Friday, 27 September 2019

तपसा चीयते

प्रश्नोपनिषद् / मुण्डकोपनिषद् / ऐतरेयोपनिषद्
अन्नं
तपसा चीयते 
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ऐतरेयोपनिषद्  में वर्णित :
आत्मा (अहम्) वा इदमेक एवाग्र आसीत् ...
से किस प्रकार सृष्टि की अनभिव्यक्त से अभिव्यक्ति हुई यह स्पष्ट किया गया।
सृष्टि से पुरुष-आख्य मन, मानव-देह, का उद्भव हुआ जो उस परमात्मा का ही प्रतिरूप है।
इस पूरे कथानक का वर्णन प्रश्नोपनिषद् में इस प्रकार से है :
षष्ठ प्रश्न 
अथ ह ऐनं सुकेशा भारद्वाजः पप्रच्छ --
भगवन् हिरण्यनाभः कौसल्यः राजपुत्रः माम् उपैत्यं प्रश्नं अप्रच्छत्।
षोडशकलं भारद्वाज पुरुषं वेत्थ।
तं अहं कुमारं अब्रुवं न अहं इमं वेद यदि अहं इमं अवेदिषं कथं ते न
अवक्ष्यं इति समूलः वा एषः परिशुष्यति यः अनृतं अभिवदति
तस्मात् न अर्हामि अनृतं वक्तुम्।
स तूष्णीं रथं आरूह्य प्रवव्राज।
तं त्वा पृच्छामि क्व असौ पुरुषः इति।।१।।
तस्मै स ह उवाच।
इह एव अन्तःशरीरे सोम्य स पुरुषः यस्मिन् एताः षोडष कलाः प्रभवन्ति।।२।।
स ईक्षांचक्रे।
कस्मिन् अहं उत्क्रान्ते उत्क्रान्तः भविष्यामि कस्मिन् वा प्रतिष्ठिते प्रतिष्ठास्यामि
इति।।३।।
स प्राणं असृजत प्राणात् श्रद्धां खं वायुः ज्योतिः आपः पृथिवी इन्द्रियं  मनः अन्नम्
अन्नात् वीर्यं तपः मन्त्राः कर्म लोकाः लोकेषु च नाम च।।४।।
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मुण्डकोपनिषद् 
प्रथम मुण्डक
प्रथम खण्ड,
यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति।
यथा सतः पुरुषात्केशलोमानि  तथाक्षरात्सम्भवन्तीह विश्वम्।।७।।
तथा,
तपसा चीयते ब्रह्म ततोऽन्नमभिजायते।
अन्नात्प्राणो मनः सत्यं लोकाः कर्मसु चा मृतम्।।८।।
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अव्यक्त से व्यक्त सृष्टि के संबंध में अन्त में श्रीमद्भगवद्गीता से :
अध्याय ९
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।४।।
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन।।५।।
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानित्युपधारय।।६।।
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।७।।
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्रामिमं  कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।।८।।
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।।९।।
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतु नानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।१०।।
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।११।।
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[Gita chapter 9, stanza 4 to 11]                 
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Thursday, 26 September 2019

लोक, देवता, अन्न

ऐतरेय उपनिषद्
प्रथम अध्याय
तृतीय खण्ड
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स ईक्षतेमे नु लोकाश्च लोकपालाश्चान्नमेभ्यः सृजा इति।।१।।
ईक्षणरूपी तप से अपने उस प्रतिरूप की सृष्टि होने के अनन्तर ईक्षण से ही उसमें संकल्प हुआ कि
उस प्रतिरूप (तथा उस प्रतिरूप / जगत्प्रतिमा में निविष्ट / प्रविष्ट देवताओं) के रहने के लिए लोकों,
तथा उनके द्वारा भक्षण करने के लिए अन्न की सृष्टि हो।
जैसा कि पहले ही स्पष्ट किया गया है :
आत्मा (अहम्) वा इदम् एक एवाग्र आसीत् ;
यह संकल्प आत्मा में निहित उस शक्ति की ही अभिव्यक्ति था,
जो आत्मा (अहम्) वा इदम् से अभिन्न है।
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सोऽपोऽभ्यतपत्ताभ्योऽभितप्ताभ्यो मूर्तिरजायत।
या वै सा मूर्तिरजायतान्नं वै तत्।।२
--
(सः अपः अभ्यतपत् ताभ्यः अभितप्ताभ्यः मूर्तिः अजायत।
या वै मूर्तिः अजायताः अन्नं वै तत्।।)  
यहाँ उल्लेखनीय है कि देवताओं, अश्व, गौ तथा मनुष्य-देह सहित जिस आत्मा (अहम्) वा इदम्
के ईक्षणरूपी इस तप से सृष्टि अव्यक्त / अनभिव्यक्त से अभिव्यक्त रूप में प्रकट (manifest)
हुई, वह स्वयं भी तब तक अमूर्त (abstract) तो था, -किन्तु अप्रकट नहीं था !
यह भी उल्लेखनीय है कि 'था' शब्द का प्रयोग व्यावहारिक अर्थ में औपचारिक रूप से किया जा रहा
है, -न कि इस अर्थ में कि यह कार्य 'व्यतीत होनेवाले समय' के अंतर्गत अतीत में कभी उस 'घटना'
की तरह हुआ, जिसका प्रारम्भ और अन्त होता है।
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वह अहम् वा इदम् से अभिन्न आत्मा अर्थात् परमात्मा, जल (जल -महाभूत; --बहुवचन, अर्थात्
पृथिवी, वायु, अग्नि और आकाश इन अन्य चार महाभूतों सहित जल / आप आदि) से उन्हें संयुक्त
कर मूर्तरूप में अभिव्यक्त हुआ।
जो वह मूर्तियाँ (मूर्त स्वरूप) इस प्रकार प्रकट हुईं वही 'अन्न' हुआ।
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तदेनत्सृष्टं पराङत्यजिघांसत्तद्वाचाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोद्वाचा गृहीतुम्।
यद्धैनद्वाचाग्रहैष्यदभिव्याहृत्य हैवान्नमत्रप्स्यत्।।३ 
(तत् एनत् सृष्टं पराङ्-अति-अजिघांसत्-तत्-वाचा-अजिघृक्षत्-तत्-न अशक्नोद्-वाचा गृहीतुम्।
यद् ह एनत् वाचा ग्रहैष्यत् अभिव्याहृत्य ह एव अन्नम् अतृप्स्यत्।।) 
--
इस प्रकार सृष्ट अन्न को परमात्मा (के उस प्रतिरूप) ने वाचा (वाणी) से ग्रहण करना चाहा,
किन्तु वाणी से न ग्रहण कर सका :
-- अर्थात् 'अन्न' शब्द का उच्चारण करने मात्र से उसे अन्न प्राप्त न हो सका।
यदि वह ऐसा कर सका होता तो 'अन्न' शब्द के उच्चारण से ही तृप्त हो जाता।
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Tuesday, 24 September 2019

अशना-पिपासे / भूख-प्यास

ऐतरेय उपनिषद्
प्रथम अध्याय
द्वितीय खण्ड
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ता एता देवताः सृष्टा अस्मिन् महत्यर्णवे प्रापतंस्तमशानायापिपासाभ्यामन्ववार्जत्
ता एनमब्रुवन्नायतनं नः प्रजानीहि यस्मिन् प्रतिष्ठिता अन्नमदामेति।।१।।
(महति अर्णवे ... प्रापतन्  ... तं अशनाया-पिपासाभ्यां अन्ववार्जत् .. ता एनं अब्रुवन् आयतनं नः
... अन्नं अदाम इति )
--
प्रथम खण्ड में वर्णित :
तमभ्यतपत् .. तस्या ... रेतस आपः।।४।।
में स्पष्ट किया गया कि उस परम ईश्वरीय सत्ता से जो परमात्मा अथवा आत्मा और इदम् से अभेद है, किस प्रकार जगत्प्रतिमा का उद्भव हुआ। इसके पूर्ण होने पर सृष्टि-विधान का प्रवाह पुनः आपः अर्थात् उस जलतत्व में परिणत हुआ जिसका वर्णन मन्त्र २ में अम्भः शब्द से है।
(स इमाँल्लोकानसृजत। अम्भोमरीचिर्मरमापोऽदोअम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठान्तरिक्षं
मरीचयः पृथिवी मरो या अधस्तात्ता आपः।।२।।)
इस प्रकार आध्यात्मिक अधिष्ठान का वर्णन होने के बाद देवता-सृष्टि हुई जो आधिदैविक-सृष्टि है।
इस आधिदैविक सृष्टि के आधार-रूप में परमात्मा ने स्वयं अपने-आपको ही तप अर्थात् ईक्षण द्वारा
उस प्रतिमा में चैतन्य आरोपित किया जिससे उस जगत्प्रतिमा में तदनन्तर इन्द्रियों तथा देवताओं
का प्रादुर्भाव हुआ। ये देवता जो पञ्च महाभूतात्मक स्वरूप के हैं, इन्द्रियों और मन के मध्य संपर्क का
साधन हैं। इन्द्रियों के तथा उनसे सम्बद्ध देवताओं के सृजन के बाद स्थूल महाभूतात्मक आधिभौतिक
सृष्टि हुई जो पदार्थ और ऊर्जा, प्राण और चेतना की क्रीड़ा है।
जगत्प्रतिमा में अवस्थित ईश्वर के प्रतिरूप में देवताओं की प्रतिष्ठापना होने के बाद चैतन्य (हिरण्यगर्भ)
के व्यक्त होने से उस प्रतिरूप में स्वयं के एक स्वतंत्र अस्तित्व होने का भान हुआ। तब परमात्मा ने उन्हें
भूख और प्यास से युक्त कर दिया, और भूख तथा प्यास ने परमात्मा से अपने रहने के लिए किसी स्थान
को माँगा, जहाँ से वे अपना आहार ग्रहण कर सकें ।
(यह वही भूख-प्यास है जिसकी शान्ति और तृप्ति किसी लौकिक उपभोग से पूर्ण नहीं होती। )
ताभ्यो गामानयत्ता अब्रुवन्न वै नोऽयमलमिति
ताभ्योऽश्वमानयत्ता अब्रुवन्न वै नोऽयमलमिति ।।२।।
तब परमात्मा ने स्थान देने के लिए उनके सम्मुख गौ को प्रस्तुत किया।
तब देवताओं तथा भूख-प्यास ने कहा :
यह हमारे लिए पर्याप्त नहीं है,
तब परमात्मा ने स्थान देने के लिए उनके सम्मुख अश्व को प्रस्तुत किया।   
तब देवताओं तथा भूख-प्यास ने कहा :
यह हमारे लिए पर्याप्त नहीं है,
ताभ्यः पुरुषमानयत्ता अब्रुवन् सुकृतं बतेति।
पुरुषो वाव सुकृतम्।
ता अब्रवीद्यथायतनं प्रविशतेति।
तब परमात्मा ने स्थान देने के लिए उनके सम्मुख पुरुष (मनुष्य-रूपी शरीर) प्रस्तुत किया।
तब देवता और भूख-प्यास ने कहा :
यह अवश्य ही श्रेष्ठ है। पुरुष (शरीर) अवश्य ही श्रेष्ठ है।
और भूख-प्यास से भी पहले उस शरीर में वे देवता यथास्थान प्रविष्ट हुए ।
उस मनुष्य-रूपी शरीर में ही समस्त देवता इस प्रकार प्रविष्ट हुए :
अग्निर्वाग्भूत्वा मुखं प्राविशद्वायुः प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशदादित्यश्चक्षुर्भूत्वाक्षिणी
प्राविशद्दिशः श्रोत्रं भूत्वा कर्णौ प्राविशन्नोषधिवनस्पतयो लोमानि भूत्वा त्वचं प्राविशन्-
चन्द्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशन्मृत्युरपानो भूत्वा नाभिं प्राविशदापो रेतो भूत्वा शिश्नं
प्राविशन्।।
तमशानायापिपासे अब्रूतामावाभ्यामभिप्रजानीहीति। 
ते अब्रवीदेतास्वेव वां देवतास्वाभजाम्येतासु भागिन्यौ करोमीति।
तस्माद्यस्यै कस्यै च देवतायै हविर्गृह्यते भागिन्यावेवास्यामशनायापिपासे भवतः।।५।।           
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तब परमात्मा से भूख तथा प्यास ने कहा :
"हम दोनों के रहने लिए भी उपयुक्त स्थान दीजिए।'
तब परमात्मा ने उन दोनों के लिए इन्द्रियों में स्थान निर्धारित किया।
इसलिए जिस किसी देवता के निमित्त हवि (यज्ञ में) प्रदान की जाती है उससे ही इन दोनों को
भी अन्न प्राप्त हो जाता है।
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Monday, 23 September 2019

कितनी सृष्टियाँ

ऐतरेय उपनिषद्
प्रथम अध्याय,
प्रथम खण्ड
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ॐ आत्मा वा.......।।१।।
स इमाँ ...... ....... ।।२।। 
स ईक्षते .... ..... .. ।।३।।
तमभ्यतपत्तस्याभितप्तस्य मुखं निरभिद्यत यथाण्डं मुखाद्वाचोऽग्निर्नासिके निरभिद्येतां
नासिकाभ्यां प्राणः प्राणाद्वायुरक्षिणी निरभिद्येतामक्षिभ्यां चक्षुश्चक्षुष आदित्यः कर्णौ निरभि-
द्येतां कर्णाभ्यां श्रोत्रं श्रोत्रादृिशस्त्वङ् निरभिद्यत त्वचो लोमानि लोमभ्य ओषधिवनस्पतयो
हृदयं निरभिद्यत हृदयान्मनो मनसश्चन्द्रमा नाभिर्निरभिद्यत नाभ्याऽपानोऽपानान्मृत्युः शिश्नं
निरभिद्यत शिश्नाद्रेतो  रेतस आपः।
--
व्यतीत होनेवाला (और व्यतीत न होनेवाला) समय :
प्रथम मन्त्र में आत्मा (अहम्) और इदम् का अभेद कहा गया।
द्वितीय मन्त्र में किसी अन्य के अस्तित्व का निषेध किया गया।
प्रथम मन्त्र में 'आसीत्' का प्रयोग भूतकाल लङ्-लकार एकवचन अन्य-पुरुष में किया गया।
इस प्रकार उस सत्ता आत्मा (अहम्) का वर्णन, -जिससे एकवचन 'काल' का उद्भव हुआ,
अन्य-पुरुष एकवचन सर्वनाम के रूप में किया गया।
प्रथम और तृतीय मन्त्र में 'स ईक्षत' में ईक्ष् धातु का प्रयोग भूतकाल लङ्-लकार एकवचन
अन्य-पुरुष में किया गया। 'ईक्ष्' धातु पुनः 'ईश्' -- ईशिता के अर्थ में 'ईश्वर' का पर्याय है।
दोनों धातुएँ आत्मनेपदी हैं, अर्थात् जो आत्मा (अहम्) के निमित्त प्रयुक्त होती हैं।
इस प्रकार कर्ता स्वयं ही अपना कर्म होता है।
तप और ईक्षण दोनों इसी प्रकार के कार्य हैं।
तप का अर्थ है 'ईक्षण', जो दृष्टा-दृश्य रूपी दर्शन से इस अर्थ में भिन्न है।
'ईक्षण' का अर्थ हुआ प्रमाद-राहित्य।
प्रमाद ही मृत्यु अर्थात् काल है जो व्यतीत होनेवाला समय है,
-जिसका प्रारम्भ और अन्त होता है।
पातञ्जल योग-सूत्र समाधिपाद 26 में इसे ही 'गुरु' नाम दिया गया है :
स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदनात्।।
इस प्रकार जिस सृष्टि का वर्णन ऐतरेय उपनिषद् में किया जा रहा है, वह नित्य, सनातन और
शाश्वत है, न कि आदि-अन्त से युक्त वह भौतिक सृष्टि जिसका उद्भव और अवसान व्यतीत
होनेवाले समय में होता रहता है।         
चतुर्थ मन्त्र :
तमभ्यतपत्तस्याभितप्तस्य
तम् अभि-अतपत्-तस्य-अभितप्तस्य .. 
से भी स्पष्ट है कि आत्मा स्वयं ही तप अर्थात् ईक्षण रुपी कर्म, और उस कर्म का कर्त्ता भी है।
और वह काल के अवच्छेद (व्यवधान/ बाधा) से रहित है।
इस प्रकार समष्टि-आत्मा के काल-निरपेक्ष अस्तित्व में ही काल-सापेक्ष समय का, -प्रतीति और
आभास की तरह व्यष्टि-चेतना में उद्भव और अवसान होता है।
इस प्रकार समष्टि-सत्ता रूपी 'पुरुष' से; - समष्टि-चेतना रूपी आत्मा (अहम्) वा इदम् में प्रथमतः
जो विवर हुआ वह वैसा ही था, जैसे अन्डे के फूटते समय उसमें पैदा होता है।
यह विवर ही मुख हुआ।
मुख से वाचा, अग्नि भी तथा नासिका उत्पन्न हुए।
नासिका से प्राण तथा प्राण से वायु और नेत्र उत्पन्न हुए।
नेत्रों से चक्षु (नेत्र-इन्द्रिय);
और चक्षु से आदित्य और कर्ण (दोनों कान) उद्भूत हुए।
कर्ण (दोनों कानों) से श्रोत्र अर्थात् श्रवण-इन्द्रिय का उद्भव हुआ।
श्रोत्र से दिशाएँ और त्वचा उद्भूत हुए।
त्वचा से लोम (रोयें) उत्पन्न हुए।
रोयों से ओषधियाँ तथा वनस्पति तथा हृदय (सृष्टि रूपी पुरुष का, अथवा भौतिक शरीर में अवयव
के रूप में शरीर के हृदय नामक अंग का) उद्भव हुआ।
तदनन्तर, समष्टि हृदय से समष्टि मन का, तथा व्यष्टि-हृदय से व्यष्टि-मन का उद्भव हुआ।
(मन से ही) नाभि का उद्भव हुआ,     
नाभि से अपान (प्राण का ही एक प्रकार) तथा अपान से मृत्यु, तथा शिश्न (जननेन्द्रिय) ...
शिश्न से रेतस् (प्रवाह), रेतस् (प्रवाह) से आपः।
--
प्रसंगवश 
इस प्रकार 'सृष्टि' का विचार तीन स्तरों पर किया जा सकता है :
1. वैयक्तिक सृष्टि 
जिसमें व्यष्टि-सत्ता व्यतीत होनेवाले समय में बार बार अपने लोक में व्यक्त और अव्यक्त
होती रहती है, और जिसमें उसका अतीत स्मृति के रूप में इतिहास की तरह
अंकित होता है।
2. लौकिक सृष्टि 
जिसमें व्यक्ति के द्वारा अनुभव किए जानेवाले लोक में उस जैसे दूसरे भी असंख्य 'व्यक्ति' होते हैं,
जो उसकी दृष्टि में जन्म लेते और मरते हुए प्रतीत होते हैं। इस लोक का अपना अतीत और भविष्य
व्यक्ति-विशेष की कल्पना में होता है, जिसकी सत्यता सदैव संदेहास्पद होती है। इसी कल्पना से बने
संसार में भौतिक वैज्ञानिक उस काल-स्थान के संबंध में अन्वेषण करता रहता है जिसका सुनिश्चित
कोई आधार या अधिष्ठान नहीं हो सकता।  
3. समष्टि सृष्टि 
जिसमें उपरोक्त दोनों सृष्टियाँ साथ साथ, व्यक्त और अव्यक्त की तरह अस्तित्व ग्रहण करती हैं।
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कितनी सृष्टियाँ
इस प्रकार सृष्टि तथा लय का विचार वैयक्तिक, लौकिक और समष्टि के स्तर के आधार से किया जा
सकता है। जैसे पितृ-पक्ष प्रारम्भ होने का समय 'महालय' प्रारम्भ होता है। इसी पितृ-पक्ष में पितृ-लोक
में विद्यमान पितर मृत्युलोक में आकर अपने वंशजों से संपर्क करने का प्रयत्न करते हैं। यह उनके वंश
के उत्पन्न हुए मनुष्यों की आस्था पर भी निर्भर होता है कि वे कहाँ तक और कितने संतुष्ट होते हैं, और
'महालय' पूर्ण होने अर्थात् शारदीय नवरात्र के प्रारम्भ होने तक पुनः अपने लोक में लौट पाते हैं।
इसी प्रकार प्रलय नामक घटना का उल्लेख वैयक्तिक मृत्यु के अर्थ में तथा लोक-विशेष के मिटने के अर्थ
में भी किया जाता है, जबकि 'महाप्रलय' वह है जिसमें समष्टि-चेतना का ही लय अपने कारण में हो जाता
है। इसका समय 'कल्पान्त' होता है।
इस सब में कोई क्रम तो अवश्य है ही, यद्यपि हमारे लोक में इसकी सत्यता को जान-समझ पाना हमारे लिए लगभग असंभव सा है।
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Saturday, 21 September 2019

Abraham and Isaac

इब्राहीम और इस्माइल
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(ब्रह्म और अस्मि)
इस कथा को बरसों पहले पढ़ा था।
आज परम आदरणीय श्री पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ जी के इस विडिओ को देखा तो याद आया।
वेदान्त के सन्दर्भ में इसका आकलन करें तो यह वही कथा है जो नचिकेता और उशन् या वाजश्रवा की है।
दूसरी ओर ब्रह्म से इब्राहीम का तथा इस्माइल से अस्मि (या अस्मि इल) का सादृश्य भी उल्लेखनीय है।
वेदान्त के अनुसार ब्रह्माकार-वृत्ति का व्यक्ति-विशेष में प्रकाश ही 'अस्मि-वृत्ति'  है।
यही मनुष्य मात्र की सर्वाधिक प्रिय वस्तु है।
इस 'अस्मि-वृत्ति' का बलिदान ही सर्वोच्च त्याग / बलिदान (sacrifice) है।
मेरे लिए तो इस कथा का यही अर्थ है।
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हिब्रू बाइबिल में इब्राहिम और इस्माइल को क्रमशः अब्राहम तथा इसहाक कहा गया है और बाद के ग्रंथों में इसी कथा को उद्धृत किया गया है।
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Friday, 20 September 2019

आत्मा (अहम्) वा इदम्

स इमाँल्लोकानसृजत।
अम्भो मरीचीर्मरमापोऽदोम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठान्तरिक्षं
मरीचयः पृथिवी मरो या अधस्तात्ता आपः।।२
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[स = आत्मा (अहम्) वा इदम्]
अम्भः (वरुण / विद्युत् -electron, proton and nucleus -- तथा वरुण जिसका अधिष्ठाता है) से मरीचियाँ  (किरण / ray / रेख / रेखा, किर्यते / कीर्त्यते - फैलाना, व्याप्त होना), मरीचि से जल; एवं इनसे भिन्न स्वर्ग (देवताओं का लोक) तथा अन्तरिक्ष (Space), पृथिवी (तत्व) मरु / मृत्युलोक, तथा अन्य नीचे के लोक वे सभी।
--
स ईक्षतेमे नु लोका लोकपालान्नु सृजा इति सोऽद्भ्यः एव पुरुषं समुद्धृत्यामूर्च्छयत्।।३
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ईक्षण का अर्थ है आत्मा की वह शक्ति जो तत्वतः उससे अभिन्न होते हुए भी उससे विकीर्ण होकर 'इदम्' का रूप लेती है। इसलिए ईक्षण का पर्याय है तप। यह तप कृत्य न होकर आत्मा का स्वभाव, स्वरूप ही है जिसमें सब कुछ अनायास होता है तथा जो कार्य-कारण से परिभाषित नहीं होता।
इस ईक्षण-रूपी तप से सृष्टि होती है जो आदि तथा अंत से रहित है। इसलिए काल भी सृष्टि की रचना है।  इस प्रकार सृष्टि नित्य, सनातन और शाश्वत है।
विभिन्न लोकों में विभिन्न प्राणी (अहंकार) अपनी परिस्थितियों के अनुसार इस सृष्टि के अंतर्गत व्यक्त होते हैं और अव्यक्त में लौट जाते हैं। 
उस (आत्मा-अहम वा इदम्) के ईक्षणाख्य तप से उसमें संकल्प हुआ कि इन लोकों की रचना हो।
ऐसा संकल्प उठाते ही जल से ही पुरुष का उद्भव हुआ जिसे 'विज्ञानमय-पुरुष' कहा जाता है।
'नृ' धातु से ही नारा (जल), नारद, नारायण, नर तथा नारी) बना है जबकि 'नृ' से ही नट, नाट्य, नद, नाद, नृत्य, नाडी भी बने हैं।
अंग्रेज़ी का nature, nation, Nazi, nazion (German), natal, तमिळ 'नाड' भी इसी के सज्ञात (cognate) हैं।
नृषु -- नृषुलः -- नस्ल (race) भी इसी प्रकार हैं। 
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इस प्रकार जल से विज्ञानमय अर्थात मनोमय पुरुष को अव्यक्त से व्यक्त (समुद्धृत) कर उसे मूर्तिमान किया। उस मूर्त प्रतिमा जो मूर्च्छित थी, उसमें चेतना अर्थात् अहम्-बुद्धि (ego) की सृष्टि हुई।
अहम्-बुद्धि अहंकार (ego) के रूप में व्यक्त हुई। जिसके साथ इदम्-बुद्धि जगत / विश्व के रूप में 'Id' के रूप में व्यक्त हुई। इस प्रकार पृथ्वी तत्व इडा/ इरा/ इला के रूप में व्यक्त हुआ। इडा-पिङ्गला नाड़ियों का भी व्यक्त रूप इसी प्रकार हुआ। चित्त और प्राणों के प्रवाह से वह मूर्ति चेतनतत्व से प्राणवान जीव हुई।
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ऐतरेय
     
                  
         

Thursday, 19 September 2019

चंद्रयान / मनोयान

चन्द्रमा का दक्षिणी ध्रुव 
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शिवाथर्वशीर्षम् :
...
...
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च स्कन्दस्तस्मै वै नमो नमः ।3                            
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्चेन्द्रस्तस्मै वै नमो नमः ।4                            
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्चाग्निस्तस्मै वै नमो नमः ।5
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च वायुस्तस्मै वै नमो नमः ।6
 यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च सूर्यस्तस्मै वै नमो नमः ।7
...
...
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च कालस्तस्मै वै नमो नमः ।20
 यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च यमस्तस्मै वै नमो नमः ।21
--
इसलिए चन्द्र पर और वह भी दक्षिण-ध्रुव पर किसी मानव अभियान की सफलता संदिग्ध ही है, 
क्योंकि वैसे भी दक्षिण, -यम अर्थात् मृत्यु की दिशा / दशा है।
--
चंद्रयान / मनोयान                                                                                                                                         --            

ऐतरेय और गायत्री

तत्सवितुः वरेण्यं ।।
--
ऐतरेय अभी बालक ही था कि उसे यज्ञोपवीत दीक्षा प्रदान की गयी।
बाल्य-अवस्था में वैसे भी मनुष्य ब्रह्मचर्य में ही स्थित होता है।
ब्रह्मचर्य है छन्द और गायत्री भी छन्द ही है जिसका मन्त्र के रूप में प्रयोग किया जाता है।
इसीलिए इस छंद के अनेक रूप सूर्य-गायत्री, हनुमत्-गायत्री आदि में पाए जाते हैं।
जब उसे गायत्री-मन्त्र की प्राप्ति हुई तो उसे उसके जप-ध्यान से यह बोध हुआ कि छन्द (भावना) माध्यम होता है, मन्त्र प्रकार। इसलिए न तो छन्द का और न मन्त्र का अर्थ किया जाना अपेक्षित है। ऐसा करने से किसी की बौद्धिक रुचि जाग्रत हो सकती है, और उसके अपने परिणाम हैं।
बौद्धिकता बुद्धियों का समूह है जो मूलतः तो बोध से ही व्युत्पन्न होती है, और इसीलिए बोध के साथ भावना की संगति होने पर ही वह बुद्धि प्रेरित होती है जो मन्त्र की भावना का प्रत्युत्तर हो।    
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शान्तिपाठ 
ॐ वाङ्ग मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि।
वेदस्य मे आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीः।
अनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधाम्यृतं वदिष्यामि।
सत्यं वदिष्यामि।
तन्मामवतु।
तद्वक्तारमवतु।
अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ।।
ॐ शान्तिः! शान्तिः!! शान्तिः!!!
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प्रथम अध्याय :
प्रथम खण्ड 
ॐ आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्।
नान्यत्किञ्चन मिषत्।
स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति।।१
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एकमात्र आत्मा अर्थात् अहम्, जो इदम् अर्थात् दृश्य-समष्टि भी है, अग्रतः अस्तित्व में था।
अन्य कुछ भी नहीं था।
(न उसे अन्य किसी से प्रयोजन था।)
उन्मिष / निमिष इति मिषयोः रूपौ।
स / सः - ईक्षण करते हुए उसमें भावना हुई कि (मैं -अहम्) लोकों का सृजन करूँ।
स और तत् दोनों अन्य पुरुष एकवचन सर्वनाम हैं।
स पुंलिङ् है, तत् नपुंसकलिङ् है।
इसलिए स का अर्थ है अहम्, तत् का अर्थ है इदम्।
तत्सवितुः का अर्थ हुआ  :
'तत्' तथा 'स' को जाननेवाले का।
वरेण्यं का अर्थ है ग्राह्य श्रेष्ठ तत्व।
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ऐतरेय ने तत्सवितुः में वर्णित 'तत्' और '' का तात्पर्य
'अहम् ब्रह्मास्मि',  'तत्वमसि' महावाक्य, और गीता के श्लोक :
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।१७
(अध्याय २)
की तुलना से ग्रहण किया।
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Monday, 16 September 2019

aitareya / ऐतरेय

The Seed-Consciousness.
An Introduction to
aitareya upaishad / ऐतरेय उपनिषद्
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(This is a verbatim translation of my own Hindi post, -posted today in this blog.)
Had a dream a short-while ago.
I was all alone in a big city, and there was not a living soul there beside me.
There were only many a small and big buildings, shops, houses and trees charred into dark black ash. The streets, roads and lanes all empty and totally forsaken.
In that dark surroundings there was only a very dim gloomy light that enabled to look the things not more than 200 feet away.
May be, there had been many people, even crowds that might have lived and roamed here a few days ago, but presently I was the only a specimen of the all those and the whole mankind.
There were no birds, animals pet or wild whatsoever.
I had a strange, bizarre feeling as if I was Vikram -the robot; standing on the surface of Moon.
Though these words came to me just at the moment.
I was there just like an animated robot.
I was though a bit aware that this was but a dream and not the Reality that was hidden from me at the time.
I had also a vague idea that this whole dream could turn into another totally quite an altogether  different a dream and no traces of this would be any more.
I was neither scared nor amazed, because I knew the fact /Reality behind this dream; that is aitareya / ऐतरेय .
I was fully aware that aitareya / ऐतरेय is the Seed-Consciousness that keeps manifesting and giving rise to the phenomenal : the apparent and the variety and multitude of all appearances.
aitareya / ऐतरेय is the One and the Unique Principle.
The text aitareya upaishad / ऐतरेय उपनिषद् beautifully explains in a fascinating way;
How aitareya / ऐतरेय is the son of itarA / इतरा .
We can take help from the Mundakopanishat / मुण्डकोपनिषद् 1/1/3 :
शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ।।3 
and; Mundakopanishat / मुण्डकोपनिषद् 1/1/4 :
तस्मै स होवाच।  द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च।।4
I have earlier explained this in some post.
Summarily :
There are 2 kinds of knowledge.
One is perishable, another is imperishable / eternal / everlasting.
There is the one; - of mind another where-in mind is manifest, rises and dissolves again and again till it is ultimately completely dissolved so as to never return again.
itarA  / इतरा is symbolic of the 'other'. It is not surprising that 'other' is cognate of 'itar' / / इतर, and the word in German for this Sanskrit word is 'anderer' / which is again cognate of इतरम् /
itarA  / इतरा is therefore the अपरा / aparA as described above in :
 " ...परा चैवापरा च।।4 ". 
In the 'skanda-purANa / स्कन्द-पुराण', ऐतरेय / aitareya is son of itarA / इतरा.
Which indicates he is an aspirant seeking Reality / Brahman / Atman / .
There is again a parallel in BrihadAraNyaka -Upanishad / छान्दोग्य उपनिषद्;
where the sage / ऋषि / risHi याज्नवल्क्य / Yajnavalkya is said to have two wives namely :
गार्गी and मैत्रेयी।  While retiring to woods in the older age He distributes His property and wealth to both, one of them Maitreyee asks Him :
What use / value is of all these things if 'You' / my dearest and most beloved has left me.
Then the sage / ऋषि / risHi याज्नवल्क्य / Yajnavalkya teaches her the knowledge Supreme imperishable.(chapter 2, BrahmaNa -4)
However the other who was not earnest, nor even could understand the importance of this 'knowledge' engaged Him in vain discussion and in turn was admonished by the sage :
"Gargee ! if you can't understand and have no urge for the Reality, don't ask अतिप्रश्न /
an intellectual futile question which could not be answered at that level."
(Chapter 3, BrahmaNa -6)
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This is aitareya / ऐतरेय is verily the Seed-Consciousness / ब्रह्मन् / आत्मन् that is the latent and the potential that becomes all this existence.
Some 36 years ago I knew about this text.
During the past years I have gone through 3-4 times.
Yesterday I was just sitting at my home and had nothing to do.
I thought of writing something, but the thought vanished as soon as it had appeared.
In the same or the next moment I had a question in mind that emerged from memory.
"How the Unique and the same Consciousness manifests itself in innumerable countless forms and name in all creatures and becomes 'the world' with its contents?"
And in a split second Space and Time assume significance, as if they exist independently on their own. And one / the person is so fascinated by this couple that one takes oneself an entity different and independent of them."
Like Space and Time; -this person is no entity on its own and is subject to thought only.
The thought itself creates the illusion of Space, Time and the 'person' who has but a notional, -but not 'Real' existence.
This very entity is What the aitareya upaishad / ऐतरेय उपनिषद् deals with.
The same Seed-Consciousness takes up the role of Space, Time, the apparent world and the person   
aitareya / ऐतरेय. The three states of mind namely the waking, the dream and the deep dreamless sleep are only a sequence of states that come upon aitareya / ऐतरेय repeatedly.
Again though aitareya / ऐतरेय is ever so untouched and unaffected by them He is mistaken and begins to believe he is 'some-one', is this body, mind, memory, and many such things.
Ultimately He succeeds in breaking the shell of this 'acquired knowledge' and is convinced that He is the same Unique Principle that is never born nor dies.
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Sunday, 15 September 2019

The Seed-Consciousness.

ऐतरेय : एक भूमिका
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अभी दो घड़ी पहले स्वप्न देख रहा था।
एक बहुत बड़ा शहर है जिसमें मेरे अलावा कोई दूसरा प्राणी नहीं दिखाई दिया।
बस जले हुए बहुत से भवन हैं, जले हुए कोयला और राख हुए वृक्ष हैं और रास्ते, चौराहे, तिराहे आदि हैं।
वहाँ कभी दुकानें, मॉल या दूसरे स्थान रहे होंगे।
यहाँ अनेक लोग रहे और आते-जाते रहे होंगे।
किन्तु इस समय तो मैं नितांत अकेला था।
और चारों ओर इतना अन्धेरा था कि बस 200 फुट की दूरी तक की चीज़ों की आकृति भर दिखलाई पड़ती थी।
मुझे न जाने ऐसा कुछ लगा मानों मैं विक्रम हूँ जो चन्द्रमा की सतह पर खड़ा है।
हालाँकि यह तुलना मैं अब ही कर रहा हूँ।
मैं बस एक यंत्रचालित रोबोट था।
मुझे आभास था कि यह स्वप्न है और इसके बाद यही स्वप्नावस्था किसी और रूप में बदल जाएगी।      
मुझे न भय हो रहा था, न आश्चर्य, क्योंकि मुझे मालूम है कि एक ही तत्व ऐतरेय ही सब कुछ है।
यही वह स्वप्नबीज (The Seed-Consciousness) है, जो एकोऽहं है।      
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इसी ब्लॉग में कुछ समय पहले स्कन्द-पुराण से ऐतरेय की कथा उद्धृत की थी।
करीब 36 वर्षों पूर्व ऐतरेय उपनिषद् के नाम से आकर्षित हुआ था। किन्तु तब यह मेरे लिए असंख्य नामों की तरह एक और नाम ही तो था। हाँ विगत कुछ वर्षों में दो-तीन बार इसका अवलोकन भी हुआ होगा।
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कल दोपहर यूँ ही घर में बैठा हुआ था।
कुछ लिखने का विचार हुआ किन्तु तत्काल ही विलीन हो गया।
स्मृति से एक प्रेरणा उठी और जिज्ञासा हुई कि कैसे एक ही चेतना / Consciousness व्यक्त होकर असंख्य नाम-रूप की तरह असीम जगत और उसमें अवस्थित असंख्य जड़-चेतन वस्तुओं में रूपान्तरित हो जाती है, -या ऐसा प्रतीत होने लगता है । और फिर काल-स्थान तथा उसके अंतर्गत अपने-आपके एक विशिष्ट 'व्यक्ति' होने की भावना उत्पन्न होती है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाएँ क्रम से एक ही सुदीर्घ आदि-अन्तरहित स्वप्न के असंख्य टुकड़ों की तरह एक के बाद दूसरी आती और जाती रहती हैं। जो चेतना जाग्रत अवस्था में क्षीण-प्राय क्षणिक या सुदीर्घ विस्तृत विचार के रूप में व्यक्त होती है, वही स्वप्नावस्था में दृश्य-श्रव्य (audio-visual) रूप से अनुभव की जाती है। तथापि अपने 'एक' होने की भावना एक सूत्र की तरह तमाम अवस्थाओं में अनुस्यूत (पिरोई) होते हुए भी सब से अछूती और अप्रभावित रहती है।
क्या यह आश्चर्य नहीं है कि जागृति के समय और स्वप्न में भी हर किसी को अपने जैसे असंख्य नाम-रूप दिखलाई पड़ते हैं किन्तु उन सबकी क्षणिकता भी प्रत्यक्ष जान पड़ती है।  एक ऐसा सत्य जिसे सिद्ध करने का सवाल भी नहीं उठता। किन्तु इससे यही स्पष्ट होता है कि सभी नाम-रूप यद्यपि इन्द्रिय-अनुभव हैं, और बुद्धि से सोचने पर ही परस्पर भिन्न-भिन्न दिखाई देते हैं, तत्वतः एक ही सत्य हैं।       
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तब मेरा ध्यान पुनः ऐतरेय उपनिषद् की ओर आकर्षित हुआ और मन हुआ कि एक बार और इसका अवलोकन और अध्ययन करूँ। छोटा सा यह ग्रन्थ गागर में सागर है। सभी उपनिषदों की अपने रोचक शैली है जो भिन्न-भिन्न मानसिकता के मनुष्यों के लिए कम या अधिक अनुकूल हो सकती है। कठोपनिषद् भी ऐसा ही ग्रन्थ है, और जैसे नचिकेता उसका प्रमुख पात्र है, उसी तरह 'ऐतरेय' इस ऐतरेय उपनिषद् का प्रमुख पात्र है।
ऐतरेय उपनिषद् के गूढ़ तात्पर्य का सार - अगले पोस्ट में।   
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स्वप्नबीज, ऐतरेय, उपनिषद्, सोऽहं, हं-सो, अश्विनौ,   
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Wish and hope to translate the above post into English.
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Friday, 13 September 2019

अहम्-अहम्

कथञ्चाहम् ?
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अहम् या अहं परमेश्वर का प्रथम नाम है।
अस्तित्व नाम और रूप से ही व्यक्त और अभिव्यक्त है।
यह पोस्ट विशेष रूप से परम आदरणीय श्री पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ठ जी को समर्पित है, क्योंकि इसे लिखने की प्रेरणा उनके इस विडिओ को देखते-सुनते समय मन में हुई।
यद्यपि वे उनके उद्बोधन में समाये ज्ञान का श्रेय लेने से विनम्रतापूर्वक इन्कार कर देते हैं और इसे किसी और (श्री आर. एस. एन. सिंह आदि) से प्राप्त कहते हैं। पर इस पर बहस करने का कोई मतलब नहीं। मतलब की बात यह है, कि उनके द्वारा दिए गए उद्बोधन के इस वाक्य ने मेरा ध्यान खींचा कि किस प्रकार विदेशी आक्रांताओं ने अनेक प्रकार से अत्यंत समृद्ध और श्रेष्ठ भारतीय संस्कृति, ज्ञान और परंपरा को न सिर्फ नष्ट-भ्रष्ट किया बल्कि योजनापूर्वक जन-मन के सम्पूर्ण भारतीय मानस में अपने गौरवपूर्ण इतिहास के प्रति हीनता व अनादर का भाव पैदा किया। प्रस्तुत पोस्ट में, जिसे वैसे तो मेरे इस ब्लॉग की मूल विषय-वस्तु की दृष्टि से लिख रहा हूँ, उनके इस कथन की पुष्टि देखी जा सकती है।
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अहम् क्या है?
अहम् 'प्रथम' है।
'प्रथ्यते इति प्रथा / प्रथमः / प्रथमं / प्रथमा' ।
अंग्रेज़ी का 'First' इसी 'प्रथ' का cognate / सज्ञात है।
वैसे 'First' को प्रस्थः का cognate / सज्ञात कहना भी गलत न होगा।
(संस्कृत में तथा दूसरी भी प्रायः सभी भाषाओं में अहम् तथा अहम् के अर्थ के द्योतक सभी शब्द पुंलिंग, स्त्रीलिंग तथा नपुंसकलिंग तीनों लिंगों (genders) में समान रूप से प्रयुक्त होते हैं।)
अहम् पुंलिंग है।
अहम् स्त्रीलिंग है।
अहम् नपुंसकलिंग है।
अहम् वर्ण 'अ'  से 'ह' तक की सम्पूर्ण वर्णमाला का द्योतक है।
'अ' से 'ह' तक के वर्ण पुनः, क्रमशः स्वर तथा व्यञ्जन वर्ग में आते हैं।
'अ - उ - म्' तीनों स्वर संयुक्त रूप से '' अर्थात् प्रणव हैं।
इस प्रकार प्रणव केवल स्वर है।
ॐकार प्रथमस्तस्य चतुर्दशस्वरास्तथा।
वर्णाश्चैव त्रयस्त्रिंशदनुस्वारस्तथैव च।।
विसर्जनीयाश्च परो जिह्वामूलीय एव च।
उपध्मानीय एवापि द्विपञ्चाशदमी स्मृता।।
ॐकारः प्रथमः तस्य चतुर्दशाः स्वराः तथा।
वर्णाः च एव त्रयस्त्रिंशत् अनुस्वारः तथा एव च।।
विसर्जनीयाः च परः जिह्वामूलीय एव च।
उपध्मानीय एव अपि द्विपञ्चाशत् अमी स्मृता।।
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वर्णों की मातृका (matrix) में 52 अक्षर कहे जाते हैं।
(देवी के 52 शक्ति पीठ इसी का माहात्म्य है।)
उनमें सर्वप्रथम ॐकार है।
(इसलिए 'अहम्'  प्रथम होने से 'ॐकार' है; या 'ॐकार' प्रथम होने से अहम् है । दोनों का एक ही आशय है।)
अकारः कथितो ब्रह्मा उकारो विष्णुरुच्यते।
मकारश्च स्मृतो रुद्रस्त्रयश्चैते गुणा स्मृताः।।
अर्धमात्रा च या मूर्ध्नि परमः सदाशिवः।।
(स्कन्द-पुराण -- माहेश्वर-खण्ड --कुमारिका-खण्ड, 3 /251, 3 /252)
पुनः अ-कार से औ-कार तक जो चौदह स्वर हैं, वे चौदह 'मनुस्वरूप' हैं  :
स्वायम्भुव, स्वारोचिष, औत्तम, रैवत, तामस, चाक्षुष तथा वैवस्वत (जो इस समय हमारे वर्तमान युग में हैं। )
सावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, रूद्रसावर्णि, दक्षसावर्णि, धर्मसावर्णि, रौच्य तथा भौत्य --
ये चौदह मनु कहे जाते हैं।
वैवस्वत मनु ऋ-कार स्वरूप हैं।
(इनका उल्लेख गीता अध्याय 4 में पाया जाता है :
'विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।')  
'क' से 'ह' तक तैंतीस देवता हैं।
'क' से 'ठ' तक बारह 'आदित्य' हैं।
(बारह ज्योतिर्लिङ्ग)
'ड' से 'ब' तक ग्यारह 'रुद्र' हैं।
'भ' से 'श' तक आठ 'वसु' हैं।
'स' और 'ह' दोनों अश्विनीकुमार हैं।
(सोऽहम् / हम्-सो / हंसो)
अनुस्वार (ं) , विसर्ग (ः), जिह्वामूलीय क़, ख़, और उपध्मानीय प (जैसा 'आप्त' शब्द के उच्चारण में प्रयोग किया जाता है), फ़, -- क्रमशः जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज इस प्रकार के चार जीव हैं।
जो पुरुष इन उपरोक्त देवताओं का आश्रय लेकर कर्मानुष्ठान में तत्पर होते हैं, वे ही अर्धमात्रास्वरूप नित्यपद 'सदाशिव' में लीन होते हैं।
जिस शास्त्र में पापी मनुष्यों के द्वारा ये देवता नहीं माने गए हैं, उस शास्त्र का उपदेश यदि साक्षात ब्रह्मा भी करें तो भी नहीं मानना चाहिए।
52 शक्ति-पीठ तथा 12 ज्योतिर्लिङ्ग का उल्लेख इसीलिए यहाँ किया गया।
अतः जो दुरात्मा इन उपरोक्त कहे गए देवताओं का उल्लंघन, उपेक्षा, अवहेलना, तिरस्कार करते हुए तप, दान, अथवा जप करते हैं, वे मृत्यु के बाद वायुप्रधान मार्ग से जाकर सर्दी से काँपते रहते हैं।
[इसकी तुलना में सूर्य तथा चंद्र (उत्तरायण तथा दक्षिणायन मार्ग से जानेवाले क्रमशः ब्रह्मलोक अथवा देवताओं के लोकों में जाते हैं।]
चूँकि वेद का अधिकारी हर कोई नहीं होता तथा वेद अधिक गूढ़ हैं, और वेद में हर किसी की रुचि हो यह भी ज़रूरी नहीं, इसलिए शेष मनुष्यों के लिए पुराणों की रचना की गयी है। पुराण भी उतने ही प्रामाणिक और श्रेयस की प्राप्ति के लिए उतने ही सहायक हैं जितने कि वेद हैं । पुराण रोचक भी हैं और केवल मनोरंजन की दृष्टि से भी पढ़ने पर धीरे धीरे अपने गूढ़ तत्व की ओर ध्यान को आकर्षित करने लगते हैं।
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पुनः --- 'अहम्' (प्रत्यय) :
अहंकार / अहंकृति है,
अहम्-भावना है,
अहम्-मति है,
अहम्-स्मृति है,
अहम्-विवेक है,
अहम् -एक है,
अहम्  -अनेक है,
अहम् - शून्य है,
अहम् - अशून्य है,
अहम् -पुरुष (पुंलिङ्ग) है,
अहम् -प्रकृति (स्त्रीलिङ्ग) है,
अहम् -कारण (योनि) है,
अहम् परिणाम / कार्य / / प्रभाव /फल है,
अहम् - बीज है,
अहम् -वृक्ष है,
अहम् लक्षण (लिङ्ग) है,
अहम् अव्यक्त प्रकृति है,
अहम् -प्रथम पुरुष / first person, मध्यम पुरुष / second person, तथा अन्य पुरुष third person है।
अहम् -उत्तम पुरुष / पुरुषोत्तम / (अस्मत्) / अव्यक्त अधिष्ठान है,
अहम् -मध्यम पुरुष (युष्मत्)/ व्यक्त दृश्य अधिष्ठान है।
अहम् - दृग्दृश्य दोनों का अधिष्ठान 'तत्' अर्थात् अन्य पुरुषवाची समष्टि ब्रह्म है।
को अहम्? तथा किम् अहम्? से 'अहम्' के स्वरूप की जिज्ञासा करना आत्मानुसंधान है।
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हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।।19
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्तमेव च।।20
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।।34
(गीता अध्याय 10)
मे - 'अहम् का'
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Wednesday, 11 September 2019

निराशीर्यतचित्तात्मा

कथम् चित् ?
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तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनः तत्वदर्शिनः।।34
(गीता अध्याय 4)
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।21
(गीता अध्याय 4)
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ऋषि उशन् के मन में प्रश्न उठा :
क्या मनुष्य इच्छा और संकल्प आदि करने के लिए स्वतंत्र होता है?
क्या मृत्यु को (स्वरूपतः) जान पाना इच्छा या संकल्प से संभव है?
क्या इच्छा तथा संकल्प इत्यादि अव्यक्त अहंवृत्ति का ही व्यक्त प्रकार मात्र नहीं होता?
वृत्तयस्त्वहं वृत्तिमाश्रिताः।
वृत्तयो अहं विद्ध्यहं मनः।।18
(उपदेशसार श्रीरमण महर्षिकृत)
इस प्रकार उन्हें 'मृत्यु (स्वरूपतः) क्या है?' इसकी जिज्ञासा होने पर भी उसे जान पाने के लिए प्रतीक्षा करना ही एकमात्र उचित कर्तव्य प्रतीत हुआ।
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तब वे वृत्ति के स्वरूप को समझने की चेष्टा करने में संलग्न हुए।
उनके मन में प्रश्न उठा :
यदि वृत्तिमात्र अहंवृत्ति होती है तो मृत्यु आने पर इस अहंवृत्ति का क्या होता है?
क्या वह संस्कारों को एकत्र कर प्राणों के माध्यम से वर्तमान शरीर को त्यागकर नए शरीर को वैसे ही धारण कर लेती है जैसा कि :
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।22
(गीता अध्याय 2) में कहा गया है?
यदि ऐसा भी है तो भी फिर इस वर्तमान शरीर के अस्तित्व में आने से पहले कोई पूर्वजन्म रहा होगा और यह शृँखला कहाँ से आरम्भ हुई होगी यह प्रश्न तो बना ही रहेगा।
शायद सिद्धान्ततः यह सत्य हो भी तो भी क्या यह जानना अधिक आवश्यक है कि क्या अहंवृत्ति मूलतः वृत्तियों के क्रमिक आगमन और प्रस्थान से ही कल्पित नहीं की जाती है?
क्या इस प्रकार वृत्तिमात्र के निरोध होने पर यह कल्पना भी स्वयं ही, स्वतः ही विलीन नहीं हो जाती ?
अहंवृत्ति अस्मिता है जबकि वृत्तिमात्र स्मृति का विषय।
पुनः स्मृति भी वृत्ति ही तो है।
दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतैवास्मिता।।6
(पातञ्जल योगसूत्र - साधनपाद)
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[वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।4  
वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।5
प्रमाण-विपर्यय-विकल्प-निद्रा-स्मृतयः।।6
(पातञ्जल योगसूत्र - समाधिपाद)
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प्रमाण - criteria,
वृत्ति - mode of mind
सारूप्यम् -identification,
अस्मिता - अहंवृत्ति  - sense of 'I',      
अहं - Self,
चित्त - self, consciousness,
प्रणिपात - Emptying of mind / consciousness of its content, 
चित् - दृष्टा - Consciousness,
परिप्रश्न - आत्मान्वेषण - Enquiry, Quest into the Self,
कथम् about,
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कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ?

आत्मानुसंधान 
नचिकेता : कठं ?
कथं विजानीयात्?
कठं विजानीयात्?
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कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।38
(गीता अध्याय 6)
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्र्येण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रणष्टस्ते धनञ्जय।।72
(गीता अध्याय 18)
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ॐ उशन् ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ।
तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस।।1
तम् ह कुमारम् सन्तं दक्षिणासु नीयमानासु श्रद्धाऽऽविवेश सोऽमन्यत।।2
पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरिन्द्रियाः।
अनन्दा नाम ते लोकास्तान् स गच्छति ता ददत्।।3
स होवाच पितरं तत कस्मै मां दास्यसीति।
द्वितीयं तृतीयं तम् होवाच मृत्यवे त्वा ददामीति।।4
बहूनामेमि प्रथमो बहूनामेमि मध्यमः।
किम् स्विद्यमस्य कर्तव्यं यन्मयाद्य करिष्यति।।5
अनुपश्य यथा पूर्वे प्रतिपश्य तथापरे।
सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः।।6
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ऋषि शुक्राचार्य जिनका ऐश्वर्य धन-संपत्ति लोक में सुना जाता था को संसार से विरक्ति हुई।
उन्होंने समस्त ज्ञात धन-संपत्ति को दान कर दिया।
(ज्ञात से मुक्ति / Freedom from the known)
इस धन-संपत्ति में न केवल स्वर्ण, रत्न, अन्न वस्त्र और भूमि आदि थे, किन्तु वह सब भी था जिसे ज्ञान और स्मृति, इस सबके स्वामित्व की भावना भी थी।
उनका एक पुत्र था जिसका नाम था नचिकेता।
इस प्रकार उन्होंने स्वयं के पुत्र के प्रति अपने 'पितृत्व' के विचार को भी त्याग दिया।
कौन था उनका वह पुत्र ?
निश्चय ही उनका मन ही वह पुत्र था जो सदा कतः, कति, आदि की चिकित्सा (विवेचना और जिज्ञासा) किया करता था।
यह मन जो स्वयं ही स्वयं को 'मेरा' कहकर अपने को दो में बाँट लेता था।
वह स्वयं ही अपना पिता था और स्वयं ही अपना पुत्र भी था।
क्योंकि वह स्मृति की सहायता से स्वयं को अतीत में कल्पित कर लेता था और संकल्प से भविष्य में।
अतीत और भविष्य में होनेवाले अपने स्वरुप के विचार से ही वह अपने स्वयं की वर्तमान की वास्तविक स्थिति से स्वयं को पृथक और भिन्न कर लेता था।
वह नित्य कुमार होते हुए भी स्वयं को बालक, युवा या वृद्ध  मानकर तदनुसार स्वयं को अपनी उस प्रतिमा के रूप में देखने लगता था।
तब उसने स्वयं से प्रश्न किया :
क्या इन गौओं को दान कर दूँ ?
गौओं से उसका आशय था इन्द्रियाँ;
-जो पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा अर्थात् भोगों से परितृप्त थीं, और जिनसे वह पर्याप्त सुख का उपभोग कर चुका था।
तब उसके मन में प्रश्न उठा की इन निर्बल इन्द्रियों को त्यागने से कौन सा स्वर्ग कौन सा आनंद प्राप्त होने वाला है ? अवश्य ही इन्द्रियों के कार्य से विरत हो जाने पर मैं अनंद नामक रिक्त और शून्य, आनंदरहित  अवस्था में ही रहूँगा। तब इस विचार से युक्त उसकी अहंवृत्ति (विचारक) ने उसके मन से प्रश्न किया (उसने मन ही मन पूछा) :
"(पिताजी) तो आप मुझे दान में किसे देंगे?"
दूसरी, तीसरी बार अर्थात् पुनः पुनः इस प्रश्न पर चिंतन कर उसे स्वयं से यह उत्तर मिला :
"(मैं तुम्हें) मृत्यु को दान कर दूँगा।"
तब उसके मन में प्रश्न उठा :
अनेकों में मैं (उत्तम पुरुष सर्वनाम एकवचन -'मैं') - 'प्रथम';
First person होता हूँ।
प्रत्येक मनुष्य अनायास ही स्वयं को प्रथमतः 'मैं' कहता-मानता है। 
हाँ, दूसरों के लिए उनकी दृष्टि में यही 'मैं' कभी-कभी 'तुम' (मध्यम पुरुष सर्वनाम एकवचन -'तुम')
 -'द्वितीय' -Second person होता हूँ।
किन्तु मैं कभी अन्य पुरुष सर्वनाम एकवचन 'वह' (Third person) तो नहीं हो सकता !
क्योंकि 'वह' तो खेती की फसल की तरह पुनः पुनः पैदा और नष्ट होता रहता है।
(जबकि सुनिश्चित रूप से मैं यह नहीं जानता कि क्या 'मेरा' कभी जन्म हुआ, या कभी 'मेरी' मृत्यु होगी?
जन्म और मृत्यु तो सदा किसी दूसरे-तीसरे की ही होती है।)
इसलिए मृत्यु के लिए मेरा क्या प्रयोजन आज सिद्ध होगा जिसके लिए मुझे दान में लेकर उसका कर्तव्य पूरा होगा?
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Tuesday, 10 September 2019

Theology and Thermal

The Divine and the Divination
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In my study of languages I per chance (or by divination) discovered How the word
"Arch-Angel" is but a cognate (सज्ञात / सज्ञाति) of 
Rishi ArSha-Angira ऋषि आर्ष अङ्गिरा / अङ्गिरस्.
Then while after reciting gAyatrI-mantra (गायत्री-मंत्र) in the traditional way; that is performing
जप / japa, it occurred to me that the Greek word 'Theo' is a cognate (सज्ञात / सज्ञाति) of
'धियो' / 'dhiyo' in this phrase.
'धियो' / 'dhiyo' in Sanskrit is the conjugated form (विभक्ति-रूप) of the प्रातिपदिक / prAtipadika  'धी'.
- as in the gAyatrI-mantra (गायत्री-मंत्र); -Genitive Case singular person),
Though also the Nominative plural, in some other places.)
धीः  धियौ  धियः 1
धियम् धियौ धियः 2
धिया धीभ्याम् धीभिः 3
धिये धीभ्याम् धीभ्यः 4
धियः धीभ्याम् धीभ्यः 5
धियः धियोः धियाम् 6
धियि धियोः धीषु 7
हे धीः हे धियौ हे धियः 8.
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According to Grammar rules धियः takes the form 'धियो' / 'dhiyo' as is there in the
gAyatrI-mantra (गायत्री-मंत्र).
The Greek word "Theo" for God / Religion is no doubt has origin in this word  'धियो' / 'dhiyo'.
We can think The Greek knew these roots in the ancient times.
And later on the same word "Theo" become synonymous of 'Religion'.
'Religion' which could be traced to have roots in the Sanskrit word :
पृ - लग्न / परिलग्न ;
was therefore used as an alternative for 'Theo'.
(Not as a rule of thumb only, but as a general rule,).
the word 'thumb' itself is a cognate of the Sanskrit word 'स्तम्भ' / staMbha, which finds a great place in the vocabulary of English. This takes the forms like : 'stem', 'system', 'stump', 'stamina', even the word "thiamine" / vitamin in medicine.
Avoiding diversion, let us come to the point.
'धर्म' in Sanskrit; -means 'स्वभाव' that is 'nature'.
'nature' comes from 'नृ' which again has a generated a long list of words in many language :
Like : 'Nation', 'Nazion', 'National', nephew, niece, nepotism,
In Sanskrit :
'नृ' 'नर, 'नारद', 'नारायण', नारी, नाडी, नाद
In Hindi :
नृषु -- नृषुल -- नस्ल (race)
We have strong reason to see that :
 'धर्म' in Sanskrit became 'Therm' in Greek.
The same word is used to denote the 'nature' of 'Heat' / Fire.
I just want to point out the pattern and connection.
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In Physics :
'Temperature' that again means an attribute of matter comes from :
"तं पर चर" "तत्परं चर" and is the inherent nature of all things.
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प्रवर is dubbed into 'Power',
प्ररोहण Pharaoh (in छान्दोग्य उपनिषद् 5 /3 श्वेतकेतु -पाञ्चाल संवाद)
This is further in coherence with the fact that  पाञ्चाल-जनपद in the महाभारत
narrates about the same Pir-Panjal region of Himalaya adjacent to the land of Pharaoh.
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I have written many a posts in this blog in 'Philology' that could be relevant to this post.
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Monday, 9 September 2019

ऐन्दव आख्यान

ISRO
इसरो ईश्वरो इन्द्रो इन्दिरा भालचन्द्रौ च।
आख्यानमिदं पुण्यं मया अद्य विलोकितः।।
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भगवान् शिव की समाधि एक बार पुनः भंग हुई और उन्होंने नेत्र खोलकर इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई तो देखा कि माता पार्वती और पुत्र भगवान् श्रीगणेश परस्पर खेल में संलग्न थे। जब पार्वती और श्रीगणेश का ध्यान उनकी ओर गया तो पार्वती ने ही प्रश्न किया :
"प्रभो! क्या हमारी क्रीड़ा से आपकी ध्यान-समाधि में बाधा हुई?"
"नहीं देवी ! इसका रहस्य तो पुत्र से ही पूछो। "
भगवान् शिव ने शांतिपूर्वक कहा।
तब माता पार्वती ने भगवान् श्रीगणेश की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा।
भगवान् श्रीगणेश किञ्चित मुस्कुराते हुए बोले :
"माते! पिताजी और मैं भी तुम्हारी ही तरह त्रिनेत्र हैं। किन्तु तुम इन्दुमुख इन्दिरा हो, जबकि हम दोनों इन्दु को मस्तक पर धारण करते हैं इसीलिए हम दोनों का एक नाम भालचंद्र भी है।"
इससे माता पार्वती की जिज्ञासा शांत नहीं हुई तो उन्होंने पुनः भगवान् शिव की ओर देखा।
"पार्वती ! भारत देश में इस समय नरेंद्र मोदी शासन करते हैं। नाम के ही अनुरूप वे मनुष्यों में इंद्र हैं और स्वभाव से ही मोदप्रिय भी हैं। उनके ही देश में एक और इंद्रतुल्य विज्ञानेन्द्र भी है जिसे ईश्वरो अर्थात् लोक में प्रचलित इस्रो नाम से जाना जाता है। इन्दु से प्राप्त ऐन्दव नाम से प्रकीर्तित इस देश राष्ट्र (इंडिया) के राजा ने इसी विज्ञानेन्द्र ईश्वर (ISRO) के आशीर्वाद से एक यान चन्द्रमा की ओर भेजा। अवभृथ नामक यह मूनयान / मनोयान जब चन्द्रमा तक पहुँचा तो वह शास्त्रीय विधि से चन्द्रमा अर्थात् इन्दु की प्रदक्षिणा करने लगा।
तत्पश्चात् उसने अपने दूत विक्रम को उसके सहायक प्रज्ञान के साथ चंद्र के तल पर उतारना चाहा।
भारत देश में ही ऋषि भारद्वाज को इस तथ्य का पता चला तो उन्होंने अपने एक शिष्य को प्रेरणा दी जिससे वह इस पूरे घटनाक्रम पर चिंतन करने लगा।
प्रत्यक्षानुमानागमाप्रमाणाः प्रमाणानि (पातञ्जल योगसूत्र - समाधिपाद 7) न्याय के अनुसार उसने घटना को क्रमशः प्रत्यक्ष (इन्द्रिय-मन-बुद्धि की आधिभौतिक कसौटी पर) फिर अनुमान की (आधिदैविक कसौटी पर) और फिर आगम (आध्यात्मिक) कसौटी पर कसा।
आधिभौतिक स्तर पर उसे स्पष्ट हुआ कि जब विक्रम चंद्र की भूमि की ओर जा रहा था तो किसी ने उसके मार्ग में बाधा डाली। आधिदैविक स्तर पर उसे स्पष्ट हुआ कि उसकी अनुक्त / उक्त / निरुक्त वाणी इंद्र के कानों तक पहुँची।  जैसे ही यह वार्ता कि यह कार्य भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा किया जानेवाला पुण्यकार्य है, जिसकी महिमा  अश्वमेध-तुल्य है, इंद्र के कानों तक पहुँची, उसे भय हुआ कि कहीं यह यज्ञ पूर्ण न हो जाए, क्योंकि इससे उसका सिंहासन हिलने लगा था।  उसने विक्रम के मार्ग में बाधा डाली। विक्रम को कोई क्षति तो नहीं पहुँची, किन्तु वह अपने मार्ग से थोड़ा भटक गया।  फिर भी विक्रम ने अपने उतरने के लिए अपनी प्रत्युत्पन्न मति और त्वरित बुद्धि (Artificial Intelligence) का प्रयोग कर उस भूमि पर एक अपेक्षाकृत निरापद तथा उचित स्थान खोज लिया। किन्तु वह संतुलित ढंग से न उतर सका और एक ओर लुढ़क गया।  अब वह यह तो नहीं कह सकता था कि बहुत लम्बी यात्रा से वह थक चुका था और उसे कुछ आराम करना ज़रूरी था।
उसकी कर्तव्यनिष्ठा का पता मुझे चंद्र पर उसके लुढ़कते ही चल गया था और इसीलिए मेरी समाधि भी भंग हुई। मुझे इंद्र पर थोड़ा क्रोध भी हो रहा था किन्तु इन्द्र, इन्दु और इन्दिरा तत्वतः एक होने से मैंने प्रतिक्रिया नहीं की। "
तब भालचन्द्र भगवान् श्रीगणेश बोले :
"पिताजी ! क्या विक्रम पुनः अपने कार्य को प्रारम्भ कर सकेगा ?"
"यह तो इन्द्र को ही तय करना है !"
भगवान् शिव स्मितपूर्वक बोले।
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(कल्पित)                    

Sunday, 8 September 2019

Lunar : A parallel History

History Repeated.
मूनयानः मनोयानो पृथिव्याः प्रक्षेपितः।
चन्द्रमसमनुगन्तव्यो भूयात्साफल्यं तस्मै ।। 
इसरो ईश्वरो इन्द्रः ऑर्बिटर च अवभृथः।
विक्रमं तद्यज्ञकर्म वेताल-प्रज्ञानस्तथा।।
चन्द्रमा मनसो जातः मनस्तु पृथिव्यास्तथा।
पृथिवी अर्णवाज्जाता, यथा जाता अर्वणाः*।
वैज्ञानिकाः वर्णिताः ये विज्ञानमया** इति आरण्यके ।
उपनिषदि पुरुषाः ते, पुरोहिताः यज्ञकर्मिणः।
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 *ऋग्वेद 1/163,
** गार्ग्य अजातशत्रु संवाद
(बृहदारण्यक उपनिषद् अध्याय 2, भाग 1)
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In the clan of Shreeraama / रघुवंश there was a King Vikramaditya / विक्रमादित्य,
The clan of Shreeraama / रघुवंश is also known as the clan of  मनु / Manu, who the Father of
'इक्ष्वाकु' / 'IkShvAku'.
In the foremost important text of सनातन-धर्म / sanAtana-dharma; -श्रीमद्भगवद्गीता / shreemadbhagvadgeetaa The Sun-God 'विवस्वान्' / आदित्य / Aditya, is said to have taught to
मनु / Manu, -the most sacred knowledge of 'Atman'.
Prior to that Lord Shrikrishna / भगवान् श्रीकृष्ण had revealed the same Raja-Yoga / राजयोग / this knowledge to Lord Sun.
The same was taught by मनु / Manu to His son 'इक्ष्वाकु' / 'IkShvAku', who was the foremost Ancestor in the Clan of Raghu / रघु.
The exact verse in the chapter 4 [श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 4] are precisely :
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।1
एवं परम्पराप्राप्त मिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टो परंतप।।2
--
कवि कालिदास / a great Sanskrit poet Kalidasa, who was a contemporary and friend of King
Vikramaaditya / विक्रमादित्य of Ujjain / उज्जैन knew the secret how Vikramaaditya / विक्रमादित्य belonged to the clan of Raghu / रघु .
Another King was the King of Kashmir Lalitaaditya / ललितादित्य, who also was in the same lineage of Shreerama / श्रीराम .
कवि कालिदास His work  रघुवंशम् describes the race of Shreerama / श्रीराम thus :
दिलीप
रघु --अज--दशरथ--राम--कुश, (and लव);
कुश--अतिथि--निषध--नल--नभ--पुण्डरीक--क्षेमधन्वा--देवानीक--अहीनगु--पारियात्र--शील
शील--उन्नाभ--शङ्खण--व्युषिताश्व--विश्वसह--हिरण्यनाभ--कौशल्य / (सोमसुत)--पुत्र--
पौष्य--ध्रुवसन्धि--सुदर्शन--अग्निवर्ण ;
अग्निवर्ण is supposed to be the last descendant to Shreerama / श्रीराम .
In folk-lore,
King Vikramaditya / विक्रमादित्य finds place in the following two great Sanskrit works :
1. सिंहासनद्वात्रिंशी (32 पुत्तलिका / mannequins)
2. वैतालपञ्चविंशतिः (25 betaala / वैताल / बेताल / वेताल or ghost-stories)          
 Both the works tell in lucid language How the King Vikramaditya / विक्रमादित्य was a Just King  who gave out the best justice to His subjects.
 The second story  describes the adventures of the King when He was serving to a Master who was also a great Tantrika and taught the secrets of श्मशानतंत्र / the practice of  contacting the spirits.
Figuratively, following His Master's instructions, He used to carry a corpse on His shoulder to a place in the dark woods.
The story as described by the author looks though horrific, the idea behind the story is of
'spiritual quest', which ultimately results in 'Self-Realization'.
There is however a deep and secret spiritual teaching that might have inspired to the author, and he might have tried to reveal the same for those who deserve.
This body is verily the corpse because the spirit that dwells in this body is truly the ghost who claims it as 'his own' or 'he himself' indeed.
This is however quite a gross mistake and leads one to misery and sorrow.
The Guru / Master however teaches to the disciple :
"As long as you take yourself the possessor of this body, you are really 'possessed".
And in his attempts the disciple keeps failing in grasping the hint.
The author thus only points out what is wrong in our 'spiritual quest'.
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I have for myself however discovered a striking semblance, a parallel in the parlance of Veda.
The 'spiritual quest' is likened to the story of 'Indra' / इन्द्र, who is one having performed a 100
'अश्वमेध यज्ञ' and no one who has not performed this feet could not attain this title.
Though 'Indra' / इन्द्र is the Lord of the heavens - the Celestial, and all lesser Gods are His subjects, He is not one to attain liberation unless He has developed austerities that are a must for all and any-one whosoever is engaged in spiritual quest and has an deep and urgent longing for the same.
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There are other parallels like the mind, the 5 gross and subtle elements.
And all these conveniently fit in the story of the 'Moonyan'      
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The endeavor to send a space-ship to Moon is no lesser a feet than an अश्वमेध यज्ञ, and ISRO in this respect no less than 'Indra' / इन्द्र .
Rigveda / ऋग्वेद which greatly praises 'Indra' / इन्द्र, equates Him to the Lord Almighty.
On the other hand, INDIA too is a variation of 'Indra' / इन्द्र .
इसरो ईश्वरो इन्द्रः at once points out to इस्र as I have deduced in my earlier blogs and no doubt,
Israel is but ईश्वरालय only. But there are deeper implications as well.
Those who have read my earlier posts and know Sanskrit well can sure get many insights here.
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Saturday, 7 September 2019

Entropy

Moonyan / मनोयान 
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Yesterday I composed and posted a few Sanskrit stanzas in this blog.
I had to check a reference from the ऋग्वेद / Rigveda  मण्डल 1, No. 163.
I had posted this here in this blog 3 or 4 years ago.
Trying to understand why a certain word पुरीष / pureeSha was used to indicate the origin of the 'Arab', so far I was not convinced about the apparent meaning of the word.
The apparent meaning is 'excreta'.
But today only when I was going through
प्रश्नोपनिषद् / prashnopaniShad 1/11 which states :
 पञ्चपादं पितरं द्वादशाकृतिं दिव आहुः परे अर्धे पुरीषिणम् । ..
I could understand this word means 'Water'.
'Water' is cognate of 'वात्रम्', which points out वायु / air and वारि / water both.
Then I was convinced, the Veda narrates 'Arab' have evolved from Ocean or Water / air,
Though this word  पुरीष / pureeSha also means 'waste', an equivalent of 'entropy' (in Physics).
--
पञ्चपादं पितरं द्वादशाकृतिं दिव आहुः परे अर्धे पुरीषिणम् । ..
deals with the Sun / आदित्य which is the foundation for the world made of 5 elements.
Who is of the 12 forms (राशि / group of celestial bodies)
Who is 'Son'; -born of  'अदिति' / 'aditi' (in contrast to 'दिति').
'दिति' / diti' is sister of  'अदिति' / 'aditi', and both the sisters are married to :
ऋषि कश्यप / Rishi Kashyapa.
And a few days ago I have posted a video where Dr. Nagaswami relates
The Caspian Sea to ऋषि कश्यप / Rishi Kashyapa.
Since from some 6 or more years I myself was pondering over if this is true.
But then, now I have no doubt whatsoever about this.
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Friday, 6 September 2019

ISRO, ORBITER,

ISRO, ORBITER,
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मूनयानः मनोयानो पृथिव्याः प्रक्षेपितः।
चन्द्रमसमनुगन्तव्यो भूयात्साफल्यं तस्मै ।।   
इसरो ईश्वरो इन्द्रः ऑर्बिटर च अवभृथः।
विक्रमं तद्यज्ञकर्म वेताल-प्रज्ञानस्तथा।।
चन्द्रमा मनसो जातः मनस्तु पृथिव्यास्तथा।
पृथिवी अर्णवाज्जाता, यथा जाता अर्वणाः*।
वैज्ञानिकाः वर्णिताः ये विज्ञानमया** इति छन्दोग्ये।
उपनिषदि पुरुषाः ते, पुरोहिताः यज्ञकर्मिणः।
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 *ऋग्वेद ,  
**छान्दोग्य उपनिषद् - गार्ग्य -अजातशत्रु संवाद,
उपरोक्त दोनों इस ब्लॉग में पहले की किसी पोस्ट में लिखा गया है।
इस्र, ईसर, के बारे में भी पिछले कुछ पोस्ट्स में विस्तार से लिखा है।  
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यह पोस्ट केवल मनोरंजन के लिए लिखी गयी है।
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Moonyan-2.0 / नई वेताल कथा

मनोयान / Moonyan?
क्या कहलाता है ये रिश्ता?
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मेरी तरह सारे भारतवासियों की साँसे थमी हुई हैं।
विक्रम से संपर्क नहीं हो पा रहा है।
"चन्द्रमा अपने अक्ष पर पृथ्वी के लगभग 27 सौर-दिवसों की अवधि में एक परिभ्रमण पूर्ण करता है।
(संभवतः / शायद / स्यात् ) इसी आधार पर पृथ्वी पर चन्द्रमा का एक माह पृथ्वी के सूर्य के चतुर्दिक् परिभ्रमण करने के समय (एक माह या लगभग 30 दिन) से 2 से 3 दिन छोटा होता है।
इसीलिए यद्यपि चन्द्रमा पृथ्वी के चतुर्दिक् परिभ्रमण करता हुआ अपने अक्ष पर भी वैसे ही घूमता है, जैसे कि स्वयं पृथ्वी भी स्वयं के अपने अक्ष पर घूमती हुई, सूर्य के चारों ओर अपनी कक्षा में एक सौर-वर्ष में (लगभग 12 माह या 365-366 दिनों में) पूरा परिभ्रमण करती  है।
वैदिक ज्योतिष के अनुसार चन्द्रमा की उत्पत्ति पृथ्वी से ही हुई है।
यह सिद्धान्त उस सिद्धान्त के समानान्तर है जिसके अनुसार मन की उत्पत्ति पृथ्वी तत्व से हुई है।
इसी प्रकार सूर्य को व्यक्त स्थूल जगत की 'आत्मा' कहा जाता है।
मनुष्य का स्थूल शरीर पृथ्वी-तत्व से बना है, सूर्य अग्नि तत्व है, अंतरिक्ष आकाशतत्व है।
श्वास वायुतत्व है, मन जलतत्व है।"
मनोयान विक्रम को लेकर चन्द्रमा पर पहुँचता है,
विक्रम के कंधे पर स्थित वेताल (प्रज्ञान) विक्रम को उपरोक्त कथा सुनाता है और पूछता है:
"राजन् !
क्या यह मनुष्य का दुस्साहस है, या जिज्ञासा कि वह चन्द्र (मन) के अन्धकार में छिपे हिस्से (अचेतन मन) के बारे में जानने के लिए उत्सुक है? क्या यह संयोग है कि स्त्रियों के रजोधर्म का काल एक चाँद्र-मास अर्थात् लगभग 27 दिनों का होता है? क्या भ-चक्र (Zodiac / द्यु-दिक्त) का 27 नक्षत्रों में विभाजन इसी आधार पर नहीं है? क्या इसीलिए शबरीमालै के अय्यप्पा या शिंगणापुर के शनि-मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश का निषेध है? शनि स्वयं भगवान् सूर्य की छाया से उत्पन्न संतान है, और छाया संज्ञा की सौत, क्या अय्यप्पा; - स्कन्द अर्थात् 'कुमार', अर्थात् मंगल नहीं हैं ? क्या पृथ्वी स्वयं लक्ष्मी नहीं है, जिसकी उत्पत्ति समुद्र से हुई है?
क्या आध्यात्मिक और आधिदैविक दृष्टि से चन्द्रमा और मंगल पृथ्वी की  ही संतान नहीं हैं ?
क्या सुखी वैवाहिक जीवन के लिए जातक (विशेषकर स्त्री) की जन्म-कुंडली में शनि और मंगल की स्थिति को महत्त्व नहीं दिया जाता?
जानते हुए भी यदि तुमने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया तो ... तो वेताल (मैं, -प्रज्ञान) से तुम्हारा संपर्क हो या न हो, तुम्हारा पृथ्वी से संपर्क अवश्य टूट जाएगा। ... "
विक्रम का संपर्क पृथ्वी से हो या न हो, वैज्ञानिकों को निराश होने की आवश्यकता नहीं है।
सफलता / असफलता भी एक सोपान है।
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान, 
रसरी आवत जात है, सिल पर पड़त निसान। --
चलते-चलते :
मैंने कल ही अपने एक ब्लॉग का नाम बदलकर 'प्रशस्त-समग्र' किया और आज ही एक अन्य ब्लॉग का नाम बदलकर 'मनोयान' कर दिया !
पिछली रात मेरे लिए एक और विशेष घटना यह भी हुई कि इस ब्लॉग के views का आँकड़ा 200,000 को पार कर गया।
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Wednesday, 4 September 2019

My New Blog.

प्रशस्त-समग्र / prashastasamagra
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I've been writing posts in blogs here.
Now I feel I need another blog to write my next posts.
If you are looking for my next posts in this blog, please check here : 
prashastasamagra.blogspot.com 
--    

Monday, 2 September 2019

कवीनाम् उशना कविः

छन्दांसि यत्र पर्णानि  
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कठोलिक आचार्य चूँकि उशना (शुक्राचार्य) की परंपरा के थे, इसलिए यह बिलकुल स्वाभाविक था कि वे कभी-कभी काव्य की रूपकात्मक शैली में उपदेश देते।  जिसका गूढ अभिप्राय बहुत ध्यान से सुनने पर ही समझा जा सकता था।  इस प्रकार एक ओर वे काव्याभिव्यक्ति कर रहे होते तो दूसरी ओर आचार्य के रूप में गुरु होने का उत्तरदायित्व भी वहन करते होते।
उस शैली में दिए गए उनके वचनों के सौंदर्य का आस्वाद रसिक सामान्य जन केवल ऊपरी तौर पर ही ले पाते थे। इस प्रकार उपदेश का गूढ़ तात्पर्य केवल कोई पात्र व्यक्ति ही समझ पाता था।
ऐसे ही एक समय हातिम ताई (जिसका लोक में प्रचलित नाम 'आदम' था,) ने उन्हें कहते सुना :
"(विवेकरहित मनुष्य के जीवन में), लोभ के वृक्ष में आशाओं के पुष्प पुष्पित होते हैं, वृत्तियों के पल्लव नित नए पल्लवित होते रहते हैं, और आशंकाओं के कच्चे-पक्के फल भी इसी प्रकार निरंतर फलित होते रहते है।  इस वृक्ष की सुगंध से आकर्षित होकर भयरूपी विषधारी सर्प इससे लिपटे रहते हैं। चन्दन के वृक्ष में फल-फूल तो नहीं, किन्तु शीतलता अवश्य होती है, और वे उस शीतलता के सुख के लोभ से ही उसकी ओर आकर्षित होते हैं, ताकि उनमें विद्यमान गरल की ऊष्णता यत्किञ्चित शान्त हो सके। यद्यपि इससे उन्हें न तो अपने विष और न ही दंशवृत्ति से छुटकारा मिल पाता है। यह भी सच है कि इस विष और दंशवृत्ति तथा विषदन्त के होने से एक ओर तो उन्हें आहार मिलने में सरलता होती है, तो दूसरी ओर यही शत्रुओं से उनकी आत्मरक्षा का एकमात्र उपाय भी होता है, क्योंकि फुफकारने मात्र से भी यदि शत्रु सावधान न हो सके तो अन्य कोई विकल्प उनके पास होता ही कहाँ है?"
हातिम ताई को प्रतीत हुआ कि यह कोरी कविता मात्र नहीं, बल्कि आचार्य के इन शब्दों (उपदेश) में कोई गूढ़ आशय छिपा है। आचार्य प्रायः अपने वचनों में 'ह वा' शब्द का प्रयोग करते थे जो संस्कृत में 'अवश्य' के अर्थ में प्रयुक्त होता है।  वेद और उपनिषद् में यह प्रयोग प्रचुरता से पाया जाता है।  जब जब भी आचार्य इसका प्रयोग करते तो हातिम ताई को अपनी पत्नी का स्मरण होता, क्योंकि किसी संयोग से उसका 'हव-वा' नाम इससे बहुत मिलता-जुलता था। एक ओर तो वह आचार्य के शब्दों के काव्य-रस का आनंद लेता, तो दूसरी ओर मन ही मन पत्नी के बारे में सोचने लगता। किन्तु इन दोनों से अधिक वह उस उपदेश के सार पर चिन्तन करता जो आचार्य की वाणी में लक्षित और इंगित होता था।
उसने शायद ही कभी कल्पना की होगी कि आचार्य का यह रूपकात्मक आख्यान गिरीश (ग्रीस) से बाहर जाकर चतुर्दिक् फैलेगा और उसके अपने देश मिस्र, ईराक, ईरान की सीमाओं तक इसकी ख्याति होगी।  इतना ही नहीं यह किंवदंती भर न रहकर इसका उल्लेख भविष्य में धर्म की किताबों में भी होगा।
 "स्मृति ही इस वृक्ष का बीज है, जो इस प्रकार सतत प्रसारित होता है। यह बीज वृक्ष में वैसे ही व्याप्त होता है जैसे अमरबेल में उसका बीज छिपा होता है।
पहचान ही स्मृति है और स्मृति ही पहचान,
-वह चाहे स्वयं (आत्म) की हो या स्वयं से इतर (अनात्म) की।"
आचार्य ने अपने उपदेश का उपसंहार करते हुए कहा।
हातिम ताई को मानों एक आघात सा लगा किन्तु उस धक्के से उसके मन का वह प्रश्न तत्क्षण ध्वस्त और विलीन हो गया, जो उसे पिछले कई दिनों से व्याकुल कर रहा था :
"क्या दृश्य के अभाव में भी दृश्य से भिन्न और स्वतन्त्र कोई दृष्टा होता है?"
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Sunday, 1 September 2019

अवरुद्ध : अन्तरायों का निवारण

नित्य-अनित्य
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हातिम ताई के आचार्य ने उसकी परीक्षा करने के बाद ही यह तय किया कि वह विवेक-वैराग्य युक्त पात्र अधिकारी है किन्तु उसके अन्तरायों का निवारण नहीं हुआ है। क्योंकि परम्परा के अनुसार तो स्वाभाविक क्रम यही है कि नित्य-अनित्य के पर्याप्त चिंतन से विवेक जागृत होता है, और विवेक जागृत होने पर वैराग्य । विवेक-वैराग्य और वैराग्य के उदय के बाद ही चित्त के अन्तरायों का पूर्ण नाश हो पाता है।  किन्तु मनुष्य मात्र के संस्कारों के अनुसार किसी किसी में अन्तरायों के शेष रहते हुए भी विवेक तथा वैराग्य इतनी पर्याप्त मात्रा में होते हैं कि वह शास्त्र-अध्ययन से इस बाधा का निवारण करने में समर्थ हो जाता है।
व्याधि-स्त्यान-संशय-प्रमाद-आलस्य-विरति-भ्रान्ति-दर्शन-अलब्धभूमिकत्व-अनवस्थितत्वानि
चित्त-विक्षेपा:  ... ते अन्तरायाः।।
(पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद 30)
चित्त से संबंधित चित्त की इन बाधाओं को अन्तराय कहा है।
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दुःख-दौर्मनस्य-अङ्गम्-एजयत्व-श्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः।।    
(पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद 31)
--
व्याधि - disease,
स्त्यान - idleness , indolence,
संशय - doubt,
प्रमाद - negligence,
आलस्य - laziness,
विरति - lack of interest (in spiritual endeavor),
भ्रान्ति-दर्शन - delusion,
अलब्धभूमिकत्व - not having settled well in practice.
अनवस्थितत्व - instability,
इत्यादि चित्त-विक्षेप distractions of mind,
के प्रकार हैं, जिन्हें अन्तराय कहा जाता है। ये सभी आध्यात्मिक मार्ग में बाधक obstacles, होते हैं।
केवल नित्य-अनित्य के नियमित चिंतन से भी इन अन्तरायों को दूर किया जा सकता है।
आरुरुक्षो, योगारूढ  :
इस प्रकार के अभ्यास से उन संस्कारों को नियंत्रित कर लिया जाता है जिनके कारण योगाभ्यास करनेवाले को समय-समय पर इनसे बाधा होती है।
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आत्म-चिंतन :
आचार्य ने इसीलिए उसे केवल इसी का अभ्यास करने का निर्देश दिया।
उसके लिए इतना ही आवश्यक और पर्याप्त था।  
वैसे भी कठोलिक आचार्य न तो हठयोग आदि की शिक्षा देते थे, न भक्तिमार्ग की धारा का आग्रह करते थे।
एक दृष्टि से उन्हें कपिल-मुनि के साङ्ख्य-दर्शन का अनुयायी कहा जा सकता है।
किन्तु जैसा गीता में कहा है :
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्या स्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।। 4
(अध्याय 5)
इसलिए ईश्वर के (अस्तित्व के) बारे में वे मौन ही रहते थे।
ईश्वर और ईशिता परस्पर अभिन्न है। इसलिए साङ्ख्य-दर्शन ईश्वर (के स्वरूप) और उसके कार्य (ईशिता) में भेद नहीं देखता।
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नित्य-अनित्य का चिंतन करते हुए हातिम ताई इस निश्चय पर पहुँचा कि 'मैं' नित्य है जबकि शेष सब दृश्य प्रतीतियाँ 'अनित्य' हैं। किन्तु क्या दृश्य के अभाव में भी 'मैं' नामक 'दृष्टा' का स्वतंत्र अस्तित्व है?
इस स्थिति को प्राप्त होने पर हातिम ताई का मार्ग मानों अवरुद्ध हो गया।
बहुत समय, दिनों तक वह वहीं अटका रहा।
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शमन-धर्म : शङ्कर और शक्र (इन्द्र)

'यज्' और 'यज्ञ', 'युज्' और 'योग' : शङ्कर और शक्र (इन्द्र) 
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शमन-धर्म के शान्ति-पाठ में कहा गया है कि 'शं'अर्थात् 'श' वर्णात्मक देवता हमारा मित्र है।  वही 'श'/ 'शं' हमारे लिए वरुण, अर्यमा, इन्द्र और बृहस्पति है।  वही विष्णु तथा उरुक्रम है। 
वर्ण के व्यापक स्वरूप का परिचय इस मन्त्र से स्पष्ट है।
देवता के रूप में इस वर्णाक्षर 'श' की अभिव्यक्ति सिद्धान्त तथा कार्य इन दो प्रकारों से होती है।
सिद्धान्ततः 'श' शिव अर्थात् सत्तामात्र है जो मूलतः अविकारी है किन्तु प्रकृति के सन्दर्भ में सतोगुण की तरह कार्य करता है।  इसलिए शिव शान्ति-स्वरूप है।
कार्य की दृष्टि से यही सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण से युक्त होकर सृष्टि, पुष्टि और संहार के कार्य को संपन्न करता है तो इसे क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र के नाम से जाना जाता है।
'यज्' धातु और 'युज्' धातु का कार्य वैसे तो एक ही है, किन्तु 'फल' भिन्न भिन्न रूपों में प्राप्त होता है।
शिव को शङ्कर नाम इसलिए दिया जाता है कि वे तीनों गुणों को संतुलित कर शान्ति स्थापित करते हैं।
इन्द्र को शक्र नाम इसलिए दिया जाता है क्योंकि वे शत-यज्ञों का अनुष्ठान कर चुके होते हैं।
इस प्रकार ये वैदिक देवता संसार / विश्व के सृष्टि और शासन के संचालन को सुनिश्चित करते हैं।
इन्द्र को शकर इसलिए भी कहा जाता है कि वह वरुण, मरुत और मित्र की सहायता से वर्षा का दान करता है।  सोम की सहायता से पृथ्वी को शस्य-श्यामला बनाता है।  इन्द्र इस प्रकार देवताओं का शासक होने से सभी देवता विश्व में शान्ति और सुख-समृद्धि बढ़ाने का कार्य करते हैं।
इस प्रकार का दान भी यज्ञ का ही प्रकार है। दानयज्ञ ही सभी यज्ञों का मूल है।
दान तथा यज्ञ दोनों के लिए अंग्रेज़ी भाषा में sacrifice शब्द का प्रयोग किया जाता है जो यही दर्शाता है कि इस  कार्य को 'शक्रीकृत' किया गया।  जिसका अर्थ है इन्द्र के लिए और इन्द्र के द्वारा किया गया।
इसी प्रकार का एक अंग्रेज़ी शब्द है sacrilege जो sacrifice के विपरीत अर्थ का द्योतक है।
जो इन्द्र को 'लगता' अर्थात् बाधक है। संस्कृत में 'लग्' धातु से ही हिन्दी में 'लगना' क्रियापद वैसे ही आया है, जैसे संस्कृत में 'ला' धातु से 'लाना' आया है।  विस्तार से मेरे पोस्ट 'ला आदाने' को देख सकते हैं।
इसी प्रकार 'leg', 'league', 'legal', 'legion', 'religion', 'legitimate' 'ligature' आदि शब्द 'लग्' के 'विकार' / विविध रूप हैं।
[यहाँ 'विकार' का प्रयोग 'विशिष्ट' के अर्थ में किया जा रहा है, न की 'बिगाड़' या विकृति के अर्थ में ]         
गीता के चौथे अध्याय में यज्ञ के विविध प्रकारों का वर्णन किया गया है तथा अन्त में सारतत्व के रूप में यह भी वर्णन है :
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे।।32
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संस्कृत में 'उर्वर' शब्द जिस धातु से बना है उसका प्रयोग वर्धन करने, बढ़ाने के अर्थ में होता है।
[ प्रसंगवश; - इस 'उरूरीय' से ज़रूरी का सादृश्य है ]
'शं' इसीलिए विष्णु / 'उरुक्रम' हैं क्योंकि वे सृष्टि का सतत परिपालन (उरूरीकुरुते) करते हैं।
'शं' इसीलिए रुद्र हैं क्योंकि वे इस क्रम को अवरुद्ध करते हैं अर्थात् सृष्टि का संहार / संहरण करते हैं जो विनाश नहीं, सृष्टि को उसकी पूर्वस्थिति तक ले जाने का कार्य है।
यज्य और युज्य , तथा यज्ञ और योग इस प्रकार दान के ही प्रकार हैं।
यही शमन धर्म का मूल है।
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