्  ।

हुंकारेणैव तान् सर्वान् निर्ददाह महानृषिः ।। ६ ।।

'महात्मा वसिष्ठ द्वारा अपनी सेना का संहार हुआ देख विश्वामित्र के सौ पुत्र अत्यन्त क्रोध में भर गये, और नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर जप करनेवालों में श्रेष्ठ वसिष्ठ मुनि पर टूट पड़े । 

तब उन महर्षि ने हुंकारमात्र से उन सबको जलाकर भस्म कर डाला ।। ५-६ ।।

***

उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि किस प्रकार महर्षि वाल्मीकि ने विस्तारपूर्वक उन भिन्न भिन्न नृवंशों का उल्लेख यहाँ किया है, जो शबला कामधेनु गौ से उत्पन्न हुए थे। 

शबला का अर्थ होता है मटमैला, भूरा, चितकबरा, जो पृथ्वी का ही रंग है । पृथ्वी ही कामधेनु है जैसा कि पृथ्वी सूक्त में भी माता पृथिवी की स्तुति में कहा गया है । 

विश्वामित्र ही आज का विज्ञान है और आज के शासक क्षात्र हैं। विश्वामित्र स्वयं भी क्षत्रिय हैं ।

मनुष्यों की जिन जातियों का उल्लेख ऊपर किया गया, उनका क्रम इस प्रकार  है :

पह्लव - पहलवी ईरान के निवासी । किसी समय ईरान के सम्राट अपने आपको गौरवपूर्वक आर्यमेहर मुहम्मद रजा शाह पहलवी कहते थे । मेहर या मिहिर मित्र और इन्द्र मेघवान् का ही व्युत्पन्न है । रजा,  -राजा का, शाह, -शास् का । इससे याद आता है कि भगवान् श्रीराम के भाई ने उनकी चरण-पादुकाओं को अयोध्या के  राजसिंहासन पर रखकर १४ वर्ष तक अयोध्या का शासन किया था । इस प्रकार भरत पादशास् या पादशासीय राजा थे। छत्रपति शिवाजी ने भी अपने गुरु की पादुकाएँ राजसिंहासन पर रखकर राज्य का शासन किया । 'बादशाह', इसी पादशास् का अपभ्रंश है।

शक, यवन - हम सभी 'शक-संवत्' से परिचित ही हैं ।

यवन,  - जैसा कि वर्णन किया गया, पृथ्वी के योनि-प्रदेश से उत्पन्न  हुए और आज भी उन्हें ज्यू - Jew कहा जाता है जो यव(न) का ही अपभ्रंश है। दूसरा प्रचलित शब्द है  Zion. 

हमने 'पृथ्वी-सूक्तम् स्तोत्रम्' में 'स्योना' शब्द का प्रयोग देखा ही था। स्योना शब्द, स्योनः का स्त्रीलिंग है और हिब्रू में जिस स्थान और पर्वत का नाम 'Zion' है, वह स्थान भी इस स्योन के तात्पर्य का द्योतक है -- मनोहर, श्रेष्ठ, आकर्षक। 

काम्बोज वही हैं जिनका देश है  Cambodia. 

बर्बर अर्थात् वे मंगोल जो मुगल हुए। 

बाबर इसलिए जातिवाचक या व्यक्तिवाचक दोनों ही अर्थों में प्रयुक्त होता है । इससे मिलते जुलते शब्द और अपभ्रंश क्रमशः बर्बरीक और बबरक हैं ।

कामधेनु, शबला, पृथ्वी के योनिदेश से यवन हुए, यह तो स्पष्ट है ही, शकृ (गोबर के उत्सर्जन का स्थान) से शक उत्पन्न हुए। 

रोमकूपों से म्लेच्छ उत्पन्न  हुए। 

Mlecca है, -- पुराना मलक्का, आज का मलेशिया। 

इस प्रकार वाल्मीकि रामायण में उन सभी मानव जातियों का उल्लेख है जिनका उद्भव पूरी धरती पर अलग अलग स्थानों पर हुआ। 

इसलिए यवन या Jew मूलतः religion न होकर वंश या  Race है । 

वाल्मीकि रामायण के ही उत्तरकाण्ड, सर्ग ८७ में भगवान् श्री राम द्वारा लक्ष्मण को सुनाई गई महापराक्रमी पृथ्वी के सम्राट 'इल' की कथा है, जहाँ भगवान् श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं :

श्रूयते हि पुरा सौम्य कर्दमस्य प्रजापतेः ।

पुत्रो बाह्लीश्वरः श्रीमानिलो नाम सुधार्मिको ।। ३ ।।

'सौम्य! सुना जाता है कि पूर्वकाल में प्रजापति कर्दम के पुत्र श्रीमान् इल बाह्लीकदेश के राजा थे । 

वे बड़े धर्मात्मा नरेश थे ।। ३।।

(यह 'बाह्लीक' अधिक संभावना है कि वर्तमान बाल्किस्तान है या हो सकता है कि यह बाल्टिक समुद्र का क्षेत्र हो ।)

स राजा पृथिवीं सर्वां वशे कृत्वा महायशाः ।

राज्यं चैव नरव्याघ्र पुत्रवत् पर्यपालयत् ।। ४ ।।

'हे पुरुषसिंह लक्ष्मण!  वे महायशस्वी भूपाल सारी पृथ्वी को वश में करके अपने राज्य की प्रजा का पुत्र की भाँति पालन करते थे ।। ४ ।।

सुरैश्च परमोदारैर्दैतेयैश्च महाधनैः ।

नागराराक्षसगन्धर्वैर्यक्षैश्च सुमहात्मभिः ।। ५ ।।

पूज्यते नित्यशः सौम्य भयार्तैः रघुनन्दन ।

अबिभ्यंश्च त्रयः लोकाः सरोषस्य महात्मनः ।। ६ ।।

'सौम्य!  रघुनन्दन!  परम उदार देवता, महाधनी दैत्य तथा नाग,  राक्षस, गन्धर्व और महायशस्वी यक्ष -- ये सब भयभीत होकर सदा राजा इल की स्तुति पूजा करते थे तथा उस महामना के रुष्ट हो जाने पर तीनों लोकों के प्राणी भय से थर्रा उठते थे ।। ५-६ ।।

स राजा तादृशोऽप्यासीद् धर्मे वीर्ये च निष्ठितः ।

बुद्ध्या च परमोदारो बाह्लीकेशो महायशाः ।। ७ ।।

'ऐसे प्रभावशाली होने पर भी बाह्लीक देश के स्वामी महायशस्वी परम उदार राजा इल धर्म और पराक्रम में दृढतापूर्वक स्थित रहते थे और उनकी बुद्धि भी स्थिर थी ।। ७ ।।

इस प्रकार पूरी धरती के एक स्वामी के रूप में इल नामक राजा  बाह्लीकनरेश था । इसी सर्ग में आगे वर्णन है कि वन में आखेट करते हुए यह राजा किस प्रकार सेना के सहित भूल से शिव के उस लोक में प्रविष्ट हो गया जहाँ भगवान् शिव माता पार्वती की प्रसन्नता के लिए स्त्रीवेश में, या स्त्रीरूप धारणकर रहा करते थे।उस लोक में सभी प्राणी, पशु-पक्षी, जलचर , यहाँ तक कि वृक्ष और लताएँ भी नारीरूप में ही थीं ।

राजा इल और उसके सैनिक तथा सेना भी इसलिए उस लोक में प्रविष्ट होते ही स्त्री के रूप में परिणत हो गए  ।

कथा आगे चलकर महात्मा बुध (ग्रह) से इला अर्थात् राजा इल के स्त्रीरूप के संबंध का वर्णन करती है, जो खगोल ज्योतिष का विषय है। 

एकेश्वरवाद का जन्म इसी राजा इल को पृथ्वी के एकमात्र ईश्वर कहे जाने से हुआ । यही ईश्वर अब्राहम से भी पूर्व का वह ईश्वर है, जिस पर अब्राहमिक परंपरा की तीनों शाखाएँ सहमत हैं ।

यह भी सत्य है कि जिस Jewish Religion  की स्थापना मोजेस (Moses) ने की थी उसकी प्रेरणा उन्हें उसी 'यह्वः' / यहोवा से मिली थी जो मूलतः एक वैदिक देवता है। 

जो प्रकारान्तर से यहूदियों का परमेश्वर है ।

पृथ्वी-सूक्त को यहाँ प्रस्तुत करते समय यह सब याद आया था। 

नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे! 

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Monday, 13 September 2021

त्वमस्यावपनी जनानामदितिः

अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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त्वमस्यावपनी जनानामदितिः कामदुघा पप्रथाना ।

यत् त ऊनं तत् त आ पूरयाति 

प्रजापतिः प्रथमजा ऋतस्य ।।६१।।

(हे पृथिवि! तुम सृष्टि में सर्वप्रथम उत्पन्न होनेवाली, अदिति हो, मनुष्यों की कामनाओं को पूर्ण करनेवाली कामधेनु हो। यदि मनुष्य कोई अंश तुमसे प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं तो वह अंश उन्हें सृष्टि के आदि में उत्पन्न हुए प्रजापति ब्रह्मा से प्राप्त हो  जाता है।)

उपस्थास्ते अनमीवा अयक्ष्मा अस्मभ्यं सन्तु पृथिवि प्रसूताः ।

दीर्घं न आयुः प्रतिबुध्यमाना वयं तुभ्यं बलिहृतः स्याम ।।६२।।

(हे पृथिवि ! तुमसे उत्पन्न होनेवाले तुममें निवास करनेवाले सभी मनुष्य नीरोग-निरामय, यक्ष्मा -क्षय रोग से रहित हों। तुम्हारे लिए हवि प्रदान करते हुए हम  दीर्घायु और स्वस्थ हों।।)

भूमे मातर्नि धेहि मा भद्रया सुप्रतिष्ठितम् ।

संविदाना दिवा कवे श्रिया मा धेहि भूम्याम् ।।६३।।

(हे भूमि माता! हमें मंगल और कल्याणकारी सुप्रतिष्ठा से युक्त करें । हे कवे!  -हे परमेश्वर! हे देवि! हमें भूमि के ऐश्वर्य लक्ष्मी आदि से समृद्ध करें।।)

।। इति पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम् संपूर्णम् ।।

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यद् वदामि मधुमत्

अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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यद् वदामि मधुमत् तद् वदामि यदीक्षे तद् वनन्ति मा ।

त्विषीमानस्मि जूतिमानवान्यान् हन्मि दोधतः ।।५८।।

(जो मैं कहूँ वह ऐसा हो जो मधुर हो, जो देखूँगा वह सब शुभ और कल्याणप्रद हो, हम तेजस्वी और त्वरा से, वेग से पूर्ण हों। मैं अपने मार्ग के विघ्नों-बाधाओं का नाश कर उन पर विजय प्राप्त कर सकूँ।)

शान्ति वा सुरभिः स्योना कीलालोध्नी पयस्वती ।

भूमिरधि ब्रवीतु मे पृथिवी पयसा सह ।।५९।।

(शान्ति अर्थात् सुरभि, मनोहर शोभायुक्त गौ, कील -जौ, गेहूँ, चाँवल आदि तृणधान्य देनेवाली मधुर शीतल, पेय जल, दुग्ध इत्यादि प्रदान करने वाली यह पयस्विनी पृथ्वी माता हमारे लिए आशीषयुक्त वचन कहे।)

यामन्वैच्छद्धविषा विश्वकर्मा-

न्तरर्णवे रजसि प्रविष्टाम् ।

भुजिष्यं१ पात्रं निहितं गुहा 

यदाविर्भोगे अभवन्मातृमद्भ्यः ।।६०।।

(विश्वकर्मा ने जब अन्तर्स्थित अर्णव में यज्ञ से हवन करते हुए, जिसे प्राप्त करने की इच्छा की, और अपने कार्य में संलग्न हुए, तो भोग के समस्त पदार्थों की निधि से परिपूर्ण वसुधा पृथ्वी को इस प्रकार से पाया और पृथिवी माता से उन सभी पदार्थों के भण्डार प्रकट हो गए।)

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अदो यद् देवि

अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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अदो यद् देवि प्रथमाना पुरस्ताद् देवैः व्यसर्पो महित्वम् ।

आ त्वा सुभूतमविशत् तदानीमकल्पयथाः प्रदिशश्चतस्रः ।।५५।।

(हे देवि! जिस काल में आपकी अभिव्यक्ति हुई थी, और आप नवपुष्प की तरह अर्धमुकुलित थी, देवताओं ने आपके स्वरूप की  जिज्ञासा आपके समक्ष प्रकट की थी, और वे देवता भी उस समय जब संस्काररहित पशु की तरह ही थे तब उन देवताओं ने आपका आविष्कार किया।)

जैसा कि देव्यथर्वशीर्ष में उल्लेख है,  

ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवीति।।१।।

ॐ सभी देवता (इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि चेतना) देवी (आदिशक्ति) के समीप गए और नम्रता से पूछने लगे - हे महादेवी तुम कौन हो?

साब्रवीत -- अहं ब्रह्मस्वरूपिणी । मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत्। शून्यं चाशून्यं च।।२।।

उसने कहा -- मैं ब्रह्मस्वरूपा हूँ। मुझसे प्रकृति-पुरुषात्मक सद्रूप और असद्रूप जगत् उत्पन्न हुआ है।

अहमानन्दानानन्दौ।

अहं विज्ञानाविज्ञाने। 

अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये। 

अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि। 

अहमखिलं जगत्।।३।।

मैं आनन्द और अनानन्दरूपा हूँ। मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ। अवश्य जाननेयोग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ। पञ्चीकृत और अपञ्चीकृत महाभूत भी मैं ही हूँ। यह सारा दृश्यजगत् मैं ही हूँ।

वेदोऽहमवेदोऽहम् । विद्याहमविद्याहम्। अजाहमनजाहम्। अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम्।। ४।।

वेद और अवेद मैं हूँ। विद्या और अविद्या भी मैं, अजा और अनजा 

-- प्रकृति और उससे भिन्न - manifest and potential unmanifest --भी मैं,  

नीचे-ऊपर, अगल-बगल भी मैं ही हूँ। 

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि। 

अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः। 

अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि । 

अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ ।।५।।

मैं रुद्रों, वसुओं, आदित्यों, और विश्वेदेवों के रूप में विचरण करती हूँ । मैं मित्र और वरुण दोनों का, इन्द्र एवं अग्नि का और दोनों अश्विनीकुमारों का भरण-पोषण करती हूँ ।।५।।*

* संदर्भ : ऋग्वेद् मण्डल १०,- १२५ / ०१, ०२, ०३, ०४, ०५

अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि। अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि ।।६।।

मैं ही सोम, त्वष्टा -विश्वकर्मा, पूषा - पूषन्, और भग / ऐश्वर्य को धारण करती हुई धात्री हूँ। त्रैलोक्य को आक्रान्त करने के लिए विस्तीर्ण पादक्षेप करनेवाले विष्णु, ब्रह्म-देव और प्रजापति को मैं ही धारण करती हूँ ।।६।।

अहं  दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते। अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्। अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे। य एवं वेद स दैवीं सम्पदमाप्नोति ।।७।।

देवों को उत्तम हवि पहुँचानेवाले और सोमरस निकालनेवाले यजमान के लिए हविर्द्रव्यों से युक्त धन धारण करती हूँ। मैं सम्पूर्ण जगत् की ईश्वरी, उपासकों को धन देनेवाली, ब्रह्मरूप और यज्ञार्हों -यजन करने योग्य देवों में प्रथम 

-प्रथमाना- अर्थात्, 

मुख्य हूँ। 

मैं आत्मस्वरूप-पर आकाशादि निर्माण करती हूँ। मेरा स्थान आत्मस्वरूप को धारण करनेवाली बुद्धिवृत्ति में है। जो इस प्रकार से जानता है, वह दैवी सम्पत्ति लाभ करता है।

*दैवी और आसुरी संपदाओं का वर्णन गीता के अध्याय १६ में विस्तारपूर्वक किया गया है। 

ते देवा अब्रुवन् -- नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।

नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ।।८।।

तब उन देवों ने कहा -- देवी को नमस्कार है । महादेवी एवं कल्याणकर्त्री को सदा नमस्कार है। गुणसाम्यावस्थारूपिणी मंगलमयी प्रकृति देवी को नमस्कार है । नियमयुक्त होकर हम उन्हें प्रणाम करते हैं ।।८।।

तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम् ।

दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नमः।।९।।

उस अग्नि के समान वर्णवाली, तपरूपी ज्योति से जाज्वल्यमान, दीप्तिमती, फलप्राप्ति के हेतु सेवन की जानेवाली दुर्गादेवी की हम शरण में हैं। 

असुरों का नाश करनेवाली देवि!  तुम्हें नमस्कार है।।९।।

देवीं वाचमजनयन्त देवाः तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति ।

सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सूष्टुतैतु ।।१०।।

प्रारूप देवों ने जिस प्रकाशमान 

- भावना की अभिव्यक्ति के लिए प्रारंभिक माध्यम के रूप में वैखरी वाणी की तरह -

जिस वाणी को उत्पन्न किया उसे अनेक प्रकार के प्राणी बोलते हैं। वह कामधेनु तुल्य आनन्ददायक और अन्न तथा बल देनेवाली वाग्-रूपिणी भगवती उत्तम स्तुति से संतुष्ट होकर हमारे समीप आये ।।९, १०।।

कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम् ।

सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम् ।।११।।

काल का भी नाश करनेवाली, वेदों द्वारा स्तुत हुई विष्णुशक्ति, स्कन्दमाता अर्थात् शिवशक्ति, सरस्वती अर्थात् ब्रह्मशक्ति, देवमाता अदिति, और दक्षकन्या अर्थात् सती, पापनाशिनी कल्याणकारिणी भगवती को हम प्रणाम करते हैं ।।११।।

महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि ।

तन्नो -------------- देवी ---------- प्रचोदयात् ।।१२।।

हम महालक्ष्मी को जानते हैं, और उन सर्वस्वरूपिणी का ध्यान करते हैं। वे देवी हमें सन्मार्ग पर प्रवृत्त करें  ।।१२।।

देवताओं ने दक्ष प्रजापति से कहा :

अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव। 

तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः ।।१३।।

हे दक्ष! आपकी जो कन्या अदिति हैं, वे प्रसूता हुईं और उनके मृत्युरहित कल्याणकर देव उत्पन्न हुए।

इस प्रकार भूमि देवी के आधिभौतिक और आधिदैविक स्वरूप का उल्लेख देवी-अथर्वशीर्ष में प्राप्त होता है।

यहाँ प्रसंग को स्पष्ट करने हेतु प्रस्तुत किया गया।

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ये ग्रामा यदरण्यं या सभा अधि भूम्याम् ।

ये संग्रामाः समितयस्तेषु चारु वदेम ते ।।५६।।

(भूमि पर स्थित ग्राम और अरण्य आदि हैं,  जहाँ जहाँ पर भिन्न भिन्न लोग और समुदाय एकत्र होते हैं और सभा या युद्ध आदि करते हों, वहाँ वहाँ हम आपकी स्तुति करते हैं ।।)

अश्व इव रजो दुधुवे वि तान् जनान् य आक्षियन् पृथिवीं यादजायत । मन्दाग्रेत्वरी भुवनस्य गोपा वनस्पतीनां गृभिरोषधीनाम् ।।५७।।

(पृथ्वी पर उत्पन्न होनेवाले प्राकृतिक पदार्थ, पृथ्वी पर वास करते हैं,  - पृथ्वी ही उनका वासस्थान है - उन पर धूलिकण अश्व के समान उड़ा करते हैं।  यह पृथिवी सबको प्रसन्नता देनेवाली, अग्रणी, विश्वरक्षक वनस्पतियों और औषधियों का पालन-पोषण करती है।)

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Sunday, 12 September 2021

यस्यां कृष्णमरुणं च

अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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यस्यां कृष्णमरुणं च संहिते

अहोरात्रे विहिते भूम्यामधि ।

वर्षेण भूमिः पृथिवी वृतावृता

सा नो दधातु भद्रया प्रिये धामनिधामनि ।।५२।।

(यह भूमि जिस पर नियमानुसार, एक ही समय पर कहीं पर तो अंधकार, और कहीं पर सूर्य की लालिमा, कहीं पर दिन तो कहीं पर रात्रि होते हैं, बारंबार क्रम से वर्षा का चक्र होता है, वह हमें अपने अपने प्रिय वास-स्थानों पर सुखपूर्वक प्रतिष्ठित करे।)

द्यौश्च म इदं पृथिवी चान्तरिक्षं मे व्यचः ।

अग्निः सूर्य आपो मेधां विश्वे देवाश्च सं ददुः ।।५३।।

(द्युलोक, पृथ्वी, अन्तरिक्ष, अग्नि, सूर्य तथा जल, सभी देवताओं ने हमें अनेक प्रकार से मेधा से संपन्न कर मेधावी बनाया है।)

टिप्पणी : व्यच् - तुदादिगण,  - व्याजीकरणे because of, 

अहमस्मि सहमान उत्तरो नाम भूम्याम् ।

अभीषाडस्मि विश्वाषाडाशामाशां विषासहि।।५४।।

(इसलिए, सामर्थ्य और क्षमता में, मैं अपने सभी प्रतिद्वन्द्वियों से अधिक शक्ति-संपन्न हूँ, अधिक निर्भय, साहसी और पराक्रमी हूँ, मुझमें यह सामर्थ्य है कि मैं सभी पर शासन कर सकूँ।)

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टिप्पणी :

इस सूक्त का पाठ करनेवाले वेद के ऋषि को पता है कि किसी भी एक ही निश्चित समय पर पृथ्वी के विभिन्न हिस्सों पर कहीं सूर्योदय, कहीं दोपहर, कहीं सूर्यास्त, और कहीं पर रात्रि हुआ करती है।

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Friday, 10 September 2021

ये त आरण्याः

अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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ये त आरण्याः पशवो मृगा वने हिताः 

सिंहा व्याघ्रा पुरुषादश्चरन्ति ।

उलं वृकं पृथिवि दुच्छुनामित ऋक्षीकां

रक्षो अप बाधयास्मत् ।।४९।।

(घोर अरण्यों जंगलों में रहनेवाले मृग, सिंह, व्याघ्र, मनुष्यों को खानेवाले, तथा अन्य पशु, इत्यादि हैं, तथा जो रात्रिचर भेडिए, भालू, और भीषण राक्षस आदि हैं, हे पृथिवि! उन्हें तुम हमसे दूर कर हमें निर्भय रखो।)

ये गन्धर्वा अप्सरसो ये चारायाः किमीदिनः ।

पिशाचान्त्सर्वा रक्षांसि तानस्मद् भूमे यावय ।।५०।।

(हे भूमे! जो गान्धार, अप्सराएँ, पिशाच और इस प्रकार से हिंसा की प्रवृत्ति रखनेवाले, दूसरों के धन आदि का अन्याय से तथा बल से हरण कर उपभोग और आमोद प्रमोद करनेवाले राक्षसी प्रवृत्ति से युक्त हैं, उन सब को हमसे बहुत दूर रखो।)

यां द्विपादः पक्षिणः संपतन्ति हंसाः सुपर्णाः शकुनाः वयांसि ।

यस्यां वातो मातरिश्वेयते रजांसि कृण्वंश्च्यावयंश्च वृक्षान् । वातस्य प्रवामुपवामनु वात्यर्चिः ।।५१।।

(जिस भूमि पर दो पैरों वाले, दो पक्षों वाले हंस, गरुड, मनोहर तथा शुभ पंखोंवाले पक्षी रहा करते हैं, जिन्हें वही वायु अर्थात् प्राण और चेतनता से युक्त मातरिश्वा देवता इधर उधर उड़ने के लिए उत्साह और शक्ति प्रदान करते हैं, जो कि इसी तरह से वृक्षों को भी चंचल कर उखाड़ते और उड़ाते रहते हैं, और जो अपने मित्र अग्नि से भी इसी प्रकार क्रीडा करते हैं ।)

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वैसे तो वेदोक्त सभी देवता आधिदैविक स्वरूप के होते हैं किन्तु उनमें से कुछ देवताओं को, जैसे अग्नि, वायु, पृथिवी, नभ और आप् (जल) को इनके स्थूल रूप में भी अनुभव किया जाता है। दूसरी ओर यम, सोम, वरुण, वसु, रुद्र, प्राण, उषा, संध्या, रात्रि, (शर्वरी), कुहू, अमा, सिनीवाली, अमावास्या, मित्र इत्यादि को केवल उनके कार्य, आभास और लक्षण से। कामदेव ऐसे ही एक विशिष्ट देवता हैं ।

इसी प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, ऋषि, प्रजापति, इन्द्र, पितर आदि देवताओं को भी प्रत्यक्षतः अनुभव किया जा सकता है।

यक्ष, रक्ष, पिशाच इत्यादि भी अपने अपने लोकों में वास करते हैं और उन्हें भी उनका प्रिय पेय, अन्न, पुष्प, गंध, अर्पित कर संतुष्ट किया जा सकता है ।

पृथिवी की ही तरह इसी प्रकार नौ ग्रहों का भी विशिष्ट देवता की तरह अपना अपना आधिदैविक स्थान होता है। 

संक्षेप में, 

गीता के अध्याय ९ में इसे ही स्पष्ट किया गया है :

यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः ।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ।।२५।।

(उपरोक्त श्लोक में पितृन् में ऋ-कार दीर्घ है किन्तु यहाँ पर उस ऋ को दीर्घ रूप में व्यक्त नहीं किया जा सकता। किन्तु मेरे गीता संदर्भ के ब्लॉग में लेबल 9/25 पर इस ऋ वर्ण का शुद्ध रूप देख सकते हैं ।)

संपूर्ण पृथिवी पर सदा से इस प्रकार सभी मानव-समुदाय अपने अपने पितरों की पूजा करते आ रहे हैं। किन्तु वैदिक परंपरा को माननेवाले अपने तरीकों को अग्नि को समर्पित करते हैं, दूसरी विधि है, -जल में प्रवाहित करना, तथा तीसरी विधि है, -भूमि में स्थान प्रदान करना। आध्यात्मिक विभूतियों को प्रायः भूमि में उनकी समाधि बनाकर समाधिस्थ किया जाता है क्योंकि इस प्रकार उनकी पूजा के माध्यम से आने वाली पीढ़ियाँ परमेश्वर की प्राप्ति कर सकें। और इसके लिए प्रायः ऐसी किसी समाधि पर शिवलिंग की प्रतिष्ठा की जाती है।

भगवान् श्रीराम तो अपनी लीला पूर्ण कर सीधे ही सरयू तट पर जाकर अपने धाम लौट गए, लक्ष्मण ने जल-समाधि ग्रहण की और माता सीता ने भूमि में भूमि-समाधि ग्रहण की। 

इस प्रकार माता पृथिवी के सूक्त रूपी इस स्तोत्र का पाठ सभी मनुष्यों के लिए श्रेयस्कर ही है।

ये सभी देवता वैसे तो भुवर्लोक से ऊपर के लोकों में वास करते हैं, किन्तु यथोचित पूजा और स्तुति आदि से आधिदैविक स्तर पर उनसे संपर्क कर उनके दर्शन किए जा सकते हैं ।

चूँकि एकमेव परमेश्वर ही उनका अधिष्ठान है, इसलिए जिस किसी देवता की आराधना मनुष्य करता है, उसका उसके ही उस स्वरूप से सायुज्य होता है।  

पौराणिक देवता को विशिष्ट प्रतिमा और मंत्रों से जाना जाता है। भैरव, काली, दुर्गा, गणेश, हनुमान आदि देवता भी इसी प्रकार से ज्ञातव्य हैं। 

इनमें से एक सर्वाधिक विशिष्ट देवता है : यह्व, जिसका प्रत्यक्ष और साकार दर्शन किया जाता है । यह यज्ञ की अग्नि से उठती हुई ज्वाला के रूप में पुंल्लिंग तथा स्त्रीलिंग दोनों प्रकारों से व्यक्त होता है। ब्रह्म के पर्याय के रूप में नपुंसकलिंग के रूप में भी। 

इसलिए ब्रह्म का उल्लेख 'तत्' प्रत्यय के रूप में 'वह' सर्वनाम से भी किया जाता है। यही एकमात्र ऐसा देवता है जिसे यहूदी, ईसाई और अन्य परंपराओं में एकमात्र परमेश्वर होने का गौरव प्राप्त है। यह्वः और हव्यः भी परस्पर समानार्थी और सज्ञात (cognate) हैं। 

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Thursday, 9 September 2021

यस्ते सर्पो वृश्चिकस्तृष्टदंश्मा

अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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यस्ते सर्पो वृश्चिकस्तृष्टदंश्मा हेमन्तजब्धो भृमलो गुहाशये ।क्रिमिर्जिन्वत् पृथिवि यद्येजति प्रावृषिः तन्नः सर्पन्मोप सृपद् यच्छिवं तेन नो मृड ।।४६।।

(हे पृथ्वी! तुममें रहनेवाले, रेंगनेवाले, काटनेवाले, बिलों आदि में रहनेवाले जीव, वे घातक प्राणी, जैसे साँप, बिच्छू आदि, जिनके काटे जाने पर शरीर में क्लेशप्रद दाने उभर आते हैं, वहाँ अत्यंत दाह होने लगता है, और बहुत प्यास होने लगती है, जो वर्षा ऋतु में अपने बिलों आदि से बाहर निकल आते हैं और जो भूमि पर स्वच्छन्दता से विचरने लगते हैं, कभी हमें स्पर्श न करें। इनसे अन्य जीव, जिनसे हमें सुख होता है, हमारे समीप रहें।)

ये ते पन्थानो बहवो जनायना रथस्य वर्त्मानसश्च यातवे। 

यैः संचरन्त्युभये भद्रपापास्तं पन्थानं जयेमानमित्रमतस्करं यच्छिवं तेन नो मृड ।।४७।।

(तुम पर स्थित अनेक मार्ग, जिन पर अनेक रथ, वाहन, मनुष्य आदि आते और जाते हैं, जिन पर दूसरों पर उपकार करनेवाले सज्जन तथा स्वार्थवश दूसरों को हानि पहुँचाने वाले दुर्जन भी आते जाते हैं, उन मार्गों पर चोरों और दुष्ट शत्रुओं के भय से तुम  हमारी रक्षा करना।)

मल्वं बिभ्रती गुरुभृद् भद्रपापस्य निधनं तितिक्षुः। 

वराहेण पृथिवी संविदाना सूकराय वि जिहीते मृगाय।।४८।।

(गुरुत्व के आकर्षण की शक्ति से संपन्न, पुण्यात्माओं को और  पापात्माओं को भी सहन करनेवाली भूमि । हमें उत्तम, स्वच्छ  जल प्रदान करनेवाली, मेघों से और सूर्य की किरणों से निरंतर अपनी मलिनता को दूर कर, स्वच्छ होती हुई, सूर्य के चारों ओर परिभ्रमण करती हुई, हे भूमे!)

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यस्याः पुरो देवकृता

अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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यस्याः पुरो देवकृताः क्षेत्रे यस्या विकुर्वते ।

प्रजापतिः पृथिवीं विश्वगर्भामाशामाशां रण्यां नः कृणोतु ।।४३।।

(जिस पृथ्वी के अनेक देवकृत सुरम्य क्षेत्रों में विभिन्न हिंसक पशु क्रीडा करते हैं और जिस पृथ्वी माता ने संपूर्ण विश्व के इन सब क्षेत्रों को अपने विस्तार में स्थान दिया है, प्रजापति उस पृथ्वी की प्रत्येक दिशा को हमारे लिए सौन्दर्य-संपन्न बनाए।)

निधिं बिभ्रती बहुधा गुहा वसु मणिं हिरण्यं पृथिवी दधातु मे। वसूनि नो वसुदा रासमाना देवी दधातु सुमनस्यमाना।।४४।।

(यह पृथिवी, जिसने अपने गर्भ में अनेक मूल्यवान, दीप्तिमान रत्नों, स्वर्ण, चाँदी, मणि और अन्य खनिज ओषधियों इत्यादि निधियों को धारण किया है, वह हमें वे निधियाँ प्रदान करे। धन-प्रदात्री, वर-प्रदात्री, दिव्य-स्वरूपा पृथिवी हम पर प्रसन्न होकर ऐश्वर्य तथा वैभव प्रदान करे।)

जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नाना धर्माणं पृथिवी यथौकसम् ।

सहस्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरन्ति ।।४५।।

(भिन्न भिन्न विचारों, मतों, संस्कृतियों, परंपराओं, भाषाओं का प्रयोग करने वाले अनेक मनुष्य-समुदायों को एक परिवार की तरह एक स्नेह-सूत्र में बाँधनेवाली पृथ्वी हमारे लिए बहुत दूध देनेवाली गौ की तरह नित्य हम पर समृद्धि और सुख की वर्षा करती रहे।)

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Tuesday, 7 September 2021

सा नो भूमि रादिशतु

अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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सा नो भूमि रादिशतु यद्धनं कामयामहे। 

भगो अनुप्रयुङ्क्तामिन्द्र एतु पुरोगवः।।४०।।

(हमें जिस धन की प्राप्ति की कामना है,  भूमि हमारे लिए वह धन प्रदान करे। इन्द्र हमारे संकल्पों को पूर्ण करने के लिए स्वयं अग्रणी होकर हमें सहायक हो।)

यस्यां गायन्ति नृत्यन्ति भूम्यां मर्त्या व्यैलबाः ।

युद्ध्यन्ते यस्माक्रन्दो यस्यां वदति दुन्दुभिः ।

सा नो भूमिः प्र णुदतां सपत्नानसपत्नं 

मा पृथिवी कृणोतु ।।४१।।

(जिस भूमि पर मर्त्य वीर उत्साहपूर्वक नृत्य गान आदि करते हुए युद्धोत्सव में सम्मिलित होते हैं, जिस पर दुन्दुभियाँ ढोल-नगाडे़ उन वीरों में उत्साह जगाती हुई ध्वनिनाद करती हैं, वह धरती माता हमारे सभी कंटकरूपी शत्रुओं का नाश करे और हमारे लिए इस प्रकार निष्कंटक हो।)

यस्यामन्नं व्रीहियवौ यस्या इमाः पञ्चकृष्टयः। 

भूम्यै पर्जन्यपत्न्यै नमोऽस्तु वर्षमेदसे ।।४२।।

(इस मंत्र का तात्पर्य मंत्र १५ के साथ ग्राह्य है, जहाँ पाँच प्रकार के उन श्रेष्ठ मानवों का उल्लेख है, जो सूर्य की रश्मियों से प्रेरणा तथा ऊर्जा लेकर विशेष पराक्रम करते हैं। 

जिस भूमि में अन्न, चाँवल तथा जौ इत्यादि उत्पन्न होते हैं, जिस भूमि पर ये पाँच प्रकार के पराक्रम-शील मानव अनेक प्रकार के महान कार्य संपन्न करते हैं, जिस भूमि पर पर्जन्य समयानुकूल जलवृष्टि करते हैं, उस धरती माता के लिए नमस्कार।)

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Monday, 6 September 2021

याप सर्पं विजमाना

अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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याप सर्पं विजमाना विमृग्वरी यस्यामासन्नग्नयो ये अप्स्व१न्तः परा दस्यून् ददती देवपीयूनिन्द्रं वृणाना पृथिवी न वृत्रम्। शक्राय दध्रे वृषभाय वृष्णे ।।३७।।

(जो सतत गतिशील है, वह हिलती हुई पृथ्वी जिसके भीतर जल है और उस जल के भीतर अग्नियाँ हैं, वृत्रासुर जैसे दस्युओं के पराभव (हार) के लिए जो पृथ्वी इन्द्र का वरण करती है, देवराज इन्द्र (शक्र) जैसे शक्तिशाली, वीर्यवान और सामर्थ्ययुक्त पुरुष के लिए ही जो उपयुक्त स्त्री है।) 

यस्यां सदोहर्विधाने यूपो यस्यां निमीयते। ब्रह्माणो यस्यामर्चन्त्यृग्भिः साम्ना यजुर्विदः । युज्यन्ते यस्यामृत्विजः सोममिन्द्राय पातवे।।३८।।

(जिस पृथ्वी पर यज्ञों के अनुष्ठान हेतु विधानपूर्वक यूपस्तम्भों को स्थापित किया जाता है, जहाँ ब्रह्मकर्म करनेवाले पुरोहित ऋग्वेद की ऋचाओं से और यजुर्वेदज्ञ साम-गान के माध्यम से अर्चना किया करते हैं। जिस पृथ्वी पर इस प्रकार से पुरोहितों द्वारा ऋत्विजों के लिए इन्द्र आदि के लिए सोमपान, आवाहन तथा संपर्क किया जाता है।)

यस्यां पूर्वे भूतकृत ऋषयो गा उदानृचुः। सप्तसत्त्रेण वेधसो यज्ञेन तपसा सह।।३९।।

(पूर्वकाल में जिस पृथ्वी पर ऋषियों ने जगत के कल्याण हेतु सप्त सत्र वाले ब्रह्म-यज्ञों का अनुष्ठान किया, तपःपूत पवित्र वाणी से मंत्रोच्चार करते हुए अनेक ब्रह्मयज्ञों का अनुष्ठान किया, -हम उस माता पृथ्वी को प्रणाम करते हैं।) 

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यच्छयानः पर्यावर्ते

अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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यच्छयानः पर्यावर्ते दक्षिणं सव्यमभि भूमे पार्श्वम् ।

उत्तानास्त्वा प्रतीचिं यत् पृष्टीभिरधिशेमहे ।

मा हिंसीस्तत्र नो भूमे सर्वस्य प्रतिशीवरि ।।३४।।

(हे भूमे! तुम्हारी गोद में सोए होने पर जब हम दाएँ अथवा बाएँ करवट लें, या पश्चिम की दिशा में पैर पसार कर अपनी पीठ के सहारे से लेटे हुए शयन करें, तो हे भूमे! तुम हमें क्षमा करते हुए, हम पर कभी हिंसा न करना !)

यत् ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु । 

मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पिपम् ।।३५।।

(निरंतर द्रुतगति से विचरण करते रहनेवाली पृथ्वी माते! जब हम बीज बोने के लिए, या पृथ्वी में विद्यमान किसी कन्द या खनिज औषधि आदि को प्राप्त करने जैसे किसी कार्य के लिए भूमि का खनन करें, तो हमारे द्वारा बोए गए वनस्पति, बीज आदि शीघ्र ही अंकुरित होकर वृद्धि को प्राप्त करें, हम तुम्हारे शरीर के हृदय आदि कोमल अंगों को, तुम्हारे मर्मस्थलों को चोट न पहुँचाएँ।)

ग्रीष्मस्ते भूमे वर्षाणि शरद्धेमन्तः शिशिरो वसन्तः ।

ऋतवस्ते विहिता हायनीरहोरात्रे पृथिवि नो दुहाताम् ।।३६।।

(हे भूमि माते! तुम पर आती जाती हुई वर्षा, ग्रीष्म, शरद, हेमन्त, शिशिर और वसन्त आदि सभी ऋतुएँ और दिन-रात, हमारे लिए सदैव सुखप्रद हुआ करें!)

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Saturday, 4 September 2021

यास्ते प्राचीः प्रदिशो

अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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यास्ते प्राचीः प्रदिशो या उदीचिर्यास्ते भूमे अधराद् यश्च पश्चात् । स्योनास्ता मह्यं चरते भवन्तु मा नि पप्तं भुवने शिश्रियाणः 

।।३१।।

(हे भूमे! तुम्हारी पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण आदि तथा उनके मध्य की विविध दिशाओं में, तुम्हारी मनोरम, सुन्दर भूमि पर जो लोग विचरण करते हैं, वे हमारे लिए शुभ और कल्याणप्रद हों। वे हमें श्रेयस्कर हों । हमारा अधःपतन न हो।) 

मा नः पश्चान्मा पुरस्तान्नुदिष्ठा मोत्तरादधरादुत । स्वस्ति भूमे नो भव मा विदन् परिपन्थिनो वरीयो यावया वधम्।।३३।।

(न तो पीछे, न आगे, न बाद में या अभी अधोपतन हो। हमारे लिए सब कुछ, सर्वत्र शुभ हो। हमारा अहित करने के इच्छुक शत्रु कभी हमें न जान पाएँ।)

यावत् तेऽभि विपश्यामि भूमे सूर्येण मेदिना ।

तावन्मे चक्षुर्मा मेष्टोत्तरामुत्तरां समाम् ।।३४।।

(हे पृथिवि! सूर्य से भूमि तक, क्षितिज से क्षितिज तक, जहाँ तक हमारी दृष्टि जा सकती है, और जहाँ तक हम तुम्हारे विस्तार को देख सकते हैं, वहाँ तक तुम हमारे लिए कल्याणप्रद रहो, हमारी नेत्रदृष्टि स्वस्थ और तेजपूर्ण रहे।)

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उदीराणा उतासीनाः

अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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उदीराणा उतासीनास्तिष्ठन्तः प्रक्रामन्तः । 

पद्भ्यां दक्षिणसव्याभ्यां मा व्यथिष्महि भूम्याम् ।।२८।।

(आवश्यकता और प्रेरणा के अनुसार भूमि पर इधर उधर भ्रमण करते हुए, बैठे हुए या खड़े हुए होने पर, और अपने पैरों से चलते हुए भी हमारे बाएँ और दाएँ दोनों ही पैर कभी कष्ट न अनुभव करें, और सुखपूर्वक अपना कार्य करते रहें।)

विमृग्वरीं पृथिवीमा वदामि क्षमा भूमिं ब्रह्मणा वावृधानाम्। 

ऊर्जं पुष्टं बिभ्रतीमन्नभागं घृतं त्वाभि नि षीदेम भूमे ।।२९।।

(विशेष प्रकार से भ्रमणशील हे पृथिवि! हे ब्रह्म-प्रेरणा से ब्रह्म की ही तरह सतत वर्धमान!  मैं तुमसे क्षमा याचना करता हूँ! हे भूमे! तुमसे प्राप्त हुए पुष्टिदायी तेजस्वी अन्न, घृत आदि हमें सदा ही प्राप्त हुआ करें!)

शुद्धा न आपस्तन्वे क्षरन्तु यो नः सेदुरप्रिये ।

तं नि दध्म । पवित्रेण पृथिवि मोत् पुनामि ।।३०।।

(हे भूमे! तुमसे निकलनेवाला, प्रवाहित होता हुआ शुद्ध स्वच्छ जल हमें पावन करे, और हमारे शरीर के स्नान करने से उतरा हुआ जल हमारे अनिष्ट की इच्छा करनेवालों का नाश करे।)

(सद् / सीद्, लिट्, अन्यपुरुष बहुवचन -- सेदुः,

अप्रिय, सप्तमी एकवचन -- अप्रिये)

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Thursday, 2 September 2021

यस्ते गन्धः पुरुषेषु

अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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यस्ते गन्धः पुरुषेषु स्त्रीषु पुंसुं भगो रुचिः। 

यो अश्वेषु वीरेषु यो मृगेषूत हस्तिषु।

कन्यायां वर्चो यद् भूमे तेनास्माँ अपि संसृज मा नो द्विक्षत कश्चन।।२५।।

(पुरुषों और स्त्रियों में जो तुम्हारी पुण्यशील, पावन गन्ध है। जो अश्वों, वीर पुरुषों और इसी प्रकार मृगों एवं गज आदि में है। और, तुम्हारी जो यह पुण्यगन्ध कुमारियों में भी है, हे भूमे! उससे तुम हमें भी सुरभित करो। हम एक दूसरे से द्वेष न करें।)

शिला भूमिरश्मा पांसुः सा भूमिः संधृता धृता।

तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकरं नमः।।२६।।

(यह भूमि माता, जिसके स्वर्णिम वक्षस्थल पर शाखाएँ, पत्थर, मोती, कंकड़ रेत-कण आदि हैं, किन्तु जिसके गर्भ में रत्न और बहुमूल्य स्वर्ण, रजत और अन्य धातुएँ, रत्न इत्यादि हैं, उसकी वंदना मैं शीश झुककर करता हूँ।)

यस्या वृक्षा वानस्पत्या ध्रुवास्तिष्ठन्ति विश्वहा।

पृथिवीं विश्वधायसं धृतामच्छावदामसि।।२७।।

(वह मंगलकारी पृथिवी अपने वृक्षों, वनस्पतियों और औषधियों को सर्वदा समृद्ध कर, उनसे संसार का कल्याण करती है, और जो पृथिवी, जगत् का माता की तरह, जो संसार का धाय की तरह पालन-पोषण करती है, उसकी हम नतशीश होकर स्तुति करते हैं।)

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भूम्यां देवेभ्यो ददति

अथ पृथिवी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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भूम्यां देवेभ्यो ददति यज्ञं हव्यमरंकृतम् ।

भूम्यां मनुष्या जीवन्ति स्वधयान्नेन मर्त्याः ।

सा नो भूमिः प्राणमायुर्दधातु जरदष्टिं मा पृथिवी कृणोतु ।।२२।।

(जिस भूमि पर वेदियों में किए जानेवाले हवन और यज्ञ आदि से देवताओं को उनका यज्ञभाग प्रदान किया जाता है, जिस पर उत्पन्न अन्न आदि के सेवन से मनुष्य और दूसरे भी सभी मर्त्य, आयु और जीवन प्राप्त करते हैं, वह भूमिमाता हमारे लिए प्राण और वाँछित आयु दे । वह हमारे जीवन को जरा से रहित करे।) 

यस्ते गन्धः पृथिवि संबभूव यः बिभ्रत्योषधयो यमापः। 

यं गन्धर्वा अप्सरश्च भेजिरे तेन मा सुरभिं कृणु मा नो द्विक्षत कश्चन ।।२३।।

(हे पृथिवि! तुममें अवस्थित जो उत्तम सुगन्ध है, जो औषधियों और जल में ओत-प्रोत है, जिसका प्रयोग और उपभोग अप्सराएँ तथा गन्धर्व आदि करते हैं उससे तुम हमारे जीवन को सुरभित रखो!  हम परस्पर द्वेष न करें, हममें परस्पर प्रीति रहे।)

यस्ते गन्धः पुष्करमाविवेश यं संजभ्रुः सूर्याया विवाहे। 

अमर्त्याः पृथिवि गन्धमग्रे तेन मा सुरभिं कृणु मा नो द्विक्षत कदाचन।।२४।।

( हे भूमे! जो सुगन्ध प्रारंभ से तुममें ही है, तुमसे ही उसे ग्रहण कर कमल के पुष्प भी सुरभित हुए। सूर्या अर्थात् उषा से अपने  परिणय के समय वायुदेवता ने भी उसी सुरभि से अपना अंगराग किया। हे पृथिवि! उसी सुरभि से तुम हमारे जीवन को सुरभित करो। हम परस्पर द्वेष न करें।)

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