Sunday, 10 September 2017

आत्माऽयम्

आत्माऽयम्
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"अपरिग्रहं निरहं भावं..."
वदतु कोऽपि :
कस्य वा कस्मै?
निरहं-भावे न तु कर्ता, न ध्येयं विद्येते ।
न चापि लोको,
न परो-अपरो च ।
आत्मा तु स्वरूपेण हि अविकारी ।
का वार्ता अस्य संशोधन-यत्ने?
आत्मा तु वेदितव्यः,
न तु परिमार्जितव्यः,
वरञ्च परिमार्गितव्यः,
यथा हि निर्दिष्टे शास्त्रेण,
श्रोतव्यः, मन्तव्यः, निदिध्यासितव्यः,
आत्माऽयम् ।
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(विगत 11 सितंबर 2016 को लिखी संस्कृत रचना किञ्चित रूपान्तरित पुनर्प्रस्तुत)

अर्थ 
यह आत्मा
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’अपरिग्रह है निरहंता ..."
किसी ने कहा ।
किसकी? किसके लिए?
निरहंता में न तो कर्ता / कर्तृत्व होता है,
न ही ध्येय ,
न तो कोई संसार और लोक,
न परलोक अथवा यह ।
आत्मा तो स्वरूप से ही अविकारी है ।
इसमें किसी रूपांतरण के यत्न की,
बात ही कहाँ हो सकती है?
आत्मा को तो जान लिया जाना होता है,
उसे बनाना, सुधारना नहीं होता ।
बल्कि बस यत्नपूर्वक समझ लिया जाना होता है ।
इसे तो सुना जाना,
इस पर मनन किया जाना,
इसमें निदि-ध्यासन करना होता है ।
... ऐसी है यह आत्मा ।
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