ज्ञान की प्राप्ति स्वतः क्यों नहीं हो जाती?
क्या बिना किसी 'माध्यम' के मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है?
श्रीमद्भग्वद्गीता :
अध्याय 3 श्लोक 38,
अध्याय 5 श्लोक 15,
अध्याय 7 श्लोक 27,
में अज्ञान का निवारण होने के बाद ज्ञान कैसे प्रस्फुटित और स्पष्ट होता है इसे कहा गया है ।
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जीवन स्वयं ही हमें शिक्षा देता है या तो हम बिना किसी माध्यम को बीच में लाए जीवन का अवलोकन करें या जीवन से गुज़रते हुए ’अनुभवों’ का परीक्षण करते हुए उनकी अनित्यता को समझ सकें । यदि हम ’मन’ के ’माध्यम’ को भी बीच में नहीं लाते हैं तो ज्ञान का आविष्कार अपेक्षतया सरल है । किंतु यह ’मन’ और इसे ’अपना’ कहनेवाला विचार इतने गड्ड-मड्ड हैं कि ’मन’ के अभाव में जीवन क्या है, इस प्रश्न पर ध्यान तक नहीं जा पाता । विचार रूपी ’मन’ ही स्वयं ’मन’ नामक चेतना को आवरित कर स्वयं को सतत भ्रमित करता रहता है और इसे समझने के लिए बहुत धैर्य और शान्ति तथा गहरी रुचि होना ज़रूरी है । चेतना विचार के अभाव में भी अबाध और अखंडित स्वरूप से सक्रिय होती है और विचार के आगमन से आच्छन्न होकर विचारकर्ता के भ्रम के उत्पन्न होने के लिए आधार बन जाती है । चेतना की इस भूमि पर टिका हुआ विचार और आभासी विचारकर्ता आते-जाते रहते हैं जबकि चेतना आने-जानेवाली वस्तु नहीं । चेतना में विचार को जाना जाता है और विचारों का एक केन्द्र होने की कल्पना उठती है । इस केन्द्र को भूलवश / प्रमादवश, विचारों से स्वतंत्र उनका नियामक और सृजनकर्ता मान लिया जाता है । यह द्वन्द्व एक दुष्चक्र है जिसे तोड़ने के लिए यह ज़रूरी है कि उनसे निर्लिप्त, उदासीन रहा जए । जब तक किसी विचार से मोहित और इसलिए उसमें लिप्त होना बना रहता है, यह दुष्चक्र जारी रहता है । किंतु धैर्यपूर्वक विचार की अस्थिर गतिविधि का अवलोकन किया जाए तो चेतनारूपी उसकी पृष्ठभूमि सदा स्थिर और अचल है यह स्पष्ट हो जाता है । दूसरी ओर जो इसमें समर्थ नहीं होता और ’संसार’ में सुख प्राप्त करते रहना और कष्टों से दूर रहना चाहता है उसे जीवन स्वयं ही अनुभवों के माध्यम से सिखाता है कि ’संसार दुःख स्वरूप है’ और इसमें सुख की प्राप्ति होगी यह सोचना दिवास्वप्न या मृग-मरीचिका मात्र है । यह स्थिति सामान्यतः तब आती है जब बहुत ठोकरें खाने के बाद मनुष्य ’संसार दुःख स्वरूप है’ इस नतीज़े पर पहुँच पाता है । इससे पहले तक उसे संसार से बहुत आशा-अपेक्षाएँ होती हैं । इसलिए किन्हीं शास्त्रों या गुरुओं को बिना बीच में लाए भी ज्ञान स्वतः अवश्य प्राप्त हो सकता है, बशर्ते यह ’मन’ नामक माध्यम भी हमारे और जीवन के बीच में न हो, या हो भी तो इतना शुद्ध और निर्मल हो मानों शीशे की दीवार हो ।
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यदि ज्ञान सत्य है तो सतह पर भी क्यों नहीं पाया जा सकता, गहराई में जाना क्यों ज़रूरी है?
वास्तव में तो प्राप्त हुए सतही अज्ञान का निवारण करना है और यदि बिना गहराई में उतरे हो जाता है तो वेद या किसी शास्त्र की ज़रूरत ही कहाँ है? किंतु यदि सतह पर ऐसा नहीं हो रहा तो गहराई में जाने से शायद हो जाए? या फिर इस सब में दिलचस्पी ही न हो...!
बूँद को डर लग रहा था सागर से,
क्या मैं खो जाऊँगी, मिट जाऊँगी?
फिर हिम्मत कर वह सागर में उतरी,
लहर लहर लहराती फिर छलकी,
उसने खुद को पाया देखा फिर वहीं,
हाँ वह बूँद अभी थी पहले जैसी ही,
तब जाकर कहीं उसे यह पता चला,
वह पानी ही थी सागर भी पानी है,
दूर हो गया डर वहम उसका सारा,
क्या थी वही बूँद जो पहले उतरी थी?
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क्या बिना किसी 'माध्यम' के मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है?
श्रीमद्भग्वद्गीता :
अध्याय 3 श्लोक 38,
अध्याय 5 श्लोक 15,
अध्याय 7 श्लोक 27,
में अज्ञान का निवारण होने के बाद ज्ञान कैसे प्रस्फुटित और स्पष्ट होता है इसे कहा गया है ।
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जीवन स्वयं ही हमें शिक्षा देता है या तो हम बिना किसी माध्यम को बीच में लाए जीवन का अवलोकन करें या जीवन से गुज़रते हुए ’अनुभवों’ का परीक्षण करते हुए उनकी अनित्यता को समझ सकें । यदि हम ’मन’ के ’माध्यम’ को भी बीच में नहीं लाते हैं तो ज्ञान का आविष्कार अपेक्षतया सरल है । किंतु यह ’मन’ और इसे ’अपना’ कहनेवाला विचार इतने गड्ड-मड्ड हैं कि ’मन’ के अभाव में जीवन क्या है, इस प्रश्न पर ध्यान तक नहीं जा पाता । विचार रूपी ’मन’ ही स्वयं ’मन’ नामक चेतना को आवरित कर स्वयं को सतत भ्रमित करता रहता है और इसे समझने के लिए बहुत धैर्य और शान्ति तथा गहरी रुचि होना ज़रूरी है । चेतना विचार के अभाव में भी अबाध और अखंडित स्वरूप से सक्रिय होती है और विचार के आगमन से आच्छन्न होकर विचारकर्ता के भ्रम के उत्पन्न होने के लिए आधार बन जाती है । चेतना की इस भूमि पर टिका हुआ विचार और आभासी विचारकर्ता आते-जाते रहते हैं जबकि चेतना आने-जानेवाली वस्तु नहीं । चेतना में विचार को जाना जाता है और विचारों का एक केन्द्र होने की कल्पना उठती है । इस केन्द्र को भूलवश / प्रमादवश, विचारों से स्वतंत्र उनका नियामक और सृजनकर्ता मान लिया जाता है । यह द्वन्द्व एक दुष्चक्र है जिसे तोड़ने के लिए यह ज़रूरी है कि उनसे निर्लिप्त, उदासीन रहा जए । जब तक किसी विचार से मोहित और इसलिए उसमें लिप्त होना बना रहता है, यह दुष्चक्र जारी रहता है । किंतु धैर्यपूर्वक विचार की अस्थिर गतिविधि का अवलोकन किया जाए तो चेतनारूपी उसकी पृष्ठभूमि सदा स्थिर और अचल है यह स्पष्ट हो जाता है । दूसरी ओर जो इसमें समर्थ नहीं होता और ’संसार’ में सुख प्राप्त करते रहना और कष्टों से दूर रहना चाहता है उसे जीवन स्वयं ही अनुभवों के माध्यम से सिखाता है कि ’संसार दुःख स्वरूप है’ और इसमें सुख की प्राप्ति होगी यह सोचना दिवास्वप्न या मृग-मरीचिका मात्र है । यह स्थिति सामान्यतः तब आती है जब बहुत ठोकरें खाने के बाद मनुष्य ’संसार दुःख स्वरूप है’ इस नतीज़े पर पहुँच पाता है । इससे पहले तक उसे संसार से बहुत आशा-अपेक्षाएँ होती हैं । इसलिए किन्हीं शास्त्रों या गुरुओं को बिना बीच में लाए भी ज्ञान स्वतः अवश्य प्राप्त हो सकता है, बशर्ते यह ’मन’ नामक माध्यम भी हमारे और जीवन के बीच में न हो, या हो भी तो इतना शुद्ध और निर्मल हो मानों शीशे की दीवार हो ।
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यदि ज्ञान सत्य है तो सतह पर भी क्यों नहीं पाया जा सकता, गहराई में जाना क्यों ज़रूरी है?
वास्तव में तो प्राप्त हुए सतही अज्ञान का निवारण करना है और यदि बिना गहराई में उतरे हो जाता है तो वेद या किसी शास्त्र की ज़रूरत ही कहाँ है? किंतु यदि सतह पर ऐसा नहीं हो रहा तो गहराई में जाने से शायद हो जाए? या फिर इस सब में दिलचस्पी ही न हो...!
बूँद को डर लग रहा था सागर से,
क्या मैं खो जाऊँगी, मिट जाऊँगी?
फिर हिम्मत कर वह सागर में उतरी,
लहर लहर लहराती फिर छलकी,
उसने खुद को पाया देखा फिर वहीं,
हाँ वह बूँद अभी थी पहले जैसी ही,
तब जाकर कहीं उसे यह पता चला,
वह पानी ही थी सागर भी पानी है,
दूर हो गया डर वहम उसका सारा,
क्या थी वही बूँद जो पहले उतरी थी?
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