विचारों का प्रभाव जीवन पर पड़ता है,
या जीवन का प्रभाव विचारों पर?
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यहाँ यह देखना ज़रूरी है कि ’जीवन’ का क्या तात्पर्य ग्रहण किया जा रहा है?
एक ’जीवन’ तो वह है जिसे हम जी रहे हैं । हम अर्थात् ’शरीर’ के माध्यम से शरीर का स्वामी । दूसरा ’जीवन’ वह है जिसे इस शरीर के साथ-साथ असंख्य जीव जी रहे हैं । इनमें से कितने ’विचार’ की सुविधा का उपभोग करते हैं ? क्या मनुष्य के अलावा किसी और को ’विचार’ की सुविधा उपलब्ध है? ज़ाहिर है कि शायद मनुष्य ही विचार-संपन्न है जबकि शेष विश्व के जीव शायद इससे नितान्त वंचित हैं ।
किंतु मनुष्य ही क्यों? क्योंकि विचार का आधार है ’भाषा’ जिसमें कुछ ’ध्वनियों’ और ध्वनियों के समूह जिसे शब्द कहा जाता है, और ऐसे शब्दों का समूह, जिसे ’वाक्य’ कहा जाता है, होते हैं । इन ’वाक्यों’ / शब्दों का या तो कोई प्रयोजन और अर्थ होता है या कोई भाव । ये किसी अर्थ या प्रयोजन को इंगित करते हैं या किसी भाव / भावना को ।
’विचार’ का औचित्य यहीं तक सीमित है । और ’विचार’ केवल किसी नए अथवा पुराने विचार को ही अस्तित्व प्रदान करता है । यदि उसका व्यावहारिक अर्थ या प्रयोजन न हो तो वह केवल भूल-भुलैया है । और व्यावहारिक अर्थ या प्रयोजन केवल संकेत से भी संप्रेषित हो / किया जा सकता है । इस रूप में निश्चित ही मनुष्य अन्य जीवों की तुलना में शायद एक बहुत दरिद्र प्राणी है, जिसकी कोई ऐसी इतनी विकसित ’संकेत-भाषा’ नहीं है जैसी कि बहुत से अन्य जीवों की है ।
तो प्रश्न यह है कि क्या विचार सचमुच ’जीवन’ को, इस पूरे वृहत्तर ’जीवन’ को प्रभावित करता है, या केवल मनुष्य और उसके समाज के जीवन को? और क्या सचमुच यह जीवन ही विचारों (विचार) का मूल आधार नहीं है?
मनुष्य ने जिस विचार का आविष्कार किया वह बुद्धि तो है, किंतु ज्ञान भी है ऐसा कहना शायद सही नहीं है क्योंकि विचार में उलझी इस बुद्धि ने मनुष्य की स्वाभाविक समझ को कुंठित और संकुचित कर दिया है । इसने मनुष्य की कट्टरता को समाप्त करने के बजाय उसे अधिक कट्टर और पाखंडी ही बनाया है, उसमें ज्ञान तो नहीं ज्ञान का दंभ ज़रूर पैदा किया है ।
’धर्म’ के वेश में यह कट्टरता मनुष्य के अपने लिए महाविनाश का कारण बन गई है ।
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या जीवन का प्रभाव विचारों पर?
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यहाँ यह देखना ज़रूरी है कि ’जीवन’ का क्या तात्पर्य ग्रहण किया जा रहा है?
एक ’जीवन’ तो वह है जिसे हम जी रहे हैं । हम अर्थात् ’शरीर’ के माध्यम से शरीर का स्वामी । दूसरा ’जीवन’ वह है जिसे इस शरीर के साथ-साथ असंख्य जीव जी रहे हैं । इनमें से कितने ’विचार’ की सुविधा का उपभोग करते हैं ? क्या मनुष्य के अलावा किसी और को ’विचार’ की सुविधा उपलब्ध है? ज़ाहिर है कि शायद मनुष्य ही विचार-संपन्न है जबकि शेष विश्व के जीव शायद इससे नितान्त वंचित हैं ।
किंतु मनुष्य ही क्यों? क्योंकि विचार का आधार है ’भाषा’ जिसमें कुछ ’ध्वनियों’ और ध्वनियों के समूह जिसे शब्द कहा जाता है, और ऐसे शब्दों का समूह, जिसे ’वाक्य’ कहा जाता है, होते हैं । इन ’वाक्यों’ / शब्दों का या तो कोई प्रयोजन और अर्थ होता है या कोई भाव । ये किसी अर्थ या प्रयोजन को इंगित करते हैं या किसी भाव / भावना को ।
’विचार’ का औचित्य यहीं तक सीमित है । और ’विचार’ केवल किसी नए अथवा पुराने विचार को ही अस्तित्व प्रदान करता है । यदि उसका व्यावहारिक अर्थ या प्रयोजन न हो तो वह केवल भूल-भुलैया है । और व्यावहारिक अर्थ या प्रयोजन केवल संकेत से भी संप्रेषित हो / किया जा सकता है । इस रूप में निश्चित ही मनुष्य अन्य जीवों की तुलना में शायद एक बहुत दरिद्र प्राणी है, जिसकी कोई ऐसी इतनी विकसित ’संकेत-भाषा’ नहीं है जैसी कि बहुत से अन्य जीवों की है ।
तो प्रश्न यह है कि क्या विचार सचमुच ’जीवन’ को, इस पूरे वृहत्तर ’जीवन’ को प्रभावित करता है, या केवल मनुष्य और उसके समाज के जीवन को? और क्या सचमुच यह जीवन ही विचारों (विचार) का मूल आधार नहीं है?
मनुष्य ने जिस विचार का आविष्कार किया वह बुद्धि तो है, किंतु ज्ञान भी है ऐसा कहना शायद सही नहीं है क्योंकि विचार में उलझी इस बुद्धि ने मनुष्य की स्वाभाविक समझ को कुंठित और संकुचित कर दिया है । इसने मनुष्य की कट्टरता को समाप्त करने के बजाय उसे अधिक कट्टर और पाखंडी ही बनाया है, उसमें ज्ञान तो नहीं ज्ञान का दंभ ज़रूर पैदा किया है ।
’धर्म’ के वेश में यह कट्टरता मनुष्य के अपने लिए महाविनाश का कारण बन गई है ।
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