श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् -3
śrīdakṣiṇāmūrtistotraṃ -3,
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यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते
साक्षात् तत्त्वमसीति वेदवचसा यो बोधयत्याश्रितान् ।
यत्साक्षात्करणाद्भवेन्न पुनरावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥
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अर्थ :
जिसका स्फुरण (जो अपने होने के शुद्ध-बोधरूप में जीवमात्र को होता ही है) मूलतः सदात्मक होते हुए भी (अपने कुछ विशिष्ट होने की असत्-भावना के रूप में अहंकार के रूप में व्यक्तरूप लेने से पूर्व ही होता है), ’मैं’ की कल्पना के असत्-अर्थ से युक्त प्रतीत होता है, जो (स्फुरणरूप में इस असत् कल्पनारूपी ’मैं’ को) ’तुम साक्षात् / प्रत्यक्ष तत्व हो’ इस प्रकार के श्रुतिवचन से अपने आश्रितों (जिनकी ’मैं’-बुद्धि अपने सदात्मक स्वरूप में स्थिर हो चुकी है उन जिज्ञासुओं) को स्वरूप का बोध प्रदान करता है । जिसके दर्शन कर लिए जाने पर (अर्थात् जब यह असत्-कल्पार्थक ’मैं’-बुद्धि जो केवल विषयों को ही देखती है, उनसे विमुख होकर उस नित्य स्फुरणरूपी सदात्मक चैतन्य को देख लेती है), पुनः इस भवसमुद्र में आगमन कभी नहीं होता (अर्थात् संसार की अत्यन्त / आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है), उन मूर्तरूप परम गुरु श्रीदक्षिणामूर्ति को प्रणाम !
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श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् -3
śrīdakṣiṇāmūrtistotraṃ -3,
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yasyaiva sphuraṇaṃ sadātmakamasatkalpārthakaṃ bhāsate
sākṣāt tattvamasīti vedavacasā yo bodhayatyāśritān |
yatsākṣātkaraṇādbhavenna punarāvṛttirbhavāmbhonidhau
tasmai śrīgurumūrtaye nama idaṃ śrīdakṣiṇāmūrtaye ||
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Meaning :
One who alone is manifest as Self and is of the nature of pure Existence only, but in imagination appears as if has a name and form of 'me', 'mine' and 'I', thus giving rise to an apparent but devoid of any sense, an outward 'world' as 'mine',
One who through the words 'Thou art That' of the Veda, awakens to those (aspirants / devotees though merged into the ignorance of the sense : 'I am so and so' and are caught into the sense of the world and 'oneself' as real entities distinct from each-other, having surrendered this sense to Him, have come to Him in anticipation of the freedom from this sense), who have taken shelter in Him,
One, when the aspirant has a vision of That, Who alone, as pure essence gives this wisdom and awakens such aspirants / devotees (as described above), thus dissolving their false 'I-sense' and merging the same for ever into the Self, Thus rescuing them from the ocean of misery that is the world, and then for them this world never appears again,
Obeisance to That Supreme Guru श्रीदक्षिणामूर्ति / śrīdakṣiṇāmūrti. Who is ever so manifest before us.
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śrīdakṣiṇāmūrtistotraṃ -3,
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यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते
साक्षात् तत्त्वमसीति वेदवचसा यो बोधयत्याश्रितान् ।
यत्साक्षात्करणाद्भवेन्न पुनरावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥
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अर्थ :
जिसका स्फुरण (जो अपने होने के शुद्ध-बोधरूप में जीवमात्र को होता ही है) मूलतः सदात्मक होते हुए भी (अपने कुछ विशिष्ट होने की असत्-भावना के रूप में अहंकार के रूप में व्यक्तरूप लेने से पूर्व ही होता है), ’मैं’ की कल्पना के असत्-अर्थ से युक्त प्रतीत होता है, जो (स्फुरणरूप में इस असत् कल्पनारूपी ’मैं’ को) ’तुम साक्षात् / प्रत्यक्ष तत्व हो’ इस प्रकार के श्रुतिवचन से अपने आश्रितों (जिनकी ’मैं’-बुद्धि अपने सदात्मक स्वरूप में स्थिर हो चुकी है उन जिज्ञासुओं) को स्वरूप का बोध प्रदान करता है । जिसके दर्शन कर लिए जाने पर (अर्थात् जब यह असत्-कल्पार्थक ’मैं’-बुद्धि जो केवल विषयों को ही देखती है, उनसे विमुख होकर उस नित्य स्फुरणरूपी सदात्मक चैतन्य को देख लेती है), पुनः इस भवसमुद्र में आगमन कभी नहीं होता (अर्थात् संसार की अत्यन्त / आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है), उन मूर्तरूप परम गुरु श्रीदक्षिणामूर्ति को प्रणाम !
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श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् -3
śrīdakṣiṇāmūrtistotraṃ -3,
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yasyaiva sphuraṇaṃ sadātmakamasatkalpārthakaṃ bhāsate
sākṣāt tattvamasīti vedavacasā yo bodhayatyāśritān |
yatsākṣātkaraṇādbhavenna punarāvṛttirbhavāmbhonidhau
tasmai śrīgurumūrtaye nama idaṃ śrīdakṣiṇāmūrtaye ||
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Meaning :
One who alone is manifest as Self and is of the nature of pure Existence only, but in imagination appears as if has a name and form of 'me', 'mine' and 'I', thus giving rise to an apparent but devoid of any sense, an outward 'world' as 'mine',
One who through the words 'Thou art That' of the Veda, awakens to those (aspirants / devotees though merged into the ignorance of the sense : 'I am so and so' and are caught into the sense of the world and 'oneself' as real entities distinct from each-other, having surrendered this sense to Him, have come to Him in anticipation of the freedom from this sense), who have taken shelter in Him,
One, when the aspirant has a vision of That, Who alone, as pure essence gives this wisdom and awakens such aspirants / devotees (as described above), thus dissolving their false 'I-sense' and merging the same for ever into the Self, Thus rescuing them from the ocean of misery that is the world, and then for them this world never appears again,
Obeisance to That Supreme Guru श्रीदक्षिणामूर्ति / śrīdakṣiṇāmūrti. Who is ever so manifest before us.
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